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जैन-रत्न
कोटमें, साधु साध्वियों के लिए स्थान छोड़कर उनके स्थानके मध्य भागमें अग्निकोणमें खड़ी रहती हैं । भुवनपति, व्यंतर
और ज्योतिष्क देवोंकी स्त्रियाँ दक्षिण दिशासे प्रविष्ट होकर नैर्ऋत्य कोणमें खड़ी होती हैं । भुवनपति, ज्योतिष्क और व्यंतर देवता पश्चिम द्वारसे प्रविष्ट होकर वायव्य कोणमें बैठते हैं । वैमानिक देवता, मनुष्य और मनुष्य-स्त्रियाँ उत्तर द्वारसे प्रविष्ट होकर ईशान दिशामें बैठते हैं। ये सब भी विमानपति देवोंकी स्त्रियोंकी भाँति ही पहिले प्रदक्षिणा देते हैं, तीर्थकर
और तीर्थको नमस्कार करते हैं और तब अपना स्थान लेते है । वहाँ पहिले आये हुए-चाहे वे महान् ऋद्धि वाले हों या अल्प ऋद्धिवाले हो-जो कोई पीछेसे आता है उसे नमस्कार करते है और पीछे से आनेवाला पहिलेसे आकर बैठे हुओंको नमस्कार करता है । प्रभुके समवसरणमें किसीको, आनेकी, कोई रोकटोक नहीं होती । वहाँपर किसी तरहकी विकथा (निंदा) नहीं होती; विरोधियोंके मनमें वहाँ वैरभाव नहीं रहता; वहाँ किसीको किसीका भय नहीं होता। दूसरे कोटमें तिर्यंच आकर बैठते हैं और तीसरे गढमें सबके वाहन रहते हैं।
५-निर्वाणकल्याणक । जब तीर्थकरोंके शरीरसे आत्महंस उडकर मोक्षमें चला जाता है, तब इन्द्रादि देव शरीरका संस्कार करनेके लिए आते हैं। अभियौगिक देव नन्दनवनमेंसे गोशीर्ष चन्दनके काष्ट लाकर पूर्व दिशामें एक गोलाकार चिता रचते हैं। अन्य देवता क्षीरसमुद्रका जल लाते हैं। उससे इन्द्र भगवानके शरीरको स्नान कराता है, गोशीर्ष चन्दनका लेप
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