________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
दृष्टि से मलयगिरिसूरि आगमिक टीकाकारों में सबसे आगे हैं। इनकी पाण्डित्यपूर्ण टीकाओं की विद्वत्समाज में बड़ी प्रतिष्ठा है ।
४४
नन्दीवृत्ति :
यह वृत्ति नन्दी के मूल सूत्रों पर है । इसमें दार्शनिक वाद-विवाद की प्रचुरता है । यत्र-तत्र उदाहरणरूप संस्कृत कथानक भी दिये गये हैं । प्राकृत एवं संस्कृत उद्धरण भी उपलब्ध हैं । वृत्ति के अन्त में आचार्य ने चूर्णिकार एवं आद्य टीकाकार हरिभद्र को नमस्कार किया है । वृत्ति का ग्रन्थमान ७७३२ - श्लोकप्रमाण है ।
प्रज्ञापनावृत्ति :
यह वृत्ति प्रज्ञापनासूत्र के मूल पदों पर है। विवेचन आवश्यकतानुसार कहीं संक्षिप्त है तो कहीं विस्तृत । अन्त में वृत्तिकार ने अपने पूर्ववर्ती टीकाकार आचार्य हरिभद्र को यह कहते हुए नमस्कार किया है कि टीकाकार हरिभद्र की जय हो जिन्होंने प्रज्ञापना सूत्र के विषम पदों का व्याख्यान किया है एवं जिनके विवरण से मैं भी एक छोटा-सा टीकाकार बन सका हूँ । प्रस्तुत वृत्ति का ग्रंथमान १६००० श्लोक - प्रमाण है ।
सूर्यप्रज्ञप्तिविवरण :
प्रस्तुत टीका के प्रारम्भ में आचार्य ने यह उल्लेख किया है कि भद्रबाहुसूरिकृत नियुक्ति का नाश हो जाने के कारण मैं केवल मूल सूत्र का ही व्याख्यान करूँगा । इस टीका में लोकश्री तथा उसकी टीका, स्वकृत शब्दानुशासन, जीवाभिगम चूर्ण, हरिभद्रसूरिकृत तत्त्वार्थ- टीका आदि का सोद्धरण उल्लेख है । इसका - ग्रन्थमान ९५०० श्लोक - प्रमाण है ।
ज्योतिष्करण्डकवृत्ति :
।
यह वृत्ति ज्योतिष्करण्डक प्रकीर्णक के मूलपाठ पर है । इसमें आचार्य मलयगिरि ने पादलिप्तसूरिकृत प्राकृत वृत्ति का उल्लेख करते हुए उसका एक - वाक्य भी उद्धृत किया है । यह वाक्य इस समय उपलब्ध ज्योतिष्करण्डक की - प्राकृत वृत्ति में नहीं मिलता लिखी गई जिसका मलयगिरि ने किया है । यह भी सम्भव है कि उपलब्ध प्राकृत - मलयगिरिकृत वृत्ति में उद्धृत मूलटीका का एक वाक्य इस समय उपलब्ध प्राकृतवृत्ति में मिलता है । यह भी सम्भव है कि पादलिप्तसूरिकृत वृत्ति ही मूलटीका - हो जो कि इस समय उपलब्ध है, किन्तु इसके कुछ वाक्यों का कालक्रम
सम्भवतः इस प्रस्तुत वृत्ति में
Jain Education International
सूत्र पर एक और प्राकृत वृत्ति मूलटीका के नाम से उल्लेख वृत्ति ही मूलटीका हो क्योंकि
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org