Book Title: Jain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Author(s): Sima Rani Sharma
Publisher: Piyush Bharati Bijnaur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (एक समीक्षात्मक अध्ययन) 30 जश्री ऋषभ देवाय नमः श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र चांद खेड़ी लेखिका डॉ० सीमा रानी शमा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 श्री महावीराय नमः ॥ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (एक समीक्षात्मक अध्ययन) लेखिका : डॉ. सीमा रानी शर्मा एम. ए. (संस्कृत) पी-एच. डी. बिजनौर, उ. प्र. प्रकाशक: पीयूष भारती (जैन मन्दिर के पास) बिजनौर, उ. प्र. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : पीयूष भारती, जैन मन्दिर के पास, बिजनौर, उ. प्र. प्राप्ति स्थान : प्रकाशक एवं श्रीमती मनोरमा शर्मा (बन्दुक वाले) स्टेट बैंक कॉलोनो रोड, बी-१४ नई बस्ती, बिजनौर, उ. प्र., पिन-२४६७०१ प्रथम संस्करण : वीर निर्वाण सम्वत् २५१८ सन् १९६२ ई. विक्रम सम्वत् २०४६ मूल्य : १५० रुपये मुद्रक : वैशाली प्रेस, बिजनौर, उ. प्र. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण पूज्य पिता (श्री अवधेश नारायण शर्मा) की पावन स्मृति में स्नेहमयी मां (श्रीमति मनोरमा शर्मा) कर कमलों श्रद्धा एवं विनय के साथ यह रचना प्रसून सादर समर्पित। - कु. सीमारानी शर्मा Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व अवधेश नारायण शर्मा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमत मनोरमा शर्मा Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्य मिताक्षर डॉ. रमेशचन्द जैन अध्यक्ष-संस्कृत विभाग वर्द्धमान कॉलेज, बिजनौर, उ. प्र. जैन धर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है । वर्तमान अवसर्पिणी काल में इराके प्रणेता आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव माने गये हैं। हिन्दू पुराणकारों ने उनका गौरव के साथ उल्लेख किया है । वे योगमार्ग के प्रवर्तक स्वीकार किए गए हैं। श्रीमद् भागवत में कहा गया है "भगवान ऋषभदेव ने योगियों के करने योग्य आचरण दिखलाने के लिए ही अनेक योगचर्याओं का आचरण किया, क्योंकि वह स्वयं भगवान्, मोक्ष के स्वामी एवं परम महत् थे । उनको बिना चाहे आकाश में उड़ना, मन के समान सर्वत्र गति, अन्तर्धान, परकाय प्रवेश और दूरदर्शन आदि सिद्धियाँ प्राप्त थीं, किन्तु उनको उनकी कुछ चाह नहीं थी । इस तरह भगवान् ऋषभदेव लोकपाल शिरोमणि होकर भी सब ऐश्वर्यों को तुणतुल्य त्याग कर अकेले अवधुतों की भाँति आचरण कर विचरने लगे। देखने में वह एक सिड़ी जान पड़ते थे, सिवा ज्ञानियों के मूढजन उनके प्रभाव और ऐश्वयं का अनुभव नहीं कर सकते थे । यद्यपि वे जीवन्मुक्त थे, तो भी योगियों को किस प्रकार शरीर त्याग करना चाहिये, इसकी शिक्षा देने के लिए उन्होंने अपना स्थूल शरीर त्यागने की इच्छा की। जैसे कुम्भकार का चाक घुमाकर छोड़ देने पर थोड़ी देर तक स्वयं ही घूमता रहता है, उसी प्रकार लिङ्ग शरीर त्याग देने पर भी योग माया की वासना द्वारा भगवान्, ऋषभ का स्थूल शरीर संस्कार वश भ्रमण करता हुआ कोंक, बैंक, कुटक और दक्षिण कर्नाटक देशों में यद्रच्छा पूर्वक प्राप्त हुआ । जहाँ कुटकाचल के उपवन में सीड़ियों की तरह बड़ी जटा छिटकाये नंगधडंग ऋषभदेव जी १-भागवत पुराण स्कन्ध ५ अ. ५-६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचरण करने लगे । सब वन में अकस्मात् वायु के वेग से बांस हिलने लगे । परस्पर बाँसों की रगड़ से दावानल प्रकट हुआ देखतेही देखते क्षण भर में वह दावानल सब जगह फैल गया। उसी अग्नि में ऋषभदेव का स्थूल शरीर भस्म हो गया।" भगवान ऋषभदेव की परम्परा के जैन तीर्थंकरों की सब प्रति. माये ध्यानस्थ मुद्रा में प्राप्त होती है। जैन परम्परा में योग के स्थान पर ध्यान शब्द का प्रयोग बहुलता से विया गया है । यहाँ योग शब्द मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के अर्थ में प्रयुक्त हआ है । परवर्ती साहित्य में ध्यान के अर्थ में भी योग का प्रयोग मिलता है। सिंधु घाटी की खुदाई में योगी की मूर्ति प्राप्त हुई है, इसे श्री रामप्रसाद चन्दा ने ऋषभ देव की मूर्ति होने की सम्भावना व्यक्त की थी। बिहार में पटना के पास लोहानीपूर से जो जैन मूर्ति मिली है, वह सिंधु घाटी की खुदाई में प्राप्त योगी की मूर्ति से मिलती-जुलत है । यह मूर्ति मौर्यकालीन है । ऋषभदेव के पुत्र भरत, जिनके नाम से यह देश भारतवर्ष कहा जाता है, घोर साधक थे। उनका वर्णन भी पुराणों में एक अवधूत साधक के रूप में है। अवधूत शब्द के साथ प्राचीन वाड.मय में जो भाव जुड़ा है, उसमें भोग-वासना के प्रकम्पन की दृष्टि प्रमुख है। जिसने तपोमय जीवन द्वारा एषणाओं को झकझोर दिया, वह अवधूत है । भागवत में ऋषभदेव का एक अवधूत साधक के रूप में चित्रण है ।१ जैन परम्परा में ध्यान साधना तप का एक भेद है । प्रायः प्रत्येक तप का ध्यान से सम्बन्ध है । धर्मध्यान का वर्णन तो किसी न किसी रूप में अन्य परम्पराओं में भी प्राप्त है, किन्तु शुक्लध्यान का जैसा वर्णन जैन ग्रन्थों में प्राप्त होता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। शक्ल ध्यान के विविध सोपानों का वर्णन जैनों की अपनी निजी सम्पत्ति है । अन्य स्थानों पर जहाँ सध्यान का ही वर्णन है, वहाँ जैन परम्परा की यह भी विशेषता है कि यहाँ आर्त और रौद्र नामक खोटे ध्यानों का भी सविस्तार वर्णन है । आर्त, रौद्र, धर्म २-आस्था और चिन्तन पृ० १४० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शुक्ल ध्यान, इन ध्यान के भेदों का वर्णन करते हुए तत्त्वार्थ सूत्रकार ने ‘परे भोक्ष हेतु' कहकर धर्म और शुक्ल ध्यान को मोक्ष का हेतु कहा है । इनमें शुक्ल ध्यान साक्षात् हेतु है, क्योंकि मोक्षगामी पुरुषों के जीवन प्रसङ्ग में प्राय: कहा जाता है कि अन्त में योगों का निरोध कर क्षपक श्रेणी पर अरोहण कर वे शुक्ल ध्यान से मुक्त हुए । इस प्रकार ध्यान मोक्ष की कुञ्जी है, यह जीवन का अनुभूत प्रयोग है । आज ध्यान की विविध प्रकार की पद्धतियाँ लुप्त हो गई हैं. इन्हें जाग्रत करने की पुनः आवश्यकता है। वर्तमान समय में ध्यान अथवा योग पर पाश्चात्य जगत् का भी ध्यान गया है। वहाँ योग और उसकी शैलियाँ अधिक लोकप्रिय हो रही हैं । आज के भटकते हुए मानव को यदि कोई त्राण दे सकता है, तो सद्ध्यान ही दे सकता है । इसके लिये आवश्यकता है सम्यक पुरुषार्थ की । ध्यान की लोकप्रियता को देखते हुए नित्य प्रति नई नई पुस्तके आ रही हैं । स्थानक वासी आचार्य तुलसी और उनके शिष्यों ने प्रेक्षाध्यान पर अनेक पुस्तके लिखी हैं । शोध की दृष्टि से कुछ पुस्तके प्रकाश में आई हैं, किन्तु अभी भी बहुत कुछ करना शेष है। इस दिशा में कु० डा० सीमा रानी शर्मा ने 'जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन' नामक पुस्तक लिख कर एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । यह उनका पी-एच० डी० का शोध प्रबन्ध है, जो रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली से स्वीकृत हुआ है । विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित समय में वे बड़े मनोयोग पूर्वक कार्य में संलग्न रहीं और उन्होने बड़े संतुलित ढंग से समीक्षात्मक दृष्टि अपनाते हुए अपना कार्य अच्छे रूप में सम्पन्न किया । इसकी गुणवत्ता को देखते हुए पी-एच० डी० की मौखिकी के बाह्य परीक्षक डा० करुणेश शुक्ल, अध्यक्ष संस्कृत विभाग, गोरखपुर विश्वविद्यालय ने कहा था-यदि यह ग्रन्थ प्रकाशित हो तो इसको एक प्रति मेरे पास अवश्य भिजवाना । छात्रा के श्रम और डा० शुक्ला के प्रोत्साहन को देखते हुए मेरी यह Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) भावना थी कि यह ग्रन्थ शीघ्र प्रकाशित हो । मुझे प्रसन्नता है कि मैं अपनी भावना को मूर्त रूप में देख रहा हूँ । डा० सीमा रानी शर्मा को उनको कर्त्तव्य परायणता और लेखन हेतु शुभाशीर्वाद । १/६/१९२६० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) प्राक्कथन वर्तमान युग में जहाँ विज्ञान ने भौतिक समृद्धि के नये-नये आयाम स्थापित किये हैं वहाँ मानसिक तनाव व आकुलता को भी अनजाने में ही नवजीवन दे डाला है। भौतिक सुखों से उत्पन्न मानसिक अशान्ति के निराकरण के लिए पाश्चात्य जैसे विकसित कहे जाने वाले देश भी आज भारतीय संतों एवं महात्माओं की योग एवं ध्यान की शिक्षा के लिए लालायित रहते हैं । भारतीय योग की परम्पराओं में वैदिक, बौद्ध एवं जैन धर्म प्राचीन माने जाते हैं, जिन के साहित्य में ध्यान पर विशद् रूप से प्रकाश डाला गया है। जैन धर्म एक अध्यात्म प्रधान धर्म है । इसमें जो कुछ भी वर्णन किया गया है वह आत्मा के उत्थान को लक्ष्य में रखकर ही किया गया है । प्रत्येक प्राणी सुख तो चाहता है, पर वह यह नहीं जानता कि सुख स्वालम्बन के बिना असम्भव है । परालम्बन से प्राप्त सुख तो मात्र दिखावा है, वह सुख स्थायी नहीं होता । सच्चा सुख तो कर्मो के क्षय होने पर आत्मसिद्धि के द्वारा प्राप्त होता है। आत्मसिद्धि के लिए जैन धर्म ने ही नहीं अपितु सभी आस्तिकतावादी सम्प्रदायों ने 'ध्यान' को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। 'ध्यान' शब्द की शास्त्रकारों ने अनेक व्युत्पत्तियां की हैं। तत्त्वानुशासन में कहा गया है: "ध्यायते येन तद्ध्यानं यो ध्यायति स एव वा। यत्र वा ध्यायते यदवा ध्यातिर्वा ध्यानमिष्यते ॥ (तत्त्वानुशासन६८) जिसके द्वारा ध्यान किया जाता है वह ध्यान है अथवा जो ध्यान करता है वही ध्यान है, जिसमें ध्यान किया जाता है वही ध्यान है अथवा ध्यातिका [ध्येय वस्तु में परम स्थिर बुद्धि का नाम भी] ध्यान है । तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है कि एकाग्र चिन्ता के निरोध का नाम ध्यान है । एक प्रधान को और अग्र आलम्चन को तथा मुख को कहते हैं चिन्ता नाम स्मृतिका है और निरोध उस चिन्ता का उसी एकाग्र विषय में वर्तन का नाम है । द्रव्य और पर्याय के मध्य में प्रधानता से जिसे विवक्षित किया जाये उसमें चिन्ता का जो Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) निरोध है उसे अन्यत्र न जाने देना ध्यान है । परिस्पन्द से रहित जो एकाग्र चिन्ता का निरोध है-एक अवलम्बन रूप विषय में चिन्ता का स्थिर करना है उसका नाम ध्यान है और वह निर्जरा (संचित कर्मो का आंशिक क्षय) और संवर(नये कर्म के आने के निरोध का कारण) का कारण है। ध्यान के योग और समाधि दो नाम सुप्रसिद्ध हैं। जिनसेन आचार्य के महापुराण में इनके साथ धीरोध, स्वान्त निग्रह और अंत: संलीनता को ही ध्यान के पर्यायवाची नाम बतलाये गये हैं। प्रसख्यान नाम मुख्यतः योग दर्शन का है । 'प्र' और 'सम' उपसर्ग पूर्वक ख्या' धातु से 'ल्यूट' प्रत्यय होकर इस शब्द की व्युत्पत्ति हई है । 'ख्या' धातु गणना तत्त्वज्ञान और ध्यान जैसे अर्थों में व्यवहृत होती है । यहाँ प्रसंख्यान से अभिप्राय तत्त्वज्ञान और ध्यान से है । "हरः प्रसंख्यान परोबभूव' यह कुमार सम्भव का वाक्य है। यहाँ प्रसंख्यान शब्द ध्यान और समाधि का वाचक है। तत्त्वार्थाधिगम भाष्यानुसारिणी सिद्ध सेन गणि विरचित टीका में वचन, काय और चित्त के निरोध का नाम ध्यान है।(तत्त्वार्थाधिगम भाष्य सिद्ध सेन,वृत्ति:/२०) महर्षि कपिल ने राग के विनाश को तथा निविषय मन को ध्यान कहा है । इस प्रकार ध्यान का विविध निरूपण हुआ है । ध्यान में एकाग्र चिन्ता निरोध आवश्यक है । ध्यान के अभ्यास की क्रिया का नाम भावना है । ध्यान के च्युत होने पर जो चित्त की चेष्टा होती है उसे अनुप्रेक्षा कहा जाता है । भावना और अनुप्रेक्षा से भिन्न जो मन की प्रवत्ति होती है वह चिन्ता कहलाती है। एक वस्तु में चित्त के अवस्थान रूप उस ध्यान का काल अन्तर्मुहुर्त मात्र होता है । इस प्रकार का ध्यान अल्पज्ञ जीवों के होता है। केवलियों का ध्यान योगों (मन, वचन, काय की प्रवृत्ति) के निरोध रूप है। ध्यान चार प्रकार का होता है-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान मौर शुक्लध्यान। इनमें से प्रारम्भ के दो ध्यान दुर्ध्यान हैं तथा अन्तिम दो ध्यान शुभ ध्यान हैं। जैन ग्रन्थों में इन ध्यानों का विस्तृत निरूपण प्राप्त हैं । ध्यान के समान यहाँ ध्याता और ध्येय का भी निरूपण किया गया है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध को लिखने में मुझे जिन्होंने सहयोग दिया है Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) उनकी मैं हृदय से आभारी हैं । सर्वप्रथम मैं अपने निर्देशक डा० रमेश चन्द्र जैन की आभारी हूँ जिनके कुशल निर्देशन, प्रेरणा एवं सहयोग से मैं ये शोध प्रबन्ध यथासमय पूरा कर पायी हूँ। मैं अपनी मम्मी (श्रीमती मनोरमा शर्मा) एवं मामा श्री शिव अवतार शर्मा की भी अत्यन्त ऋणी हैं जिन्होंने अपने स्नेह एवं आशीर्वाद से मुझे सदा प्रोत्साहित किया है और सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा अन्त में मैं उन महानुभवों के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करती हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से मुझे प्रस्तुत शोध प्रबन्ध पूर्ण करने में सहयोग दिया है। सीमा रानी शर्मा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) विषयानुक्रमणिका प्रथम परिच्छेद : भारतीय परम्परा में ध्यान ध्यान की पद्धति का मूल स्रोत एवम् विकास १-५ विदकालीन ध्यान परम्परा ५, उपनिषदों में ध्यान ६-६, रामायण एवं महाभारत में ध्यान - ११, श्रीमद् भगवद् गीता में ध्यान ११-१५, स्मृति ग्रन्थों में ध्यान १५-१७, पुराणों में ध्यान १७ - २१, योगवाशिष्ठ में ध्यान २१-२२, हठयोग २२ - २४, नाश्रयोग २५-२८, शैवागम एवं ध्यान २८-३०, पातञ्जल योग दर्शन में ध्यान ३०-३३, अद्वैत वेदान्त में ध्यान ३३-३५, बौद्ध धर्म में ध्यान ३५-३७ । द्वितीय परिच्छेद : ध्यान का प्ररूपक जैन साहित्य मूलाचार ३६, भगवती आराधना ३६-४०, स्थानाङ्ग सूत्र ४०, औपपातिक सूत्र ४०, ध्यान शतक ४० - ४१, तत्त्वार्थ सूत्र ४१-४२, मोक्षपाहुड़ ४२, समाधि तन्त्र ४२, इष्टोपदेश ४३ पंचास्तिकाय ४३, समयसार ४३, परमात्म प्रकाश ४३-४४, योगसार ४४, आत्मानुशासन ४४, तत्त्वानुशासन - ध्यान शास्त्र ४५, योगसार प्राभृत ४५, हरिभद्र का योग विषयक साहित्य ४५ - ४६, योगबिन्दु ४६-४७, योगदृष्टि समुच्चय ४७, योगशतक ४७-४८, योगविशिका ४८, षोडशक ४८–४६, ज्ञानसार ४६, पाहुडदोहा ४६, ज्ञानार्णव ४६ - ५० अध्यात्म रहस्य ५०, योगशास्त्र ५०, अध्यात्म सार ५१, योगप्रदीप ५१, योगसार ५१, यशोविजय कृत ग्रन्थ ५१-५२, योगसार बत्तीसी ५२, ध्यान दीपिका ५२, ध्यान विचार ५२, अध्यात्म तत्त्वालोकः ५२, आदिपुराण ५२ - ५३. हरिवंशपुराण ५३ । तृतीय परिच्छेद : जैन परम्परा में ध्यान ध्यान का महत्त्व ५४-५५, ध्यान का अर्थ ५५-५८, ध्यान का पर्याय ५८, समाधि ५८- ६०, योग ६०-६१, ध्यान के अंग ६१. ध्याता ६१, ध्येय ६१-६२, ध्यान ६२, ध्यान की सामग्री ६२-६३, परीषहों का ध्यान ६३, परीषहों के भेद ६४-७१, कषायों का त्यागी ७१ - ७२, व्रत धारण ७२-७३, अहिंसा महाग्रत ७३-७४, Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा महानत की पाँच भावनाये ७४-७५, सत्य महाव्रत ७५-७६, सत्य महाव्रत की पाँच भावनाये ७६-७७, अचौर्य महाव्रत ७६, अचौर्य महावत की पाँच भावनाये ७८-८०, ब्रह्मचर्य महाव्रत ८०, ब्रह्मचर्य महाव्रत को पाँच भावनाये ८०-८१, अपरिग्रह महाव्रत ८१-८२, अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाये ८२-८३, इन्द्रिय निग्रह ८३-८४, मनोनिग्रह ८४-८५, ध्यान और अनुप्रेक्षा ८५-८७, अनुप्रक्षा के भेद, ८७-६७, ध्यान के योग्य आसन ९७-१०२, ध्यान और प्राणायाम १०२-१०४, ध्यान व समत्व १०४-१०५, ध्यान मिद्धि के हेतु १०५-१०६, सम्यग्दर्शन १०६-१०८, सम्यग्ज्ञान १०८-१०६, सम्यक चारित्र १०१-११०।। चतुर्थ परिच्छेद : ध्यान के भेद द्विविध व चतुर्विध वर्गीकरण १११-११३, आर्तध्यान ११३-११४, आत ध्यान के भेद ११४-११५, इष्ट वियोगज आर्तध्यान ११५, अनिष्ट संयोगज आर्त ध्यान ११५-११६, प्रतिकूल वेदना या रोगात्तं ध्यान ११६, निदान आत्तं ध्यान ११७, आत ध्यान के अनन्त भेद ११८, आर्त ध्यान के लक्षण ११८-१२०, आर्त ध्यान और गुणस्थान व स्वामी १२०-१२१, आर्त ध्यान और लेश्या १२१, आत ध्यान का फल १२१-१२२। ___ पंचम परिच्छेद : रौद्र ध्यान रौद्र ध्यान के लक्षण १२३.१२४,रौद्र ध्यान के भेद१२४-१२५, हिंसानन्द रौद्र ध्यान १२५, मृषानन्द रोद्र ध्यान १२६, चौर्यानन्द रौद्र घ्यान १२६-१२७. विषय संरक्षाणानन्द रौद्र ध्यान १२७-१२८, रौद्र ध्यान के बाह्य लक्षण १२८-१२६, रौद्र ध्यान के गुणस्थान व स्वामी १२६-१३०, रौद्र ध्यान लेश्या एवं भाव १३०-१३१, रौद्र ध्यान का फल १३१ । षष्ठ परिच्छेद : धर्म ध्यान का स्वरूप धर्म ध्यान के लक्षण १३३, धर्मध्यान के आलम्बन १३४, धर्म ध्यान एवं मैत्री आदि भावनाये १३५-१४०, धर्मध्यान की मर्यादायें १४०, भावना १४०-१४४, धर्म ध्यान के लिए देश या स्थान Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) १४४.१४५, काल १४५, आसन १४५, आलम्बन १४६, क्रम १४६, ध्यातव्य या ध्येय १४७, ध्याता १४७, अनप्रक्षा १४८-१४६., लेश्या १४६-१५०, लिङ्ग १५१, फल १५१-१५२।। सप्तम परिच्छेद : धर्मध्यान का वर्गीकरण धर्मध्यान के भेद १५३-१५४, आज्ञाविचय धर्म ध्यान १५५१५७, अपाय विचय धर्मध्यान १५७-१५६, विपाक विचय धर्मध्यान १५६-१६०, संस्थान विनय धर्मध्यान १६१-१६२, लोक १६३-१६७, धर्मध्यान का दूसरा वर्गीकरण १६७-१६६, पिण्डस्थ ध्यान१६६-१७०, पाँच धारणाये १७०-१७५, पदस्थ ध्यान १७५-१८८, रूपस्थ ध्यान १८८-१६०, रूपातीत ध्यान १६०-१६१, धर्मध्यान के अन्य भेद १६२, उपाय विचय धर्मध्यान १६२, जाव विचय धर्मध्यान : ६२-१६३, अजीव विचय धर्मध्यान १९३, विराग विचय धर्मध्यान १६३-१६४, भव विचय धर्मध्यान १६४, हेतु विचय धर्मध्यान १९४-१६५, धर्मध्यान के गुणस्थान एवं स्वामी १९५-१६७ । __ अष्टम परिच्छेद : शुक्ल ध्यान शक्ल घ्यान का लक्षण १६८-२००, शुक्ल ध्यान की मर्यादाये २००, आलम्बन २००-२०१, क्रम २०१-२०२, ध्येय २०२. ध्याता २०२, अनुप्रेक्षा २०२-२०४, लेश्या २०४, शुक्ल ध्यान के लिङ्ग २०४-२०५, फल २०५, शुक्ल ध्यान के भेद २०६-२०८, पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्ल घ्यान २०८-२११, एकत्व वितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान २११-२१३, सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती शुक्ल ध्यान २१३-२१५, समूच्छिन्न क्रिया निवृत्ति शक्ल ध्यान २१५-२१७, चारों शुक्ल घ्यानों में अन्तर २१८, शुक्ल ध्यानों के स्वामी २१८-२२०, शुक्ल ध्यान का फल २२०-२२१। नवम परिच्छेद : ध्यान का लक्ष्य-ल ब्धियाँ एवं मोक्ष ध्यान एवं गुणस्थान २२२-२२६, घ्यान का लक्ष्य : लब्धियाँ २२६-२२७, वैदिक परम्परा में लब्धियाँ २२७-२२८, योगदर्शन में लब्धियाँ २२८-२२६, बौद्ध दर्शन में लब्धियाँ २२६-२३०, जैन दर्शन में लब्धियाँ २३०-२३१, लब्धियों के प्रकार २३१-२३७, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) वैदिक परम्परा में कैवल्य २३७-२३८, बौद्ध परम्परा में निर्वाण २३८२४०, जैन परम्परा में मोक्ष २४०-२४५।। दशम परिच्छेद : उपसंहार जैन ध्यान परम्परा की सामान्य विशेषताये २४८, सदाचार पर बल २४८, संयम का पालन २४८-२४६, तप २४६, अकिञ्चनत्व की भावना २४६-२५०, गुणस्थान २५०, अनुप्रेक्षा २५०, मोहक्षय २५१, अतीन्द्रि य आनन्द की उपलब्धि २५१-२५२ । ० -- ० Page #19 --------------------------------------------------------------------------  Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद भारतीय परम्परा में ध्यान ध्यान की पद्धति का मूल स्त्रोत एवम् विकासः आर्य साहित्य के भण्डार को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा गया है-वैदिक, जैन एवं बौद्ध। ऋग्वेद वैदिक साहित्य का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। उसमें आधिभौतिक एवं आधिदैविक का वर्णन मुख्य रूप से किया गया है लेकिन आध्यात्मिक भाव का ज्यादा वर्णन नहीं किया गया+, परन्तु थोड़ी सी मात्रा में ही वहाँ इसका इतना स्पष्ट, सुन्दर एवं भावपूर्ण वर्णन किया गया है कि उसको पढ़ने से ऐसा लगता है कि उस वक्त लोगों की दृष्टि केवल बाह्य नहीं थीx अपितु उनमें ज्ञान A, श्रद्धा =, उदारता..., ब्रह्मचर्य* आदि भावों का समावेश था जिससे उनके आध्यात्मिक होने का साफ पता चलता है। भारतीय साधनाओं में योगसाधना और योग-साधना के अन्तर्गत ध्यान-साधना का महत्व विशेष रूप से रहा है। ब्राह्मण धर्म के मूल में "ब्रह्मन्" शब्द है। "ब्रह्मन्' अर्थात् यज्ञ को केन्द्र में रख करके ही ब्राह्मण धर्म की परम्पराओं का विकास हुआ है। फिर भी यज्ञ से सम्बन्धित, वैदिक मन्त्रों और ब्राह्मण-ग्रन्थों में तप की शक्ति एवं महिमा के सूचक 'तपस्' शब्द का + 'भागवताचा उपसंहार' प० २५२ x (क) इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एक सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ॥ (ऋग्वेद, मण्डल १, सूक्त १६४-४६) (ख) वही मण्डल ६, सूक्त (ग) पुरुष सूक्त, मण्डल १०, सू०६०) A ऋग्वेद, मण्डल १०, सक्त ७१ = वही, मण्डल १०, सूक्त १५१ .... बही, मण्डल ९०, सूक्त ११७ X वही, मण्डल १०, सूक्त १० त्वं तपः परितप्याजयः स्वः । (ऋग्वेद १०/१६७/१) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन उल्लेख मिलता है।+ ऐसा जान पड़ता है कि 'तप' शब्द योग या ध्यान का ही पर्याय रहा होगा। प्राचीन उपनिषदों को छोड़कर बाद के उपनिषदों में 'योग' शब्द आध्यात्मिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सामान्यतः ऋग्वेद से उपनिषद् तक के साहित्य में 'तपस्' शब्द का आध्यात्मिक अर्थ में जितनी छट के साथ वर्णन किया गया है, उतना 'योग' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। 'तप' शब्द का प्रयोग 'ध्यान' तथा 'समाधि' के अर्थ में भी हुआ है । ऋग्वेद का बहमस्फुरण जैसे-जैसे विकसित होता गया और उपनिषद् के जमाने में उसने जैसे विस्तृत रूप धारण किया वैसे-वैसे ध्यान मार्ग भी अधिक पूष्ट और साड़.गोपाड.ग होता रहा । यही कारण है कि प्राचीन उपनिषदों में भी समाधि के अर्थ में योग, ध्यान आदि शब्द पाये जाते हैं। महाभारत में योग अथवा ध्यान का उल्लेख किया गया है । A श्री मद् भगवद्गीता के अट्ठारह अध्यायों में अट्ठारह प्रकार के योगों का वर्णन + (क) एत द्वै परमं तपो। अध्याहितः तप्यते परमं हयैव लोकं जयति । (शतपथब्राह्मण १४/८/११) (ख) अथर्ववेद ४/३५/१-२ [ग] ऐतरेयब्राह्मण २/२६/१ 18 (क) योग आत्मा। तैत्तिरीयोपनिषद् २/४ (ख) तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रिय धारणाम् । अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ ॥ (कठोपनिषद् (ग) -तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्य ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः । (श्वेताश्वतर उपनिषद् ६/१३) "- (क) तैत्तिरीय उपनिषद् २/४ (ख) श्वेताश्वतर २/११, ६/३ (ग) छान्दोग्य उपनिषद ७/६/१, ७/६/२, ७/७/२, ७/२६/२ (घ) कौशीतकि उपनिषद् ३/२, ३/३, ३/४, ३/६ A महाभारत-शांतिपर्व, अनुशासन पर्व । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान [ ३ ] किया गया है..., उसमें ध्यान योग का छठे अध्याय में विस्तत रूप से उल्लेख किया गया हैं। पुराणों में भी कई जगह इसकी चर्चा मिलती है। योगवाशिष्ठ के छह प्रकरणों में योग व ध्यान की व्याख्या की गयी है,→ योग वाशिष्ठ को तो योग का ग्रन्थ राज कहते है। न्यायदर्शनA एवं वैशेषिक दर्शन- में इसका सम्यक् रूप से विवेचन किया गया है। ब्रहमसूत्र में महर्षि बादरायण ने तो तीसरे अध्याय का नाम ही साधन अध्याय रखा है और उसमें आसन ध्यान आदि का वर्णन किया गया है। हठयोग के अन्तर्गत हठयोग-सिद्धान्त की स्थापना करते हुए आदिनाथ ने योग की क्रियाओं के द्वारा मन की स्थिरता प्राप्त करने का परम गूढ़ रहस्य बतलाया है। हठयोग के अनेक ग्रन्थों में हठयोग प्रदीपिका मुख्य मानी गयी है। बौद्ध धर्म की परम्परा निवृत्ति प्रधान मानी गयी है क्योंकि यहाँ आचार, नीति, खान-पान, शील, प्रज्ञा एवं ध्यान आदि का विस्तृत रूप (क) श्री मद्भगवद्गीता में योग के अट्ठारह प्रकार इस तरह से हैं १- सयत्व योग, २- ज्ञान योग, ३- कर्मयोग, ४-दैव योग, ५- आत्मसंयम योग, ६- यज्ञ योग, ७- ब्रह्म योग, ८-सन्यास योग 8- ध्यान योग, १०- दुःखसंयोग वियोग-योग, ११- अभ्यास योग, १२- ऐश्वरी योग, १३- नित्याभियोग १४- शरणागति योग १५- सातत्य योग १६- बुद्धि योग १७- आत्म योग तथा १८- भक्ति योग। (ख) गीता में पहले के छह अध्याय कर्मयोग प्रधान, बीच के छह अधयाय भक्तियोग प्रधान तथा अन्तिम के छह अध्याय ज्ञान योग प्रधान हैं। x (क) भागवतपुराण ३/२८, ११/१५, १६/२० (ख) स्कन्धपुराण, भाग १, अध्याय ५५ → वैराग्य, मुमुक्षु व्यवहार,उत्पत्ति, स्थिति, उपशम एवं निर्वाण ये छह प्रकरण योग साधना प्रधान हैं। A समाधि विशेषाभ्यासात् । (न्यायदर्शन ४/२/३६) -~- वैशेषिक दर्शन ६/२/२ आसीनः संभवात् ४/१/७,ध्यानाञ्व४/१/८, अचलत्वं चापेक्ष्य ४/१/e स्मरन्ति च, ४/१/१०, यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् ४/१/११ (ब्रह्मसूत्र) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन से उल्लेख किया गया है । बौद्ध परम्परा में यह बात बहुत प्रसिद्ध है कि भगवान बुद्ध बुद्धत्व प्राप्त होने से पहले छह वर्षों तक ध्यानसाधना में लीन रहे। जैन धर्म भी निवत्ति प्रधान कहा जाता है । जैन धर्म के मौलिक ग्रन्थ आगम कहलाते हैं। जैनागमों में योग के अर्थ में अधिकतर ध्यान शब्द प्रयुक्त हुआ है। ध्यान के लक्षण, भेद, प्रभेद, आलम्बन आदि का विस्तृत वर्णन अनेक जैनागमों में मिलता है।+ नियुक्ति में भी आगम में कहे गये ध्यान का स्पष्ट रूप से वर्णन मिलता है । उमास्वाति कृत तत्वार्थ सूत्र में भी ध्यान का विस्तृत वर्णन किया गया है।== ध्यान शतक में भी आगमोक्त बात का स्पष्टीकरण है क्योंकि इसके काल तक आगमों में कही गयी शैली ही प्रधान रही थी, पर इस शैली को श्री हरिभद्र सूरि ने योगबिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, योगविशिका, योगशतक और षोडशक ग्रन्थों को लिखकर बदल दिया ओर एक नये युग को जन्म दिया। हेमचन्द्र सूरि ने ने अपने योगशास्त्र में आसन तथा प्राणायाम एवं ध्यान से सम्बन्ध रखने वाली अनेक बातों का विस्तृत रूप से वर्णन किया है। आचार्य शुभचन्द्र जी ने ज्ञानार्णव में पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान का विस्तृत वर्णन किया है, यह ग्रन्य अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है। उपाध्याय श्री यशोविजय कृत अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद् तथा टीका सहित बत्तीस बत्तीसीवाँ योग एवं ध्यान से सम्बन्धित विषयों पर लिखी गई है। __ इस प्रकार हम देखते हैं कि तप की प्रधानता के समय एवं समाधि तप के अड्.ग समझे जाते थे लेकिन बाद में योग का महत्व व्यापक होने पर वे योग के अड्.ग बने । अर्थात जिन्होंने + (क) स्थानाड्ग, अध्याय ४, उद्देश १ (ख) समवायांग स. ४ (ग) भगवती शतक-२५ उद्देश ७ (घ) उत्तराध्ययन ३०/३५ TRA आवश्यक नियुक्ति कायोत्सर्ग अध्ययन, गाथा १४६२-१४८६ = तत्वार्थं सत्र. ९/२७ से आगे तक । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा मे ध्यान (५) उन्होंने स्वाध्याय, ध्यान एवं समाधि आदि को तप के अड ग रूप माना X, और जिन्होंने योग को मुख्य अड्.गी माना उन्होंने तप, ध्यान समाधि को उसके अड्.