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तीर्थंकर चरित-भूमिका
णके चारों दाजोंपर अद्भुत कान्तिके समूहवाला एक एक धर्मचक्र स्वर्णके कलशमें रक्खा जाता है। __ भगवान चार प्रकारके [ वैमानिक, भुवनपति, व्यंतर और ज्योतिष्क ] देवताओंसे परिवेष्टित समवसरणमें प्रवेश करनेको रवाना होते हैं । उस समय सहस्र पत्रवाले स्वर्णके नौ कमल बनाकर देवता भगवानके आगे रखते हैं। भगवान जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं, वैसे ही वैसे देवता पिछले कमल उठाकर आगे धरते जाते हैं। भगवान पूर्व द्वारसे समवसरणमें प्रविष्ट होकर चैत्य-वृक्षकी प्रदक्षिणा करते हैं और फिर तीर्थको नमस्कारकर सूर्य जैसे अंधकारको नष्ट करनेके लिए पूर्वासनपर आरूढ होता है वैसे ही मोहरूपी अंधकारको छेदनेके लिए प्रभु पूर्वाभिमुख सिंहासनपर विराजते हैं । तब व्यंतर अवशेष तीन तरफ भगवानके रत्नके तीन प्रतिबिंब बनाते हैं । यद्यपि देवता प्रभुके अंगूठे जैसा रूप बनानेकी भी शक्ति नहीं रखते हैं तथापि प्रभुके प्रतापसे उनके बनाये हुए प्रतिबिंब प्रभुके स्वरूप जैसे ही बन जाते हैं। प्रभुके मस्तकके चारों तरफ फिरता हुआ शरीरकी कान्तिका मंडल ( भामंडल ) प्रकट होता है । उसका प्रकाश इतना प्रबल होता है कि उसके सामने सूर्यका प्रकाश भी जुगनुसा मालूम होता है। प्रभुके समीप एक रत्नमय ध्वजा होती है।
विमानपतिकी स्त्रियाँ पूर्व द्वारसे प्रवेश करती हैं, तीन प्रदक्षिणा देती हैं और तीर्थकर तथा तीर्थको नमस्कारकर प्रथम
१-साधु, साधी, श्रावक और श्राविकाके समूहको तीर्थ कहते हैं।
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