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जैन-रत्न
अतिशय अतिशय-यानी उत्कृष्टता, विशिष्ट चमत्कारी गुण । जो आत्मा ईश्वर-स्वरूप होकर पृथ्वी मण्डलपर आता है उसमें सामान्य आत्माओंकी अपेक्षा कई विशेषताएँ होती हैं। उन्हीं विशेषताओंको शास्त्रकारोंने 'अतिशय ' कहा है। तीर्थकरोंके चौतीस अतिशय होते हैं । वे इस प्रकार हैं:१-शरीर अनन्त रूपमय, सुगन्धमय, रोगरहित, प्रस्वेद (पसीना) रहित और मलरहित होता है । २-उनका रुधिर दुग्धके समान सफेद और दुर्गन्ध-हीन होता है। ३-उनके आहार तथा निहार चर्मचक्षु-गोचर नहीं होते हैं।
(यानी उनका भोजन करना और पाखाने पेशाब जाना किसीको दिखाई नहीं देता है।) ४-उनके श्वासोछासमें कमलके समान सुगंध होती है। ५-समवसरण केवल एक योजनका होता है, परन्तु उसमें कोटाकोटि मनुष्य, देव और तिर्यच विना किसी प्रकारकी वाधाके बैठ सकते हैं। ६-जहाँ वे होते हैं वहाँसे पच्चीस योजनतक यानी दो सौ कोसतक आसपासमें कहीं कोई रोग नहीं होता है और जो पहिले होता है वह भी नष्ट हो जाता है। ७-लोगोंका पारस्परिक वैरभाव नष्ट हो जाता है । ८-मरीका रोग नहीं फैलता है।
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