ग रूप माना ।.... वेदकालीन ध्यान परम्परा: भारतीय संस्कृति में सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद कहे जाते हैं और वेदों में ऋग्वेद सबसे प्राचीन माना गया है। कहा जाता है कि इन वेद मन्त्रों को किसी भी ऋषि या मूनि ने स्वयं नहीं रचा अपितु ऋषि मन्त्रकर्ता नहीं मन्त्रद्रष्टा थे। इन मन्त्रों का भगवान् हिरण्यगर्भ ने ऋषियों को साक्षात्कार करवाया था। वेद मन्त्र रहस्यों से भरे हुए हैं उनके एक-एक पद अनेक भावों को प्रगट करते है । उन मन्त्रों को अगर गहराई से देखा जाये तो पता चलता है कि वहां ध्यान, तप, योग एवं समाधि से सम्बन्धित बहुत मात्रा में सामग्री है। इन्द्र, अग्नि, वरुण एवं सोम आदि देवताओं के वर्णन के पीछे आध्यात्मिकता का सार पाया जाता है। जो गहराई से सोचने पर ध्यान योग के अर्थ में निकलता है। मोहनजोदड़ों की खुदाई से प्राप्त एक मुद्रा पर अंकित चित्र में त्रिशल, मुकूटविन्यास नग्नता, कायोत्सर्गमुद्रा, नासाग्रदष्टि एवं ध्यानावस्था में लीन मूर्तियों से ऐसा सिद्ध होता है कि ये मूर्तियाँ किसी मूनि या योगी की हैं जो कि ध्यान में लीन हैं । * मोहनजोदड़ों का काल प्रागवैदिक है। वैदिक परम्परा में ध्यान का अस्तित्व चाहे तप के रूप में या योग के रूप में किसी न किसी प्रकार से अवश्य रहा है। उस काल में विद्वानों का कोई भी यज्ञ-कर्म बिना ध्यान योग के सिद्ध नहीं होता था।+ X जैन परम्परा में स्वाध्याय, ध्यान आदि आभ्यन्तर तप अड्.ग हैं। .... तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः । (योगसूत्र २/१) * मोहनजोदारो एण्ड द इण्डस सिविलाइजेशन, जिन्द १ पृ. ५३ A हिस्ट्री ऑफ एन्शिएण्ट इण्डिया पृ. २५ + यस्माद्ऋते न सिभ्यति यज्ञो विपश्चितश्चन । स धीरो योगमन्वति (ऋग्वेद १/१८/७) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन उपनिषदों में ध्यान: उपनिषद् के काल में ध्यान की साधना वेदों से बीज रूप में अंकुरित होकर विकसित अवस्था को प्राप्त हो गई थी । श्वेताश्वतरोपनिषद् में ध्यान का प्रचुर मात्रा में स्पष्ट वर्णन किया गया है। इसमें साधना करने के बाद ही ध्यान रूप मन्यन से अग्नि की भांति अपने हृदय में छुपे हुए परम देव परमेश्वर के दर्शन का उपदेश दिया गया है। वहाँ कहा गया है कि जिस प्रकार से तिलों से खेल, दही में घी एवं अरणियों में अग्नि छिपी रहती है उसी प्रकार से परमात्मा हमारे हृदय में छिपे रहते हैं । वे परमात्मा तब ही प्राप्त होते हैं जब साधक विषयों से विरक्त होकर सदाचारी बनकर संयमरूपी तपस्या के द्वारा उनका निरन्तर ध्यान करता है।- यहां पांच मन्त्रों में ध्यान की सिद्धि के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की गई है कि हमारे मन, बुद्धि और इन्द्रियों में प्रकाश फैला रहे । निद्रा, आलस्य और अकर्मण्यता आदि दोष हमारे ध्यान में बिघ्न न कर सके । A वरुण ने अपने पुत्र भगु को तप का महत्व समझाते हुए कहा है कि-तू तप के द्वारा ब्रह्म के तत्व को समझने की कोशिश कर । यह तप ब्रह्म का ही स्वरूप है। उपनिषदों मो ध्यान, योग एवं तप आदि शब्द समाधि के अर्थ में स्वदेहमरणि कृत्वा प्रणवं चोतरारणिम् । ध्याननिर्मथनाभ्यासाद् देवं पश्येन्निगूढ़वत् ॥ (श्वेताश्वतरोपनिषद १/१४) - तिलेष तैलं दधनीव सपिरायः स्त्रोतः स्वरणीष चाग्निः । एवमात्माऽऽ मनि गृहयते असौ, सत्येनैनं तपसा योऽनुपश्यति । (श्वेताश्वतरोपनिषद् १/१५) A युक्त्वाय मनसा देवान् सुवर्यतो धिया दिवम् । वृहज्ज्योति: करिष्यतः सविता प्रसुवाति तान् ॥ (वही २/३) * तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व । तपो ब्रह्मेति । (तैत्तिरीयोपनिषद् Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (७) ही प्रयुक्त हुए हैं।.... उपनिषदों में ध्यान करने की विधि बतलाते हुए कहा गया है कि ध्यान योग का साधक सिर गले एवं छाती को ऊँचा उठाये रखे एवं समस्त इन्द्रियों को बाहृय विषयों से हटाकर उनका मन के द्वारा हृदय में निरोध कर लेना चाहिये और फिर ऊकार रूपी नौका का सहारा लेकर परमात्मा का ध्यान करके समस्त भयानक प्रवाहों को पार कर लेना चाहिये। वहां ध्यान करने के लिए स्वच्छ एवं समतल भूमि पर आसन लगाने के लिए कहा गया है।* ध्यान को आध्यात्मिक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है इसी कारण ध्यान को मोक्ष प्राप्ति का कारण माना गया है ।A मनुष्य ध्यान योग के साधन के द्वारा समस्त मलों को धोकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को भली प्रकार से प्रत्यक्ष रूप में देव लेता है, जिससे वह असंग हो जाता है और कैवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता .... (क) छान्दोग्योपनिषद् ७/६/१ __ (ख) तैत्तिरीयोपनिषद २/४ (ग) श्वेताश्वतरोपनिषद् २/११/६ x त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिवेश्य । ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ।। प्राणान् प्रपीडयेद् संयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छवसीत् । दुष्टाश्युक्तमिव वाहमेनं विद्वान् मनो धारयेताप्रमत्तः ।। (श्वेताश्वतरोपनिषद् २/८/६] *वही २/१० > तं दुर्दर्श गूढ मनुप्रविष्ट, गुहाहितं गहवरेष्ठं पुराणम् । अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं, मत्वा धीरो हर्षशोको जहाति ।। (कठोपनिषद् १/२/१२) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन है।+ तप के द्वारा ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है और वह ब्रह्मज्ञानी परमात्मा के स्वरूप को जान लेता है, जो परमात्मस्वरूप को जान लेता है वह संसार से मुक्त हो जाता है। - षडंगयोग के प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क, और समाधि के वर्णन में कहा गया है कि विषयों में लीन मन जीव को बन्धन में फंसाता है जबकि निविषय मन मुक्ति दिलाता है। इसलिए विषयासक्ति से मुक्त और हृदय में निरूद्ध मन जब अपने ही अभाव को प्राप्त होता है तब वह परमपद पाता है | इसीलिए कल्याणकारी साधक सांसारिक भागों की अनित्यता और दुःखरूपता को समझकर इनसे हमेशा विरक्त हो जाते हैं एवं परमगति को प्राप्त करके फिर कभी लौटकर नहीं आते हैं। इस परमगति की प्राप्ति के लिए आचार-विचार जरूरी है। + यथैव बिम्ब मृदयोपलिप्त तेजोमयं भ्राजते तत् सुधान्तम् । तद्वाऽऽत्मतत्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थों भवति वीतशोकः ।। (श्वेताश्वतरोपनिषद् २/१४) यः पूर्व तपसो जातमद्भ्यः पूर्वमजायत । गुहां प्रविश्यं तिष्ठन्तं यो भूतेभिर्व्यपश्यत ॥ एतद्व तत् । (कठोपनिषद् २/६) - (क) वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्य वर्ण तमसः परस्तात् । तमेव विदित्वाति मत्यूमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । (श्वेताश्वतरोपनिषद् ३/८) (ख) यदिदं किं च जगत्सवं प्राण एजति नि सृतम् । महद्स्यं वज्रमुद्यत य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ (कठोपनिषद २/३/२] 1 प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽथ धारणा। तर्कश्चंव समाधिश्च षडंगो योग उच्यते ॥ (अमृतनादोपनिषद् ६) *निरस्तविषयासंगा सन्निरुद्धं मनोहृदि।। यदा यात्युन्मनीभाव तदा तत्परम् पदम् ॥ (ब्रह्म बन्दूपनिषद् ४) x अथोन्तरेण तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्ययाऽऽत्मानमन्विष्यादित्यमभिजायन्ते । (प्रश्नोपनिषद् १/१०) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (8) जैसे श्रद्धा, तप, ब्रह्मचर्य, सत्य, दान आदि और इनकी महती आवश्यकता का उल्लेख विभिन्न उपनिषदों में हुआ है।... मोक्ष प्राप्ति के लिए तप एव समाधि की अनिवार्यता बतलायी गयी है। योग एवं समाधि की अवस्था में वाणी एवं मन निवृत्त हो जाते हैं, साधक निर्भीक बनता है और ब्रह्मानन्द का आस्वादन करता है। जब साधक को ब्रह्मानन्द की प्राप्ति हो जाती है तब वह जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है । इस प्रकार उपनिषदों में ध्यान का विभिन्न रूपों में उल्लेख किया गया है। रामायण एवं महाभारत में ध्यान: रामायण एवं महाभारत का भारतीय वाड्.मय में बहत ऊँचा स्थान है । महाभारत को तो विद्वान् पंचम वेद के नाम से पुकारते हैं, एवं इसे वेदों का सा आदर देते हैं। रामायण एवं महाभारत दोनों में हो अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष चारों, पुरुषार्थो, नीति एवं कर्म का निरूपण किया गया है। इसी क्रम में कहीं-कहीं कई स्थलों पर ध्यान एवं योग का भी वर्णन किया गया है। महाभारत में बतलाया गया है कि जीव को सर्वप्रथम अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनी चाहिये क्योंकि इन्द्रियां चंचल, अस्थिर तथा अनेकों प्रकार की कषायों की जड़ होती हैं 1A इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् मन को स्थिर .... (क) तदेतत् त्रयं शिक्षेद्दमं दानं दयामिति । (वृहदारण्यकोपनिषद् (ख) सत्यमेव जयते नानृतम् । (मुण्डकोपनिषद् ३/१/६) (ग) यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयन्ति ते धूममभिसंभन्ति । वृहदारण्यकोपनिषद् ६/२/१६ । : यतोवाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न विभेति कुतश्चनेति ।। तैत्तिरीयोपनिषद् ३/६) तेषुबहमलोकेषु परा:....परावतः...वसन्ति...तेषां...न पुनरावृत्तिः (बृहदारण्यकोपनिषद् ६/२/१५) 4 महाभारत, अनुशासन पवं, ६६/२८-३० Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन रखे, फिर पांचों इन्द्रियों सहित मन को ध्यान में एकाग्र करे ।+ साधक को धर्म के पालन करने को जरूरी बतलाते हुए कहा है कि सत्य ही धर्म है। अन्य धर्मों के अलावा योगी को अहिंसा का पालन करने के लिए कहा गया है, क्योंकि सत्य एवं अहिंसा के बिना समता एवं शांति नहीं आ पाती। योगी जब ध्यान का आरम्भ करता है तो पहले उसके द्वारा क्रमशः विचार, विवेक एवं वितर्क नामक ध्यान आते हैं। साधक को रोगादि विषयों को छोड़कर ध्यान में सहायक देश, कर्म, अर्थ, उपाय, अपाय, आहार, संहार, मन, दर्शन, अनुराग, निश्चय और चक्षुष इन बारह योगों का सहारा लेना चाहिये।= आश्वमेधिक पर्व में इन्द्रिय समुदाय को वश में करके एकाग्र चित्त से निर्जन वन में अपने अनत:करण में परमात्म तत्व का चिन्तन करने के लिए कहा गया है, क्योंकि इस प्रकार के ध्यान के द्वारा साधक का चित्त प्रसन्न हो जाता है और वह परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। रामचरित मानस में ध्यान के स्थान पर तप को ज्यादा महत्व दिया गया है। वहां तप को सुख देने वाला और दुःख दोषादि का नाश करने वाला कहा गया है ।* तप ही सारी सृष्टि का आधार है।४ तपस्या के द्वारा साधक अपने सभी अशुभ कर्मों का क्षय कर देता है एवं सांसारिक बन्धनों के भव से पार हो जाता है । ध्यान के द्वारा जीव अपने सभी दोषों को नष्ट करके मोक्ष पद को प्राप्त करता है + एवमिन्द्रय ग्रामं शनैः सम्परिभावयेत् । __ संहरेत क्रमश्चैव स सम्यक् प्रशमिष्यति ॥ (शांतिपर्व १६५/१६) धर्म न दूसर सत्य समाना। ___ आगम निगम पुराण बखाना ।। (रामचरितमानस) = छिन्न दोषो मुनिर्योगान् युक्तोयुजीत द्वादश । देश कर्मानुरागार्थनुपायाप निश्चयो।। चक्षुराहारसंहारैमनसा दर्शनेन च ॥(महाभारत,शांतिपर्व २२६/५४) A संक्षिप्त महाभारत, आश्वमेधिक पर्व, पू० १५३६ *तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा । (रामचरितमानस, बालकाण्ड, पृ८४) x तप अधार सब सृष्टि भवानी । [रामचरितमानस, बालकाण्ड पृ० ८५) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान [११] एवं परमात्मा के स्वरूप में लीन हो जाता है।... श्रीमद् भगवद्गीता में ध्यान:- श्रीमद् भगवद्गीता एक अनुपम ग्रन्थ है जिसे सारा संसार आदर की दृष्टि से देखता है, अगर इसे हम विश्व साहित्य का सर्वोत्तम ग्रन्थ कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। गीता में योग' शब्द बहुत बार आया है। इसके अट्ठारह अध्यायों का नाम 'योग' है। गीता का प्रत्येक अध्याय ऊतत्सदिति श्रीमद् भगवद्गीतासूपनिषत्सु बह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुन संवादे...योगो नाम....अध्यायः' इन शब्दों के साथ समाप्त होता है। इसी कारण गीता को 'योगशास्त्र' के नाम से भी पुकारा जाता है। विभिन्न शास्त्रों में योग की परिभाषा भिन्न भिन्न मानी गयी है । गीता में स्वत: सिद्ध समता के स्वरूप वाली स्थिति को योग कहा गया है। इसमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, शक्ति योग एवं ध्यानयोग आदि का उल्लेख किया गया है। ध्यानयोग की चर्चा करते हए इसमें कहा गया है कि जो समता कर्मयोग से प्राप्त होती है वही समता ध्यानयोग से भी प्राप्त होती है। गीता के छठे अध्याय में श्लोक १० से ३२ तक ध्यान योग का ही वर्णन किया गया है। ध्यान योग को करने के लिए साधक को एकान्त में बैठकर मन एवं इन्द्रियों को वश में करना चाहिये ।* जिसका ध्येय, लक्ष्य केवल परमात्मा में लगने का ही है अर्थात् जो परमात्मा की प्राप्ति के लिये ही ध्यान योग करने वाला है उसको यहाँ योगी कहा गया है। ध्यान के लिये आसन बतलाते हुए कहा गया है कि शुद्ध भूमि .... नावर्तन्ते पुनः पार्थ मुक्ता संसारदोषतः जन्मदोष परिक्षीणाः स्वभा वेपर्यवस्थिताः । (महाभारत, शान्तिपर्व, १५९/३) .x. योगस्थः कुरु कर्माणि सड्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। ' सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।। (श्रीमद् भगवद्गीता २/४८) * योगो युजीत सत्ततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीर परिग्रहः ॥ (वही ६/१०) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन - पर सुविधाजनक कुशा आदि का आसन बिछाकर चित्त एवं इन्द्रियों को वश में करके मन को एकाग्र करके काया, ग्रीवा और शिर को सीधा करके केवल अपनी नासिका के अग्रभाग को देखते हुए योगी स्थिर होकर बैठे।+ गीता में योग के कुछ सामान्य लक्षणों का निर्देश करते हए व्यवहारिक योग के लक्षण विभिन्न प्रकार के बतलाये गये हैं जो इस प्रकार से हैं- कर्म फल में आसक्ति का न होना, विषयों के प्रति अनासक्ति-, समत्व योग, निष्कामता A, एवं सुखदुख एवं लाभ में समता आदि । उपयुक्त लक्षण अभावात्मक लक्षण कहलाते हैं, लेकिन इनके अतिरिक्त कुछ भावात्मक लक्षण भी कहे गये हैं, जैसे सभी कार्य भगवान को अर्पण करना , सब अवस्थाओं में अर्थात सुख-दुख होने पर भी समान रूप से संतुष्टि.... आदि।। + शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ।। तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रिय क्रियः। उपविश्यासने युज्याद्योगमात्मविशद्वये ।। समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं एवं दिशश्चानवलोकयन् ॥ (श्रीमद् भगवद्गीता ६/११-१३) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफल हेतुभूमौ ते संगोऽस्त्वकर्मणि। (गीता २/४७, ४/२०) - तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचार । __ असक्तौ ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥ (श्रीमद् भगवद्गीता ३/१९) A यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्प वर्जिताः । (गीता ४/१६) * सुख दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयो।। ततो युद्धाय जुज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ (श्रीमद् भगवद्गीता २/३८) x ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः। अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ (वही १२/६) मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति चं रमन्ति च ।। (वही १०/६) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (१३) काम एवं क्रोध ही मनुष्य को पाप की ओर प्रेरित करते हैं एवं आत्मा को आवृत्त कर लेते हैं। काम इन्द्रियों के द्वारा सक्रिय होता है, परन्तु मन इन्द्रियों से परे है, मन से परे बद्धि है और बुद्धि से परे आत्मा है।... कुछ लोग ध्यान के द्वारा आत्मा को आत्मा से देखते हैं तो कुछ लोग आत्मा को सांख्य योग के द्वारा तथा कुछ कर्मयोग के द्वारा आत्मा को देखते हैं। जो लोग आत्मा को आत्मा के द्वारा देखते हैं, उन मनुष्यों को पूरी तरह से सन्तोष मिलता है और वे परमानन्द की अनभूति में लीन हो जाते हैं । भगवान में जो वास्तविक स्थिति है, जिसको पाने के बाद कुछ भी पाना बाकी नहीं रह जाता ऐसी सम्यक स्थिति वाली जो निर्वाण परमा शान्ति है, साधक ध्यान के द्वारा उस स्थिति को प्राप्त कर लेता है *ध्यान योग में पहले निर्विकल्प स्थिति होती है फिर उसके बाद निर्विकल्प बोध होता है। इसी निर्विकल्प बोध को यहां निर्वाण परमशांति कहा गया है। जब ध्यान योग के द्वारा चित्त संसार से उपरम हो जाता है, तो योगी का चित्त से और संसार से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है, और जैसे ही उसका संसार से सम्बन्ध विच्छेद होता है उसको अपने आप में ही अपने स्वरूप की अनुभूति हो जाती है। ध्यान योग में पहले 'मन को केबल स्वरूप में ही लगाना है' यह धारणा होती है । ऐसो धारणा होने के बाद स्वरूप के सिवाय दूसरी कोई वृत्ति पैदा भी हो जाय, ... इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धैः परतस्तु सः ॥ [श्रीमद् भगवद्गीता ३/४२) x ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति के चिदात्मानमात्मना। अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ।। (वही १३/२४) * युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । शान्तिं निर्वाणरमां मत्संस्थामधिगच्छति ।। (वही ६/१५) A यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया । यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ।। .., सुखमात्यन्तिकं यत्तबुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्। वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ [वही ६/२०-२१) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन तो उसकी उपेक्षा करके उसको हटा देने और चित्त को केवल स्वरूप में ही लगाने से जब मन का प्रवाह केवल स्वरूप में ही लग जाता है तो उसको 'ध्यान' कहते है। ध्यान के समय ध्याता, ध्यान और ध्येय-यह त्रिपुटी रहती है । अर्थात् साधक ध्यान के समय अपने को ध्याता मानता है एवं स्वरूप में तदूप होने वाली वृत्ति को मानता है और साध्य रूप स्वरूप को ध्येय मानता है। योगाभ्यास या ध्यान की साधना के लिए शारीरिक समस्त चेष्टाओं को शान्त करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि शारीरिक क्रियाओं में समता रहने पर मन की एकाग्रता बढ़ती है । इसी के साथ आहार, शयन, रहनसहन, जागरण आदि क्रियाओं को यथायोग्य सम-प्रमाणित करने का भी निर्देश है।+ तेहरवें अध्याय में ज्ञान के लक्षण बताते हुए अमःनित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, आर्जव, आचार्योपासना, शुचिता स्थिरता, आत्मनिग्रह, आदि गुणों की चर्चा है। ये सभी नैतिक गुण आत्मा को ऊपर उठाने वाले हैं । इस प्रकार गीता में प्रत्येक योग के स्वरूप भूत लक्षण का वर्णन किया गया है और हर हालत में आत्मसंयम, कामना का त्याग सभी जीवों से प्रेम, अहंकार का त्याग, निर्भयता, शीतोष्णता, सुखदुख एवं निंदा स्तुति में समता भाव आदि गुणों की अपेक्षा की गई फिर भी कर्मयोग, राजयोग, भक्तियोग एवं ज्ञानयोग क्रमशः कर्म, ध्यान, भक्ति एवं ज्ञान पर विशेष जोर देते है । इसमें प्रत्येक योग का अपना एक निश्चित भावात्मक लक्षण है, जो उसके लक्ष्य का निर्देशक भी है।- जैसे कर्मयोग का लक्ष्य लोगों का कल्याण करना है, ज्ञानयोग का लक्ष्त 'वासुदेवः सर्वमिति' ज्ञान है। सांख्य योग का लक्ष्य प्राहमी स्थिति है तो ध्यान योग का लक्ष्य अहम संस्पर्श रूप अक्षय सुख की प्राप्ति है ।.... सब जगह एक सच्चिदानन्द + गीता का व्यवहारदर्शन,पृ० २२२ । श्रीमद्भगवद्गीता १३/८-१२ -- एषा बाह्मी स्थिति। पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्यामन्तमलेिऽपि अहम निर्वाण मृच्छति । (वही २/७२). .... युजन्नेव सदात्मानं योगी विगतकल्मषः । मुखेन ब्रह्म संस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ।। (श्रीमद्भगवदगीता ६/२८) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (१५) धन परमात्मा ही परिपूर्ण है, ध्यान योग से युक्त योगी सम्पूर्ण प्राणियों में अपनी आत्मा को और सम्पूर्ण प्राणियों को अपने अन्तर्गत देखता है। यहां परमयोगी का लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि जो ध्यान युक्त ज्ञानी महापुरुष अपने शरीर की उपमा को सब जगह अपने को समान रूप से देखता है एवं सुख-दुख को भी समभाव से देखता है वह परमयोगी कहलाता है ।* इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रीमद्भगवद्गीता एक रहस्यमयी ग्रन्थ है जिसमें एक-एक अध्याय अनुपम है। ये योग सम्बन्धी सामग्री से भरा पड़ा है इसको योगशास्त्र कहना गलत नहीं है। स्मृति ग्रन्थों में ध्यान: _ 'स्मति' शब्द दो अर्थों में प्रयुनत हुआ है, एक अर्थ में वह वेद वाड्.मय से इतर ग्रन्थों, यथा पाणिनि के व्याकरण, श्रौत, ग्रह्य एवं धर्म सूत्रों, महाभारत, मनु स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मति एवं अन्य ग्रंथों से सम्बन्धित है। किन्तु सकीर्ण अर्थ में स्मृति एवं धर्मशास्त्र का अर्थ एक ही है, जैसा कि मनु ने भी कहा है कि वेद एवं स्मति में कहे धर्म का जो मनुष्य पालन करता है उसको दोनों लोकों में कीर्ति की प्राप्ति होती है। श्रुति वेद है और धर्मशास्त्र स्मृति है। वे दोनों सम्पूर्ण अर्थों में निर्विवाद हैं। तैत्तिरीय आरण्यक में भी 'स्मृति' शब्द दो बार आया है (१.२) गौतम (९.२) तथा वशिष्ठ (१.४) ने स्मृति को धर्म का उपादान माना है। सम्पूर्ण स्मतिग्रन्थों को आचार-विचार की नीतियों का अमूल्य खजाना कहा जाता है । इन X सर्व भूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शिनः ॥ (वही ६/२६) * आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगि परमो मतः ।। (वही ६/३२) A श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन् हि मानवः। इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखमं॥ श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः । ते सर्वाथष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मे हि निर्वभौ ॥ (मनस्मृति २/६/१०) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) जैनपरम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ग्रन्थों में मानव को जीवन में किस प्रकार से आचरण करना चाहिये उन नियमों का पालन वह किस प्रकार से करे इसको विस्तृत चर्चा की गई है। इसमें वैदिक परम्परा में विहित चारों आश्रमों की विभिन्न नीतियों की विस्तृत भूमिका का उल्लेख किया गया है ।.... याज्ञवल्क्यस्मति, मन स्मृति पाराशरस्मति आदि स्मतियों में साधकों के अनेक कर्त्तव्यों तथा गृहस्थों के सत्कर्मों की चर्चा की गई है ।x स्मतियों में विहित वर्णों तथा आश्रमों के सम्यक धर्म का पालन करने से ही मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है।* याज्ञवल्क्य स्मृति में योग से सम्बन्धित कुछ बातें कही गयी हैं कि मन एवं बद्धि को विषयों से हटाकर ध्येय को आत्मा में स्थित करके योग को करना चाहिये । A योग की क्रियाओं तथा अभ्यास के द्वारा- इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। बाह्य चित्त वत्तियों के निरोध से आत्म दर्शन अथवा तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है।+ जो साधक शुभ आचार से युक्त होकर और हमेशा पवित्र .... चत्वारः आश्रमाः ब्रह्मचारी गृहस्थ वानप्रस्थ परिव्राजकाः ।(वशिष्ठ स्मति २०६) x संध्यास्नानं जपो होम स्वाध्याय देवतार्चनम् । विश्वदेवातिर्यच षट् कर्माणि दिने दिने ।। (पाराशर स्मृति ३६) * योगशास्त्र प्रवक्ष्यामि संक्षेपात् सारमुत्तमम् । यस्य च श्रवणाऽद्यान्ति मोक्षचैव मुमुक्षवः। (हारीतस्मृति ८/२) A अनन्यविषयं कृत्वा मनोबुद्धिस्मतीन्द्रिधम । ध्येय आत्मा स्थितो योऽसौ हृदये दीपवत्प्रभुः ।। (याज्ञवल्क्यस्मृति ४/१११) - प्राणायामेन वचनं प्रत्याहारेण च इन्द्रियम् । धारणाभिशकृत्वा पूर्व दुर्घषणं मनः ॥ (हारीतस्मति ८/४) अरण्य नित्यस्य जितेन्द्रियस्य सर्वेन्द्रिय प्रीति निवर्तकस्य। अध्यात्मचिन्तागत मानसाच्च ध्रुवाहनावृत्तिर पेक्षकस्य इति ।। वशिष्ठ स्मृति २५४) + इज्याचारदमाहिंसादानस्वाध्याय कर्मणाम् । अयं तु परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम् ॥ (याज्ञवल्क्यस्मति १/८) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (१७) रहने वाले और हमेशा जप, तप तथा होम करने वाले होते हैं उन्हें कभी भी रोगादि नहीं होता है। इस प्रकार स्मतियों में मोक्ष को प्राप्त करने के लिए जप, तप, एवं योगाभ्यास का वर्णन मिलता पुराणों में ध्यान: भारतीय संस्क्तति के स्वरूप की जानकारी के लिए पुराणों के अध्ययन की बहुत आवश्यकता है। पुराण भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड है। मंत्र संहिता, ब्राह्मण, उपनिषदों जैसे वैदिक वाड.मय के ग्रन्थों में 'पुराण' की सत्ता है। पुराण शब्द की व्यपत्ति 'पूरा भवम्' इस अर्थ में 'सायं चिरं प्राहवे-प्रगेऽव्ययेभ्यष्टयुटयुलौड तुट च' है । यास्क ने इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार से की है कि जो प्राचीन होकर भी नया होता है, वह पुराण है।- पद्म पुराण के अनसार इसकी व्यत्पत्ति इन सबसे भिन्न है-वहाँ जो प्राचीनता की कामना करता हैं वह पुराण है ऐसा कहा गया है। वायुपुराण के अनसार प्राचीन काल में जो जीवित था उसे 'पुराण' कहते हैं * श्रीमद् भागवत पुराण में भक्तियोग के साथ-साथ अष्टाड.गयोग का भी वर्णन किया गया है। भागवत पुराण के तीन स्कन्धों में योग का विशेष विवरण दिया गया है-दूसरे स्कन्ध के २५ वें तथा २८ वें अध्यायों में कपिल जी का अपनी माता देवहति के प्रति योग का उपदेश, फिर इसी स्कन्ध के १३ में अध्याय में सनकादियों को हंसरूपधारी भगवान् के द्वारा योग का वर्णन तथा ग्याहरों स्कन्ध के १४ वें अध्याय में ध्यान योग का विशद वर्णन +मड्.गलाचारयुक्तानां नित्यं च प्रयतात्मनाम् । " जपतां जुह्वतां चैव विनिपातो न विद्यते ॥ (मनस्मृति ४/१४६) पाणिनि सूत्र ४/३/२३ ---- यास्क निरुक्त ३/१९) A पुर। परम्परा वष्टि पुराणं तेनु तत् स्मृतम् । (पद्म पुराण ५/२/५३) * यस्मात् पुरा हयनतीदं पुराणं तैन तत् स्मृतम् । निरूक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ (वायुपुराण १/२०३) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन किया गया है। इसी स्कन्ध के १५ में अध्याय में अणिमा आदि अटठारह सिद्धियों का वर्णन, अध्याय १६ में यमनियमादि का वर्णन, अध्याय २६ वे में ज्ञान योग एवं भक्तियोग के साथ अष्टाड्.ग योग का विशद वर्णन किया गया है। इसमें कथाओं के माध्यम से योग की क्रियाओं एवं साधनाओं का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया हैं जिनमें योगसम्बन्धी शब्दों के अनेक संकेत प्राप्त होते हैं, जैसे मनः प्रणिधान...., आसनX, भगवान में अपना मन भक्तिपूर्वक लगाना, मन, वचन एवं दुष्टि की वृत्तियों से अपनी आत्मा को एकाग्र करके अन्त: श्वास लेना तथा अन्तिम बार श्वास को भीतर खींचकर ब्रह्मरन्ध्र से प्राण त्याग करना आदि। श्रीमद् भागवत में ध्यान योग के वर्णन में कहा गया हैं कि प्रत्यय की जो एकतानता हो, ('यत्रैकतानता ध्यानम्') उसे ध्यान कहते हैं। ध्यान करने की विधि में साधक सब ओर फैले चित्त को एक स्थान में स्थिर करे तथा फिर भगवान् के पैर के ध्यान से आरम्भ कर ऊपर मुख को मन्द मुस्कान के ऊपर अपना ध्यान जमा दे ।