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जैन-रत्न
धूम्रलता (धुआँ) उठती है । समवसरणके प्रत्येक द्वारपर चार चार रस्तोंवाली बावड़ियाँ बनाई जाती हैं। उनमें स्वर्णके कमल रहते हैं। दूसरे कोरके ईशान कोणमें प्रभुके विश्रामार्थ एक देवछंद (विश्राम-स्थान ) बनाया जाता है । अंदरके यानी प्रथम कोटके पूर्वद्वारके दोनों किनारे, स्वर्णके समान वर्णवाले, दो वैमानिक देवता द्वारपाल होकर रहते हैं । दक्षिण द्वारमें दो व्यन्तर देव द्वारपाल होते हैं । पश्चिम द्वारपर रक्तवर्णी दो ज्योतिष्क देव द्वारपाल होते हैं वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों संध्याके समय सूर्य और चंद्रमा आमने सामने आ खड़े हुए हैं। उत्तर द्वारपर कृष्ण काय भुवनपति द्वारपाल होकर रहते हैं। दूसरे कोटके चारों दर्वाजोपर, क्रमशः अभय, पास, अंकुश और मुद्गरको धारण करनेवाली; श्वेतमाणि, शोणमणि, स्वर्णमणि
और नीलमाणिके समान कान्तिवाली, पहिलेहीकी तरह चार निकायकी (चार जातिकी) जया, विजया, अजिता और अपराजिता नामकी दो दो देवियाँ प्रतिहार ( चोबदार ) बनकर खड़ी रहती हैं। और अन्तिम कोटके चारों दर्वाजोंपर तुंबरु, खट्वांगधारी, मनुष्य-मस्तक-मालाधारी और जटा मुकुटमंडित नामक चार देवता द्वारपाल होते हैं। समवसरणके मध्य भागमें व्यन्तर देव तीन कोसका ऊँचा एक चत्य-वृक्ष बनाते हैं। उस वृक्षके नीचे विविध रत्नोंकी एक पीठ रची जाती हैं । उस पीठपर अप्रतिम मणिमय एक छंदक (बैठक) रचा जाता है। छंदकके मध्यमें पाद पीठ सहित रत्नसिंहासन रचा जाता है । सिंहासनके दोनों बाजू दो यक्ष चामर लेकर खड़े होते हैं । समवसर
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