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प्रास्ताविक
है। काननद्वीप आदि को जलपत्तन एवं मथुरा आदि को स्थलपत्तन कहा गया है । भरुकच्छ, ताम्रलिप्ती आदि द्रोणमुख अर्थात् जल और स्थल के आवागमन के केन्द्र हैं । प्रस्तुत विवरण निवृत्तिकुलीन शीलाचार्य ने गुप्त संवत् ७७२ की भाद्रपद शुक्ला पंचमी के दिन वाहरिसाधु को सहायता से गंभूता में पूर्ण किया । विवरण का ग्रंथमान १२००० श्लोकप्रमाण है । सूत्रकृतांगविवरण :
यह विवरण सूत्रकृतांग के मूलपाठ एवं उसकी नियुक्ति पर है। विवरण सुबोध है । दार्शनिक दृष्टि की प्रमुखता होते हुए भी विवेचन में क्लिष्टता नहीं आने पाई है । यत्र-तत्र पाठान्तर भी उद्धृत किये गये हैं। विवरण में अनेक श्लोक एवं गाथाएँ उद्धृत की गई हैं किन्तु कहीं पर भी किसी ग्रथ अथवा ग्रंथकार के नाम का कोई उल्लेख नहीं है। प्रस्तुत टीका का ग्रंथमान १२८५० श्लोकप्रमाण है । यह टीका भी शीलाचार्य ने वाहरिगणि की सहायता से पूरी की है। वादिवेताल शान्तिसूरिकृत उत्तराध्ययन टोका :
वादिवेताल शान्तिसूरि का जन्म राधनपुर के पास उण-उन्नतायु नामक गांव में हुआ था। इनका बाल्यावस्था का नाम भीम था। इन्होंने थारापद्रगच्छीय विजयसिंहसूरि से दीक्षा ग्रहण की थी। पाटन के भीमराज की सभा में ये कवीन्द्र तथा वादिचक्रवर्ती के रूप में प्रसिद्ध थे। कवि धनपाल के अनुरोध पर शान्तिसूरि मालव प्रदेश में भी पहुँचे थे तथा भोजराज की सभा के ८४ वादियों को पराजित कर ८४ लाख रुपये प्राप्त किये थे। अपनी सभा के पडितों के लिए शान्तिसूरि को वेताल के समान समझ राजा भोज ने उन्हें वादिवेताल की पदवी प्रदान की थी। इन्होंने महाकवि धनपाल की तिलकमंजरी का भी संशोधन किया था। शान्तिसूरि अपने अन्तिम दिनों में गिरनार में रहे एवं वहाँ २५ दिन का अनशन अर्थात् संथारा किया तथा वि० सं० १०९६ की ज्येष्ठ शुक्ला नवमी को स्वर्गवासी हुए। वादिवेताल शान्तिसूरि ने उत्तराध्ययनटीका के अतिरिक्त कवि धनपाल की तिलकमंजरी पर भी एक टिप्पणी लिखा है। जीवविचारप्रकरण और चैत्यवंदन-महाभाष्य भी इन्हीं की कृतियाँ मानी जाती हैं।
वादिवेताल शान्तिसूरिकृत उत्तराध्ययन-टीका शिष्यहितावृत्ति कहलाती है । यह पाइअ-टीका के नाम से भी प्रसिद्ध है क्योंकि इसमें प्राकृत कथानकों एवं उद्धरणों की प्रचुरता है। टोका भाषा, शैली आदि सभी दृष्टियों से सफल है। इसमें मूल-सूत्र एवं नियुक्ति का व्याख्यान है। बीच-बीच में यत्र-तत्र भाष्य
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