A इस विधि ... तस्मिन्निर्म नजयंरण्ये पिप्पलोस्थ आस्थितः । आत्मनाऽऽत्मानमात्मस्थं यथाश्रुतमचिन्तयम् ।। ध्यायतश्चरणाम्भोजः भावनिजित चेतसा। औरकण्ठ्याश्रु कुलाक्षस्य ह्रद्यासीन्मे शनैहरि ॥ (भागवतपुराण १/६ १६-१७) x तस्मिन् स्व आश्रमे व्यासौ बदरीषण्डमण्डिते। आसीनोऽथ उपस्पृश्य प्रणिदभ्यो मनः स्वयम् ॥ (श्रीमद् भागवत पुराण १/७/३) * कृष्ण एवं भगवति मनोवाग्दृष्टि वृत्तिभिः । आत्मन्यात्मानमावेश्य सोऽन्तश्वास उपागमत् ।। (वही १/६/४३) A तत सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् । नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम् ।। (वही ११/१४/४३) तस्मिल्लब्धपदं चित्तं सर्वावयवसंस्थितम् । विलक्ष्यकत्र संयुज्यादड्.गे भगवतो मुनिः ॥(भागवत पुराण ३/२८/२० एवं २१) - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान [१६] के द्वारा चित्त के वशीभूत हो जाने पर जैसे एक ज्योति में दूसरी ज्योति मिल जाती है उसी प्रकार साधक अपने को सर्वात्मा में और सर्वात्मा में खुद को देखता है । जो योगी ध्यान योग के द्वारा अपने चित्त को एकाग्र कर लेता है उसके चित्त का द्रव्य, ज्ञान और कर्म सम्बन्धी भ्रम जल्दी ही निवृत्त हो जाता है।+ योग के आठ अड्.ग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि हैं । पातञ्जल सूत्रों में तो यम तथा नियम केवल पाँच प्रकार के बतलाये गये हैं परन्तु भागवतपुराण में यम व नियम-के बारह भेद माने गये है। शिवपुराण में व्याख्या इस प्रकार की गई है-'ध्यै चिन्तायाम्' यह धातु माना गया है। इसी धातु से ल्युट् प्रत्यय करने पर ध्यान की सिद्धि होती है, अत: विक्षेप रहित चित्त से जो शिव का बारम्बार चिन्तन किया जाता है, उसी का नाम ध्यान है । ध्येय में स्थित हुए चित्त की जो ध्येयाकार वृत्ति का प्रवाह रूप से बने रहना 'ध्यान' कहलाता है । यहाँ ध्यान के दो प्रायोजन बतलाये गये हैं-१- मोक्ष २- अणिमादि सिद्धियों की उपलब्धि । शिवपुराण में ध्यान के दो भेदों का उल्लेख किया गया है-१- सविषय ध्यान तथा निविषय ध्यान । साकार स्वरूप का अबलम्बन करने वाला सविषय ध्यान एवं निराकार स्वरूप का बोध निविषय ध्यान माना गया है। इन सविषय एवं निर्विषय ध्यान को ही क्रमशः सबीज और निर्बीज कहा गया हो।A ध्यान के अभ्यास से ज्ञान की प्राप्ति तो होती ही है साथ ही जैसे-प्रज्वलित + ध्यानेत्थं सुतीव्रण युञ्जतो योगिनो मनः । संयास्यत्याशु निर्वाणं द्रव्यज्ञानक्रियानमः ॥ (भागवत्पुराण ...११/१४/४६) र अहिंसा सत्यमस्तेयमसंगो ह्रीरसंचयः । आस्तिक्यं ब्रह्मचर्य च मौनं स्थैर्य क्षमाऽभयम् ॥ श्रीमद् भागवत पुराण ११-१६-३३) - शौच जपस्तपो होमः श्रद्धाऽऽतिथ्यं मदचनम्। तीर्थाटनं परार्थेहा तुष्टिराचार्य सेवनम् ॥ (वही ११/१६/३४) A शिवपुराण-कल्याण अंक, वर्ष ३६, अंक १, पृ०५५८ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०) जैन परम्परा म ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन हुई आग सूखी एवं गीली लकड़ी को भी जला देती है, उसी प्रकार ध्यानाग्नि शुभ अशुभ कर्मों को क्षण भर में जला देती है । जिस प्रकार से एक छोटा सा दीपक भी अन्धकार का नाश कर देता है उसी प्रकार से थोड़े से योगाभ्यास के द्वारा योगी महान पापों का विनाश कर देता है एवं क्षण भर के श्रद्धापूर्वक किये हुए ध्यान के द्वारा साधक अनन्त श्रेय को प्राप्त करता है ।... __ श्रीमद् भागवत पुराण में नारद ने ध्यान के महत्व को समझाते हुए ध्रव को आसन लगाकर, प्राणायाम के द्वारा प्राण, इन्द्रिय तथा मन के मैल को दूर करके ध्यानस्थ हो जाने के लिए कहा था।x प्राणायाम को शिव पुराणों में दो प्रकार का कहा गया है १- अगर्भ, २- सगर्भ । अगर्भ प्राणायाम वह कहलाता है जिसमें जप तथा ध्यान के बिना ही, मात्रा के अनुसार किया जाये जबकि सगर्भ प्राणायाम के अंतर्गत जप तथा ध्यान अवश्य हो जाता है। विष्णु पुराण में अगभं को अबीज तथा सगर्भ को सबोज प्राणायाम .... यथा वल्लिमहादीप्तः शुष्कमा च निर्दहेत् । तथा शुभाशुभं कर्म ध्यानाग्निर्दहते क्षणात् ।। ध्यायतः क्षणमात्र वा श्रद्धया परमेश्वरम । यद्भवेत् सुमहेच्छ यस्तस्यान्तो नैव विद्यते ॥ (शिवपुराण वाववीय संहिता, उत्तर खण्ड, ३६/२५,२६) x प्राणायामेन त्रिवत्ता प्राणेन्द्रियमनोमलम् । शनैयुदास्याभिध्यायेन्मनसा गुरूणां गुरुम् ॥ (भागवतपुराण *(क) अगर्भश्च गर्भसंयुक्त प्राणायामः शताधिकः । तस्मात् गर्भ कुर्वन्ति योगिनः प्राणसंयमम् ।। शिवपुराण, वायवीय संहिता ३७/३३) (ख) श्रीमद् भागवतपुराण ३/२८/९ -~~ अगर्भश्च सगर्भश्च प्राणायामो द्विधा स्मृतः ( जपं ध्यानं विनाऽगर्भः सगभंस्तत्समन्वयात् ।। (वहीं उ० ख० ३७/३३) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (२१) कहा गया है। अगर्भ प्राणायाम से सगर्भ प्राणायाम सौ गुना श्रेष्ठ माना गया है, इसीलिये योगी सगर्भ प्राणायाम करते हैं ।+ __ इस प्रकार हम देखते हैं कि पुराणों में ध्यान के महत्व की विस्तृत रूप से चर्चा की गई है। ध्यान के समान कोई तीर्थ नहीं है, ध्यान के समान कोई तप नहीं है और ध्यान के समान कोई यज्ञ नहीं है, इसलिये ध्यान को अवश्य ही करना चाहिये । X योगवाशिष्ठ में ध्यान: योगवाशिष्ठ वैदिक साहित्य का ही एक अड्.ग है। इस अतिप्राचीन ग्रंथ में योग का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है । इसके छ: प्रकरणों में योग के सब अड.गों का वर्णन किया गया है। योगवाशिष्ठ के उपशम प्रकरण के छत्तींसमें सर्ग में ध्यान का वर्णन किया गया है वहां ध्यान के पर्यायरूप में समाधि का उल्लेख किया गया हैं । बद्धि, अहंकार, चित्त, कर्म, कल्पना, स्मृति, वासना इन्द्रियाँ, देह पदार्थ आदि को मन के रूप में ही माना गया है । मन अत्यन्त शक्तिशाली होता है, यही पुरुषार्थ में सहायक होता हैं । जब योगी अपने मन को पूरी तरह से शान्त कर लेता है तभी तो उसको ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है ।- यहाँ पर समाधि का लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि जो गुणों का समूह, गुणात्मक तत्व है वह समाधि है एवं जो इनको अनात्मरूप देखते हुए प्राणाख्यमननिलं वश्यमभ्यासारुते तु यत् । प्राणायामरूप विज्ञेयस्सबीजोऽबीज एव च ।। [विष्णु पुराण, षष्ठ अंश ७/४०) + अगर्भाद् गर्भ संयुक्तः प्राणायामः शताधिकः । तस्मात्गर्भ कुर्वन्ति योगिनः प्राण संयमम् ।। (शिवपुराण, वायवीय संहिता, उ. ख. ३७/३४) + नास्ति ध्यानसमं तीर्थं नास्ति ध्यान समं तपः । नास्ति ध्यानसमो यज्ञस्तस्माद् ध्यानं समाचरेत् ।। (शिवपुराण, वायवीय संहिता उ० ख० ३६/२८) योगवाशिष्ठ ६/११४/१७, ६/७/११, ६/१३६/१, ३/११०/४६ - वही ५/८६/९ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन अपने आपको केवल इनका साक्षीभूत चेतन जानता है, और जिसका चित्त स्वभाव सत्ता में लगकर शीतल हो गया है वह समाधिस्थ कहलाता है। योगवाशिष्ठ में योग की तीन रीतियों का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार से है।... १-एकतत्वघनाभ्यास, २- प्राणों का निरोध, ३- मनोनिरोध । ब्रह्माभ्यास के द्वारा अपने को उसी में लीन कर लेना एकतत्वघनाभ्यास कहलाता है। प्राणों के निरोध में प्राणायाम आदि की अपेक्षा की जाती है । मन के निरोध के द्वारा साधक अपनी समस्त इच्छाओं को पूरी तरह से शमन कर लेता है।x अविद्या दुखों का मूल कारण है, सम्यग्दर्शन के द्वारा अविद्या का नाश होता है।* आत्मा तो अविनाशी होती है, शरीर के नाश होने पर आत्मा का नाश होता है । शरीर का सम्बन्ध तो इन्द्रियों से है न कि आत्मा से । इन्द्रियों के नाश होने पर आत्मा का नाश नहीं होता। आत्मा और है और देह, मन प्राण इन्द्रिय और बुद्धि आदि यह कोई एक और ही विलक्षण भाव है। चित्त के उदय होने पर आत्मा अनात्मा बन जाता हैं। साधक को सम्यकदर्शी को मोह नहीं होता, वह साक्षात् शरीर ही मोक्षरूप है । इस प्रकार से योगवाशिष्ठ योग का महाग्रन्थ कहलाता हठयोगः... वैदिक संस्कृति से शुरु होकर ध्यान-योग अनेक संस्कृतियों में विभिन्न रूपों से गुजरता रहा। जब नदी में बाढ़ आती है तब वह चारों ओर से बहने लगती है, यही हाल योग के साथ हुआ, वह आसन मद्रा, प्राणायाम एवं ध्यान आदि बाह्य अंगों में प्रवाहित होने लगा। बाह्य अंगों का भेद प्रभेद पूर्वक इतना अधिक वर्णन किया गया और A योग वाशिष्ठ उपशम प्रकरण, अध्याय ३६/१० .... योगमनोविज्ञान, पृ० १२ x योगवाशिष्ठ ५/८ * प्राज्ञ विज्ञातविज्ञेयं सम्यग्दर्शमाधयः । न दहन्ति वनं वर्षासिक्तमग्निशिखा इव । (वही २/११/४१) जवही ५/५१/१-५ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान [२३) उस पर इतना अधिक जोर दिया गया कि जिससे योग की एक शाखा अलग ही बन गई, जो हठयोग के नाम से प्रसिद्ध हई। हठयोग -सिद्धान्त की चर्चा योगतत्वोपनिषद् एवं शाण्डिल्योपनिषद् में भी है। हठयोग के आदि प्रवर्तक शिव माने जाते है ।+ हठयोग का अर्थ है- चन्द्र-सूर्य, इडा-पिंगला, प्राणअपान का मिलन अर्थात् है सूर्य, चन्द्र अर्थात् सूर्य और चन्द्र का संयोग । हठयोग में शारीरिक विकास की ओर ज्यादा ध्यान दिया गया है क्योंकि अगर शरीर स्वस्थ होगा तो साधक का चित्त भी शान्त रहेगा और जब चित्त शान्त रहेगा तो वह ध्यान भी भली प्रकार से कर सकेगा। हठयोग में सात अड्.ग प्रमुख है-षट्कर्म, प्राणायाम, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान एवं समाधि । यहां आसन एव प्राणा-- याम को विशेष महत्व दिया गया गया है। यहां बतलाया गया है कि हठयोग के बिना राजयोग नहीं हो सकता और राजयोग के बिना + श्री आदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै येनापदिष्टा हठयोगविद्या । विभाजते प्रोन्नतराजयोगमारोढुमिच्छोरधिरोहिणीव ॥ (हठयोग दीपिका १/१) 0 (क) नत्वा साम्बं बह्मरूपं भाषायां योगबोधिका । मया मिहिरचंद्रेण तन्यते हठदीपिका ।। (वही १/१) (ख) चंद्रांगे तु समभ्यस्य सर्या गे पुनरभ्यसेत् । यावत्तुल्या भवेत्संख्या ततो मुद्रां विर्सजयेत् ॥ ( वही ३/१५ = षटकर्मणा शोधनं च आरानेन भवेदृढम् । मुद्रया स्थिरता चैव प्रत्याहारेण धीरता । प्राणायामल्लाघवं च ध्यानात्प्रत्यक्षमात्मनि । समाधिना निलिप्तश्च मुक्तिरेव न संशयः ॥ ( घेरण्डसंहिता १/१०/११) A धोतिबस्तिस्तथा नैतिस्त्राटकं नौलिक तथा। कपाल भातिश्चैतानि षट् कर्माणि प्रचक्षते ॥ (हठयोग प्रदी पिका २/२२) * वही, टी० १/१७/१७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (२४) हठयोग नहीं सिद्ध हो सकता। राजयोग की प्राप्ति के लिए साधक को कुम्भक प्राणायाम से प्राण का रोध कर अंत में अन्त: करण को निराश्रय कर देना चाहिये इस अभ्यास से ही वह राजयोग की प्राप्ति करता है।... हठयोग का सम्बन्ध आत्मा एवं मन की अपेक्षा शरीर से ज्यादा माना गया है। जब साधक की कुण्डलिनी शक्ति जागत हो जाती है तो उसका चित्त निरालम्ब एवं मृत्युभय से रहित हो जाता है और यही योगाभ्यास की जड़ है*, इसी को कैलाश भी कहते हैं। हठयोग में समाधि का विशद वर्णन करते हुए उसके पर्यायों का भी वणन किया गया है। जिस प्रकार से आत्मा में धारण किया ह मन आत्माकार होने से आत्मस्वरूप को प्राप्त होता है, उसी प्रकार आत्मा और मन की एकता समाधि कहलाती है। जब प्राण भली प्रकार से क्षीण हो जाता है और मन का भी लय हो जाता है उस समय में हुई समरसता समाधि कहलाती है + x अनर्गला सुषुम्ना च हठसिद्धिश्च जायते । हठं बिना राजयोगं विना हठः । न सिध्यति ततो युग्ममानिष्पत्तः समभ्यसेत् ॥ (वही ३/७६) .... कुंभक प्राणरोधांते कुर्याचित्तं निराश्रयम्। एवमभ्यासयोगेन राजयोगपदं व्रजेत् ॥ (हठयोग प्रदीपिका ३/७७) X सन्त मत का सरभंग सम्प्रदाय, पृ० ६६-६८ * भारतीय संस्कृति और साधना, भाग २, पृ० ३६७ - अतऊर्ध्व दिव्यरूपं सहस्त्रारं सरोरुहम । ब्रह्माण्ड व्यस्त देहस्थं बाह्य तिष्ठति सवंदा। कैलाशो नाम तस्यैव महेशो यत्र तिष्ठति ॥ (शिवसहिता ५) राजयोगः समाधिश्च उन्मनो च मनोन्मनी। अमरत्वं लयस्तत्वं शून्याशून्यं परं पदम् ॥ अमनस्कं तथा तं निरालंब निरंजनम् । जीवन्मुक्तिश्च सहजा तुर्या चेत्येकवाचका:।। (हठयोग प्रदीपिका ४/३-४) + हट्टयोग प्रदीपिका ४/५-७ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (२५) नाथयोग: वालों ने साम्प्रदायिक ग्रन्थों में नाथ सम्प्रदाय के अनेक नामों का उल्लेख मिलता है । हठयोग के समान ही नाथ - सम्प्रदाय सब नाथों में प्रथम आदिनाथ शिव को माना है । इस सम्प्रदाय का प्रारम्भ अथवा पुनर्स्थापन गोरखनाथ से हुआ है। गोरखनाथ का समय १० वी या ११ वी : शती से पूर्व माना गया है । नाथ सम्प्रदाय में 'ना' का अर्थ है अनादि रूप और 'थ' का अर्थ है (भुवनत्रयका ) स्थापित होना, इस प्रकार 'नाथ' मत का स्पष्टार्थ वह अनादि धर्म है जो भुवनत्रय की स्थिति का कारण है । श्री गोरक्ष को इसी कारण से 'नाथ' कहा जाता है । 'ना' शब्द का अर्थ नाथब्रह्म जो मोक्षदान में दक्ष है, उनका ज्ञान कराना है और 'थ' का अर्थ है | ( अज्ञान का सामर्थ्य को ) स्थगित करने वाला भी किया गया है । X ऐसी धारणा है कि शिव ने मत्स्येन्द्र नाथ को योग की शिक्षा दी थी और मत्स्येन्द्र नाथ ने गोरखनाथ को इसकी दीक्षा दी थी । नाथपन्थीय परम्परा इस प्रकार से मानी जाती है-आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, जालन्धरनाथ एवं गोरक्षनाथ... जिन्होने इस सम्प्रदाय का + आदिनाथः सर्वेषां नाथानां प्रथमः, ततो नाथसम्प्रदायः प्रवृत्त इति नाथ संप्रदायिनो वदन्ति । ( हठयोग प्रदीपिका, टी० (१-५) सिद्ध सिद्धान्त पद्धति एण्ड अदर वर्क्स आफ नाथ योगीज पृ० ७ वही पृ० १० गोरखनाथ एण्ड दी कनफटा योगीज पृ० २३५-३६ * नाकारोऽनादि रूपं थकारः स्थाप्यते सदा । भुवनत्रयमेवैकः श्री गोरक्ष नमोऽस्तुते ॥ ( सिद्ध सिद्धांत पद्धति) X [ क) श्री मोक्षदानदक्षत्वात् नाथब्रह्मानुबोधनात् । स्थगिताज्ञान विभवात् श्री नाथ इति गीयते ।। शक्ति संगम तन्त्र ) (ख) देदीप्यमानस्तत्वस्य कर्त्ता साक्षात् स्वयं शिवः । संरक्षन्तो विश्वमेव धीराः सिद्धमताश्रयाः ॥ ( सिद्ध सिद्धान्त पद्धति) नाथसम्प्रदाय, पृ० २६ ... Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) जैन परम्परा म ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रवर्तन किया था ऐसे मूलनाथ नौ हुए है ये नौ नाथ कौन-कौन थे इस सम्बन्ध में एक मत प्राप्त नहीं हुआ है, 'महार्णव तन्त्र' में नवनाथों के नाम इस प्रकार बतलाये हैं।.... गोरक्षनाथ, जालन्धरनाथ, नागार्जुन सहस्रार्जुन, दत्तात्रेय, देवदत्त, जडभरत, आदिनाथ एवं मत्स्येन्द्रनाथ । अनेक ग्रन्थों में नाथसम्प्रदाय का नाम मिलता है परन्तु यह पन्थ अलगअलग नामों से भी जाना जाता है जैसे-सिद्ध मत X, सिद्धमार्ग, योग मार्गA, योग सम्प्रदाय-,तथा अवधूत सम्प्रदाय आदि नाथपंथियों को कनफटा और दर्शनी साधु कहा जाता है। इनका कनफटा नाम इस कारण पड़ा क्योंकि ये लोग कान फाड़कर एक प्रकार की मुद्रा धारण करते हैं।+ इनके मत में योगमत और योग सम्प्रदाय नाम सार्थक ही है, क्योंकि इन लोगों का मुख्य धर्म योगाभ्यास ही है। इनके योगमाग की क्रियायें एवं साधना अधिकतर हठयोगियों से मिलती हैं। इसमें हठयोग के दो भेद बतलाये गये हैं। प्रथम भेद में आसन, प्राणायाम तथा धौति आदि षटकर्मों का वर्णन है। आसनादि के द्वारा नाड़ियां शद्ध हो जाती है तथा इनमें पूरित वायु मन को निश्चल करता है जिसमें परमानन्द की प्राप्ति होती है। दूसरे भेद में कहा गया है कि नासिका के अग्रभाग में दृष्टि को लगाकर श्वेत, पीत, रक्त एवं कृष्ण रंगों का ध्यान करना चाहिये । ऐसा करने से साधक चिरायु होता है तथा ज्यो-- तिर्मय होकर शिवरूप हो जाता है।→ ... हठयोग प्रदीपिका, पृ० ४ x गोरक्षसिद्धान्त संग्रह, पृ. १२ *योगबीज । A गोरक्षसिद्धांत संग्रह, पृ ५, २१ -वही, पृ. ५८ र अवधूत सम्प्रदाय, पृ० ५६ + नाथ सम्प्रदाय, पृ० १० → हठाज्ज्योतिर्मयो भूत्वा ह्यन्तरेण शिवो भवेत् । अतोऽयं हठयोगः स्यात सिद्धिद: सिद्धसेवितः ॥ (प्राणतोषिणी, पूरू ८३५) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (२७) इस योग में हठयोग तथा तन्त्रयोग के समान ही गुरु की महत्ता बताते हुए कहा गया है कि गुरु की कृपा से ही संसार के बन्धन तोड़कर शिव की प्राप्ति सम्भव है + इस सम्प्रदाय में कुण्डलिनी शक्ति के महत्व को समझाते हुए कहा है कि हठयोगी प्राणवायु का निरोध करके कुण्डलिनी को उबुद्ध करता है। जब कुण्डलिनी उद्बुद्ध हो जाती है तो प्राण स्थिर हो जाता है और साधक शून्यपथ से निरन्तर उस अनाहत ध्वनि को सुनने लगता है जो अखण्ड रूप से सारे ब्रह्माण्ड में ध्वनित हो रही है। प्राणायाम के द्वारा कुण्डलिनी का उदबोध सुकर हो जाता है । कुण्डलिनी के जागृत होने पर शक्ति जब उबद्ध होकर शिव के साथ समरस हो जाती है तो इसी को पिण्ड ब्रह्माण्डक्य भी कहते हैं, इसमें योगियों को परम काम्य कैवल्य अवस्था वाली सहज-समाधि प्राप्त होती है, जिससे बढ़कर आनन्द और नहीं है। यह सब गुरु की कृपा से होता है ज्ञान, वैराग्य एवं वेद पाठादि से नहीं 1- इस प्रकार + (क] एवं विधु गुरो शब्दात् सर्वं चिन्ताविवजितः। ___ स्थित्वा मनोहरे देशे योगमेव समभ्यसेत् । (अमनस्कयोग १५) (ख) सिद्ध सिद्धांत पद्धति एण्ड अदर वर्स आफ नाथ योगीज, पृ० ५, ५४-८० मुलकन्दोद्योतो वायुः सोमसूर्य पथोद्भवः । शक्तयाधारस्थितो याति ब्रह्मदण्डक भेदकः ।। मूलकन्दे तुव्यासक्ति कुण्डलाकाररूपिणी। उद्गमावर्त बातोऽयं प्राण इत्युच्यते बुधैः । कंददण्डेन चोदण्डै भ्रमिता या भुज.गिनी । मूर्छिता सा शिवं वेत्ति प्राणैरेवं व्यवस्थिता ।।(अमरौघशासनम्, पृ.११) -- (क) उद्घाटयेत कपाटं तु यथा कुचिकया हठात् । कुण्डलिन्या ततो योगी मोक्ष द्वारं प्रभेदयेत् ॥ गौरक्ष पद्धति १४८) (ख) बुष्टिस्तु कुण्डली ख्याता सर्वभागवता हि सा। बहुधा स्थूलरूपा च लोकानां प्रत्ययात्मिका । अपरा सवंगा सूक्ष्मा व्याप्तिव्यापक वर्जिता । तस्या भेदं न जानाति मोहितः प्रत्ययेनतु ।। ततः सूक्ष्मा परासंवित् मध्य शक्तिमहेश्वरी ॥ (सिद्ध सिद्धांत संग्रह ४/३०-३२) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) जैनपरम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन नाथ सम्प्रदाय की योग साधना हठयोग के साथ साथ पातञ्जल योग से भी मिलती जुलती है । शिव और शक्ति का मिलन ही इस योग का ध्येय है।.... शैवागम एवं ध्यान: शैवागम शिव के पाँच मुखों से निकली हुई अनुभूतियों का साहित्य है। शैवागमों के विषय में स्वयं शिव अपने मुख से कहते हैंजो कुछ जगत में है, देखा सुना जाता है, अनुभूत होता है, वह सब शिव शासन से ही चल रहा है । शैवी विद्या पराविद्या विद्या है, जो पशु को पाशमुक्त करा देती है।x शैवागमों का मूलाधार शैवसंस्कृति है । इसमें मूलतः पूरे स्वरूप को शिव और परमशिव नाम से सम्बोधित किया गया है। यह शिव पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। शिव की विश्व अन्तर्यामी दशा तो वह दशा है जिसमें मैं शिव हूँ। यह भी शिव ही है । तुम भी शिव हो। सब कुछ शिवमय है, शिव के अतिरिक्त कुछ नहीं है IA शिव तत्व के सम्बन्ध में कहा गया है कि शिव की इच्छा से जो प्रेरणा उत्पन्न हुई वह शिव तत्व है == एवं प्रणव भी शिवतत्व है, क्योंकि ओम् (प्रणव) में अ-उ.म ये तीनों अक्षर हैं। अ से आत्मतत्व, उ से विद्यातत्व और म से शिव तत्व का क्रम माना गया है। यह शिव परम अखण्ड महाप्रकाश स्वरूप है और इसे समस्त सृष्टि-स्थिति का केन्द्र माना जाता है। इस केन्द्र बिन्दु से निकले हुए पाँच बिन्दु ही शिव के पाँच मुख हैं.... शिवस्याभ्यन्तरे शक्तिः शक्तेरभ्यन्तरः शिवः । __ अन्तरं नैव जानीयाचचंद्रचचंद्रिकयोरिव ।। (सिद्ध सिद्धांत पद्धति ४/२६, x शैव दर्तन तत्त्व, पृ० ७६ * वही पृ० २१७ A अहं शिवः शिवश्चायं त्वं चापि शिव एवहि। __सर्व शिवमयं ब्रह्म शिवात् परं न किंचन ।। (वही, पृ० २१८ = (क निजेच्छया। जगत् सृष्टुमधुक्तस्य महेशितुः । प्रथमो यः परिस्पन्दः शिवतत्वं तदुच्यते ॥ (शिवपुराण, कै० स० १६ अध्याय) (ख) 'शिवतत्त्वं मकारः स्याद्धायदेवेति चिन्त्यंताम्' (शैवदर्शन तत्व, पु.२१६) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (२६) सद्योयान, २- वामदेव, ३- अघोर, ४- ईशान्य, तथा ५- तत्वांश+ शैवधर्म के तत्व को चार भागों में विभक्त किया गया है । वे चारों तत्व इस प्रकार से हैं-१-ज्ञान, २- क्रिया, ३- चर्या तथा ४- योग । कुण्डलिनी शक्ति की साधना शैवागमों का प्रिय विषय रहा है । कुण्डलिनी शक्ति को वे आधार शक्ति मानते, थे जिसमें संकोच और प्रसार की क्रियायें होती हैं। ये क्रियायें ऊध्वं गति और अधोगति को पहचाने वाली हैं। कुण्डलिनी जागरण-आसन, प्राणायाम, मलशोधन, नाड़िशोधन आदि सब कुछ स्वतः ही हो जाता है एवं शिव शक्ति का सामंजस्य भी हो जाता है इसी को परब्रह्म में लीन होना कहते हैं ।- यहां पर जीव को सामान्य तया पशु के समान माना गया है. जो तीन मलों से आवृत है । ये तीन मल आणव, माया और कर्म हैं। A साधक का इन मलावरणों को हटाकर स्वरूप को प्राप्त होना ही मोक्ष कहलाता परमार्थ सार में शिवयोगी के लिए समाधि उत्थान को जरूरी नहीं बतलाया गया अपितु वह स्वयं शिवस्वरूप में स्थित होता है। + तन्त्रालोक, कण्ठसंहिता, भाग १, प० ३७-३८ पशुपाशपतिज्ञानं ज्ञानमित्यभिधीयते । षडध्वशद्धिविविना गुवो धीना क्रियोच्यते ।। वर्णाश्रमप्रयुक्तश्चमयैव विहितस्य च । चर्चिनादि धर्मस्य चर्याचर्येति कथ्यते ॥ यदुक्तेनैव मार्गेण मययवस्थितचेतसः ।। वृत्यन्तरनिरोधोयो योग इत्यभिधीयते ।। (पाशपत सिद्धांते, उद्धृत शैव दर्शन तत्व, ८४) = आसनाभ्यसनं लक्ष्य प्राणायामद्वितीयकम्। मलसंशोधनं नाडिचक्रे चक्रविभेदनम् ।। शम्भो वियुक्ता या शक्तिः शाम्भवी दिव्यरूपिणी। तत्संयोगः परं लक्ष्यं पर ब्रह्मणि लीनता ।। (सिद्धामृत कु०मयो.) A आणव-मायीय-कर्ममलावृतत्वात् त्रिमयः। (प्रत्यभिज्ञाहृदयम्, प. १५) * तन्त्रालोक १/६२ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन इसके अनुसार साधना की अनभूति को विशेष स्थान प्राप्त है !... चित्त वृत्ति के निरोध को योग कहते हैं। इस मत को सभी शैवागमों ने अपनाया है। इन्होंने परमात्मा के पाँच कृत्य माने हैं-१ सष्टि २~ स्थिति, ३- संहार, ४- अनुग्रह तथा ५- विलय ।* इन कृत्यों को निरन्तरता अव्याहत है। यह वस्तुतः परमात्मा का ही खेल है । इससे जीव अपने में अभाव का बोध करता है एवं उसमें स्वरूप बोध की आन्तरिक इच्छा बलवती होती है। सुप्त या सोयी हुई शक्ति का शिव से मिलन ही योग है। पातञ्जल योगदर्शन में ध्यान: योग साधना में महर्षि पतञ्जलि के योगसूत्र का स्थान सर्वोपरि है। योग प्रक्रिया का वर्णन करने वाले जितने भी छोटे बड़े ग्रन्थ हैं, उन सबमें महर्षि पतञ्जलि के योगदर्शन का आसन ॐचा है। श्री शंकराचाय ने अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य में योगदर्शन का प्रतिवाद करते हुए जो 'अथ सम्यग्दर्शनाभ्यपायो योगः' ऐसा उल्लेख किया है । A पातञ्जल योग सांख्य सिद्धान्त की नींव पर खड़ा है। महर्षि पतञ्जलि का योगसूत्र चार पादों में विभक्त है। प्रथम पाद का नाम समाधि पाद है जिसमें योग के लक्षण, स्वरूप तथा उसकी प्राप्ति के उपायों का वर्णन है। द्वितीय पाद का नाम साधनापाद है जिसमें दुःखों के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय पाद जिसका नाम विभूतिपाद है, में धारणा, ध्यान एव समाधि का वर्णन किया गया है तथा चतुर्थ कंवत्यपाद में चित्त के स्वरूप का वणन किया गया है । इसमें ध्यान की परिभाषा एक सत्र में ही वणित है, वहाँ एक ही ध्येय में एकतानता, चित्त वृत्ति का एकरूप तथा एक रस बने रहना ध्यान है।+ न .... परमार्थसार ५६-६० X शव दर्शन तत्त्व, प० ८५ * तथापि तद्वत् पंचकृत्यानि करोति । सष्टि संहारकर्तारं बिलय स्थिति कारकम । अनुग्रहकरं देवंप्रणताति विनाशनम् । (प्रत्यभिज्ञाहृदयम्, पृ० ३२) - A अहह्मसूत्र २-१-३ भाष्यगत। + तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् । योगसूत्र ३/२ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान [३१] अत: चित्त की एकाग्रता के लिए चित्त की समस्त वत्तियों का निरोध जरूरी है है चित्त वत्तियों का निरोध ही योग है । ये वत्तियां संसार में प्रवृत्तियों के कारण उत्पन्न होती हैं जो धर्माधर्म तथा वासनाओं आदि को जन्म देती हैं । चित्त की ये वत्तियां पाँच प्रकार की हैं = १- प्रमाण, २- विपर्यय, ३- विकल्प, ४- निद्रा तथा ५- स्मति । जिनके द्वारा मनुष्य विविध ज्ञान अजित करता है, वे प्रमाण हैं। प्रत्यक्ष. अनुमान, उपमान तथा शब्द आदि प्रमाण कहलाते हैं। इन वत्तियों के अतिरिक्त 'योगसत्र' में क्लेश के निरोध का वर्णन किया गया है। क्लेश के भी पांच भेद हैं।A १- अविद्या, २- अमिता ३- राग, ४- द्वेष तथा ५- अभिनिवेश । समस्त वृत्तियों एवं क्लेशों के निरोध के लिए दो साधन बतलाये गये हैं १- अभ्यास तथा २. वैराग्य ।* पातञ्जल योगदर्शन के अनुसार चित्त वृत्तियों का निरोध अभ्यास से ही हो सकता है । अगर उसमें वैराग्य ही कारण हो, तो सिद्धियों की प्राप्ति कैसे होगी । अर्थात् अगर भीतर रहते हए चित्त एकाग्र और निरुद्ध होता है, तो उसमें राग के कारण सिद्धियां प्रकट होती है, क्योंकि संयम (धारणा, ध्यान, समाधि) किसी न किसी सिद्धि के लिए किया जाता है... और जहाँ सिद्धि का उद्देश्य है, वहां राग का अभाव कैसे हो सकता है? परन्तु जहाँ केवल परमात्म तत्व का उद्देश्य होता है, वहाँ ये धारणा, ध्यान एवं समाधि भी सहायक हो जाते हैं। मन की स्थिरता के लिए बहुत बार प्रयास करना अभ्यास कहलाता हैx एवं लौकिक-अलौकिक विषयों के प्रति मोह या भमत्व का न होना वैराग्य कहलाता है ।* योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । योगसूत्र १/२ = प्रत्यक्षानुमनागमाः प्रमाणानि । वही १/७ A अविद्यास्मितारागअभिनिवेशाः क्लेशाः । वही २/३ * अभ्यासवैराग्याभ्यां तनिरोधः । वही १/१२ ... त्रयमेकत्र संयमः। योगसूत्र ३/४ x तत्र स्त्रितौ यत्लोऽभ्यासः । वही १/१३ * दष्टानुश्रविक विषयधितृष्णस्य वशीकार संशा वैराग्यम् । वही १/१५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन महर्षि पतञ्जलि ने अष्टांग योग में ध्यान को सातवें क्रम में रखा है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि | किन्तु इसका मतलब यह नहीं निकलता कि प्रत्येक अग अपने में पूर्ण है । अगर देखा जाय तो पता चलता है कि स्त्रतन्त्र रूप से इन अंगों का अपना कोई अस्तित्व नहीं रह पाता । ये अंग तो मात्र साधना की दृष्टि से किये गये हैं कि जिनसे साधक क्रमशः मन, बचन एवं का की शुद्धि करता हुआ बढ़ता है । जैसे ध्यान से पहले धारणा के विषय में बतलाया गया है क्योंकि धारणा के बाद ही ध्यान की स्थिति आती है । धारणा में चित्त को एकाग्र करने के लिए चित्त वृत्तियों को बाँधने का अभ्यास किया जाता है । नाभि, हृदय, सिर, नासिका आदि किसी में भी अपनी सुविधा के अनुसार चित्त को बाँधा जाता हैं । - धारणा की परिपक्व अवस्था ध्यान की अवस्था कहलाती है । ध्यान में ध्येय को देखा जाता है लेकिन जब ध्यान की इस अभ्यास प्रक्रिया में केवल ध्येय मात्र की प्रतीति होती है और चित्त का निज स्वरूप शून्य सा हो तब वही ध्यान समाधि बन जाता है । + समाधि योग अन्तिम एवं चरम अवस्था है जिसमें आलम्बन के आभास ध्यान और ध्येय अलग-अलग भाषित होते हैं । असम्प्रज्ञात समाधि को दो अवस्थाओं में विभक्त किया गया है १- सम्प्रज्ञात समाधि तथा २- असम्प्रज्ञात समाधि । एकाग्र भूमि में एक वस्तु के सतत में भाव लगे रहना सम्प्रज्ञात समाधि है । समाधि के अन्तर्गत सभी वृत्तियों का पूर्णतः निरोध आवश्यक है । सम्प्रज्ञात समाधि के चार भेद किये गये हैं- १- वितर्कानुगत, 4 यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहार धारणा ध्यान समाधयोऽष्टावङ् गानि । योगसूत्र २ /२७ देशबन्ध चित्तस्य धारणा । वही ३ / १ + तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूप शून्यमिव समाधिः । योगसूत्र ३/३ समाधिर्ध्यानमेव ध्येयाकारनिर्भासं प्रत्ययात्मके स्वरूप शून्य - मिव यदा भवति ध्येय स्वभावावेशा तदासमाधिरित्युच्यते । वही ३, व्यास भाष्य ) - जाता है साधना की से रहित Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (३३) २- विचरानुगत, ३- आनन्दानुगत तथा ४- अस्मितानुगत सम्प्रज्ञात-समाधि 'सबीज - समः धि' कहलाती है । इसका मूल कारण है कि इसमें अविद्यादि क्लेश कर्मो के वीज नष्ट नहीं हो पाते हैं । ध्याता और ध्येय की प्रतीति बने रहने के कारण समाधि की यह अवस्था पूर्ण योग को प्राप्त नहीं होती है । जबकि असम्प्रज्ञात समाधि में ध्याता, ध्यान, ध्येय तीनों एक रूप हो जाते हैं, यह निर्बीज समाधि भी कहलाती है क्योंकि इसमें समस्त क्लेशों के बीज हो जाते हैं । 4 चित्त की वृत्तियों के निरोध हो जाने से आत्मा अपने स्वरूप हो जाती है । साधना की यह स्थिति ध्यान की सर्वोत्कृष्ट स्थिति कहलाती है। अद्वैत वेदान्त में ध्यान: । भारतीय दर्शनों में वेदान्त का प्रमुख केवल सैद्धान्तिक ही नहीं, व्यवहारिक भी है अर्थ है 'वेदों का अन्त' । आचार्य उदयवीर 'वेदान्त' का पद का तात्पर्य वेदादि के विधिपूर्वक तथा उपासना आदि के अन्त में जो तत्व जाना का विशेष रूप से जहां निरूमण किया गया हो, 'वेदान्त' कहते हैं। अद्वैत वेदान्त के अनुसार माया के चक्कर में पड़कर ही जीव भव भ्रमण करता है लेकिन अगर साधक आत्म दर्शन में मग्न रहकर योगारूढ़ हो जाता है तो वह इस संसार से पार हो सकता है 1 X योग का उद्देश्य आत्मा पर पड़े हुए अविद्या के पर्दे को हटाना है । इसी अविद्या के कारण जीव अपनी चित्त शक्ति को पहचान नहीं पाता है । इस आवरण को हटाने के लिए .... स्थान है । यह दर्शन 'वेदान्त' का शाब्दिक शास्त्री के अनुसार अध्ययन, जाये उस तत्व मनन उस शास्त्र को वितर्क विचारानन्दास्मितारूपानुगमात् सम्प्रज्ञातः । योगसूत्र १ / १७ 4 तस्यापि निरोधे सवं निरोधान्निर्बीजः समाधिः । वही १ / ५१ ** तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् । योगदर्शन १/३ वेदान्त दर्शन का इतिहास, पृ० १ **** X उद्धरेदात्मनात्मानं मग्नं संसारवारिधौ । योगारूढत्व मासाद्य सम्यग्दर्शननिष्ठया || ( विवेकचूड़ामणि ) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (३४) वेदान्त में साधन चतुष्टय बतलाये गये हैं जो इस प्रकार से हैं-- १नित्यानित्य वस्तुविवेक, २- वैराग्य, ३- षट्सम्पत्तियाँ-शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा या समाधान, तथा ४- मुमुक्षुत्व । इन साधन चतुष्ट्य के द्वारा साधक अपने अज्ञान को दूर करता है। वेदान्त की साधना ज्ञान से होती है, इसलिए श्रवण, मनन एवं निदिध्यासनA द्वारा ज्ञान प्राप्त करके साधक भव सागर को पार करता है। ___ अद्वैत वेदान्त आत्मा को ब्रह्म से भिन्न नहीं मानता है. वहाँ ब्रह्म को सम्पूर्ण सृष्टि का आधार मानते हुए दो रूपों में वर्णित किया गया है- १- सगुण तथा २- निर्गुण। निर्गुण रूप ही उसका वास्तविक रूप है । वह सब प्रकार के गुणों से रहित होने के कारण निष्क्रिय है। ब्रह्म की सिद्धि अनुमान द्वारा नहीं हो सकती। हमारे शरीर में स्थित जो आन्तरिक चेतन तत्व है वही आत्मा है। ब्रह्म के सगुण रूप का एकनिष्ठ ध्यान करना और उनमें लीन होना ही योग का वास्तविक स्वरूप है... वेदान्त सार में समाधि के दो प्रकार बतलाये गये हैं-१सविकल्पक तथा २- निर्विकल्पक IX निर्विकल्पक समाधि के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि ये आठ बतलाये गये हैं। *वहां ब्रह्म और आत्मा में रुक-रूककर अन्तः करण की वृत्ति के प्रवाह को ध्यान कहा गया है । श्रद्धा, भक्ति, → (क) साधनानि नित्यानित्यवस्तुविवेकेहामुत्रार्थफल भोग विराग शमादिषटकसम्पत्ति मुमुक्षुत्वानि । (ख) आदौ नित्यानित्य वस्तुविवेकः परिगण्यते । इहात्रमुफलभोगविरागस्तदनन्तरम् । शमादिषट्कसम्पत्तिर्मुमुक्षुत्वमिति स्फुटम ।। (विवेकचूडामणि १६) A ततः श्रुतिस्तन्मननं सतत्त्वध्यानं चिरं नित्य निरंतरं मुनेः। वही ७० ... योगमनोविज्ञान, पृ० २६ ~ समाधिद्विविधः सविकल्पको निर्विकल्पकश्चेति। (वेदान्तसार १८७) * अस्याइ.गानि यमनियमासन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समाघयः (वहीं १६१) 8 तत्राद्वितीयवस्तुनि विच्छिद्य विच्छिद्यान्तरिन्द्रिय वृत्तिप्रवाहो ध्यानम् । (वही १९८) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान [ ३५ ) ध्यान और योग मुक्ति के कारण हैं और इनसे ही देह बन्धन का उवछेद होता है।* अद्वैत वेदान्त का परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है । मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान से होती है, कर्म से नहीं । मोक्ष तो स्वयं आत्मा का स्वरूप है, वह पहले से ही सिद्ध है, अत. कर्म द्वारा उसे प्राप्त करना सम्भव नहीं है । अज्ञान रूपी आवरण होने के कारण उसकी प्रतीति नहीं होती । ज्ञान के प्रकाश से वह प्रगट हो जाता है और उसकी यही प्राप्ति मोक्ष ही है ।.... जब साधक इस स्थिति में पहुँचता है तो उसका अज्ञान नष्ट हो जाता है और उसे सर्वत्र ग्रह्म ही भासित होता है । बौद्ध धर्म में ध्यान: बौद्ध साहित्य में योग के स्थान में 'ध्यान' और 'समाधि' शब्द शब्द का प्रयोग मिलता है । ध्यान बौद्ध धर्म का हृदय है । बौद्ध साधना पद्धति में ध्यान का अर्थ किसी विषय पर चिन्तन करना है। + परन्तु अभ्यास के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है, चित्त का अभ्यास ही ध्यान है | X बाह्य विषयों की आसक्ति से मुक्त होना ही ध्यान है । * वोधि प्राप्त होने से पूर्व तथागत बुद्ध ने श्वासोच्छ्वास का निरोध करने का प्रयत्न किया। उन्होंने अपने शिष्य से कहा कि मैं श्वासोच्छवास का निरोध करना चाहता था. इसलिये मैं मुख, नाक एवं कर्ण में से निकलते हुए सांस को रोकने का, उसे निरोध करने का प्रयत्न करता रहा । लेकिन इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली । इसश्रद्धा भक्तिध्यानयोगान्मुमुक्षो मुक्तेर्हेतुन्वक्ति ... यो वा एतेष्वेव तिष्छन्यमुष्य मोक्षोऽविद्याकल्पितादेहबन्धात् ॥ ( विवेक चूडामणि ४६ ) ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्यम् १ / १/४ अविद्यास्त भयो मोक्षः सा बन्ध उदाहृतः । ( सर्वदर्शनसंग्रह पृ० ७६३) + समन्तपासादिका, पृ० १४५-१४६ X ध्यान सम्प्रदाय, पु० ८१ * दि सूत्र आंव-ने-लेंग, पृ ४७ 4 अंगुत्तर निकाय ६३ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (३६) लिए उन्होंने अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया।- यहाँ प्रत्याहार ध्यान, धारणा, प्राणायाम, अनुस्मति एवं समाधि योग के इन छ: अंगों में प्राणायाम को महत्व दिया गया है। बौद्ध योग में 'समाधि' का महत्वपूर्ण स्थान है। इसको प्राप्त करने के लिए 'ध्यान' का प्रतिपादन किया गया है। + ध्यान चार प्रकार का बतलाया गया है १- वितर्क-विचार-प्रीति-सुख,एकाग्रतासहित, २- प्रीति-सुख-एकाग्रतासहित, ३- सुख एकाग्रता-सहित तथा ४- एकाग्रता सहित ।→ जब साधक साधना करते हुए ध्यान की तीसरी अवस्था को प्राप्त करता है तो इसमें सुख एवं एकाग्रता ही शेष रह जाती है। साधक ध्यान की इस अवस्था तक पहुँच जाता है तो उसके भीतर उपेक्षा का भाव जाग्रत होने लगता है, जिससे चित्त में सौम्यता एवं समता का भाव उदय होने लगता है। इन उपेक्षाओं की दस अवस्थायें-षडंग, ब्रह्मविहार, उदय बोध्यंग, वीर्य, संस्कार, वेदना विपश्यना, माध्यस्थ, ध्यान और परिशुद्धि होती है + साधक एक एक करके इन उपेक्षाओं को धारण करता जाता है, परन्तु इस अवस्था में आंशिक रूप से भौतिक सुख की अनुभूति बनी रहती है इसलिये उसके भीतर समाधि के प्रति उदासीनता का भय बना रहता है लेकिन साधक जब इस अवस्था को पार कर लेता है तो उसकी चतुर्थ अवस्था प्रारभ्भ हो जाती है और यह अवस्था ध्यान की चरम अवस्था है। इसमें केवल एकाग्रता ही शेष रह जाती है । ध्यान की एकाग्रता के लिए साधक को आचार-विचार एवं नीति - (क) संयुत्त निकाय ५, १० (ख) विभंग ३१७-२८ प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽथधारणा। अनुस्मृति : समाधिश्व षडगयोग उच्यते ।। (शैकोद्देश टीका, पृ. ३०) + दीघनिकाय, १/२, पृ० २८-२६ → मज्झिमनिकाय, दीघनिकाय, सामञलफलसुत्त, बुद्धलीलासार संग्रह, पृ० १२८, समाधि मार्ग, पृ० १५ + विशुद्धिमग्गो, दीघनिकाय । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (३७) नियमों का पूरी तरह से पालन करना चाहिए, क्योंकि संयम के बिना ध्यान अथवा समाधि लगाना फूटे घड़े में पानी भरने के समान व्यर्थ है। जब साधक चित्त को एकाग्र कर लेता है तो वह समाधि-मार्ग में प्रवेश कर लेता है। इस प्रकार साधक अपने साधना पथ पर स्थल सूक्ष्म की से ओर बढ़ता चला जाता है । वास्तव में ध्यान की यह प्रक्रिया एक जंजीर में गुत्थी हुई प्रक्रिया है, जो स्थूल से सूक्ष्म की ओर चलती है, जिसके द्वारा साधक पूर्ण शील, पूर्ण समाधि एवं पूर्ण प्रज्ञा की प्राप्ति में सफल हो जाता है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद ध्यान का प्ररूपक जैन स संस्कृत साहित्य का विशाल भण्डार प्राचीन काल के तीन प्रमुख सम्प्रदायों वैदिक, जैन एवं बौद्ध सम्प्रदाय के विद्वानों के अथक प्रयास एवं लगन से समृद्ध हुआ है । वैदिक सम्प्रदाय के समान जैन सम्प्रदाय का संस्कृत साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान रहा है । जैन मनीषियों ने आध्यात्मिक विषय में भी संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी आदि भाषाओं में ग्रन्थ लिखे हैं। जैनागमों में योग के स्थान पर 'ध्यान' शब्द प्रयुक्त हुआ है । कुछ आगम ग्रन्थों में ध्यान के लक्षण, भेद प्रभेद आलम्बन आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है।+ आगम के बाद नियुक्ति का क्रम आता है। उनमें भी आगम में वर्णित ध्यान का ही स्पष्टीकरण किया गया है । आचार्य उमास्वाति ने 'तत्वार्थ सूत्र' में ध्यान का वर्णन किया है, परन्तु उनका वर्णन आगम से भिन्न नहीं है। - उन्होंने आगम एवं नियुक्ति में वर्णित विषय से कुछ अधिक नहीं कहा है। जिन भद्रगणी क्षमाश्रमण का 'ध्यान शतक' आगम की शैली में लिखा गया है ।* आगम युग से लेकर यहाँ तक योग विषयक वर्णन में आगम शैली की ही प्रमुखता रही है षटखण्डागम की धवला टीका में भी ध्यान विषयक प्रभूत + (क) स्थानाड्ग सूत्र, ४, १ [ख) समवायांग सूत्र ४, (ग) भगवती सूत्र, २५,७ (घ) उत्तराध्ययन सूत्र, ३०, ३५ RF आवश्यक नियुक्ति, कायोत्सर्ग अध्ययन, १४६२-८६ -तत्वार्थ सुत्र, ६,२७ * हरिभद्रीय आवश्यक वृत्ति, पृष्ठ ५८१ x षट्खंडागम, धवला टीका, १४/५/४/२६/१२/६४ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का प्ररूपक जैन साहित्य (३६) सामग्री है । परन्तु आचार्य हरिभद्र ने परम्परा से चली आ रही वर्णन शैनी को परिस्थिति एवं लोकरुचि के अनरूप नया मोड़ देकर अभिनव परिभाषा करके जैन योग साहित्य में अभिनव युग को जन्म दिया। नीचे हम ध्यान के प्ररूपक प्रमुख ग्रन्थों का परिचय दे रहे हैं। मूलाचार:___आचार्य वट्टकेर विरचित मूलाचार - मुनि आचार विषयक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह बारह अधिकारों में विभक्त है । उसके पंचाचार नामक पांचवे अधिकार में तप आचार की प्ररूपणा करते हुए आभ्यन्तर तप के जो छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं उसमें पाँचवा ध्यान है । इस ध्यान की वहाँ संक्षेप में प्ररूपणा की गई है। वहाँ सर्वप्रथम ध्यान के आर्त, रौद्र, धर्य व शक्ल इन चार भेदों का निरूपण किया है तथा रौद्र व आर्त ध्यान को अप्रास तया धर्म, एवं शुक्ल ध्यान को प्रशस्त बतलाया है तथा इन दोनों ध्यानों को ही मोक्ष का हेतु कहा है। आगे इन चार भेदों के प्रभेदों का वर्णन किया है। आचार्य वट्ट केर का समय लगभग-प्रथम-द्वितीय शती माना जाता है। यह ग्रन्थ प्राकृत गाथा बद्ध है ।... भगवती आराधना:__इस ग्रन्थ के कर्ता शिवार्य या शिवकोटि नाम के आचार्य हैं, जिन्होंने ग्रन्थ के अन्त में आर्य जिननन्दिगणी सर्वगुप्तगणी और आर्यमित्रनन्दि का अपने विद्या अथवा शिक्षा गुरु के रूप में उल्लेख किया किया है। यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक चारित्र और सम्यक तपरूप चार आराधनाओं पर, (जो मुक्ति को प्राप्त कराने वाली हैं ) एक अति महत्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थ है, जो जैन समाज में सर्वत्र प्रसिद्ध है । यह ग्रन्थ मुनिधर्म से सम्बन्ध रखता है। जैन धर्म में समाधिपूर्वक मरण की सर्वोपरि विशेषता है। मुनि हो या धावक सभी का लक्ष्य उसी ओर रहता है। भगवती आराधना ग्रन्थ मरण के भेद-प्रभेदों से भरा पड़ा है। इसमें मरण के पाँच भेद बतलाये .... जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-३ x जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ० ४८५(पं० जुगलकिशोर मुख्तार) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) जैन परम्परा में ध्यान : एक समीक्षात्मक अध्ययन हैं जिनमें प्रारम्भ के तीन प्रशस्त तथा शेष अप्रशस्त हैं । इसमें ध्यान के चार प्रकार बतलायें हैं और उनके भेद-प्रभेदों का भी वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ पर संस्कृत प्राकृत और हिन्दी की कितनी ही टीका टिप्पणियाँ लिखी गई है जिनमें 'अराजित सरि' कृत' विजयोदया' टीका काफी ख्याति प्राप्त है। स्थानाड़.ग सूत्र: आचारादि बारह अड्.गों में स्थानाड़.ग तीसरा अंग है । वर्तमान में वह जिस रूप में उपलब्ध है उसका संकलन वल भी बाचन। के समय देवद्धि गणि क्षमाश्रमण के तत्वावधान में वीर निर्वाण के बाद १८० वर्ष के आसपास हुआ है। उसमें दस अध्ययन या प्रकरण है, जिनमें यथाक्रम से १.२, ३ आदि १० पर्यन्त पदार्थों व क्रियाओं का निरूपण किया गया है । जैसे प्रथम स्थानक में एक आत्मा है एक दण्ड है, एक किया है, एक लोक है; इत्यादि ।+ चौथे स्थानक में ४-४ पदार्थों का निरूपण किया गया है तथा चार प्रकार के ध्यान का भी वर्णन किया है तत्पश्चात् उनमें से प्रत्येक के भी चार-चार भेदों का वर्णन है। औपपातिक सूत्र: यह ग्रन्थ स्थानाड्.ग सूत्र से काफी मिलता-जुलता है। ध्यान विपयक जो सन्दर्भ स्थानाड.ग में प:या जाता है वह सब प्रायः शब्दशः उसी रूप ओपपातिक सूत्र में भी उपलब्ध होता है। उनमें साधारण शब्द भेद व क्रम भेद है । ध्यान शतक: ___ ध्यान शतक एक अति प्राचीन ग्रन्थ है। इसके रचियता जिनभ्द्रगणि क्षयाश्रमण है । यह ग्रन्थ आगम शैली में लिखा गया है इस पर 'हरिभद्र सूरि' की टीका भी है । इस ग्रन्थ के रचियता के सम्बन्ध में कुछ मतभेद है। श्री पं० दलसुखभाई मालवणिया का मन्तव्य है कि ध्यान शतक के रचियता के रूप में यद्यपि जिनभद्र गणि से नाम का + एगे आया। एगे दंडे । एगा किरिया । एगे लोए। (स्थानाड्.ग १, सूत्र १-४) औपपातिक २०, पृ० ४३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का प्ररूपक जैन साहित्य (४१) निर्देश देखा जाता है, पर वह सम्भव नहीं दिखता है। इसका कारण यह है कि हरिभद्र सूरि ने अपनी आवश्यक नियुक्ति की टीका में समस्त ध्यान शतक को शास्त्रान्तर स्वीकार किया है तथा समस्त गाथाओं की व्याख्या स्वयं की है, पर यह किसके द्वारा रचा गया है इसके सम्बन्ध में उन्होंने कुछ भी नहीं कहा है। इसके अतिरिक्त हरिभद्र सूरि की उक्त टीका पर टिप्पणी लिखने वाले आचार्य हेमचन्द्र सरि ने भी उसके रचियता के विषय में कोई भी टिप्पणी नहीं की। प्रस्तुत ग्रन्थ में ध्यान के चारों प्रकारों का वर्णन है। प्रथम दो ध्यान मार्त और रौद्र कषाय तथा वासनाओं को बढ़ाते है, ये अप्रशस्त ध्यान हैं तथा अन्य दो ध्यान धर्य और शवल प्रशस्त ध्यान हैं एवं मोक्ष के कारण भूत है। धर्म्य ध्यानमोक्ष का सीधा कारण नहीं है। वह शुक्ल ध्यान का सहयोगी मात्र है। शक्ल ध्यान मोक्ष का सीधा कारण है। इस ग्रन्थ में बतलाया गया है कि जीव को कषायें, वासनायें एवं लेश्यायें कैसे बाँधती हैं। इसमें आसन, प्राणायाम, अनुप्रेक्षाओं का भी वर्णन है। तत्वार्थ सूत्रः ___ इस ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य उमास्वाति या उमास्वामी है। इनका समय विक्रम की पहली और चौथी शती के बीच में आंका जाता है।* इस ग्रन्थ को देखकर ऐसा लगता है कि मानो सारा जैन दर्शन इसमें समाविष्ट हो गया हो। इस ग्रन्थ पर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों आम्नाओं के आचार्यों ने अनेक टीकायें व भाष्य लिखे हैं। यह मोक्ष मार्ग को दर्शाने वाला एक अद्वितीय सूत्र ग्रन्थ है। इसमें दस अध्याय हैं । पहले अध्याय में ज्ञान एवं क्रिया का वर्णन है। दूसरे से लेकर पाँचवे अध्याय तक ज्ञय का और छठे से लेकर दसों तक चरित्र का वर्णन है। ध्यान के निरूपण में प्राय: चारित्र का ही वर्णन होता है क्योंकि ... गणधरवाद, प्रस्तावना, प०४५ x शुक्लशुचि निमंलं सकलकर्मक्षयहेतुत्वाद् । (योगशास्त्र प्रकाश ४, श्लोक ९५, स्वोपज्ञ विवरण) * तत्वार्थ सूत्र (पं० सुखलाल-विवेचन] प्रस्तावना, पृ० ६ A वही पृ. ६ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४२) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन चारित्र के पालन से ही आध्यात्मिक विकास होता है। इसके नौने अध्याय में ध्यान का विस्तृत वर्णन किया गया हैं । मोक्षपाहुड़:___इस ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य कुन्दकुन्द हैं । इनका समय अनुमानतः ई०पू० द्वितीय शताब्दी के आसपास है।+ यह एक बहुत महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें जैन योग सम्बन्धी बहुत सी महत्वपूर्ण बातों का वर्णन हैं । इसको गाथा संख्या १०६ है । इसमें आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा ऐसे तीन भेद, तथा उनके स्वरूप को समझाया है और बताया है कि मिथ्यात्व के कारण जीव की कैसी दशा होती है । बिना कषायों पर विजय प्राप्त किये मनुष्य मुक्ति अथवा परमपद प्राप्त नहीं कर सकता। आत्मध्यान में प्रवृत्त होने से ही कषायों का पर्दा हटता है क्योंकि इसमें सभी आस्त्रवों का निरोध होता है। एवं संवर तथा निर्जरा से समस्त संचित कर्मो का नाश होता है । मुनि के लिए पाँच महाग्रत, तीन गुप्ति, पाँच समिति आदि चरित्र का भी वर्णन है। बहुत से योगीजन विषय एवं वासनाओं से मोहित होकर अपना तप भ्रष्ट कर देते है, अतः योगी मुनि को ध्यान-साधना में सावधान रहने के लिए कहा है । मोक्षपाहुड़ पर श्रुतसागरसूरि की टीका भी उपलब्ध हैं। समाधि तन्त्र:___ इस ग्रन्थ के रचियता श्री पूज्यपादाचार्य है । इसमें इन्होंने आत्मा के विभिन्न रूपों का वर्णन किया है। मनुष्य में ज्ञान का होना जरूरी बताया गया है तथा आत्मज्ञान के बिना तप व्यर्थ है उससे मनुष्य की मुक्ति नहीं हो सकती इसका उल्लेख किया है ।= आचार्य पूज्यपाद का समय विक्रम की पांचवी छठी शती है । इस लघुकाय, किन्तु महत्वपूर्ण ग्रन्थ में ध्यान तथा समाधि द्वारा आत्म-तत्व को पहचानने के उपायों का सुन्दर विवेचन किया गया है। + स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, प्रस्तावना, पृ०७० - जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ. ६४ = समाधि तन्त्र, गाथा ३३ A इष्टोपदेश, पृ०६ - - Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का प्ररूपक जैन साहित्य [४३) इष्टोपदेश: __ योगविषयक आचार्य पूज्यपाद की यह दूसरी रचना है। यह एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इष्टोपदेश ५१ श्लोकों की एक छोटी सी रचना है। इसमें ध्यान के चार प्रकार बतलाये गये हैं। इसके साथसाथ साधक की उन भावनाओं का भी उल्लेख है, जिनके चिन्तन से वह अपनी चंचल वत्तियों को तजकर अध्यात्म मार्ग में लीन होता है तथा बाह्य व्यवहारों का निरोध करके आत्मानुष्ठान में स्थिर होकर परमानन्द की प्राप्ति करता है। पंचास्तिकाय म यह ग्रन्थ कुन कुन्दाचार्य के ग्रन्थों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है । इस ग्रंथ म १७३ गाथायें है। इसमें काल द्रव्य से भिन्न जीव पुद्गल धर्म अधर्म और आकाश नाम के पाँच द्रव्यों का विशेष रूप से वर्णन है। पाँच अस्तिकायों के स्वरूप का ध्यान संस्थानविषय धर्म ध्यान के अंतर्गत आता है। इस ग्रन्थ पर अमतचन्द्राचार्य और जयसेनाचार्य की खास संस्कृत टीका है तथा कुछ टीकाएं कन्नड़, हिन्दी आदि की भी उपलब्ध हैं।.... समयसार यह ग्रन्थ भी आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित है। इस ग्रन्थ का विषय शुद्ध आत्मतत्व है । जो कि ध्याता का प्रमुख लक्ष्य है। इसमें आत्मा के तीन भेद बतलाते हुए उनके विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। यह ग्रन्थ अपने विषय में बहुत ही महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक है। इसमें ४१५ गाथायें हैं। इस पर भी अमतचन्द्राचार्य एवं जयसेन कृत संस्कृत टीकायें है।X अमृतचन्द्राचार्य की टीकानसार इसमें ४१५ गाथायें है, जबकि जयसेनाचार्यानुसार इसमें ४३६ गाथायें परमात्म प्रकाश.. इस अपभंश ग्रन्थ के रचियता योगीन्दु देव हैं। डा. हीरालाल ... जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ० ६१ X नेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग ४ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन समय जैन और डॉ० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार इस ग्रन्थ का अनुमानतः ई० छठी शताब्दी है । इस ग्रन्थ में मानसिक दोषों के निवारण के उपाय व आत्मा के भेदों का निरूपण किया गया है तथा समाधि के विभिन्न रूपों का भी विवेचन है । इस ३४५ दोहे हैं । परमात्म प्रकाश पर अनेक टीकायें लिखी जिनमें बामदेव, बालचन्द्र तथा मुनिभद्रस्वामी की कन्नड़ प्रमुख है । + योगसार: · ग्रन्थ में गयी है टीका कुल इसके रचनाकार भी योगीन्दु देव है । इस छोटे से ग्रन्थ में १०७ दोहे हैं । इन दोहों के माध्यम से ही ग्रन्थकार ने आध्यात्मिक गूढ़ एवं रहस्यमयी तत्वों का अति सुन्दर विश्लेषण किया है । इस ग्रन्थ पर इन्द्रनन्दी की टीका है । आत्मानुशासन: इस ग्रन्थ के रचियता आचार्य गुणभद्र हैं । संस्कृत श्लोकों वाली यह वृत्ति योगाभ्यास की पूर्व पीठिका है। इस पुस्तक में, मन को बाह्य विषयों से हटाकर आत्मध्यान की ओर प्रेरित करना चाहिये ऐसा बतलाया गया है । विषयों में लिप्त रहकर आत्मध्यान करना असम्भव है । इस ग्रन्थ का रचनाकाल ई० ६ वीं शताब्दी का मध्य भाग है। - इस ग्रन्थ पर अनेक टीकायें भी लिखी गयो हैं 14 + डॉ० हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान पृ ११८ ॐ परमात्म प्रकाश तथा योगसार, डा० सम्पादक ए० एन० उपाध्ये, बम्बई, प्रकाशक परमश्रुत प्रभावक मण्डल, १३७, पृ. ११५ भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० १२१ 4 टीकाकार एवं अंग्रेजी अनुवादक जे. एल. जैनी, सैक्रेड बुक्स ऑफ दि जैनाज ग्रन्थमाला, ई० सन् १६२८; पं० टोडरमव रचित टीका के साथ, सम्पादक इन्द्रलाल शास्त्री, मल्लिसागर दि० जैन ग्रन्थमाला जयपुर, वीर नि० सं० २४८२ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का प्ररूपक जैन साहित्य (४५) तत्त्वानुशासन-ध्यान शास्त्र: इस ग्रन्थ के लेखक रामसेन आचार्य हैं जिनका समय अंतरंग एवं बहिरंग दोनों परीक्षणों से विक्रम की १० वीं शताब्दी का प्रायः अन्तिम चरण निर्धारित होता है ।... इस ग्रन्थ का प्रधान विषय 'ध्यान' है, इसलिये इसको 'ध्यान-शास्त्र' भी कहते हैं । यह अध्यात्म विषय की एक बड़ी ही महत्वपूर्ण कृति है । ध्यान द्वारा ध्यवहार तथा निश्चय दोनों प्रकार का मोक्ष मार्ग सिद्ध होता है । इसमें ध्यान के चारों भेदों-प्रभेदों का विस्तृत रूप से विवरण दिया गया है। मोक्ष प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र की अनिवार्यता निरूपित है । मन की एकाग्रता के लिए ध्यान का महत्व बतलाया गया है, मन्त्र, जप, आसन आदि का भी वर्णन किया गया है। इसमें २५६ पद्य हैं। योगसार प्राभतx: . इस ग्रन्थ के रचियता मुनि अमितगति हैं । इस ग्रन्थ में ५४० श्लोक हैं। इनका रचनाकाल ई० १० वीं शताब्दी है। इनमें ६. अधिकार हैं १- जीव, २- पुद्गल, ३- आस्व, ४- बन्ध, ५- संवर ६- निर्जरा, ७- मोक्ष, ८- चारित्र, ६. चलिका । इस ग्रन्थ में योग सम्बन्धी विषय का विस्तृत वर्णन है। इनके अतिरिक्त जीव-कर्म का सम्वन्ध, कर्म के कारण, कर्म से छटने के उपाय, ध्यान, चारित्र आदि का भी वर्णन है। अन्त में मोक्ष के सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला गया है। मुनि एवं श्रावक के व्रतों की भी चर्चा है। हरिभद्र का योगविषयक साहित्य: . जैन आचार्य हरिभद्र सूरि का समय ई० ५८० माना गया है।* .... तत्वानुशासन, प्रस्तावना, प०१४ X (अ) हिन्दी अनुवाद के साथ पन्नालाल बाकलीवाल द्वारा सम्पादित, कलकत्ता, प्रथम संस्करण, १६१८ (ब) भाष्य के साथ जुगल किशोर मुख्त्यार द्वारा सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, सन १६६६ * जैनेन्द्र सिद्धांत कोष, भाग ४ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (४६) . हरिभद्र सूरि ने जैन आगमों के आधार पर योग की जो व्याख्या और विषय-विभाग तथा उसमें जिस विशिष्ट पद्धति का अनुसारण किया है वह दार्शनिक जगत् में बिल्कुल नई वस्तु है। उनके लिखे हए योग विषयक ग्रन्थ-योग बिन्दु, योग दृष्टि समुच्चय, योग विशिका, योगशतक और षोडशक इसके ज्वलन्त प्रमाण है। उक्त ग्रन्थों में ये केवल जैन परम्परा के अनुसार योग-साधना का वर्णन करके ही सतुष्ट नहीं हए, बल्कि पातञ्जल योग-सूत्र में उसकी विशेष परिभाषाओं के साथ जैन साधना एवं परिभाषाओं की तुलना करने एवं उसमें रहे हए साम्य को बताने का भी प्रयत्न किया।+ आचार्य हरिभद्र के योगविषयक मुख्य चार ग्रन्थ हैं १- योगबिन्दु, २- योगदृस्टि समुच्चय. ३- योग शतक, ४- योगविशिका। इनमें प्रथम दो ग्रन्थ संस्कृत में हैं और अन्तिम दो ग्रन्थ प्राकृत भाषा में हैं। योगबिन्दु: . हरिभद्र के इस ग्रन्थ में ५२७ संस्कृत पद्य हैं, प्रस्तुत ग्रन्थ में सर्वप्रथम योग के अधिकारी का वर्णन किया गया है, जो दो प्रकार के होते हैं..चरमावर्ती तथा अचरमावर्ती। जिस जीव का काल मर्यादित हो गया है, जिसने मिथ्यात्व ग्रन्थि का भेदन कर लिया है, जो शक्ल पक्षी हैं वही चरमावर्ती मोक्ष का अधिकारी है । इसके विपरीत जो विषय वासना में और काम भोगों में आसक्त बने रहते हैं वे अचरमावर्ती जीव योग मार्ग के अधिकारी नहीं हैं। विभिन्न प्रकार के जीव के भेदों के अंतर्गत, १- अपुनबंधक, २- सम्यग्दष्टि, ३- वेशविरति और ४- सर्वविरति की चर्चा की गई हैं। चारित्र के वर्णन में आचार्य श्री ने पाँच योग-भूमिकाओं का वर्णन किया है १- अध्यात्म, २. भावना ३- ध्यान. ४- समता और ५-वृत्तिसंक्षय । इन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ में पाँच अनुष्ठानों का भी वर्णन किया है १- विष, २- गर, ३- अननष्ठान + समाधिरेष एवान्यः संप्रज्ञातोऽभिधीयते । सम्बप्रकर्षरूपेण वृत्यर्थ-ज्ञानतस्तथा ।। असंम्प्रज्ञात एषोऽपि समाधिर्गीयते परैः। निरूद्धाशेषवृत्यादि तत्स्वरूपानुवेधतः । (योगबिन्दु, ४१८, ४२०). वही ३५७-३७० Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का प्ररूपक जैन साहित्य (४७) ४- तद्वतु तथा ५- अमत अनुष्ठान । इसमें प्रथम के असदनुष्ठान है तथा अन्तिम के दो अनुष्ठान सदनुष्ठान हैं और योग अधिकारी व्यक्ति को सदनुष्ठान ही होता है । योगदृष्टि समुच्चय: प्रस्तुत ग्रन्थ में २२८ संस्कृत पद्य हैं। इसमें वर्णित आध्यात्मिक विकास, का क्रम परिभाषा, वर्गीकरण और शैली की अपेक्षा से योगविन्दु से अलग दिखाई देता है । योगबिन्दु में प्रयुक्त कुछ विचार इसमें शब्दान्तर से अभिव्यक्त किये गये हैं और कुछ विचार अभिनव भी हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में योगबिन्दु में प्रयुक्त अचरमावर्त काल को 'ओघदृष्टि' और चरमावर्त काल को 'योगदष्टि' कहा है। इसमें योग के अधिकारियों को तीन विभागों में विभक्त किया गया है। प्रथम भेद में आरम्भिक अवस्था से लेकर विकास की चरम-अन्तिम अवस्था तक की भूमिकाओं के कर्ममल के तारतम्य की अपेक्षा से आठ विभाग किये हैं १- मित्रा, २- तारा, ३- बला, ४. दीप्रा. ५- स्थिरा, ६- कान्ता ७ प्रभा, ८- परा।। द्वितीय विभाग में योग के तीन भेद किये गये हैं १- इच्छा-योग, २- शास्त्र योग, ३. सामथ्यं योग। तृतीय भेद में योगी को चार भागों में बाँटा है १- गोत्र योगी २- कुल योगी, ३- प्रवृत्त-चक्र योगी, ४- सिद्ध योगी। प्रथम वर्गीकरण में निर्दिष्ट आठ योग दृष्टियों में ही १४ गुणस्थानों की योजना कर ली गयी है। ____ इस ग्रन्थ पर स्वयं ग्रन्थकार ने स्वोपज्ञवृत्ति रची है, जो ११७५ श्लोक प्रमाण है। इस ग्रन्थ पर एक और वत्ति की रचना हुई, है जिसके लेखक सोमसुन्दरसूरि के शिष्य साधुराजगणि हैं। यह ग्रन्थ ४०५ श्लोक प्रमाण है ... योगशतक: प्रस्तुत ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार १०१ प्राकृत गाथाओं वाला है। इस ग्रन्थ का विषय निरूपण की दृष्टि से योगबिन्दु के अधिक निकट है। ग्रथ के प्रारम्भ में योग का स्वरूप दो प्रकार का बतलाया .... जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग-४, पृ. २३७ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (४८) है १- निश्चय, २- व्यवहार । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यग्दर्शन का आत्मा के साथ के सम्बन्ध को 'निश्चय योग' कहा है और उक्त तीनों के कारणों-साधनों को 'व्यवहार योग' कहा है। साधक जिस भूमिका पर स्थित है, उससे ऊपर की भूमिकाओं पर पहुंचने के लिए उसे क्या करना चाहिये इसके लिए योगशतक में कुछ नियमों एवं साधनों का वर्णन किया है । इनमें शयन, आसन आहार तथा योगों से प्राप्त लब्धियों का भी वर्णन है। इस तरह योग का स्वरूप, योगाधिकार के लक्षण एवं ध्यान रूप, योगाधिकार के लक्षण एवं ध्यानरूप योग अवस्था का सामान्य वर्णन जैन परम्परानुसार किया गया है। योगविशिका:___ यह बीस गाथाओं की छोटी सी रचना है। जिसमें संक्षिप्त रूप में योग की विकसित अवस्थाओं का निरूपण है । इसमें चारित्र शील एवं आचारनिष्ठ साधक को योग का अधिकारी माना है और उसकी धर्म-साधना या साधना के लिए की जाने वाली आवश्यक धर्म-क्रिया को 'योग' कहा है। उसकी पाँच भूमिकायें बतलाई हैं १. स्थान, २- ऊर्ण, ३- अर्थ, ४- आलम्बन, ५. अनालम्बन । प्रस्तुत ग्रन्थ में इनमें से आलम्बन और अनालम्बन की व्याख्या की है। प्रथम तीन भेदों की मूल व्याख्या नहीं की गई है। परन्तु उपाध्याय यशोविजय जी ने योगविशिका की टीका में पाँचों का अर्थ किया है।+ इनमें से प्रथम के दो भेद को कर्मयोग और के तीन भेदों को ज्ञान योग कहा है। इपके अतिरिक्त स्थान आदि पाँच भेदों के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थर्य और सिद्धि ये चार-चार भेद करके उनके उनके स्वरूप और कार्य का वर्णन किया है। षोडशक: इस ग्रन्थ के कुछ ही प्रकरण योग विषयक हैं। ग्रन्थ के चौहदवें प्रकरण में योग-साधना में बाधक खेद, उद्वेग, क्षेप, उत्थान, भ्रान्ति अन्यमुद, रुग् ओर आसंग इन आठ चित्त दोषों का वर्णन किया गया है सोलहवें प्रकरण में उक्त आठ दोषों के प्रतिपक्षी अद्वेष, जिज्ञासा, . + योगविशिका, यशोविजय टीका ३ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का प्ररूपक जैन साहित्य (४६) शुश्रूषा, श्रवण, बोध, मीमांसा, प्रतिपत्ति और प्रवृत्ति-इन आठ चित्त गुणों का निरूपण है। योगसाधमा द्वारा क्रमशः स्वानुभूतिरूप परमानन्द की प्राप्ति का निरूपण है। इस ग्रन्थ पर योगदीपिका नाम की एक वत्ति है जिसके लेखक यशोविजय गणि हैं। इस पर यशोभद्रसूरि का विवरण भी है। ज्ञानसारः इस ग्रन्थ के रचियता मुनि पद्मनन्दि हैं। जिनका समय विक्रम सं० १०८६ है। इसमें कुल ६३ गाथायें हैं। यद्यपि इस ग्रन्थ के वर्ण्य विषय ज्ञानाण व के ही अनसार हैं और इसमें ध्यान के भेद-प्रभेदों, विविध प्रकार के मन्त्र एवं जण, शुभ-अशुभ के फल आदि का वर्णन हआ है; तथापि इन विषयों के प्रतिपादन में रोचकता एवं स्पष्टता अधिक है। पाहुडदोहा: इस ग्रन्थ के रचियता मुनि रामसिंह है। डॉ० हीरालाल जैन के अनुसार इनका समय ई० सन् ६३३ और ११०० के बीच अर्थात् १००० के आसपास होना चाहिये। यद्यपि इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय परमात्म प्रकाश तथा योगसार से साम्य रखता है, तथापि इस ग्रन्थ में दहत से ऐसे दोहे हैं जिनमें बाह्य क्रियाकाण्ड की निष्फलता तथा आत्म संयम और आत्मदर्शन में ही सच्चे कल्याण का उपदेश है। झठे जोगियों को खूब फटकारा है। इसमें योग एवं तन्त्र सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दों के भी दर्शन होते हैं, जैसे-शिवशक्ति देहदेवली, सगुण निगुण, दक्षिण मध्य आदि । इस ग्रन्थ में २२२ दोहे हैं। यह अपभंश भाषा में है। ज्ञानार्णवः___आचार्य शुभचन्द्र विरचित ज्ञानार्णव ध्यान विषयक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है शुभ चन्द्र संभवत: राजा भोज के काल में अर्थात् विक्रम की १३ वीं शती में हुए हैं। इस ग्रन्थ में ४२ प्रकरण है। पद्य संख्या लगभग २२३० है। इसका दूसरा नाम योगार्णव है। इसमें योगीश्वरों के आचरण करने योग्य, जानने योग्य सम्पूर्ण जैन सिद्धान्त + भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० ११६ X ज्ञानार्णव पृ. २० Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन का रहस्य भरा हआ है। जैनियों में यह एक अद्वितीय ग्रन्थ है। ग्रन्थ की भाषा, कविता और पदलालित्य आदि को देखते हए ग्रन्थकार की प्रतिभा का पता सहज में लग जाता है । ग्रन्थ में प्रमुखता से ध्यान की प्ररूपणा तो की गई है, पर साथ में उस ध्यान की सिद्धि में निमित्त भूत अनित्यादि भावनाओं, अहिंसादि महायतों और प्राणायामादि अन्य अनेक विषय चचित हुए हैं। ज्ञानार्णव की एक दो संस्कृत टीकायें सुनी हैं, परन्तु अभी तक देखने में नहीं आयी । केवल इसके गद्य भाग मात्र की एक छोटी सी टीका श्री श्र तसागरसूरिकृत प्राप्त हुई है ।.... अध्यात्म रहस्य: इस ग्रन्थ के रचियता पं० आशाधर जी हैं। उन्होंने वि० सं० १३०० में अपने अनगार धर्मामृत ग्रन्थ की स्वोपज्ञ टीका पूरीको और उसमें इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है । * इसको देखकर ऐसा लगता है कि उससे कुछ समय पहले ही इस ग्रन्थ की रचना हुई होगी। इस ग्रन्थ में ७२ पद्य है । प्रस्तुत ग्रन्थ में अध्यात्मयोग को विशेष रूप से चर्चा की गई है। उसके सन्दर्भ में ही आत्मा व परमात्मा से सम्बन्ध रखने वाले गूढ़ तत्वों का भी वर्णन है। इसमें कर्म, ध्यान आदि विषयों का भी विवेचन है । ध्यान का इस ग्रन्य में सूक्ष्म रूप से वर्णन किया गया है। योगशास्त्र: प्रस्तुत ग्रन्थ के रचियता सुप्रसिद्ध हेमचन्द्र सूरि है।+ इस ग्रन्थ का समय वि० १२ वीं शती माना गया है। यह योग विषयक एक अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जो बारह भागों में विभक्त हैं। यह एक हजार श्लोक प्रमाण है। प्रथम तीन भागों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्याचारित्र स्वरूप रत्नत्रय का वर्णन किया है। चौथे अध्याय में .... ज्ञानाणंवः पृ० २० x अध्यात्मरहस्य, जुगल किशोर मुख्तार द्वारा सम्पादित, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली। * अध्यात्म रहस्य, प्रस्तावना, पृ० ३४ + जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग ३ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का प्ररूपक जैन साहित्य [५१] अध्यात्मसार:-... यह ग्रन्थ सात प्रकरणों में विभक्त है। योग अधिकार एवं ध्यान कषायों एवं रागद्वेष पर विजय पाने, एवं अनित्यादि बारह और मैत्री आदि चार भावनाओं के साथ ध्यान के योग्य आसनों का वर्णन किया है। पाँचवे व छठे अध्याय में विस्तार से प्राणायाम का निरूपण एवं उससे होने वाली हानि का चित्रण किया है। सातवें अध्याय से दसवें अध्याय तक आर्त, रौद्र, धर्म्य ध्यान की विस्तृत रूप से चर्चा की है। ग्यारहवें एवं बारहवें अध्यायों में शुक्ल ध्यान का निरूपण करके स्वानुभव सिद्ध तत्व को प्रकाशित किया गया है। इस पर उनकी स्वोपज्ञवृत्ति भी है । यह वृत्ति बारह हजार श्लोक प्रमाण है। योग प्रदीपः इस ग्रन्थ के प्रणेता के नाम एवं काल का अभी तक पता नहीं चल सका है। इसमें कुल १४३ श्लोक है। जिसमें परमात्मा के साथ शुद्ध मिलन एवं परमपद की प्राप्ति आदि की विस्तृत रूप से चर्चा की गई है। इसमें समरसता, रूपातीत, ध्यान, सामायिक, शुक्ल ध्यान, अनाहतनाद, निराकार ध्यान आदि विषयों का भी निरूपण किया गया है। योगसार. इस ग्रन्थ के प्रणेता योगीन्द्र देव माने गये हैं। ले िन समझा जाता है कि यह ग्रन्थ विक्रम की बारहवीं शती के पूर्व ही लिखा गया है इस ग्रन्थ में कुल १०८ प्राकृत पद्य है जिनमें पाँच प्रस्तावों के विधान है, यथा १- यथावस्थित देवस्वरूपोपदेश, २- तत्त्वसार धर्मोपदेश ३साम्योपदेश, ४- सत्वोपदेश और ५. भावशुद्धिजनकोपदेश । यशोविजयकृत ग्रन्थ यशोविजय का जैन साहित्य में बहुत बड़ा योगदान रहा है । इनका समय ई० १८ वीं शताब्दी है । इन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद् योगसार बत्तीसी, पातञ्जल योगसूत्रवृत्ति, योगविशिका की टीका तथा योगदृष्टिसज्झाय की रचना की है। वही भाग ३ ... श्री यशोविजय गणि, प्रकाशक, केशरबाई ज्ञान भण्डार, स्थानक, जाननगर। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन अधिकार प्रकरण में मुख्यतः गीता एवं पातञ्जल योगसूत्र के विषयों के सन्दर्भ में जैन योग परम्परा के प्रसिद्ध ध्यान के भेदों का समन्वयात्मक विवेचन है। योगसार बत्तीसी-x ____ इस ग्रन्थ में ३२ प्रकरण है जिनमें आचार्य हरिभद्र के मोगग्रन्थों की ही विस्तृत एवं स्पष्ट रूप से इन्होंने व्याख्या की है। ध्यान दीपिका: इस ग्रन्थ के प्रणेता देवेन्द्रनन्दि है। यह ग्रन्थ वि० सं० १७६६ में गुजराती भाषा में लिखा गया है। इसमें छह खण्ड है, जिनमें बारह भावना, रत्नत्रय, महाव्रत, ध्यान, मन्त्र तथा स्थाद्वाद का वर्णन किया गया है। ध्यान विचार इस ग्रन्थ के ग्रन्थकार भी अज्ञात है लेकिन इसकी हस्तलिखित प्रति पाटन के शास्त्र भण्डार में है। यह गद्य के रूप में लिखी गई है। इसमें भावना, ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना योग, काय योग एवं ध्यान के २४ भेदों का निरूपण है। अध्यात्म तत्त्वालोकः इसके ग्रन्थकार मुनि न्याय विजय हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में आठ प्रकरण है। प्रथम एवं द्वितीय प्रकरण में आत्मा के विकास एवं गुरुजनों की पूजा का वर्णन है। तृतीय में योग के आठ प्रकार बतलाये हैं। चतुर्थ एवं पंचम प्रकरण में कषायों पर विजय एवं ध्यान सामग्री का वर्णन है। छठे प्रकरण में ध्यान के चार प्रकारों की विस्तत व्याख्या है। सातों व आठवें प्रकरण में योग की विभिन्न श्रेणियों एवं ज्ञानियों के आत्मतत्व पहचानने के उपाय बतलाये हैं। आदि-पुराण आचार्य जिनसेन द्वारा विरचित आदि पुराण एक पौराणिक ग्रन्थ है । वह आदि-पुराण और उत्तर-पुराण इन दो विभागों में विभक्त x सटीक, प्रकाशक, जैन धर्म प्रसारक मण्डल, भावनगर । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का प्ररूपक जैन साहित्य (५३) है । राजा श्रेणिक के प्रश्न पर गौतम गणधर ने जो ध्यान का व्याख्यान किया था उसका आदि-पुराण के २१ वें पर्व में विस्तार से वर्णन किया गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ में ध्यान के चारों भेदों का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है। आचार्य जिनसेन का समय 8 वीं शती के लगभग है।+ हरिवंश पुराण पुन्नाट संघीय आचार्य जिनसेन कृत यह महान् ग्रन्थ संस्कृत श्लोकों में बद्ध है । इस ग्रन्थ में ६६ सर्गं और लगभग १०,००० श्लोक हैं । इस ग्रन्थ को महापुराण भी कहा जाता है । इसके ५६ वें सर्ग में ध्यान के दस भेदों का उल्लेख किया गया है। वहाँ पर आर्तध्यान और रौद्र ध्यान को अत्रशस्त ध्यान और धर्मध्यान शुक्लध्यान को प्रशस्त ध्यान कहा है । + जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग १ -: 0:1 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप ध्यान का महत्व जैन साहित्य में 'ध्यान' का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है । सब प्राणी सुख के अभिलाषी होते हैं और दुःख को कोई भी नहीं चाहता । पर वह सुख क्या है और कहाँ है तथा उसकी प्राप्ति के क्या उपाय है, इसका विवेक अधिकांश को नहीं रहता है । अज्ञानी प्राणी जिसे सुख मानता है वह यथार्थ में सुख नहीं है, किन्तु सुख का आभास मात्र है । इस प्रकार कर्म बन्धन में बद्ध होकर वे सुख के स्थान में दुख का अनुभव किया करते हैं । तब यथार्थ सुख कौन हो सकता है, यह प्रश्न उपस्थित होता है । इसके समाधान स्वरूप यह कहा गया है कि जिसमें असुख का लेश भी नहीं है उसे ही यथार्थ सुख समझना चाहिये ।' + ऐसा सुख जीव को कर्म बन्धन से रहित हो जाने पर मुक्ति में ही प्राप्त हो सकता है, जन्म मरणरूप संसार में वह सम्भव नहीं है । उस मुक्ति के कारण सम्यग्दर्शन, और सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र है, जिन्हें समस्त रूपों में मोक्ष का मार्ग माना गया है । निश्चय और व्यवहार के भेद से दों प्रकार के उस मोक्ष मार्ग की प्राप्ति का कारण ध्यान है, अतएव मुक्ति प्राप्ति के लिए उस ध्यान के अध्यास की जहाँ तहाँ प्र ेरणा की गई है । -- क्योकि जो व्यक्ति जिस समय जिस भाव का चिन्तवन + स धर्मों यत्र नाधर्मस्तत् सुखं यत्र नासुखम् । तज्ज्ञान यत्र नाज्ञानं सा गतिर्यत्र नाऽऽगतिः ॥ ( आत्मानुशासन, ४३] आत्मायतं निराबाधमतीन्द्रियमनश्वरम् । घातिकर्मक्षयोद्भूतं यत् तन्मोक्षसुखं विदुः ।। [ तत्त्वानुशासन, २४२ ) दुविह पि मोवखहेउं झाणे पाउणदिजं मुणीणियमा । तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह || ( द्रव्यसंग्रह, ४७ ) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (५५) करता है, तो वह उसी भाव में तमन्य हो जाता है । ध्यान का अर्थ ध्यान शब्द 'ध्यै चिन्तायाम' धातु से निष्पन्न होता है, किन्तु प्रवृत्ति-लभ्य अर्थ उससे भिन्न है। ध्यान का अर्थ चिन्तन नहीं किन्तु चिन्तन का एकाग्रीकरण अर्थात चित्त को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर रखना या उसका निरोध करना है।... आचार्य कुन्दकुन्द ने ध्यान को सम्यग्दर्शन व ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य के संसर्ग से रहित कहा हैं।X तत्त्वार्थ सूत्र में अनेक अर्थों का आलम्बन लेने वाली चिता के निरोध को अन्य विषयों की आर से हटाकर उसे किसी एक ही वस्तु में नियन्त्रित करने को ध्यान कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि जैन परम्परा में ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से ही माना गया था। वह मन, वाणी और शरीर तीनों से सम्बन्धित था । इस अभिमत के आधार पर उसकी निरंजन-दशा-निष्प्रकम्प-दशा ध्यान है। ध्यान शतक में स्थिर अध्यवसान को ध्यान का स्वरूप बतलाया है और जो एकाग्रता को प्राप्त मन है उसको ध्यान कहा है।- आदिपुराण में भी चित्त का एकाग्र रूप से निरोध करना ध्यान हैं, यह बतलाया गया हैं। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में राग, द्वष और मिथ्यात्व के सम्पर्क से रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है उसे ध्यान कहा गया है । वहीं आगे एकाग्र चिन्ता ... अंतो मुहत्तकालं चित्तस्सेगग्गगया हवइ झाणं । (आवश्यक नियुक्ति गाथा, ९४६३) x दसण-णाणसमग्गं झाणं णो अण्णदव्वसंजुत्तं । (पंचास्तिकाय, १५२) * उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानमान्तमुहूर्तात् । (तत्त्वार्थ सूत्र, ६/२७) A आवश्यक नियुक्ति, १४६७-७८ -जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । (ध्यान शतक २) एकाग्रयेण निरोधो यश्चित्तयस्यैकत्र वस्तुनि । (आदिपुराण, सर्ग २१, श्लोक ८) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन निरोध को भी ध्यान कहा गया गया है ।+ तत्त्वानशासन में भी एकाग्र चिन्ता को ध्यान का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है और वह निर्जरा तथा संवर का कारण है।→ योगसार प्राभत में ध्यान के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि आत्मस्वरूप का प्ररूपक रत्नत्रयमय ध्यान किसी एक ही वस्तु में चित्त के स्थिर करने वाले साधु के होता हैं जो उसके कर्मक्षय को करता है। x वस्तुत: चित्त को किसी एक वस्तु अथवा बिन्दु पर केन्द्रित करना कठिन है, क्योंकि यह किसी भी विषय पर अन्तमुहर्त से ज्यादा टिक नहीं पाता तथा एक महतं ध्यान में व्यतीत हो जाने के पश्चात् यह स्थिर नहीं रहता और यदि कभी हो भी जाये तो वह ध्यान न कहलाकर चिन्तन कहलायेगा अथवा आलम्बन की भिन्नता से दूसरा ध्यान कहलायेगा। प्रकारान्तर से ध्यान अथवा समाधि वह है, जिसमें संसार बन्धनों को तोड़ने वाले वाक्यों के अर्थ का चिन्तन किया जाता है अर्थात समस्त कर्म मल नष्ट होने पर सिर्फ वाक्यों का आलम्बन लेकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाने का प्रयत्न किया जाता तत्वार्थधिगम भाष्य में अगमोक्त विधि के अनुसार वचन, काय और चित्त के निरोध को ध्यान कहा गया है। A ध्यान को साम्य भाव बताते हुए कहा गया है कि योगी जब ध्यान में तन्मय हो जाता + जिदरागो जिददोसो जिदिदिओ जिदभओ जिदकसाओ। अरदिरदिमोहमहणो ज्झाणोवगओ सदा होहि । (भगवती आराधना वि. टी. १६६३) → एकाग्र-चिन्ता रोधो यः परिस्पन्देन वजितः । तद्ध्यानं निर्जरा-हेतुः संवरस्य च कारणम् । (तत्त्वानुशासन, ५६] x योगसार प्राभृत (अमितगति प्रथम) ६-७ मुहर्तात्परतश्चिन्ता यहा ध्यानान्तरं भवेत् । वहवर्थसंक्रमे तु स्याद्दीर्घाऽपि ध्यान-सन्ततिः ॥ (योगशास्त्र, ४/११६) - योगप्रदीप, १३८ । A तत्वार्थाधिगम भाष्य, सिद्धसेन गणि, ६-२० Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (५७) है, तब उसे द्वैत ज्ञान रहता ही नहीं और वह समस्त रागद्वेषादि सांसारिकता से ऊपर उठकर चित् स्वरूप आत्मा के ही ध्यान में निमग्न हो जाता है ।* इसी परिभाषा की पुष्टि करते हुए ध्यान के सन्दर्भ में समरसीभाव तथा सवीर्यध्यान→ का प्रयोग हुआ है। रयणसार में जिनागम का अभ्यास, पठन, पाठन, चितवन मनन और वस्तु स्वरूप के विचार को ही ध्यान माना गया है।... श्री जिनागम में परिणाम की स्थिरता को ध्यान कहा गया है।x महषि पतञ्जलि विरचित योगसूत्र में ध्यान का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि धारणा में जहाँ चित्त को धारण किया गया है वहीं पर जो प्रत्यय की एकाग्रता है-विसदश परिणाम को छोड़कर जिसे धारणा में आलम्बन भूत किया गया है उसी के आलमदन रूप जो निरन्तर ज्ञान की उत्पत्ति होती है-उसे ध्यान कहते हैं। पतञ्जलि ने एकाग्रता और निरोध ये दोनों केवल चित्त के ही माने है। A चित्त के विक्षेप का त्याग करना ध्यान है । उक्त विवरण से फलित होता है कि चिन्तन-शून्यता ध्यान नहीं और वह चिन्तन भी ध्यान नहीं है, जो अनेकाग्र है। एकाग्र चिन्तन ध्यान है, भाव क्रिया ध्यान है, और चेतना के व्यापक प्रकाश में जब चित्त विलीन हो जाता है, वह भी ध्यान है। साम्यमेव परं ध्यानं प्रणीतं विश्वदशिभिः । तस्यैव व्यक्तये नूनं मन्येऽयं शास्त्रविस्तरः।। ज्ञानार्णव,अध्याय २४/१३ X सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरण स्मतम् । एतदेव समाधि: स्याल्लोक-द्वय-फल-प्रदः ॥ तत्वानुशासन, १३७ → ज्ञानार्णव, अध्याय ३१, सवीर्य ध्यानम्। ... अज्झयणमेव झाणं पंचेदियणिग्गहं कसायं पि । (रयणसार, ६५) x श्री जिनागम, १२ * तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् । (योगदर्शन ३-२ A पातञ्जल योगदर्शन, १/१८ - चित्त विक्षेपत्यागो ध्यानम् । (सर्वार्थसिद्धि, ६/२०/४३६/८) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन इन परिभाषाओं के आधार पर जाना जा सकता है कि जैन आचार्य जड़तामय शून्यता व चेतना की मूर्च्छा को ध्यान कहना मानते थे । ध्यान का पर्याय: ध्यान के पर्याय के रूप में तप, समाधि, धीरोध, स्वान्तनिग्रह, अतः संलीनता, साम्यभाव, समरसीभाव, सवीर्यध्यान आदि का प्रयोग किया गया है । + योग को भी ध्यान के समानार्थक रूप में प्रयोग किया गया है । इन तीनों शब्दों [ ध्यान, समाधि, योग) के अर्थ में सामान्य से कुछ भेद नहीं है, क्योंकि वे तीनों ही शब्द प्रायः एकाग्रचिन्ता निरोध रूप समान अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं । इन तीनो शब्दों के अर्थ में एक रूपता होते हुए भी कुछ भेद भी हैं । समाधि सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्थवार्तिक में समाधि के स्वरूप प्रगट करते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार भाण्डारागर में अग्नि के लग जाने पर बहुत उपकारक होने के कारण उसे शान्त किया जाता है उसी प्रकार अनेक व्रतशीलों से सम्पन्न मुनि के तप में कहीं से बाधा के उपस्थित होने पर उस बाधा को दूर कर जिसे धारण किया जाता है + योगो ध्यानं समाधिश्च धी- रोधः स्वान्तनिग्रहः ; अन्त: संलीनता चेति तत्पर्यायाः स्मृता बुधैः ॥ [ आर्ष २१ / १२; तत्वानुशासन, पृ० ६१) (क) युजेः समाधि वचनस्य योगः, समाधि ध्यानमित्यनर्थान्तरम् । ( तत्वार्थवार्तिक ६,१.१२) (ख) प्रत्याहृत्य यदा चिन्तां नानालम्बनवर्तिनीम् । एकालम्बन एवैनां निरुणद्धि विशुद्ध धीः ॥ तदास्य योगिनो योगश्चिन्तैकाग्रनिरोधनम् । प्रसंख्यानं समाधिः स्याद् ध्यानं स्वेष्टफलप्रदम् ।। ( तत्वानुशासन ६०-६१) (ग) योगः समाधिः, स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्मः ॥ ( योगसूत्र भाष्य :- १ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (५६ उसका नाम समाधि है । तत्वा आचार्य वीरसेन ने समाधि के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में जो सम्यक् अवस्थान होता है उसका नाम समाधि है | नुशासन में ध्याता और ध्येय कीं एकरूपता को समाधि कहा गया है पाहुडदोहा में समाधि की विशेषता को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार नमक पानी में विलीन होकर समरस हो जाता है उसी प्रकार यदि चित्त आत्मा में विलीन होकर समरस हो जावे तो फिर जीव को समाधि में और क्या करना है अर्थात् बाह्य विषयों की ओर से निःस्पृह होकर चित्त का जो आत्म स्वरूप में लोन होना है, यही समाधि है ।... योगसूत्र में उस ध्यान को ही समाधि कहा गया है कि जो ध्येय मात्र के निर्भासरूप होकर प्रत्ययात्मक स्वरूप से शून्य के समान हो जाता है ध्याता, ध्येय और ध्यान इन तीनों के स्वरूप की कल्पना से रहित होकर निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त होता है X इसी प्रकार समाधि तत्त्र की आचार्य प्रभाचन्द्र विरचित टीका में समाहित समाधि युक्त - अन्तः करण के अर्थ को स्पष्ट करते हुए उसे एकाग्रीभूत मन कहा है विष्णु पुराण में भी परमात्मा के स्वरूप का जो विकल्प यथा भण्डारागारे दहने समुपस्थिते तत्प्रशमनमनुष्ठीष्यते बहूपकारकत्वात् तथाऽनेकव्रत शीलसमृद्धस्य मुनेस्तपसः कुतश्चित् प्रत्यूहे समुपस्थिते तत्संधारणं समाधिः । (सर्वार्थ सिद्धि, ६-२४ (ख) तत्वार्थवार्तिक, ६ . २४.८ ) 4 दसंण - णाण-चरित्तेसु सम्ममवट्ठाणं समाही णाम । (धवला पु०८, पृ ८८) * सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् । एतदेव समाधिः स्याल्लोकद्वयफलप्रदः ॥ ( तत्वानुशासन, १३७ ) जिमि लोणु बिलिज्जइ पाणियहं तिमि जई चित्तु विलिज्ज । समरसि हवइ जीवडा काइ समाहि करिज्ज || ( पाहुड़दोहा, १७६ ) X तदेवार्थमात्र निर्भासं स्वरूप शून्यमिव समाधिः । ( योगसूत्र, ३ - ३ ) समाहितान्तः करणेन - समाहितम् एकाग्रीभूतं तच्च तदन्तःकरणं च मनस्तेन । (समाधितन्त्र टीका, ३) ―― Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन से रहित ग्रहण होता है उसका नाम समाधि है । इसकी सिद्धि ध्यान से होती हैं, ऐसा कहा गया है । 4 योगः याग शब्द 'युज्' धातु से बना है। संस्कृत व्याकरण में दो युज् धातुओं का उल्लेख है जिसमें एक का अर्थ जोड़ना है, तथा दूसरे का अर्थ समाधिः मनः स्थिरता है । इस शब्द का प्रयोग भारतीय योगदर्शन में दोनों अर्थों में हुआ है । 'युजे समाधि वचनस्य योगः ' इस निरुक्ति के अनुसार योग को समाधिपरक कहा गया है । + पतञ्जलि ने चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है । यहाँ निरोध का अर्थ चित्त वृत्तियों को नष्ट करना है । तत्वार्थसूत्र में शरीर, वाणी तथा मन के कर्म का निरोध संवर है और यही योग है । .... इसी प्रकार योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास ने 'योगः समाधिः' X कहकर योग को समाधि के रूप में ग्रहण किया है जिसका अर्थ है समाधि द्वारा सच्चिदानन्द का साक्षात्कार । हरिभद्र सूरि ने उन सभी निर्मल धर्म व्यापार को योग कहा हैं जो मोक्ष से योजित करता है । उनके द्वारा योग के -अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंशय ये पाँच भेद किये गये हैं । + हेमचन्द्र ने मोक्ष के उपाय रूप योग को ज्ञान, श्रद्धान और चारित्रात्मक कहा है । - यशोविजय ने भी हरिभद्र के 4 तस्यैव कल्पनाहीनं स्वरूपग्रहणं हि यत् । 1 मनसा ध्यान निष्पाद्यं समाधिः सोऽभिधीयते ।। (विष्णुपुराण, ६, ७, ६० ) युजपी योगे । (हेमचन्द्र, धातुमाला, गण ७ ) युजिंच समाधौ । ( वही गण ४ ) + तत्वार्थवार्तिक, ६,१, १२ = -→ योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । ( योगदर्शन, १/२) आस्तव निरोधः संवरः । ( तत्वार्थ सूत्र, ६ / १ ) x योगदर्शन, भाष्य, पृ० २ 000 * मोक्खेण जोयणाओ जोगो । (योग विंशिका, । ( योगबिन्दु, ३१] + वही मोक्षोपाय योगो ज्ञानश्रद्धानचरणात्मकः । ( अभिधान चिन्तामणि १/७७ ) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६१) अनुसार ज्ञन, श्रद्धान, चारित्रात्मक को ही योग कहा है। इस प्रकार जैन परम्परा में योग का अर्थ चित्त वत्ति का निरोध व मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला साधन है । इसके द्वारा भावना, ध्यान, समता का विकासे होकर कमंग्रन्थियों का नाश होता है। वैदिक बौद्ध व जैन दर्शनों में योग, समाधि व ध्यान (तप) बहुधा समानार्थक हैं। ध्यान के अंग__ध्यान के लिए प्रमुख रूप से तीन बातें होना आवश्यक हैं-१-ध्याता २- ध्येय, ३- ध्यान ।+ ध्याता ध्याता अर्थात् ध्यान करने वाला। अर्थात् जिसके द्वारा ध्यान किया जाता है उसको ध्याता कहते है । ज्ञानार्णव में ध्याता के स्वरूप को बतलाते हुए कहा गया है कि ध्याता में आठ गुण जरूर होने चाहिए जो इस प्रकार हैं.... कि १- ध्याता मुमुक्षु हो, २. संपार से विमुक्त हो, ३- क्षोभरहित व शान्तचित हो, ४- वशी हो, ५- स्थिर हो, ६-जितेन्द्रिय हो, ७- संवर युक्त हो, ८-धीर हो। ऐसे आठ गुणों से युक्त ध्याता को ध्यान की सिद्धि होती है. अन्यथा नहीं। ध्येय ध्येय अर्थात् लम्बन । दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता मोशेण योजनादेव योगीह्यत्र निरुच्यते । लक्षणं तेन तन्मुख्यहेतु व्यापारतास्य तु॥ (योगलक्षण, द्वात्रि शिका, १) + (क) ध्यानं विधित्सता ज्ञेयं ध्याता ध्येयं तथा फलम् । (योगशास्त्र, ७/१) (ख) महापुराण, २१/८४ (ग) चारित्रसार, १६७/१ ... मुमुक्षुर्जन्मनिविण्ण: शान्तचित्तो वशी स्थिरः । जिताक्षः संवृतो धीरो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते ॥ (ज्ञानार्णवः, चतुर्थ सर्ग, ६) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन आल है कि जिसका ध्यान किया जाता है वह ध्येय है । बिना किसी म्बन अर्थात् ध्येय के ध्यान होना असम्भव है जब तक किसी बात का ध्येय ही नहीं होता तो क्या किया जायेगा ? इसी प्रकार ध्यान के लिए ध्येय का होना जरूरी है । जो शुभाशुभ परिणामों का कारण हो उसे ध्येय कहते हैं | X ध्यान ध्यान अर्थात एकाग्रचिन्तन । अर्थात ध्याता का ध्येय में स्थिर होना ही ध्यान है । निश्चय नय के कर्ता, कर्म करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण को षष्ठकारमयी आत्मा कहा गया है और इनको हो ध्यान कहा है । अतः आत्मा अपनी आत्मा को अपनी आत्मा में, अपनी आत्मा के द्वारा, अपनी आत्मा के लिए अपनी आत्मा के हेतु से और अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है । इष्ट अनिष्ट बुद्ध के मूल मोह का क्षय हो जाने पर चित्त स्थिर हो जाता है, उस चित्त की स्थिरता को ही ध्यान कहा गया है । + ध्यान की सामग्री: ध्यान की सामग्री को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ध्यान में परिषहों का त्याग, कषायों का नियन्त्रण, व्रतों का धारण और मन तथा इन्द्रियों का जीतना, यह सब ध्यान की उत्पत्ति-निष्पत्ति में सहाभूत - सामग्री है 1 भगवती आराधना विजयोदया टीका में नाक X ध्येयमप्रशस्तप्रशस्त परिणाम कारणं । ( चारित्रसार १६७ / २) * ध्यायते येन तद्ध्यानं यो ध्यायति स एव वा । यत्र वा ध्यायते यद्वा ध्यातिर्वा ध्यानमिष्यते । ( तत्वानुशासन, ६७) 4 स्वात्मन स्वात्मनि रूपेन ध्यायेत्स्वस्मैस्वतो यतः । षट्कारकामयस्तस्माद् ध्यानमात्मैव निश्चयात् ॥ ( तत्वानुशासन, -- ७४] + इष्टानिष्टार्थमोहादिच्छेदाच्चेतः स्थिरं ततः । ध्यान रत्नत्रयं तस्मान्मोक्षस्ततः सुखम् ॥ १ / ११४/११७) (अनगार धर्मामृत, संग-त्यागः कषायानां निग्रहो व्रत धारणम् / मनोऽक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यान जन्मनि । । [ तत्वानुशासन, ७५ ) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६३) के अग्र भाग पर दृष्टि को स्थिर करके, एक विषयक परोक्षज्ञान में चैतन्य को रोककर शद्ध चिद्रप अपनी आत्मा में स्मृति का अनुसंधान करें ऐसी ध्यान की सामग्री को बतलाया है।= परीषहों का त्यागः वैसे तो प्राणी मात्र का जीवन संघर्षों की कहानी है, सुख-दुख का चित्रपट है किन्तु मानव जीवन तो हमेशा संघर्षों से ही घिरा हुआ रहता है। उसमें भी साधक और जिस व्यक्ति ने त्याग कर दिया है ऐसे प्रमण अथवा श्रावक के जीवन में तो अनेक विघ्न बाधायें आती रहती है जिनको परीवह या उपसर्ग कहते हैं। मार्ग से च्यूत न होने के लिये और कर्मों की निर्जरा के लिए जो सहन करने योग्य हैं वे परीषह है। जो सही जाये वही परीषह है 1* और परोषहों का जीतना ही परीषहजय हैं ।.... अर्थात् अत्यन्त दुखादि एवं क्षधादि वेदनाओं के तीन हो जाने पर भी जो शान्तभाव से इन कष्टों को सहन करता है वह साधक परीषहजयी कहलाता है ।X == किचिवि दिट्ठिमुपावत्तइन्तु झाणे णिरुद्ध दिट्ठीओ।। अप्पाणहि सदि सधित्ता संसार मोवखळें ॥ (भगवती आराधना (१७०१) x (क) मार्गाच्यवन निर्जराथ परिसोढव्याः परीषहाः। (तत्वार्थसूत्र ६/८ (ख) क्षुधादि वेदनोत्पत्तौ कर्मनिर्जरार्थ सहनं परीषहः । (सर्वार्थ सिद्धि, ६/२/४०६/८) * परिषद्यत इति परीषहः । राजवार्तिक, ९/२/६/५६२/२) .... परीषहस्य जयः परीषह जयः । (सर्वार्थसिद्धि, ६/२/४०६/९) x (क) दुःखोपनिपाते संकलेशरहितता परीषहः जयः। (भगवती आराधना, विजयोदयाटी०, ११७१,११५९/१८) (ख) क्षुधादिवेनानां तीब्रोदयेऽपि सुख दुखजीवितमरणलाभालाभनिंदा प्रशंसादि समता रूप परमसामायिकेननवत रतशुभाशुभ कर्मसंवरण चिरंतनशुभाशुभ कर्म निरणसमर्थेनायं निजपरमात्मभावनासंजात निर्विकार नित्यानन्द लक्षण सुखामृत संवित्तेरचलनं स परीषहजय इति । (वृहद्रव्यसंग्रह, ३५/१४६) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (६४) परीषहों के भेद: जैनागमों में परीषहों के बाईस प्रकार बतलाये गये है * अर्थात् १-क्षधा, २- तुषा, ३-शीत, ४- उष्ण, ५- दंशमशक, ६- नग्नता, ७अरति, ८- स्त्री, ६- चर्या, १०- निषद्या, ११- शय्या, १२- आक्रोश, १३- बध, १४- याचना, १५- अलाभ १६- रोग, १७- तृणस्पर्श, १८मल, १६- सत्कार-पुरस्कार, २०- प्रज्ञा, १- अज्ञान और २२- अदर्शन । जो भिक्षु भिक्षा के न मिलने पर या अल्प मात्रा में भिक्षा मिलने पर क्षघा की वेदना को प्राप्त नहीं होता तथा जो अकाल में भी भिक्षा नहीं लेता तथा क्षुधा की वेदना होने पर भी जो भिक्षा नहीं माँगता, वह क्षुधा परीषह को समभाव से सहता है वहीं क्षुधा परीषहजयी है।+ __ जो मुनि कंठ में प्राण आ जाने पर प्यास की उत्कट बाधा से विचलित नहीं होता, अपितु पिपासारूपी अग्नि को सन्तोषरूपी नतन मिट्टी के घड़े में भरे हुए शीतल सुगन्धित समाधि रूपी तेल से शान्त करता है वह तृषा परीषहजयी होता है। (ग) सो विपरिसह-बिजओ छहादि-पीडाण अइर उदाणं। सवणाणं च मुणीण उवसम-भावेण जं सहणं ।। (कार्तिकेया नुप्रेक्षा ६८) (घ) उत्तराध्ययन, अध्ययन २ *(क) क्षुत्पिपासाशीतोष्ण दशंमशक नान्या रतिस्त्रीचर्यानिषद्या शययाक्रोशवध याचनालाभरोगतणस्पर्शमलपत्कारपुरस्कार प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि । (तत्वार्थसूत्र, ६/६) (ख] अनगार धर्मामत, ६/०६-११२ (ग) चारित्रसार १०८/३ (घ) द्रव्यसंग्रह टी० ३५/१४६/8 (ङ) मूलाराधना २५४-२५५ + (क) सर्वार्थसिद्धि ६/६/४०२/६ (ख) राजवातिक ९/९/२/६०८ (ग) चारित्रसार १०८/५ or (क) सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२०/१२ (ख) चारित्रसार ११०/३ ग) राजवार्तिक ४/९/३/६०८/२४ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६५) जो प्राणियों की पीड़ा के परिहार में चित्त लगाये रहता है, उस साधु के चारित्र के रक्षणरूप उष्णपरीषहजय कही जाती है।कड़कड़ाती सदी में जो साधक अपने शरीर को गर्म करने की इच्छा नहीं रखता है तथा जिसने आवरण का त्याग कर दिया है एवं जो बर्फ के गिरने पर, हवा का झोका आने पर उसके प्रतीकार की इच्छा नहीं रखता है और जो ज्ञान भावनारूपी गर्भागार में निवास करता है वह साधक शीतवेदना परीषहजय कहलाता है। ____ जो साधक मक्खी, पिस्स, छोटी मक्खी, खटमल, चीटी एवं बिच्छ आदि बाधाओं को बिना प्रतीकार के सहन करता है तथा मन, वचन काय से उन्हें नुकसान नहीं पहुँचाता है तथा निर्वाण की प्राप्ति मात्र संकल्प ही जिसका ओढ़ना है ऐसा साधक दंशमशक परीषहजय कहलाता है । यदि साधक के वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो जायें तो भी वह नये वस्त्रों की इच्छा नहीं करता। यदि उसे अल्प मूल्य वाले वस्त्र मिले तो भी - (क) निवाते निर्जले ग्रीष्मरविकिरणपरिशुष्कपतितपर्ण व्यपेतच्छा यातरुण्यतव्यन्तरे यदच्छयोपनि पतितस्यानशनाद्यभ्यन्तर साधनोत्पादितदाहस्यदवाग्निदाह पूरुष वातातपजनितगलतालुशो षस्य तत्प्रतीकारहेतून् बहूननुभूतानचिन्तयतः प्राणि पीडा परिहारवाहित चेतसश्चरित्र रक्षणमुष्णसहनमित्युपवर्ण्यते । (सर्वार्थसिद्धि (ख) चारित्रमार ११२/४ A (क) राजवातिक ६/६/६/६०९/४ (ख) चारित्रसार १११/४ ग] सर्वार्थसिद्धि ६/९/४२१/३ . * (क] तेन दंशमशकमक्षिकापिशुकपुत्तिकामत्कुणकीट पिपीलिका वृश्चिकादयो गृहयन्ते । तत्कृतां बाधामप्रतीकारां सहमानस्य तेषां बाधां त्रिधाप्यकुर्वाणस्य निर्वाण प्राप्तिमात्र संकल्पप्रवणस्य तद्वेदनासहनं दंशमशकपरिषह क्षमेत्युच्यते । (सर्वार्थसिद्धि ६/९/४२१/१०] ... सार ११३/३ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (६६) खेद नहीं करता लेकिन याचना नहीं करता बल्कि समभाव से रहता है ऐसा मुनि अचेलव्रतधारी अर्थात् नग्नत्व परीषहजय कहलाता ___ अरति का अभिप्राय संगम के प्रति अधैर्य या अनादर का भाव है। जो सयत इन्द्रियों के इष्ट विषय सम्बन्ध के प्रति निरुत्सुक हैं, जो शिलागुफा आदि में स्वाध्याय, ध्यान और भावना में लीन है एवं सुने हुए एवं अनुभव किये हुए विषय भोगों के स्मरण से जिसका हृदय निश्छिद्र रहता है वह अरति परीषहजय कहलाता है।x स्त्री शब्द कामवासना का पर्याय माना गया है। स्त्रियों से साधक विशेष रूप से सावधान रहता है, क्योंकि वह स्त्री को अपने ब्रह्मचर्य में बाधक मानता है। स्त्री के बनाव श्रृगार काम को बढ़ाने व उत्तेजित करने वाले होते है। वह वासना से सम्बन्धित आवेगों-संवेगों-वासनागत कुण्ठओं से अपने मन को चलायमान होने नहीं देता तथा अपनी इन्द्रियों की, मनोवृत्तियों को कुछए के समान संकुचित कर लेता है। बह स्त्रियों से अधिक परिचय भी नही रखता। समत्व की भावना में रहना ही स्त्री परीषहजय कहलाता ... [क] राजवार्तिक 8/8/१०/६०६/२६ [ख] चारित्रसार १११/५ [ग] सर्वार्थसिद्धि ६/९/४२२ X (क) चारित्रसार ११५/३ [ख] राजवार्तिक ६/६/११/६०६/३६ (ग) सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२२ * [क) एकान्तेष्वाराम भवनादिप्रदेशेषु नवयोवनमदविनममदिरा पानप्रमत्तासु प्रमदासु बाधमानासु कूर्मवत्संवृतेन्द्रिय हृदयविकारस्य ललितस्मितमृदुकथितसविलासबी क्षणप्रहसनमदमन्थरगमनमन्मथशख्यापारविफलीकरणस्य स्त्रीबाधापरीषहसहनमवग न्तव्यम् । (सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२२/११) [ख] चारित्रसार ११६/१ (ग) राजवार्तिक ६/६/१३/६१०/७ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६७) तपस्या करने से जिसका शरीर अशक्त हो गया है ऐसा साधक क्षीण कृश शरीर वाला होने पर भी अपने कल्प के अनुसार मार्ग के कष्टों को सहता हआ भी पूर्व में भोगे हुए वाहनादि का स्मरण न करके विचरण करता है लेकिन व्याकुल नहीं होता है ऐसा श्रमण चर्यापरीषहजयी कहलाता है ।+ साधक पहले अभ्यास न होने पर भी श्मशान, उद्यान, गिरि, गुफा आदि में निवास करता है। सिंह एवं व्याघ्र आदि हिंसक जीवों की भयंकर ध्वनि को सुनकर वह विचलित नहीं होता । वह नियत काल के लिए वीरासन, उत्कटिका आदि आसनों से अवस्थित नहीं होता। वह समस्त बाधाओं में समभाव से रहता है वही साधक निषद्या परीषहजयो कहलाता है। जो साधक स्वाध्याय ध्यान आदि के श्रम के कारण थककर कठोर कँटीले एवं शीतोष्ण भूमि पर एक मुहूर्त प्रमाण निद्रा का अनुभव करता है जो करवट लेने से ही प्राणियों को होने वाली बाधा को दूर करने के लिए स्वयं मुर्दे के समान करवट नहीं बदलता तथा जिसका चित्त सदैव ज्ञान भावना में लगा रहता है ऐसा श्रमण शय्या परीषहजयी होता है।- मुनि को कोई गाली भी दे या उसके अंग भंग कर दे फिर भी वह शान्त भाव से रहता है बल्कि मारने वाले से प्रेम एवं दया के साथ व्यवहार करता है वह उन पर आक्रोश नहीं करता वह क्रोध + (क) सर्वार्थसिद्धि ९/९/४२३ (ख) चारित्रसार ११८/१ श्मसानोद्यानशून्यायतनगिरिगुहागहवरादिष्वनभ्यस्तपूर्वेषु निवसत आदिन्यप्रकाश स्वेन्द्रियज्ञानपरीक्षितप्रदेशेकृतनियमक्रियस्य निषद्यानियमितकालामास्थितवतः सिंहव्याघ्रादिविविध भीषण ध्वनिश्रवणान्निवत्तभयस्य चतुर्विधोपसर्गसहनादप्रच्युत मोक्षमार्गस्य वीरासनोस्कुटिकाद्यासनादविचलित विग्रहस्य तत्कृत बाधासहननिषधा परीषह विजय इति निश्चीयते । [सर्वार्थसिद्धि 8/8/४२३/७) - (क) सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२३/११ (ग) राजवातिक ६/६/१६/६१०/१८ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [६८] को सब पाप कर्मों का विपाक मानता है वह कषाय विष के लेशमात्र अंश को भी अपने हृदय में स्थान नहीं देता।A साधक को कोई अज्ञानी जीव चाहे वध भी कर दे फिर भी वह उसे अपनी कर्म निर्जरा का सहायक मानकर उपकारी ही समझता है वह उसके प्रेम भाव से ही बोलता है, उसके यही भाव वध परीषह जय कहे जाते हैं। याचना परीषह पर विजय प्राप्त करना विनम्रता और अहंकार भाव के विसर्जन की साधना है। जो साधक बाह्य व अभ्यान्तर तप को करने में लगा हुआ है एवं जिसने तप से अपने शरीर को सुखा लिया है एवं मात्र अस्थि पंजर रहने पर भी और प्राणों के वियोग होने पर भी आहार व दवाई आदि को दीन शब्द कहकर व मुख की मलिनता को दिखाकर जो याचना नहीं करता वह याचना परोषहजयी है।... जो साधक दिन में एक बार ही भोजन ग्रहण करता है तथा भाषा समिति का पालन करता है एवं अनेक घरों में भी भिक्षा याचना करने पर न मिले तो भी दुखी नहीं होता और न हो कोई विकार मन में लाता है, तथा 'लाभ से भी अलाभ मेरे लिए परम तप है, ऐसा विचार जो साधक मन में लाता है, उसे अलाभ परीषह जय मानना चाहिये ।x । वैसे तो मुनि की दिनचर्या एवं तपोसाधना ही ऐसी है जो A (क] मिथ्यादर्शनोद्रक्तामर्षपरुषावज्ञा निन्दासभ्यवचनानि क्रोधा ग्निशिखा प्रबर्धनानि निशग्वतोऽपि तदर्थेष्वसमाहितचेतसः सहसा तत्प्रतिकारं कर्तुं मपि शक्नुवत: पापकर्मविपाकमचिन्तयतस्तान्याकर्ण्य तपश्चरणभावनापरस्य कषायविषलव मात्रस्याप्यनवकाशमात्महृदयं कुर्वताआक्रोशपरिषहसहनमवधार्यते । (सर्वार्थसिद्धि 8/8/४२४) ख) चारित्रसार १२०/४ । .... राजवार्तिक ६/६/१६/६११/१० (ख) सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२५ (ग) चारित्रसार १२२/२ x [क] सर्वार्थ सिद्धि ६/६/४२५ (ख] चारित्रसार १२३/४ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६६) उसके पास कोई भी बीमारी नहीं आती लेकिन कुछ प्रारब्ध के कर्म दोषों की वजह से उसको कोई रोग हो भी जाये तब भी साधक उन बीमारियों के अधीन नहीं होता और न ही तप से प्राप्त ऋद्धियों से उनका निवारण करता है वह तो शरीर को अनित्य मानता है ।* मार्ग में चलते समय या किसी भी समय मुनि के पैर तण के स्पर्श से बिंध जाये और उसके वेदन। के उत्पन्न होने पर भी जिसका चित्त व्याकुल नहीं होता बल्कि प्रसाद रहित होता है उसके तृण स्पििद बाधा परीषह मानने चाहिये । + अप्कायिक जीवों की पोड़ा के कारण जो साधक आजन्म अस्नान का व्रत धारण कर लेता है और तीन गर्मी में भी पसीना आने से मैल जम जाने पर भी और पवन के द्वारा लाये हुए व धूल के कणों से जिसका शरीर धूल धूसरित हो गया हैं और दाद खमली आने पर भी जो खुजाता नही है । सम्यक्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूपी जल से जो अपने कर्ममल की कीचड़ को धो लेता है उस साधक को मल पीड़ा परीषह जय कहा जाता है। सत्कार का अर्थ पूजा प्रशंसा है तथा क्रिया आदि में आमंत्रण देना पुरस्कार कहलाता है । इस सम्बन्ध में मेरा कोई अपमान करता है, मैं महान तपस्वी हूँ एवं स्वसमय व परसमय का निर्णयज्ञ हूँ तब भी कोई मुझको प्रणाम नहीं करता आदि निम्न कोटि के विचारों से जिसका चित्त रहित है वह साधक सत्कार पुरस्कार परीषह जय कहा जाता है। * (क] राजवार्तिक ९/९/२१/६११/२४ [ख) सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२५/६ + आदिव्दधनकृतपादवेदनाप्राप्तौ सत्यां तत्राप्रहित चेतसश्चर्याशय्यानिषद्यासु प्राणिपीडा परिहारे नित्यमप्रमत्तचेतस्स्तृणादिस्पर्श बाधा परिषह विजयो वेदितव्यः [सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२६/१] Ho (क] चारित्रसार १२५/६ (ख) सर्वार्थसिद्धि ६६।४२६।४ = (क) सर्वार्थ सिद्धि ६/६ (ख) चारित्रसार १२६/५ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन मैं सभी शास्त्रों का ज्ञाता हूँ मेरे सामने सब कोई क्षीण है कोई भी मेरे सामने सुशोभित नहीं होता, इस प्रकार विज्ञानमद का निरास होना प्रज्ञापरीषह जय कहा जाता है । ___ मैं मूर्ख हूँ, मैं कुछ भी नहीं जानता, घोर तपस्या करने पर भी मुझे दिव्य ज्ञान क्यों नहीं प्राप्त हो रहा है। ऐसा सोचकर अपनी श्रद्धा को कम नहीं करता है या ऐसे विचार जो अपने मन में न लाये वह साधक अज्ञान परिषहजय कहलाता हैं। ... परम वैराग्य से मेरा हृदय शुद्ध हो गया है, मैं परम ज्ञानी हो गया हूँ मैंने समस्त रहस्यों को जान लिया है। मैं अरहन्त हूँ और धर्म का उपासक हूँ। व्रतो का पालन करना निरर्थक है इत्यादि बातों का जो मन में भी विचार नहीं करते ऐसे साधु अदर्शन परिषहजयी कहे जाते हैं। साधक को इन परीषहों पर विजय प्राप्त करना अनिवार्य है क्योंकि परीषह विजय के बिना साधक का चित्त एकाग्र नहीं हो सकता और न ही उनके कर्मों का क्षय होगा। अब एक प्रश्न यह उठता है कि परीषहों की संख्या तो बहुत है, क्या सभी परीषह मनुष्य को एक साथ हो सकते है, अगर नहीं तो फिर साधक को एक स थ कितने परीषह हो सकते है। तत्वार्थ सूत्र में कहा गया है कि एक साथ एक आत्मा को उन्नीस तक परीषह विकल्प से हो सकते है :* सर्वार्थमिद्धि A (क] अड्.गपूर्व प्रकीर्णक विशारदस्य शब्दन्यायाध्यात्मनिपुणस्य मम पुरस्तादितरे भास्कर प्रभाभिभूत खद्योतवन्नितरां नावभासन्त इति विज्ञानमद निरासः प्रज्ञापरिषहज यः प्रत्येतव्यः । (सर्वाथ सिद्धि ६/६/४२७) (ख) राजवातिक 8/९/२६/६१२ ... क) सर्वार्थसिद्धि 8/६/४२७ [ख) चारित्रसार १२२/१ x विफल व्रतपरिपालनमित्येवमसमादधानस्य दर्शन विशद्धि योगाद दर्शन परिषह सहनमवसातव्यम् । (सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२७) । * एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नकोनविंशतेः । (तत्वार्थ सूत्र ६।१७) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (७१) में भी एक साथ उन्नीस परीषहों का होना माना गया है क्योंकि एक आत्मा में शीत व उष्ण परीषहों में से एक, शयया, निषद्या और चर्या में से कोई एक परीषह होता है ये परीषह एक साथ नहीं हो सकते। इस तरह एक आत्मा में केवल उन्नीस परीषह ही होते है । A कषायों का त्यागी___ ध्यान की सिद्धि के लिए मानव (ध्याता) को कषायों का भी त्यागी होना चाहिये क्योंकि ध्यान के घातक कषायों को त्यागे बिना कषायी व्यक्ति को ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती । कषायों को चार प्रकार का बतलाया गया है १-क्रोध कषाय, २- मान कषाय, ३- माया कषाय, ४- लोभ कषाय । क्रोध कषाय के सम्बन्ध में ज्ञानार्णव में कहा गया है कि चारित्र और विशिष्ट ज्ञान से बढ़ाया हुआ तप, स्वाध्याय और सयम का आधार जो पुरुष उसका धर्मरूपी शरीर है,वह क्रोध रूपी अग्नि से भस्म हो जाता है।X मुनियों को क्रोध को त्यागने के लिए विशेष रूप से प्रेरित किया गया है क्योंकि क्रोध करने से न केवल हमारे शरीर का नाश होता अपितु हमारे सभी पुण्यकर्म भी भस्म हो जाते है, जो कि हमारे बड़े प्रयत्न से संचित किये गये होते हैं। इस कषाय की अग्नि को शान्त करने के लिए क्षमा ही अद्वितीय नदी है तथा क्षमा ही उत्कृष्ट संयमरूपी बाग की रक्षा करने के लिए दृढ़ बाढ़ है । इसलिए मुनियों को क्रोध को त्याग कर क्षमा को ग्रहण करना चाहिये। क्रोध कषाय के समान ध्याता को मान कषाय का भी परित्याग करना परमावश्यक हो जाता है, क्योंकि मान कषाय से न केवल संचित किये गये सत्कर्म ही नष्ट होते हैं बल्कि व्यक्ति नीच गति को प्राप्त होता है। ज्ञानाणव में कहा भी है कि कुल, जाति, ऐश्वर्य, रूप, तप, बल और धन इन आठ भेदों से जिनकी बुद्धि विगड़ गई है अर्थात जो मान करते हैं, वे नीच गति को प्राप्त होते A सर्वार्थसिद्धि ६।१७ + तपः श्रुतयमाधारं वृत्तविज्ञानवद्धितम् । भस्मी भवति रोषेण पुंसां धर्मात्मकं वपुः ।। (ज्ञानाणंव, सर्ग १६, श्लोक ४) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन है। यद्यपि मानकषाय दुर्गति का कारण होता है फिर भी इसके प्रशस्त व आरशस्त दो प्रकार बतलाये हैं १- प्रशस्तमान २- अप्रस्तमान । - तीसरे प्रकार की कषाय अर्थात माया कषाय के सम्बन्ध में भी शास्त्रों में इसी प्रकार की बातें लिखी गई है कि जब तक व्यक्ति माया मोह के चक्कर में पड़ा रहता है तब तक उसको ध्यान को सिद्धि नहीं हो सकती और ध्यान की सिद्धि के बिना मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है क्योंकि माया मोक्ष रोकने की अर्गला है। जब तक माया शल्य रहती है तब तक मोक्ष मार्ग का आचरण नहीं होता। आचार्य शमचन्द्र जी ने भी कहा है कि-मैं मायावलम्बी पुरुषों के अनुष्ठान, आचरण को कट द्रव्य के समान असार समझता _ 'लोभ पाप कामल है' यह लोकोक्ति सर्वथा सत्य है क्योंकि जितने भी दुष्कर्म हैं या अयोग्य कार्य है वे इस लोभ से स्वय ही उत्पन्न हो जाते हैं। ध्याता को इन चारों कषायों का त्यागना जरूरी है क्योंकि कषायों के मिटने से हो आत्मस्वरूप का अनभव होता है।x गत-धारणः__ध्याता के सर्वत्रयम और अति-आवश्यक व्रत-गाँव महाअत हैं। श्रमण सर्वविरत होता है, वह तीन करण (कृत, कारित, अनुमोदना) ओर तीन योग (मा, व कन, काय] से व्रत लेता है । इसीलिए उसके हिसादि व्रत महाग्रत कहलाते है। ये महाव्रत पाँच हैं १अहिसा महाबत, २- सत्य महाव्रत, १- अचौर्य महाव्रत, ४- ब्रह्मचर्य महाव्रत, ५- अपरिग्रह महाव्रत ।*ये श्रमण के मूलगुण हैं और ज्ञानार्णव सर्ग १६, श्लोक ४८ -~- अपमान करं कर्म येन दूरान्निषिभ्यते । स उच्चैश्चेतसां मानः परः स्वपरघातकः ॥ (वही सर्ग १६, श्लोक ५६) कूटद्रव्यमिवासारं स्वप्नराज्यमिवाफलम् । अनुष्ठानं मनुष्याणां मन्ये मायावलम्बिनाम् ।। (ज्ञानार्णव, सर्ग १६ श्लोक ६०) X उत्तराध्ययन सूत्र २१११२ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (७३) अष्टाड.ग योग की भाषा में इन्हें यम कहा जाता है। __ महर्षि पतञ्जलि के अनुसार महाबत जाति-देश, काल (वेश, सम्प्रदाय निमित्त) आदि की सामाओं से मुक्त एक सार्वभौम साधना अहिंसा महावत___ इनका आगमोक्त नाम 'सर्वप्राणातिपातबिरमण' है। तत्वार्थसूत्र में हिंसा का लक्षण इस प्रकार कहा गया है 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा।' अर्थात प्रमाद से अपने या दूसरों के प्राणों का घात करना हिंसा है। ज्ञानार्णव में अहिंसा का लक्षण इस प्रकार बतलाया है कि जिसमें मन वचन काय से त्रस और स्थावर जीवों का घात स्वप्न में भी न हो उसे अहिंसा महावत कहते है।+ यद्यपि भाषा की दृष्टि से अहिंसा निषेधात्मक शब्द है किन्तु इसका विधेयात्मक रूप भी हैं और वह है-प्राणि रक्षा, जीव दया, अभय दान, सेवा, क्षमा, मैंत्री, आत्मौपम्य भाव आदि । योगी (ध्याता) निषेधात्मक रूप से किसी भी प्राणी को हिंसा किसी भी प्रकार से न करता है, न कराता है और न ही अनुमोदना करता है, मन से, वचन से, काय से । साथ ही वह अहिंसा के विधेयात्मक रूप का भी पालन करता है जीव-दया, विश्व कल्याण भावना तथा अपने उपदेशों और उज्ज्वलचारित्र से प्रेरणा देकर लोगों को धर्म की ओर उन्मुख करके । अहिंसा महावत का साधक जीव मात्र के प्रति करुणाशील एवं निवैर हो जाता अहिंसा का स्वरूप जानने के लिए प्राणों के बारे में समझना बहुत जरूरी है क्योंकि प्राणों को हानि पहुँचाना ही हिंसा है और प्राण * जाति-देश-काल समयानवच्छिन्नाः सार्वं भौमा महानतम् (योग दर्शन २/३१) + वाकचित्ततनुभिर्यत्र न स्वप्नेऽपि प्रवर्तते । चरस्थिराडि.गनां घातस्तदायं व्रतमीरितम् ।। (ज्ञानार्णव, सर्ग ८, श्लोक ८) 2. अहिंसा प्रतिष्ठायां तत् सन्निधौ वैरत्यागः। (योगदर्शन, २/३५) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन रक्षा ही अहिंसा है। प्राण दस हजार के हैं १- श्रोत्रन्द्रिय प्राण, २. चक्षुरिन्द्रिय प्राण, ३- प्राणन्द्रिय प्राण, ४- रसनेन्द्रिय प्राण, ५स्पर्शनेन्द्रय प्राण, ६- मनोबल प्राण, ७- वचनबलप्राण, ८. कायबल प्राण, ६- श्वासोच्छवास प्राण, १०. आयू प्राण । इन प्राणों को धारण करने वाले को प्राणी कहते है । महाव्रत की भावनायें उनकी स्थिरता के लिए है । = पाँच महाव्रत की पच्चीस भावनायें है। प्रत्येक महाव्रत की पांच भावनायें है।* अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनायें ये हैईर्या समिति ईर्या भाषणादान निक्षेपोत्सर्ग संज्ञकाः । सद्भिः समितयः पञ्च निर्दिष्टाः संयतात्मभिः ।।.... अर्थात सयमित आत्मा वाले सत्पुरुषों ने ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ कही हैं। ___ स्वयं को या अन्य किसी भी प्राणी को तनिक भी कष्ट या पीडा न हो इसलिए जीवों की रक्षा करते हुए देखभाल कर मार्ग पर चलें, ये ईर्या समिति भावना का लक्षण है। मनोगुप्ति भावना मन को सदा शुभ और शुद्ध ध्यान में लगाये रखना; गुणी एवं ज्ञानी जनों के प्रति प्रमोद भाव और अधर्मी पापी जनों के प्रति दया भाव, हितकारो, मर्यादा सहित वचन बोलना ये मनोगप्ति भावना का लक्षण हैं। एषणा समिति भावना वस्त्र, पात्र, आहार, स्थान आदि वस्तुओं की गवेषणा, ग्रहणैषणा, = तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च । (तत्वार्थसूत्र ७/३) A उत्तराध्ययन ३१/१७ महाव्रत विशुद्धयर्थ भावनाः पञ्चविंशतिः। . परमासाद्य निर्वेद पदवीं भव्य भावय ।। (ज्ञानार्णवः १०/२) * आचाराड्.ग २।३।१५।४०२ .... ज्ञानार्णव १८।३ - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (७५) परिभोगैषणा इन तीन एषणाओं में दोष न लगने देना, निर्दोष वस्तु के उपयोग का ध्यान रखना एषणा समिति भावना का लक्षण है। . आदान निक्षेपण समिति भावना शयया, आसन, उपधान, शास्त्र और उपकरण आदि को पहिले भली प्रकार उठाये या रक्खे ये आदान निक्षेपण समिति भावना का लक्षण है। उत्सर्ग समिति भावना __ जीव रहति पृथ्वी पर मल-मूत्र श्लेष्मादिक को बड़े यत्न से क्षेपण करना, खानपान की वस्तुओं को देखभाल कर लेना, स्वाध्याय आदि करके, गुरू आज्ञा प्राप्त करके, संयमवृद्धि के लिए शान्त एवं समत्व भाव से स्तोक मात्र आहार ग्रहण करना उत्सर्ग समिति भावना का लक्षण है 1+ तत्वार्थसत्र के अनसार ये पाँच भावनायें इस प्रकार है १- वाग्गुप्ति २- मनोगुप्ति, ३- ईर्यासमिति, ४- आदाननिक्षेपणसमिति और ५आलोकित पान भोजन इनमें से ईर्यासमिति, आदान निक्षेपणसमिति और मनोगुप्ति का स्वरूप कहा जा चुका है। बाग्गुप्ति का अर्थ वचन की प्रवृत्ति को रोकना है तथा आलोकिपतान भोजन का अर्थ भोजन-पान ग्रहण करते समय देखने और शोधने का ध्यान रखना है। सत्य महावत इसका आगमोक्त नाम 'सर्वमृषावादविरमण' है । सत्य, योग का प्रकाश दीप है । श्रमयोगी की सम्पूर्ण चर्या, साधना और उपासना यहाँ तक कि उसके जीवन के अण-अणु में प्रकाश एवं तेजस्वितासन्य ही देता है। श्रमयोगी के हृदय में सत्य का दीपक सदैव प्रज्वलित रहता है। योगी बिल्कुल भी असत्य आचरण नहीं करता, लेकिन जो वचन + आचाराड्.ग, द्वितीय श्रु त स्कन्ध, अध्ययन १५, सूत्र ७७८ 18 (क] वाड्.मनोगुप्तीर्यादान निक्षेपण समित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च । (तत्वार्थसूत्र ७/४) (ख) मूलाराधना ३३७ (ग) चारित्तपाहुड ३१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (७६) जीवों का इष्ट हित करने वाला हो, वह असत्य हो तो भी सत्य है और जो वचन पापसहित हिंसारूप कार्य को पुष्ट करता है, वह सत्य होकर भी असत्य और निन्दनीय है। असत्य अकेला ही समस्त पापों के बराबर है। योगी सत्य तथ्य को प्रगट करता है और सदा हितमित-प्रिय वचन बोलता है। सत्यव्रत में स्थिर रहने की पाँच भावनायें हैं....(१) अनुवीचि भाषण निर्दोष, मधुर और हितकर वचन बोलना, कटु सत्य न बोलना तथा शीघ्रता और चपलता से बिना विचार किये न बोलना अनुवीचि भावना का लक्षण है। (२) क्रोध प्रत्याख्यान क्रोध के आवेश में न बोलना क्योंकि क्रोध की तीव्रता में मुह से कठोर वचन निकल जाते हैं जिससे सुनने वाले का दिल दुःखी होता है। दुवंचन का दाह मिटाना कठिन होता है । (३) लोभ प्रत्याख्यान लोभ के वशीभूत होकर भी झूठ बोला जाता है । पुत्र, स्वजन स्त्री. धन और मित्रों के लिए अपने लिए प्राण जाने पर भी असत्य वचन नहीं बोलना चाहिये। अतः लोभ के उदय में साधु को नहीं बोलना चाहिये। (४) भय प्रत्याख्यान__ मिथ्या भाषण का भय भी एक प्रमुख कारण है, अतः साधु के सामने जब भय का कारण उपस्थित हो तब उसे भाषण का त्याग करके मौन धारण कर लेना चाहिये। लेकिन दूसरी ओर भाषण की आवश्यकता होने पर वचन कहना ही पड़े तो ऐसा वचन कहना चाहिये जो सबका प्यारा हो, सत्य और समस्त जनों का हित करने .... आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्ययन १५ सत्र ७८०.८१, ८२ - (ख) क्रोध लोभ भीरुत्वहास्य प्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणे च पञ्च । तत्वार्थ सूत्र ७/५ x ज्ञानार्णव सर्ग ६, श्लोक ४० Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (.७७ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन वाला हो । (५) हास्य प्रत्याख्यानः- हँसी मजाक में भी मुंह से झूठ निकल जाने को सम्भावना रहती है। अतः साधू को कभी भी भावावेश में आकर नहीं बोलना चाहिये। साधु को मित भाषी होना चाहिये और नोकषाय के उदय में भाषण का त्याग करके मौन धारण करना चाहिये। महर्षि पतञ्जलि ने कहा है सत्य में दृढ़ स्थिति हो जाने पर साधक की वाणी सत्य क्रिया-अर्थात् शाप, वरदान, आशीर्वाद देने में पूर्ण सक्षम हो जाती है ।+ अचौर्य-महाग्रत इसका आगमोक्त नाम 'सव्वाओ अदिन्नादाणाओ विरमण'- सर्व अदत्तादानविरमण' है । 'बिना दिये हए किसी भी अनिवार्य आवश्यकता की वस्तु को न लेना' यह इस महाव्रत का निषेधात्मक रूप है। इसका विधेयात्मक रूप फलित होता है कि श्रमणयोगी को अपने लिए आहार-पानी आदि सभी अनिवार्य आवश्यकता की वस्तुयें उन वस्तुओं के स्वामी के स्वामी के द्वारा सहर्ष दिये जाने पर ही ग्रहण करनी चाहिए । क्योंकि चोरी करने वाले पुरुष के गुण को कोई भी नहीं गाता है तथा शास्त्र पढ़ना आदि विद्यायें विपरोत हो जाती है और अकोति का टोका ललाट पर लग जाता है। अचौयं महाव्रत को स्थिरता प्रदान करने वालो पाँच भावनायें + सत्य प्रतिष्ठायां क्रिया फलाश्रयत्वम् । (योगदर्शन २/३६) र गुणा गौणत्वमायान्ति यान्ति विद्या विडम्बनाम् । चौर्येणाकीर्तयः पुंसां शिरस्यादधते पदम् ।। ज्ञानार्णव सर्ग १०, श्लोक ४ - (क) आचाराड्.ग २।३।१५।४०३ [ख) महापुराण २०११६३ (ग) भगवती आराधना १२०८-१२०६ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (७८ १- अनुवीचि-मितावग्रह-याचन: साधु को भली प्रकार विचार करके ही वस्तु या स्थान के स्वामी से वस्तु की याचना करनी चाहिये । अर्थात् पहले उसको अच्छी प्रकार से सोच समझ लेना चाहिये कि मैं जिससे वस्तु की याचना कर रहा हूँ वह उस वस्तु को देने की हैसियत रखता हैं या नहीं तभी उसको वस्तु मांगनी चाहिये । तत्वार्थसूत्र के अनुसार इस भावना का नाम अनुवीचि भाषण है। २- अनुज्ञापित पान-भोजन अर्थात योगी को कोई भी वस्तु गुरु को दिखाये बिना नहीं सेवन करनी चाहिये। जब तक गुरु उस वस्तु को सेवन करने की अनमति न दें तब किसी भी वस्तु को पान करना निषेध है। योगी को गुरुजनों की सेवा, रोगी, वृद्ध, तपस्वी आदि की सेवा करनी चाहिये इनकी सेवा विमुख नहीं होना चाहिए वरना उसे जी चुराने के कारण च र क. पाप लगता है। ३-अवग्रह का अवधारण योगी का स्थान, आहार, उपकरण या अन्य सामग्री आदि को किसी से ग्रहण करते समय अपनी मर्यादा में रहना चाहिये। मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये क्योंकि जब तक वह मर्यादित आचरण नहीं करेगा तब वह योगी की उपाधि प्राप्त नहीं कर सकता। मर्यादा के साथ-साथ उसे अधिक वस्तु को भी ग्रहण नहीं करना चाहिए ४-- अतिमात्र और प्रणीत पान भोजन का वर्जन योगी को अपनी मयादा से अधिक बार-बार ग्रहण करके अत्यधिक मात्रा में भोजन नहीं करना चाहिये अपितु जितना उसके लिए भोजन का अंश स्वीकृत है उतना ही भोजन ग्रहण करना चाहिये। ५- साधामिक अवग्रह याचन योगी को सांभोगिक साधुओं से आवश्यकता होने पर पात्र, उपकरण, वसति आदि की याचना करनी जाहिये और मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये।। तत्वार्थ सूत्र के अनुसार अचौर्यप्रत की पांच · भावनायें Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन निम्नलिखित हैं।+ १- शून्यागारावास पर्वत की गुफा, वृक्ष के कोटर आदि में निवास करना शून्यागारावास है। निवास स्थान दो प्रकार के होते हैं-एक तो प्राकृतिकजैसे-पर्वतों की गुफा आदि और दूसरे प्रकार के वे जो बनवाये जाते २- विमोचितावास जिस आव स का दूसरों ने त्याग कर दिया हो तथा जो बिना दरवाजों का हो उसमें निवास करना विमोचितावास कहलाता है। ऐसे निवास स्थान जिन्हें किसी ने बनवा दिये हों, लेकिन बाद में छोड़कर चले गये हों ऐसे स्थानों को जो साधु उपयोग में लाते हैं उससे अचौर्य महानत की रक्षा होती है। ३- परोपरोधाकरण जिस स्थान पर साधु ठहर गया हो और वहाँ ध्यान लगाता है लेकिन जब दूसरा साधु वहाँ आता है तो वह उसे रोकता है ऐसा करने से उसकी निजत्व की कल्पना होने से उस पर चोरी का दोष लगता है। ४- भक्ष्यशुद्धि भिक्षा के जो उचित नियम बनाये गये हैं उनको यथोचित रूप से ध्यान में रखकर ही भिक्षा लेने के लिए कहा गया है जो इन नियमों का पालन नहीं करता उसको तृष्णा की वृद्धि होती है तथा चोरी का आरोप लगता है। ५- सधर्माविसंषाद पीछी और कमण्डलु ये शुद्धि के तथा शास्त्र यह ज्ञानार्जन के उपकरण है। साधु इनका स्वामी होता है, फिर भी यह कहने से कि यह मेरा कमण्डलु है यह मेरा पीछी है तुम इसे ले नहीं सकते। + शून्यागारविमोचितावास परोपरोधाकरण भैक्षशुद्धि सधर्माविसंवादाः पञ्च । (तत्वार्थसूत्र ७/६) (ख) चारित्तपाहुड ३३ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (८०) ऐसा कहने से ममत्व प्रकट होता है अत: चोरी का दोष लगता है। अतः इन दोषों से बचने के लिए सधर्माविसंवाद भावना वतलाई गई ब्रह्मचर्य महावत ब्रह्मचर्य योग के लिए आधार बिन्दु है, ब्रह्मचर्य की साधना किये बिना योग मार्ग पर एक भी कदम आगे रखना नामुमकिन ही नहीं असम्भव ही है। जब तक साधक ब्रह्मचर्य की साधना नही करता तब तक वह उर्ध्वरेता नहीं बन सकता। आचार्य शुभचन्द्र ने ब्रह्मचयं महानत का गहन एवं विस्तृत विवरण देते हुए उसका इस प्रकार से निरूपण किया है विदन्ति परमं ब्रह्म यत्समालम्ध्य योगिनः । तदअतं ब्रह्मचर्य स्याद्धीरधौरेयगोचरम् ॥... योगी की साधना का तेज बिन्दु ब्रह्मचर्य ही है, इसी से उसकी तपः साधना में तेज बढ़ता है और तैजस शरीर बलवान बनता है उसमें चमक और प्रकाश की किरणें प्रस्फुटित होती हैं।x इसीलिए योगियों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के लिए कहा गया है उनको काम से बचने के लिए विवेक अर्थात भेदज्ञान का उपाय बतलाया है। ब्रह्मचर्य महाव्रत की स्थिरता के लिए पाँच भावनायें बतलाई गई हैं ।* १- स्त्री कथा वर्जन योगी के लिए स्त्री की कथा कहने व सुनने दोनों का ही निषेध है अतः योगी को इसका उल्लघन नहीं करना चाहिये अपितु पूर्ण ... ज्ञानार्णव, सर्ग ११ श्लोक १ x योगदर्शन २/३८ * [क)आचाराड्.ग सूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्ययन १५, सूत्र ७८६-८७ (ख] स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्ग निरीक्षणपूर्वरतानुस्मरण वृयेष्टरस स्वशरीर संस्कारत्यागाः पञ्च। (तत्वार्थसूत्र ७/७) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [८१] पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिये। . मनोहर अंग-प्रत्यड.गों के अवलोकन का त्याग योगी को स्त्रियों के काम को बढ़ाने वाले एवं मनोहर अड्.गों का अवलोकन नहीं करना चाहिये क्योंकि इससे काम की वृद्धि होती है। यह योगियों के लिए निषेध है। इसलिए योगी स्त्रियों के अड्.गों की ओर दृष्टि निक्षेप नहीं करता है। ३- पूर्व रति स्मरण त्यागः _____ योगी ने अपने जीवन में जो पहले स्त्री सम्बन्धी सुख भोगे हों उनका उसे स्मरण नहीं करना चाहिये अर्थात् योगी ने जो पूर्व अर्थात् दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व जो स्त्री सम्बन्धी सुखों का अनुभव किया हो बाद में उसे उन सुखों का स्मरण नहीं करना चाहिये। ४- प्रणीत रस भोजन वर्जन योगी का कर्तव्य है कि वह कामवर्धक, रसीले, स्वादिष्ट और गरिष्ठ आहार का त्याग करे; क्योंकि ऐसे आहार से चित्त चंचल हो जाता है । तामसी भोजन से बद्धि भी तामसिक हो जाती है जिससे श्रमण का चित्त चंचल हो जाता है। इसके साथ-साथ उसे भोजन की मात्रा भी कम खानी चाहिये अधिक भोजन करने से भी विकार बढ़ता है। तत्वार्थसूत्र में इसके स्थान पर वृष्येष्टरस त्याग बतलाया है । इसका तात्पर्य कामवर्द्धक गरिष्ठ रसों का त्याग है। ५- शयनासन वर्जन. __ योगी को आसन भी पवित्र प्रयोग में लाना चाहिये । स्त्री-पशुनपुंसक आदि के द्वारा प्रयुक्त आसन शयया आदि का प्रयोग उसके लिए निषिद्ध है। यदि मजबूरी वश उस आसन का प्रयोग करना ही पड़ जाये तो उनके उठने के एक मुहर्त बाद ही उस आसन को ग्रहण करना चाहिए। तत्त्वाथ सूत्र में शयनासन वर्जन के स्थान पर स्वशरीर संस्कार त्याग का उल्लेख है। तदनुसार अपने शरीर के कामोद्दीपक संस्कारों का त्याग इस भावना में गर्मित है। ५-अपरिग्रह महाव्रत परिग्रह का आशय यहाँ भाव और द्रव्य परिग्रह दोनों से है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (८२) साधक श्रमण को निग्रंथ कहते हैं, और ग्रन्थ का अभिप्राय परिग्रह से है । निग्रन्थ अपरिग्रही होता है। उसके अन्तर्मन में निर्ममत्व होता है । परिग्रह अथवा ममत्व भाव अशान्ति का कारण होता है और अशान्त चित्त कभी भी एकाग्र नहीं हो सकता और फिर जिस साधक का चित्त एकाग्र नहीं होगा अशान्त होगा, वह योग साधना करने में असमर्थ होगा इसलिए योग के लिए एकाग्र चित्त होना परम आवश्यक होता है। अतः अपरिग्रह योग साधना में सहायक होता है। जैन आगमों में भी वैराग्य या निर्वेद में लीन होने पर अनेक भव्यों को जाति स्मरण ज्ञान की उत्पत्ति के उदाहरण मिलते हैं। परिग्रह महाव्रत को स्थिर करने के लिए पाँच भावनायें हैं।+ १- श्रोत्रेन्द्रिय रागोपरति योगी प्रिय या अप्रिय वचनों को सुनकर न तो खुशी का अनुभव करे और न ही दुखी हो अपितु कठोर से कठोर और कोमल से कोमल वचनों को सुनकर भी उसमें राग-द्वेष न करे । सदैव शान्त चित्त रहे। ३- चक्षुइन्द्रिय रागोपरति__योगी को सुन्दर या असुन्दर, सुरूप-कुरूप आदि देखने पर रागद्वेष की भावना मन में नहीं लानी चाहिये अपितु किसी भी रूप को देखकर मन चंचल नहीं करना चाहिए । सदैव शान्त भाव से सभी रूपों को देखकर रागद्वेष रहित रहे । ३. घाणेन्द्रिय रागोपरति सुगन्धित एवं दुर्गन्ध से युक्त किसी भी वस्तु को सूधकर योगी को रागद्वेष नहीं करना चाहिये अपितु शान्त रहे मन को अशान्त नरखे। ४. रसनेन्द्रिय रागोपरति योगी को विभिन्न प्रकार के रसों के आस्वादन में उदासीन रहना चाहिए किसी भी प्रकार की रागद्वेष की भावना नहीं प्रदर्शित करनी चाहिए अपितु निष्काम भाव से शान्त चित्त रहना चाहिये। + मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च । (तत्त्वार्थ सूत्र - ७/८) - Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (८३) स्पर्शनेन्द्रिय रागोपरति योगी को अपने जीवन में शीत-उष्ण, आदि स्पर्शों के प्रति सदैव उदासीन रहना चाहिये चाहे सर्दी हो या गर्मी, उसको सभी स्पर्शों में एक ही अहसास होना चाहिए, न कि शीत में शोतलता और न ही ग्रीष्म में उष्णता । उसको हल्के भारी स्पर्शों में भी शान्त चित्त रहना चाहिये। कभी भी अपने मन को अशान्त न रखे। इस प्रकार योगी पाँच महाव्रतों का एवं उनकी पच्चीस भावनाओं का पालन करता है तो उसका चित्त सदैव एकाग्र एवं शान्त रहता है उसे किसी भी प्रकार का विकार नहीं होता। पच्चीस भावनाओं के अलावा कुछ अन्य सामान्य भावनायें भी हैं जिनसे पाँच महाव्रतों की पुष्टि होती है वे भावनायें इस प्रकार हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ।x अर्थात् हिंसा आदि दोषों में ऐहिक और पारलौकिक अपाय और अवद्य का दर्शन ये भावना के योग्य है और हिंसादिक दुख ही है। इन्द्रिय निग्रह जब तक ध्याता इन्द्रियजयी नहीं होता तब तक उसको ध्यान की सिद्धि नहीं होती अर्थात् इन्द्रियों का निग्रह किये बिना वह ध्यान की प्राप्ति नहीं कर सकता क्योंकि इस संसार में इन्द्रिय जनित सुख ही दुख हैं क्योंकि यह सुख अज्ञान से परिपूर्ण होता है। ज्ञानीजन इस सुख से सुखी नहीं होते लेकिन अज्ञानी लोग इस सूख को आनन्द की प्राप्ति मानते हैं. जो मिथ्या है इसीलिए जीवों को अपनी इंद्रियों को वश में रखना चाहिये। उनके वशी नहीं होना चाहिए क्योंकि जीवों के इन्द्रिय जैसे-जैसे वश में होती है, वैसे-वैसे उनके हृदय में ज्ञान रूपी दीपक प्रकाशमान होता रहता है ।+ इन्द्रियों को .x तत्त्वार्थ सूत्र ७/६. + यथा यथा हृषीकाणि स्ववशं यान्ति देहिनाम। .. तथा तथा स्फुरत्युच्चैहृदि विज्ञानभास्करः॥ (ज्ञानाणंव, सर्ग २०, श्लोक ११] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (८४) जीतने के लिए सच्चा ज्ञान और वैराग्य दोनों साधन होने चाहिए । ये दोनों प्रथमत: मन को जीतने के भी साधन है। इन्द्रियाँ उन बिजलियों के समान है जो कन्ट्रोल अर्थात् नियन्त्रण में रखे जाने पर हमें प्रकाश प्रदान करती हैं और यन्त्रों द्वारा सचालित होकर हमारे कार्य सिद्ध करती हैं, लेकिन अनियन्त्रित होने पर वे ही अग्निकाण्डादि के द्वारा हमारा सब कुछ नष्ट कर हमें बरबाद कर देती है। इसीलिए कभी भी इन्द्रियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए, अपितु स्वयं इन्द्रियों पर हावी होना चाहिये तभी मानव सुखी रह सकता है और यही सच्चा सुख है। भौतिक सुख तो मात्र मग मरीचिका के समान होता है जो कि दिखने में तो सुखदायी लगता है, लेकिन क्षण भर के बाद वही सुख-दुख में परिवर्तित हो जाता है। अतः ध्यान की सिद्धि के लिए इन्द्रियों का निग्रह परमावश्यक है। मनोनिग्रह इन्द्रिय निग्रह के समान मन का निग्रह भो ध्यान की सिद्धि के लिए आवश्यक है, क्योंकि जिसने मन का रोध किया अर्थात जिसने मन को वश में कर लिया उसने सबको वश कर लिया अन्यथा जिसने मन को वश में नहीं किया वह इन्द्रियों को भी वश में नहीं कर सकता । मन की शद्धि भी जरूरी है क्योंकि मन की शद्धता से ही ध्यान की निर्मलता भो होती है और कर्मों की निर्जरा भी होती है। मन की शुद्धता से विवेक बढ़ता है। जिस मुनि ने अपने चित्त को वश में नहीं किया उसका तप, शास्त्रों का अध्ययन प्रत धारण, ज्ञान, कायक्लेश आदि सब व्यर्थ हैं क्योंकि मन के वश में हुए व्यक्ति को ध्यान की सिद्धि नहीं होती एवं मन को जोते बिना आत्मा का अनुभव नहीं होता। मन को जोतने पर व्यक्ति सहज ही जितेन्द्रिय हो जाता है। मन के संकल्प और विकल्प रूप व्यापार को रोकना अथवा मन की चंचलता को दूर कर उसे स्थिर करना 'मन को जोतना' कहलाता है।.... तत्वान शासन में मन को वही सर्ग २२, श्लोक १५ ... इद्रियाणां प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मनः प्रभु । मन एवं जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन् जितेन्द्रियः।। (तत्वानुशासन ७६) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन जीतने के दो उपाय बताये गये हैं १- अनप्रेक्षाओं का संचिन्तन और २- स्वाध्याय में नित्य उद्यामी रहना। इन दोनों साधनाओं में निरन्तर लगे रहने से व्यक्ति मन को अवश्य ही जीत लेता है। और जब मन को अन्य विकल्प व विकारों से रहित करके आत्म स्वरूप में स्थिर करे तब ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, केवल बाह्य तप से उत्तम पद पाना असम्भव है। जब मन अविद्या का उल्लंघन करके निजस्वरूप को प्राप्त हो जाता है तब वही ध्यान है, वही ध्येय है और वहीं विज्ञान है ।* ध्यान और अनुप्रेक्षा जैन दर्शन में सकषाय और अकषाय इन दो मार्गों का निर्देश है । A जैसे क्लिष्ट वृत्ति में अविद्या, अस्मिता, रागद्वेष एवं अभिनिवेश ये पाँच क्लेश आते है, वैसे ही सकषाय वत्ति में भी मिथ्यादर्शन अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का वर्णन है।- इस प्रकार से संसार के मूल कारण में अज्ञानता एवं मिथ्यात्व ही है। इसी मोह माया के चक्कर में पड़कर मानव इस संसार में अनन्त काल से भटकता फिर रहा है। इसलिए पिछले जन्म के संस्कारों तथा वतमान जन्म के कर्मों को नष्ट करना जीव के लिए परमावश्यक है ताकि वह मोक्ष प्राप्त करके जन्म व मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो सके लेकिन मानव की इन्द्रियाँ तथा मन जीव को हमेशा अपने मार्ग से विचलित करने एवं रागद्वषादि को बढ़ाने में निरन्तर लगे रहते हैं इसलिए उनसे वजय प्राप्त करने के लिए अनुप्रेक्षाओं का विधान है। _ 'प्रेक्षा' अर्थात् देखना, गहराई से देखना, किन्तु उसमें कोई चिन्तन मनन न हो । 'अनु' उपसर्ग लगते ही प्रेक्षा शब्द का अर्थ ही x संचिन्त्यन्नन प्रेक्षाः स्वाध्याये नित्यमुद्यतः । जयत्येव मनः साधुरिन्द्रियाऽर्थ-पराड्.मुखः ।। [तत्वानुशासन ७६] * तळ्यानं तद्धि विज्ञान तद्धयेयं तत्वमेव वा। येनाविद्यामतिक्रम्य मनस्तत्त्वे स्थिरी भवेत् ॥ [ज्ञानार्णव, २२/२०) A सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः। [तत्वार्थ सूत्र ६/४) - वही ८/१ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (८६ बदल जाता हैं उसमें चिन्तन मनन का समावेश हो जाता है । इस प्रकार अनुप्रेक्षा का अर्थ बार-बार देखना या चिन्तन मनन पूर्वक देखना और मन, चित्त और चैतन्य को उस विषय में रमाना, उन उन संस्कारों को दृढ़ीभूत करना होता है।+ अनुप्रेक्षों से कर्मो का बन्धन शिथिल होता है तब अशुभ विचारों का आना कम हो जाता है अतः अनप्रेक्षायें कर्म के निरोध की साधना भी है। जिसकी आत्मा भावना योग से शुद्ध होती है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।- इस प्रकार से हम देखते है कि भावना अर्थात अनप्रेक्षा का जीव से बहत गहरा सम्बन्ध होता है और भावनाओं का चिन्तन करने से आत्मा की शुद्धि होती है। इसलिए बार-बार ईश्वर का जप करना बतलाया गया है। अनुप्रेक्षाओं को वैराग्य की जननी भी कहा है । A अनुप्रेक्षा का चरम उद्देश्य संवर की सिद्धि अनुप्रेक्षागों का वर्णन विभिन्न ग्रन्थों में काफी अधिक मात्रा में किया गया है-आचार्य उमास्वामी ने इसका अर्थ करते हए कहा है कि ग्रन्थ, पाठ और उसके अर्थ का मन से चिन्तन अन प्रेक्षा है। उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में नेमिचन्द्र ने कहा है कि अनुप्रेक्षा से संवर की प्राप्ति होती + (क) अणुप्पेहा णाम जो ग्णसा परियट्टेइ णो वायाए । (दशवैका लिक चूर्णि, पृ० २६) (ख) परिज्ञातार्थस्य एकाग्रेण मनसा यत्पुनः पुनः अभ्यसनं अनुशीलनं सानप्रेक्षा । (कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका ४६६) [ग] शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा । (सर्वार्थसिद्धि ६/२/४०९] उत्तराध्ययन २६/२२ - भावणाजोग सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टइ ॥ (सूत्र कृताड्.ग १/१५/५) A वैराग्य उपावन माई, चितो अनुप्रेक्षा भाई । (छहढाला ५/१) * तत्त्वार्थधिगमसूत्र ६/२ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन से का प्रयोग स्थान पर भावना शब्द का लेकर दशवेकालिक सूत्र मिलता है । आगम ग्रन्थों है । इसको व्याख्यापित करने के लिए 'चिन्तनिका' शब्द किया है ।... सूत्र कृतांग में अनुप्रेक्षा के प्रयोग किया गया है । आचाराड्ग सूत्र तक अनेक ग्रन्थों में इसका वर्णन यत्र तत्र में अनुप्रेक्षाओं का जो वणन है वह गद्य और पद्य दोनों रूप में है । परन्तु उत्तरकालीन युग में इस विषय पर विस्तृत पद्य साहित्य रचा गया है । संस्कृत में इस विषय पर सर्वप्रथम ग्रन्थ महापुराण है इसके रचियता जिनसेन हैं । षट्खण्डागम की धवलाटीका में इसे परिभाषित करते हुए वीरसेनाचार्य रहते हैं "कम्मणिज्जरणट्ठट्ठमज्जाणुगयस्स परिगम - पेक्खाणाम सांगीभूदकदीए कम्मणिज्जरट्ठमणुसरण मणुवेक्खणा' X अनुप्रेक्षाओं का यह चिन्तन केवल भारतीय विचारकों तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु पाश्चात्य कवियों ने भी इस पर चिन्तन किया है । यह बात अलग है कि वे अनुप्रेक्षा जैसे शब्द से परिचित न हो । उनके विचारों में अनुप्रेक्षाओं से बहुत कुछ समानता दिखाई देती है। अनुप्रेक्षात्रों के बारह प्रकार बताये गये हैं १- अनित्य अनुप्रेक्षा २- अशरण अनुप्रेक्षा ३ - ससार अनुप्रेक्षा ४एकत्व अनुप्रेक्षा ५- अन्यत्व अनुप्रेक्षा ६ - अशुचि अनुप्रेक्षा ७- अस्त्रव अनुप्रेक्षा ८- संवर अनुप्रेक्षा - निर्जरा अनुप्रेक्षा १०- लोक अनुप्रेक्षा ११- बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा १२ - धर्म अनुप्रेक्षा अनुप्रेक्षा के इन प्रकारों का वर्णन वारस अणुवेक्खा, तत्त्वार्थ सूत्र 4, प्रशमरति प्रकरण, + मूलाचार, स्वामिकार्तिकेया उत्तराध्ययन सूत्र टीका २६/२२ X षट्खण्डागम पुस्तक ६, पृ० २६२-६३ * अद्धवमसरण मेगत्तमण्णत्त संसार लोयमसुइत्तं । ... आसवसंवरणिज्जर धम्मं बोधि च चितिज्ज || [ बारस अणुवेक्खा २ ) 4 तत्वार्थ सूत्र ६/७ + प्रशमरतिप्रकरण ८ / १४९-५० मूलाचार, द्वादशानुप्रेक्षाधिकार पृ० १-७६ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (८८) नप्रेक्षा--, शान्त सुधारस A, मनोऽनुशासन, वृहद्रव्यसंग्रहX, ज्ञानाणव... आदि ग्रन्थों में भी है। यद्यपि इनके क्रम में कहीं-कहीं भेद है परन्तु प्रकारों में अन्तर नहीं है । अनित्य अनुप्रक्षा शरीर, इन्द्रिय, विषय और भोगोपभोग ये जितने भी पदार्थ हैं सब जल के बुलबुलों के समान शीघ्र समाप्त होने वाले फेन के समान है, किन्तु अज्ञानी व्यक्ति इनके प्रति मोह में पड़कर इनको नित्य मान बैठता है जबकि ये सब अनित्य हो हैं। यह शरीर अध्र व, अनित्य और अशाश्वत है।→ ज्ञानार्णव में भी कहा है ये चात्र जगतीमध्ये पदार्थाश्चेतनेतराः ।। ते ते मुनिभिरुदिदष्टाः प्रतिक्षणविनश्वराः ।। [१] मानव को अपने विषय में मोह को त्याग कर ये जान लेना चाहिये कि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। इसलिए इस संसार को अनित्य, अस्थिर, नाशवान समझना और ऐसा ही चिन्तवन करना अनित्यानप्रेक्षा है। (२] जब वह इस शाश्वत सत्य को समझ जाता है तब जीव का अपने शरीर के प्रति ममत्व विनष्ट हो जाता हैं। अन्य ग्रन्थों में भी अनेक स्थलों पर अनित्यता का वर्णन प्राप्त होता है। (३) आचार्य उमास्वाति नेभी - स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा २-३ A शान्तसुधारस १/७-८ * मनोऽनुशासन ३/२२ x वृहद्रव्यसंग्रह टीका ३५ ... ज्ञानार्णवः सर्ग २ श्लोक ७ → आचाराड्.ग सूत्र ५/२/५०६ (१] ज्ञानार्णवः, सर्ग २, श्लोक ४६ (२) उत्तराध्ययन १६/१३ (३] औपपातिक सूत्र २३ [ख] दशवैकालिक सूत्र चूलिका १, १६ (ग) उत्तराध्ययन १८/११-१३ (घ) सर्वार्थसिद्धि ६/४/४१३ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन एक-एक अनुप्रेक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट । कया है। साधक अनित्यानप्रेक्षा में सांसारिक सम्बन्धों की अनित्यता का अनभव कर आसक्ति को विजित करता है।+ शभचन्द्र ने अनित्य भावना के सम्बन्ध में स्त्री, यौवन, धन, परिजन, पुत्र और यह शरीर सभी गान्धर्वनगर एवं विद्य त् की तरह चंचल है ऐसा कहा है । बौद्ध साहित्य के अन्तर्गत समस्त अनुप्रेक्षाओं में जितना सुन्दर और विस्तत विवेचन अनित्य अनप्रेक्षा का मिलता हैं उतना अन्य का नहीं । जैन साहित्य में भी अनित्य अनप्रक्षा का उतना विस्तृत विवेचन नहीं है । बौद्ध साहित्य में उसके विस्तार का कारण क्षणिकवाद है। धम्मपद में इसका वर्णन इस प्रकार से किया गया है सव्वे संखारा अनिच्चा ति यदा पञ्चाय पस्सति । अथ निबिन्दती दुक्खे एस मग्गो विसुद्धिया ॥ २- अशरण अनुप्रेक्षा___ सामान्य मनुष्य प्रतिदिन अपने सामने संसार और संसारी लोगों की प्रवृत्तियों को देखता है कि लोग एक दूसरे के दुख, पीड़ा एवं कष्ट को बाँट नहीं सकते लेकिन फिर भी एक दूसरे के प्रति मोह पाश में फंसे रहते है। जब किसी की मृत्यु आती है तो कोई भी उसे काल के मुह से बचा नहीं सकता क्योंकि काल दुनिवार है और सभी प्राणी काल के वश में हैं । यहाँ सभी अपनी रक्षा के लिए सोचते हैं। मानव जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधियों से घिरा रहता है यहाँ इसका कोई भी शरण नहीं है, काल किसी का इन्तजार नहीं करता और विद्या, तत्त्वार्थ सूत्र टीका ६/७ [क] ज्ञानार्णवः, सर्ग २, श्लोक ४७ (ख] परमट्ठण. दु आदा देवासुर मणुवरायविविहेहिं । वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदमिदि चितये णिच्चं ॥ (बारस अणुवेक्खा ७) ... विद्या मत्र महौषधिसेवां, सृजतुवशीकृत-देवां।। रसतु रसायनमुपचयकरणं, तदपि न मुचति मरणम् ॥ [शान्तसुधारस २/४) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६० मन्त्र और औषधियों में से किसी से भी मरण टलता नहीं है ।... इसलिए भगवान ने साधक को अशरण अनुप्रेक्षा का सूत्र आचाराड्.ग में दिया है णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसि णालं ताणाए वा, सरणाए वा ।। २/१६४ अशरण अनुप्रेक्षा का साधक इन सब साधनों की नश्वरता और क्षण-क्षण बदलते रूप को देखकर इनके प्रति रागद्वेष की भावना का त्याग कर देता है। वह धर्म की शरण को ही वास्तविक शरण मानता है और 'अप्पाणं शरणं गच्छामि' मैं आत्मा की शरण में जाता हूँ। इस सूत्र को मन में बिठा लेता है। यदि निश्चयात्मक दृष्टि से विचारा जाये तो अपनी आत्मा का ही शरण है, और व्यवहारिक दृष्टि से वीतरागता को प्राप्त हुए पंचपरमेष्ठी का ही शरण है। अतः सब की शरण छोड़कर इन दो की शरण में जाना चाहिये ।x जबकि तत्वार्थ सत्र में 'जग में धर्म के सिवा और कोई शरण नहीं है ' ऐसा कहा गया है और इसका चिन्तवन करना अशरणानुप्रेक्षा है।* धर्म से हो मोक्ष मार्ग की प्राप्ति होती है। ३- संसार अनुप्रक्षा संसार का अभिप्राय है-जन्म मरण का चक्र । यह भ्रमण, नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव- इन चार गतियों में होता है और प्राणी इन्हीं में भ्रमण करता रहता है। संसार अनुप्रेक्षा का लक्षणसंसरणं संसारः । भवाद् भवगमनं नरकादिष पूनमणं वा। संसार में सच्चा सुख लेशमात्र भी नहीं है वह दुखों से भरा है। प्रत्येक जीव संसरण कर रहा है। संसार भावना का चिन्तवन करता हुआ साधक संसार के दुखों, जन्म जरा मरण की पीड़ा एवं चार गतियों की पीड़ा का विचार करता है और सोचता है कि 'एगंतदुक्खं जरिये व लोय' ।+ वह भगवान महावीर के शब्दों में 'पास लोए x ज्ञानार्णव, सगं २, श्लोक १६ * तत्त्वार्थ सूत्र टी० ६/७ A ज्ञानार्णव सगं २, श्लोक। + सूत्रकृताड्ग १७/११ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन महन्मयं संसार को महाभयानक देखता है । इस भावना से साधक संसार के प्रति निराशा या भय की भावना से व्याकुल नहीं होता। संसार के स्वरूप का ऐसा चिन्तवन करना संसार अनुप्रेक्षा है। - ४- एकत्व अनुप्रेक्षा___ एकत्व अनुप्रेक्षा का चिन्तन करने से व्यक्ति अनुभव करता है कि वह अकेला ही आया है और अकेला ही जायेगा। सुख-दुख, रोग-शोक उसी को सहन करने पड़ते हैं। उसका इस संसार में कोई भी साथी नही है। आचाराड़.ग सूत्र में यह अनुप्रेक्षा इन शब्दों में वर्णित की गई हैं 'अइ अच्च सव्वतो संगण महं अस्थित्ति इति एगोहमंसि' X साधक आत्मा को बहुत ही इष्ट, कान्त, प्रिय और मनोज्ञ देखने, जानने लगता है और समझने लगता है। अपनी आत्मा के गुणों में उसकी रुचि इतनी बढ़ती जाती है कि वह उसी में मग्न रहता है। वह इस प्रकार के एकत्व का आसरा लेता है। वह ऐसा सोचने लगता है कि भाई-बन्धु जितने भी साथी है वे उसके दुखों को दूर नहीं कर सकते वे तो मात्र उसके श्मशान तक के ही साथी हैं कोई उसके साथ नहीं जाता, एक केवल धर्म ही ऐसा है, जो उस के साथ जाता है ।... जिस समय जीव भ्रमरहित होकर ऐसा चिन्तवन करने लगता है तो उस समय उसका संसार से सम्बन्ध नष्ट हो जाता है क्योंकि सांसारिक बन्धन तो मोह का कारणभूत होता है, और जब मोह समाप्त हो जाता है तो जीव मोक्ष का अधिकारी हो जाता है।→ बौद्ध साहित्य में भी एकत्व अनुप्रेक्षा का वर्णन मिलता आचाराड्.ग ६/१ - योगशास्त्र ४/६६ A स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा ७४-७५ * आचाराड्.ग सूत्र ६/३८, ८/६७ x मज्झवि आया एगे भंडे, इठे, कंते, पिये, मणुन्ने । (भगवती सूत्र २/१) ... तत्त्वार्थ सूत्र टीका ६/७ → ज्ञानार्णव सर्ग २, श्लोक १० Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६२) है ।... एकत्व भावना के अनुचिन्तन से जीव में पुरूषार्थ जागता है, वह इतना पुरुषार्थी हो जाता है कि अकेले ही साधना पथ पर चलने की क्षमता रखने लगता है। भगवान के शब्दों में 'एगं चरेज्जधम्मो'- अर्थात् अकेले ही धर्माचरण करो । विभिन्न ग्रन्थों में भो एकत्व अनुप्रेक्षा का वर्णन मिलता है ।* ६- अन्यत्व अनुपक्षा अन्यत्व अनुप्रेक्षा के चिन्तन से जीव भेद विज्ञान की साधना करता है । संसार के सारे पदार्थ मुझसे भिन्न है और मैं उनसे भिन्न है। इस जगत् में जो जड़ और चेतन पदार्थ प्राणी के सम्बन्ध रूप हुए है वे सब ही अपने-अपने स्वरूप से भिन्न है कोई भो पदार्य अभिन्न नहीं है, केवल आत्मा सबसे अन्य है । शरीर आदि का चेतन आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि वे सभी जीव के स्वभाव नहीं है । A इस प्रकार बाह्य पदार्थों एवं शरीर से अपने को भिन्न चिन्तवन करना ही अन्यत्व अनुप्रेक्षा है।- साधक का दृढ़ विश्वास हो जाता है कि ममत्व ही सारे दुखों एवं चिन्ताओं का कारण हैं अतः वह ममत्व को त्याग कर समत्व में लोन हो जाता है जिससे उसे मोक्ष के सुख की प्राप्ति हो जाती है। ६- अशुचि अनुप्रेक्षा शरीर अत्यन्त अपवित्र है जिसमें रुधिर, माँस एवं चर्बी आदि - एको उत्पद्यते जन्तुम्रियते चैक एव हि । नान्यस्य तद्वयथाभागः किं 'प्रियविनकारकैः। [बोधिचर्यावतार ८/३३] X सूत्रकृताड्.ग २/१/१३ * उत्तराध्ययन ९/१५-१६, [ख] महाप्रत्याख्यान ३७-४०, [ग) भक्त परिज्ञा ५६ A क्षीरनीरवदेकत्र स्थितियोर्देहदेहिनोः।। मेदो यदि ततोऽन्येषु कलत्रादिषु का कथा ।। (पद्मनन्दि पंचविशतिका ६/४६) -- तत्त्वार्थ सूत्र टीका ६/७ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [६३] दुर्गन्धयुक्त पदार्थ भरे पड़े हैं। यह शरीर जैसा बाहर है वैसा ही भीतर है। साधक इस अशूचि शरीर को अन्दर ही अन्दर देखता है और झरते हुए विबिध स्त्रोतों को भी देखता है जिनसे निरन्तर दुर्गन्धयुक्त पदार्थ झरते रहते हैं ।+ इसे चाहे जितना भी स्नानादिक कराये या सुगन्ध लगाये लेकिन इसकी अपवित्रता दूर नहीं हो सकती शरीर की अपवित्रता को देखने से साधक के मन में इसके प्रति जो राग या आसक्ति होती है वह मिट जाती है उसका प्रेम, ममत्व नष्ट हो जाता हैं वह पावनता तथा पवित्रता की ओर मुड़ता है । पवित्रता उसे आत्मा व आत्मिक गुणों में दिखाई देती है । उसका शरीर के सौन्दर्य के प्रति मोह खत्म हो जाता है। वह आतमा पर अपना ध्यान केन्द्रित करने लगता है क्योंकि आत्मा तो निर्मल है अमूर्तिक है और उसके मल लगता ही नहीं। अशुचि अनुप्रेक्षा साधक का अपवित्रता से पवित्रता की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त करती है। उत्तराध्ययन में भी इसका वर्णन किया है । ६- आस्व अनुप्रेक्षा अब तक छः अनुप्रेक्षायें बाह्य जगत से सम्बन्धित थ' जिनके द्वारा जीव बाह्य जगत् के प्रति अपने मिथ्यात्व मोह को छोडता है लेकिन आस्व अनप्रेक्षा के द्वारा साधक अपने आन्तरिक जगत का अवलोकन करता है। मन, वचन, काय की क्रिया को योग कहते हैं और इसी किया को आस्व भी कहते हैं।- मन, वचन, काय के व्यापार ही कर्मों के . आस्व के द्वारा x ज्ञानार्णव सगं २, श्लोक २ + जहा अतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अन्तो। तो अंतो देहन्तराणि पासति पुढो वि सवंताई ॥ (आचाराड्.ग २/५/६२] R (कउत्तर ध्ययन १६/१२,१३ (ख) सर्वार्थसिद्धि ६/७/४१६ (क) ज्ञानार्णव सर्ग २,१ (ख) तत्वार्थ सूत्र टीका ६/१ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६४) हैं।A आस्व पाँच प्रकार का होता है १- मिथ्यात्व, २- अविरति, ३- प्रमाद, ४- कषाय और ५- योग। इनमें से साधक मिथ्यात्व का तो पहले ही त्याग कर देता है शेष चार बचते हैं । आस्व आत्मा के छेद हैं जिस प्रकार नाव में छेद होने से पानी नाव में भरकर उसे डुबाने लगता है उसी प्रकार आस्तव के रूप में आत्मा में कर्मजल भरता है जो उसे संसार रूपी समुद्र में डुबोने लगता है। लेकिन आस्व अनुप्रेक्षा से जीव उन छिद्रों को देखता व समझता है और उन कमियों को दूर भी करता है। ८- संवर अनप्रक्षा संवर आस्व का विरोधी है। आस्व के निरोध को संवर कहा गया है।.... माधक आस्त्रव के विपरीत प्रवृत्ति करके संवर करता है । - संवर के बिना आत्मशुद्धि होना कठिन है। आस्व का निरोध कारण हैं और संवर कार्य है। कारण में कार्य का उपचार करके आस्व के निरोध करने को संवर कहा गया है। संवर द्रव्यसंवर एव भावसंवर से दो प्रकार का है। द्रव्यरूप से वह मन, वचन, काय को एवं कषायों आदि को स्थिर रखता है और भावरूप से मन के संकल्पों विकल्पों आदि को रोकता है । 8- निर्जरानुप्रेक्षा निजरा आत्मशुद्धि की प्रक्रिया है। फल देकर कर्मों का झरना निर्जरा है।* पूर्व संचित अथवा बंधे हुए कर्मों को तप के द्वारा नष्ट करना निजंरा है ।-इम अनुप्रेक्षा के चिन्तन में साधक निर्जरा के A मनोवाक्यकायकर्माणि योगाः कर्म शुभाशुभम । यदापवन्ति जन्तूनामाश्रवास्तेन कीर्तिताः ॥ (योगशास्त्र ४/७४) पूव्वत्तासवभेयो णिच्छयणएण णात्थि जीवस्स। उदयासवणिम्मुवकं अप्पाणं चितए णिच्चं ॥ (बारसअणुवेक्खा ६०) .... ज्ञानार्णव २/१, तत्वार्थ सूत्र टी० ६/१ x वृहद्नयचक्र १५६ [देवेसेनाचार्यकृत) * योगशास्त्र ४/८० A तत्वार्थसूत्र टी० ६/७ - ज्ञानार्णव २/१ - Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (६५) लक्षण, स्वरूप व साधनों के बारे में चिन्तन मनन करता है जिससे उसकी आत्मा में तप, दान व शील के प्रति आकर्षण बढ़ता हैं । निर्जरा दो प्रकार की है १- सकाम निर्जरा २- अकाम निर्जरा । इनमें सकाम निर्जरा केवल मुनियों के होती है और जीवों को अकाम निर्जरा होती है। निर्जरानुप्रेक्षा आत्मा की शुद्धि का साधन है इसके द्वारा जीव अपनी आत्मा की शुद्धि का प्रयास करता है, जिससे उसमें अद्भुत साहस एवं तितिक्षा वृत्ति जागृत होती है । १०- लोकानुप्रक्षा लोकानुप्रेक्षा में साधक जीव और अजीव की विविधताओं तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों का चिन्तन करता है। यह लोक अनादि एवं अकृत्रिम है तो भी प्राणी नाना दुख उठा रहे हैं यहो लोकानुप्रेक्षा है।+ यह लोक अनादि काल से स्वयमेव सिद्ध है, तीन वातवलयों से वेष्टित है, निराधार है । इसके सम्पूण चिन्तन से जोव की आत्मा शुद्ध होती हैं, वह लोक के वास्तविक स्वरूप को पहचानने लगता ११- बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा इस भावना का अनुचिन्तन करते हुए साधक जीव की क्रमिक उन्नति पर विचार करता है और सोचता है कि मेरा अनादि काल से आवागमन के बन्धनों में जकड़ा हुआ है उसने प्रत्येक योनि (तिर्यंच, नरक, देव एवं मनुष्यादि) में भ्रमण कर लिया है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय सब कुछ बना पशुपक्षी बना किन्तु मुक्ति कहीं भी नहीं मिली अब मुझे मुक्ति प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण बल, पराक्रम लगा देना चाहिये । ऐसा विचार करना ही बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। सकामाकामभेदेन द्विधा सा स्याच्छरीरिणाम् ।। निर्जरा यमिनां पूर्वा ततोऽन्या सर्वदेहिनाम् ।। (ज्ञानार्णव २/२) + तत्वार्थसूत्र टी० ६/७ (ख) ज्ञानार्णव २/३ । x योगशास्त्र ४/१०४-१०६ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६६) १२-धर्मानुप्रेक्षा धर्म आत्मा की उन्नति का साधन है। धर्म से हो आत्मा को श्रेयस् की प्राप्ति होती है । धर्म से ही प्राणी संसार के दुखों से मुक्ति पाकर सुख की प्राप्ति करता है । वह धर्म अहिंसा, संयम और तप रूप उत्कृष्ट मंगल हैIA जिस धर्म ने जगत् को पवित्र करके उसका उद्धार किया उसको देवता भी नमस्कार करते हैं। धर्म ही गुरु, मित्र स्वामी है। असहायों का सहायक है एवं दुर्बलों का रक्षक है। धर्म साधना में साधक धर्म से सूक्ष्म रहस्य को हृदयंगम कर लेता है जिससे उसके जीवन में सुख शान्ति का सागर लहराने लगता है और उसकी आत्मा को उन्नति होती हैं। जो बातें अपने लिए अनिष्टकारी हैं, वे कैसे किसी के लिए इष्ट हो सकती है ऐसा सोचकर सबके साथ अपने जैसा व्यवहार करना ही धर्म का मुख्य चिन्ह है।... मुनियों ने क्षमादि दस धर्मो का वर्णन किया है। १- क्षमा २- मार्दव ३. शौच ४- आजव ५- सत्य ६- संयम ७- ब्रह्मचर्य ८-तप 8- त्याग १०- आकिंचन्य स्थानाड्.ग सूत्र में इनके नाम इस प्रकार दिये गये हैं १- क्षांति २- मुक्ति, ३- आर्जव, ४- मादव, ५-लाधव, ६- सत्य, ७- संयम, ८- तप, 8- त्याग, १०- ब्रह्मचर्य ।* = कर्मनिवर्हण, संसार दुखतः सत्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे । (रत्न करण्ड श्रावकाचार श्लोक २) A दशवैकालिक १/१ ज्ञानार्णव २/१ .... ज्ञानार्णव, सर्ग २, श्लोक २ x (क) तितिक्षा मार्दवं शौचमाजवं सत्य संयमौ। __ब्रह्मचर्य तपस्त्यागाकिञ्चन्य धर्म उच्यते ।। वही २/२० (ख) उत्तम क्षमा मार्दवार्जव शौच सत्य संयम तपस्त्यागाकिञ्चन्य ब्रह्मचर्याणिध मः। (तत्वार्थ सूत्र ६/६] (ग) समवायांग, समवाय १० * खती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, वभ चेरवासे । (स्थानाङ्ग १०/७१२) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (६७) कहीं-कहीं इनके क्रम में भेद मिलता है लेकिन उनका स्वरूप एक ही है, भेद नहीं है । इस प्रकार इन बारह अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन मनन से साधक अपनी वैराग्य भावना को दढ़ करता है। इनके निरन्तर अभ्यास से हृदय में उत्पन्न कषाय रूपी अग्नि बुझ जाती है तथा ज्ञान रूपी अन्धकार मिटकर ज्ञानरूप दीपक प्रकाशित हो उठता है । इन्हें संवर का कारण कहा गया है। ये बारह अनुप्रेक्षायें वैराग्य की जननी भी कहलाती है । ध्यान के योग्य आसन जैन योग में आसन के अर्थ में 'स्थान' शब्द का प्रयोग मिलता है। आसन का अर्थ है 'बैठना' । स्थान का अर्थ है 'गति को निवृत्ति' स्थिरता आसन का महत्वपूर्ण स्वरूप है। आसन बैठकर, खड़े होकर, लेटकर तीनों प्रकार से किये जा सकते हैं। आसन की अपेक्षा 'स्थान' शब्द अधिक उपयुक्त व व्यापक है। आसनों का वर्णन उपनिषदों में भी मिलता है ।+ भगवद्गीता में आसनों के द्वारा मन स्थिर होता है, ऐसा कहा गया है। आसनों का वर्णन भागवतपुराण में भी स्थान मिलता है। - पातजलि ने कहा है कि अधिक समय तक सुख के साथ स्थिर होकर बैठना ही आसन है । हठयोग में भी आसनों का वर्णन किया गया है ।* हठयोग एवं अन्य यौगिक ग्रन्थों में आसन के ८४ प्रकार बतलाये गये हैं लेकिन ध्यान की साधना में सहकारी कृछ ही A [क) तत्वार्थसत्र, टीका १/७ (ख] ज्ञानार्णव १३/२ + [क) तस्मा आसनमाहृत्य । (वृहदारण्यकोपनिषद् ६/२/४) (ख) तेषां त्वया सनेऽन प्रश्वसितव्यम् । (तेत्तिरीयोपनिषद् १/११/३) स्थिरमासनमात्मनः । (भगवद्गीता ६/११, ११/४२) = श्रीमद्भागवतपुराण २/१/१६, ३/२८/८, ४/८/४४] X योगदर्शन २/४६ *घेरण्डसंहिता २/३-६ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६८) आसन हैं। जैन परम्परा में यद्यपि चित्त की स्थिरता के लिए किसी विशेष आसन का प्रयोग करना चाहिये, ऐसा कहीं कोई नियम नहीं है परन्तु जिस आसन के द्वारा मन स्थिर होता है उसी आसन का उपयाग ध्यान साधना के लिए उपयुक्त कहा गया है। ज्ञानाणंव में ध्यान के योग्य १- पर्यंक आसन, २- अद्धपयंक आसन, ३- वज्रासन, ४वीरासन, ५- सुखासन, ६- कमलासन, ७- कायोत्सर्ग, इन आसनों को माना है।... आचार्य हेमचन्द्र ने १- पयँकासन, २- वीरासन, ३वज्रासन, ४- भद्रासन, ५- दण्डासन, ६- उत्कटिकासन, ७- गोदोहिकासन तथा ८- कायोत्सर्ग आसन का उल्लेख किया है।→ परन्तु दण्डासन का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है। स्थानाड़.ग, औपपातिक, वहत्कल्प, दशाश्र तस्कन्ध आदि आगमों में वीरासन, दण्डासन, आम्रकुब्जिका तथा उत्तरवर्ती ग्रन्थों में वज्रासन, सुखासन, पद्मासन, भद्रासन, शवासन, समपद, मकरमुख,हस्तिशुण्डि, गोनिषद्या, कुक्कुटासन आदि आसनों का वर्णन प्राप्त होता है। इसी प्रकार उपासकाध्ययन* में वर्णित सुखासन का जो रूप है वह योगशास्त्र तथा अमितगति x जायते येन येनेह विहितेन स्थिर मनः । तत्त देव विधातव्यमासनं ध्यान साधनम् ॥ [योगशास्त्र ४/१३४] -पर्यड़,कमर्चपर्य.कं वज्र वीरासनं तथा । सुखारविन्दपूर्वे च कायोत्सर्गश्च सम्मतः ॥ (ज्ञानार्णव, सर्ग २८, श्लोक १०) → पर्यंक-वीर-वजाब्ज-भद्र-दण्डासनानि च । उत्कटिका-गोदोहिका कायोत्सर्गस्तथासनम् ॥ योगशास्त्र, प्रकाश ४ श्लोक १२४-१३४ x (क) समपालियंकणिसेज्जा, गोदोहिया य उक्कुडिया। मगरमुह हत्थिसुडी, गोणणिसेज्जद्धपलियंका । वीरासणं च दंडा य, ......। [मूलाराधना ३/२२४-२२५] [व] वृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५६५३ ।। निषद्या नाम उपवेशनविशेषः, ताः पञ्चविधाः, तद्यथा-सम पादपुतागोनिषधिका हस्तिशुण्डिका पर्यंड.काडर्धपर्यड्.का चेति । * उपासकाध्ययन ३६/७३३-३७ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन श्रावकाचार में वर्णित पर्यंकासन से मिलता-जुलता है । १- पर्यंकासन पर तथा दोनों जंघाओं के निचले भाग पैरों के ऊपर रखने दाहिना और बाँया हाथ नाभि के पास दक्षिण-उत्तर में रखने से पर्यकासन होता है । २- वीरासन - बाँया पैर दाहिनी जाँघ पर और दाहिना पैर बायीं जाँघ पर रखकर वीरासन होता है। ३- वज्रासन - बायें पैर को दाई जाँघ पर और दायें पैर को बाई जाँघ पर रखकर हाथों को वज्राकार रूप में पीछे लेकर पैर के अँगूठे पकड़ना ही वज्रासन है | X यह बद्धपद्मासन जैसी स्थिति है । कुछ आचार्यों ते इसे बेतालासन भी कहा है । ४- पद्मासन दायें पैर को बायीं जाँघ पर और बायें पैर को दायीं जाँघ पर भली प्रकार स्थापन करके दोनों हाथों से पैर के अँगूठों को पकड़ना ही पद्मासन है । ५- भद्रासन दोनों पैरों के तल भाग वृषण प्रदेश में अण्डकोषों की जगह एकत्र करके, उसके ऊपर दोनों हाथों की अँगुलियाँ एक दूसरी अँगुली में डालकर रखना भद्रासन है । + ६- दण्डासन - भूमि पर बैठकर इस प्रकार पैर फैलाना कि अँगुनियाँ, गुल्फ और जाँघें जमीन से लगी रहें अर्थात् दण्ड की भांति पैर पसार कर 4 अमितगतिश्रावकाचार ८/४५-४८ हठयोगप्रदीपिका १/२१ - योगशास्त्र ४ / १२७ + योगशास्त्र ४ / १३० Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (१०० बैठना ही दण्डासन है। ७- उत्कटिकासन भूमि से लगी एड़ियों के साथ जब दोनों नितम्ब मिलते है, तब उत्कटिकासन होता है। ८- गोदोहिकासन गाय को दुहते समय बैठने का आसन । एडियों को उठाकर पंजे के बल पर बैठना अर्थात् जब एड़ियाँ जमीन से लगी हई नहीं होती और नितम्ब एड़ियों से मिलते हैं तब गोदोहिकासन होता है।8- कायोत्सर्गासन कायिक ममत्व का त्याग करके, दोनों भुजाओं को लटकाकर शरीर और मन से स्थिर होना, कायोत्सर्ग आसन है। इसी प्रकार सुखासन आदि आसनों का वर्णन भी है। सुखासन गृहस्थ तथा साधु दोनों के लिए है । बायें पैर को उसके नीचे और दायें पैर को दाई जचा पर रखकर बैठना ही सुखासन है ।... इस प्रकार विभिन्न ग्रन्थों में आसनों का वर्णन भी भिन्न प्रकार से पाया गया है । पतञ्जलि ने आसनों की व्याख्या की हैं, किन्तु उसके प्रकारों का उल्लेख नहीं किया है । भाष्यकार व्यास ने १३ आसनों का उल्लेख किया है.१- पद्मासन, २- भद्रासन, ३- वीरासन, ४स्वस्तिकासन, ५- दण्डासन, ६- सोपाश्रयासन, ७- पर्यड्.कासन, ८- क्रौचनिषदन, ६. हस्तिनिषदन, १०- उष्ट्रनिषूदन, ११- समसंस्थान, १२- स्थिरमुख, १३- यथासुख IX कुछ आसनों के अर्थ समान हैं । पयंड्.क, वीरासन, उत्कटिका, गोर्दोहन गोदोहिका तद्वधा याडसौ गोदोहिका [स्थानाड्.ग ५/४००) - गोदोहगा-गोर्दोहे आसनमिव पार्णिद्वयमुत्क्षिप्याग्रपादाभ्यामासनम् (मूलाराधना ३/२२४) ... यशस्तिलक ३६ x पातञ्जलयोगसूत्र २/४६ भाष्य Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन दण्डासन आदि आसनों के अर्थ भिन्न हैं अभय देवसूरि ने पर्यड्क आसन का अर्थ पदमासन किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने पद्मासन को पयंड्.कासन से भिन्न माना है।A शंकराचार्य ने घुटनों को मोड़, हाथों को फैलाकर सोना पर्यकासन है ऐसा माना है।- अपराजित सूरि ने वीरासन का अर्थ दोनों जवाओं में अन्तर डालकर उन्हें फैलाकर बैठना किया है, जबकि आचार्य हेमचन्द्र ने बायें पैर को दाई जंघा पर और दायें पैर को बाई जंघा पर रखकर बैठना वीरासन है ऐसा कहा है। उनके अनुसार इस मुद्रा को कुछ योगाचार्य पद्मासन भी मानते हैं ।(१) आचार्य अमितगति का भी यह मत है।(२) ध्यान के लिए कठोर आसन का विधान नहीं है। जिस आसन से मन स्थिर हो, वही आसन विहित है ।... जिनसेन ने ध्यान की दृष्टि से शरीर की विषम स्थिति को अनुपयुक्त बतलाया है उन्होंने कहा है कि विमनस्कता की स्थिति में ध्यान नहीं हो सकता अतः ध्यान के लिए सुखासन ही इष्ट है। कायोत्सर्ग और पर्यड्.क ये दोनों आसन सुखासन है शेष सभी आसन विषम आसन हैं इन दोनों में भी मुख्यतः पर्य.क आसन ही सुखासन हैं- शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने ध्यान के लिए किसी भी आसन विशेष का वर्णन नहीं किया यह * स्थानाड.ग ५/४०० A योगशास्त्र ४/१२५, १२६ - पातञ्जलयोगसूत्र २/४७ भाष्य Xx वीरासणं- जंघे वि प्रकृष्टदेशे कृत्वासनम् । मूलाराधना ३/२२५, विजयोदया । + योगशास्त्र ४/१२६ (१] पद्मासनमित्येके । (योगशास्त्र ४/१२६) (२) उर्वोपरि निक्षेपे, पादयोविहिते सति । वीरासनं चिरं कत्तु, शक्यं वीरैर्न कातरैः ॥ (अमितगति श्रावका चार ८/४७) .... ज्ञानार्णव २८/११, योगशास्त्र ४/१३४ x महापुराण २१/७०-७२ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (१०२) उन्होने ध्याता की इच्छा पर ही छोड़ दिया हैं। ध्यान के लिए सुखासन हो इसे तो सभा विद्वानों ने एकमत से स्वीकार किया है लेकिन कठोर आसन को सभी ने नकारा है कोई भी एकमत नहीं है। ध्यान और प्राणायाम प्राणायाम को पूर्वाचार्यों ने योगसाधना के लिए अति आवश्यक बतलाया है। प्राणायाम की साधना से साधक को अनेक प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक लाभ की प्राप्ति होती है, चामत्कारिक सिद्धियाँ एवं लब्धियों की प्राप्ति होती है। प्राणायाम से साधक का वचनबल मनोवल एवं कायबल बढ़ता है एवं उसकी अन्तष्टि का विकास होता है। इसके द्वारा साधक अपने मन को नियन्त्रित कर लेता है, मन का नियन्त्रण आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक है। श्वास प्रश्वास की स्वाभाविक गति के अभाव को ही प्राणायाम कहते हैं यह प्राणायाम पवन का साधना है । ऐतरेयोपनिषद में प्राण एवं अपान का वर्णन मिलता है ।* उपनिषदों में तो इस शब्द के विभिन्न संदर्भो पर प्रकाश डाला गया हैं । A गीता के अनुसार प्राण वायु को अपानवायु में और अपानवायु को प्राणवायु में ले जाना और इन दोनों की गति को रोकना ही प्राणायाम है।+ पतञ्जलि ने भी इन शब्दों का समर्थन किया है एवं आसन स्थिर होने पर श्वास-प्रश्वास की गति को रोकने की क्रिया को प्राणायाम कहा है। इन्होंने X ऐतरेयोपनिषद् ३ A (क) अमृतनादोपनिषद ६-१४ (ख) त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद ०४-१२६ (ग) योगकुण्डल्युपनिषद् १६-३६ (घ) योगचूडामणि ६५-१२१ । (ङ) योगशिखोपनिषद् ८६-१०० + अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। प्राणापानगती रूद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥ (श्रीमद्भगवद्गीता ४/२६) तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोगति विच्छेदः प्राणायामः । (योगदर्शन २/४६) - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१०३) प्रणायाम के चार प्रकार बतलाये हैं- १- बाहृयवृत्तिक, २-आभ्यंतर वत्तिक, ३-स्तम्भवत्तिक,४-बाहयान्तर विषयाक्षेपि । =जबकि शिव संहिता में प्राणायाम के तीन प्रकार बतलायें हैं -१-पूरक, २-कुम्भक ३- रेचक IA बौद्ध दर्शन में प्राणायाम को आनापानस्मति कर्मस्थान कहा गया है। आन का अर्थ है साँस लेना और अपान का अर्थ है साँस छोड़ना, इन्हें श्वास प्रश्वास भी कहा जाता है ।* जैन परम्परा में प्राणायाम के सम्बन्ध में दो मत हैं, एक तो प्राणायाम को ध्यान की सिद्धि के लिए एवं मन को एकाग्र करने के लिए प्रशंसनीय कहते हैं, तो दूसरे इसे आवश्यक नहीं मानते हैं, उनके मतानुसार प्राणायाम से मन व्याकुल होता है और मानसिक व्याकुलता से समाधि भग होती है और जहाँ समाधि भंग हो जाती है वहाँ ध्यान नहीं हो सकता। समाधि के लिए श्वास को मन्द करना जरूरी होता हैं जबकि मन एवं श्वास में गहरा सम्बन्ध होता है जहाँ मन है वहाँ श्वास है और जहाँ श्वास है वहीं मन है ये दोनों नीर और क्षीर का भाँति मिले हुए रहते हैं।.... पूरक, कुम्भक एवं रेचक करने में परिश्रम करना पड़ता है जिससे मन को क्लेश की प्राप्ति होती है ।→ वायू का नाम है प्राण तथा इस प्राण को विस्तार करने को आयाम कहते है इस प्रकार दोनों प्रकार के श्वासों को बाहर निकालने या भीतर ले जाने की क्रिया को प्राणायाम कहते हैं। ये तीन प्रकार का है। यह मत आचार्य शुभचन्द्र जी = योगदर्शन २/५०-५१ A शिवसंहिता ३/२२-२३ * बौद्धधर्म दर्शन पृ० ८१ x महापुराण २१/६५-६६ ... मनोयत्र मरुत्तत्र, मरुद् यत्र मनस्ततः । अतस्तुल्यक्रियावेतो, संवीतौ क्षीरनीरवत् ॥ (योगशास्त्र ५/२) → पूरणे कुम्भने चैव रेचने च परिश्रमः । चित्त संक्लेश-करणान्मुक्तेः प्रत्यूह कारणम् ॥ [योगशास्त्र Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (१०४) का है।.... जबकि योगशास्त्र में प्राणायाम के चार प्रकार बतलाये गये हैं १- प्रत्याहार, २- शान्त, ३- उत्तर एवं ४- अधर IX पूरक में साधक वायु को.अन्दर खीचता है। कुम्भक में वायु को अन्दर किसी एक स्थान पर जैसे नाभि हृदय आदि पर रोकता है और रेचक में बाहर निकाल देता है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ध्यान की सिद्धि के लिए प्राणायाम अपेक्षित हैं इससे साधक का शरीर एवं मन शुद्ध होता है एवं उसमें अपने विचारों से दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता आती है उसके व्यक्तित्व में चुम्बकीय शक्ति का विकास होता है और तैजस शरीर का आभामण्डल शक्तिशाली बनता है, वह इतना सक्षम हो जाता है कि अपने ज्ञान नेत्र से दूसरों के सूक्ष्म शरीर को देख सकता है एवं उसके विचारों को जान सकता है, उसे भूत भविष्य की जानकारी भी रहती है । इतनी विशेषताओं के साथ-साथ जैन मतानुसार इससे मानसिक अवरोध उत्पन्न होता है इस कारण इसे विशेष महत्व से वंचित रखा जाता है, यद्यपि प्राणायाम के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विवेचन विश्लेषण आदि जैन योग ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । ध्यान व समत्व: मानव के जीवन में समता और विषमता का गहरा प्रभाव पड़ता है। जब शरीर सम अवस्था में रहता हैं तो शरीर के प्रत्येक अंग अर्थात् सम्पूर्ण स्नायु-संस्थान ठीक से काम करते हैं और वह स्वस्थ एवं निरोग रहता है लेकिन जब शरीर विषम स्थिति में रहता है तो उसके शरीर की सारी क्रियायें अनवस्थित हो जाती हैं और वह सुस्त, रोगी और लाचार हो जाता हैं । इसलिए शरीर को हमेशा सम स्थिति में रखना चाहिए क्योंकि मन पर समता का बहत गहरा असर पड़ता है और मन का असर चेतना पर पड़ता है । .... त्रिधा लक्षणभेदेन सस्मृतः पूर्वसूरभिः । पूरकः कुम्भकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम् ॥ (ज्ञानार्णव २६/३) x प्रत्याहारस्तथा शान्त उत्तराश्चाधरस्तथा। एभिर्भेदश्चतुभिस्तु सप्तधा कीर्यंते परैः ।। (योगशास्त्र ५/५) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [१०५] और मन का असर चेतना पर पड़ता है । जब मन अव्यवस्थित हो जाता है तो चेतना में भी अस्थिरता आ जाती है जिससे मानसिक विस मता हो जाती है लाभ-हानि, सुख-दुख आदि स्थितियों से मन जितना विषम होता उतनी हीअस्थिरता आती है । अगर स्थितियों से कोई लगाव नहीं होता वह स्थिति सम कहलाती है। उस स्थिति में चेतना स्वयं स्थिर हो जाती है, यही अवस्था ध्यान कहलाती है । आचार्य शुभ चन्द्र ने भी समभाव को ध्यान माना है। + जब तक समता की स्थिति नहीं होती तब तक वह ध्यान नहीं होता है, आचार्य हेमचन्द्र ने भी इस मत का समर्थन करते हए कहा है कि जो व्यक्ति समता की साधना किए बिना ध्यान करता है, वह कोरी विडम्बना करता है। अर्थात् समता की साधना किए बिना ध्यान असम्भव है । अतः हम देखते हैं कि ध्यान और समत्व मिले हुए हैं। ध्यान सिद्धि के हेतु ___ ध्यान की सिद्धि के लिए चार बातें जरूरी बताई गयी हैं -१सद्गुरु का उपदेश, २--श्रद्धा, ३-- निरन्तर अभ्यास एवं ४--स्थिर मन । - सद्गुरु वही होता है जी ध्यान के विषय का पूर्ण रूप से यथार्थ ज्ञाता हो चाहे वह ज्ञान प्रत्यक्ष हो या परोक्ष रूप से हो, या जिसने गहन अभ्यास के द्वारा उस सम्बन्धित विषय में सिद्धि की प्राप्ति कर ली हा। वृहद्रव्यसंग्रह की संस्कृत टीका में वैराग्य, तत्वविज्ञान, निम्रन्थता अर्थात् असंगता, समचित्तता परीषह जय ये पाँच प्रकार के ध्यान की सिद्धि के हेतु कहे हैं A पतञ्जलि ने अभ्यास की दृढ़ता + ज्ञानार्णव २७/४ x समत्वम वलम्बया थ ध्यानं यागी समाश्रयेत् । बिनसमत्वमारब्धे, ध्याने स्वात्मा विडम्ब्यते।। (योगशास्त्र ४/११२) - ध्यानस्य च पुनमुख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम्।। गुरूपदेशः श्रद्धानं सदाऽभ्यास: स्थिरं मनः ॥ (तत्वानुशासन २१८) A वैराग्यं तत्वविज्ञानं नैन्थ्यं समचित्तता। परीषह-जयश्चेति पंचैते ध्यानहेतवः।। (वहद्रव्यसंग्रह, संस्कृत टीका प० २०१) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (१०६) १- दोघंकाल, २- निरन्तर और ३- सत्कार .... वैराग्य, ज्ञान सम्पदा, असंगता, चित्त की स्थिकी उर्मियों को सहना ये पाँच ध्यान की सिद्धि इसके सम्बन्ध में एक मत नहीं मिलता है । के तीन हेतु बताये हैं सोमदेव सूरि ने रता, भूख प्यास आदि के हेतु बतलाये हैं | सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र इन रत्नत्रय की शुद्धि किये बिना ध्यान होना असाध्य है । 'दर्शन' शब्द जैनागमों में दो अर्थो में प्रयुक्त हुआ है । इसका एक अर्थ है 'देखना ' अर्थात् अनाकार ज्ञान* और दूसरा अर्थ 'श्रद्धा' के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है । 4 सही दर्शन सही ज्ञान तक और सही ज्ञान सही आचरण तक ले जाता है । सम्यग्दर्शन ही धार्मिक क्षेत्र से अपेक्षित हैं । आप्तवचनों तथा तत्वों पर श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है 1 आचाय शुभचन्द्र ने कहा है कि 'जो जीव पदार्थों का श्रद्धान करता है वही नियम से सम्यग्दर्शन है । जीव, अजीव, आस्तव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष के प्रति विश्वास ही सम्यक्त्व है। + - ---- पातञ्जल योगसूत्र १/१४ ... X वैराग्यं ज्ञानसंपत्तिरसंग: स्थिरचित्तता । उर्मि - स्मय सहत्वं च पंच योगस्य हेतवः ॥ [ यशस्तिलक ८ / ४० ] * साकारं ज्ञानं अनाकारं दर्शनं । [तत्वार्थ राजवार्तिक पृ० ८६ ) 4 (क) उत्तराध्ययन सूत्र २८ / १५ [ख] स्थानाङ्ग वृत्ति (अभय देव सूरि ) स्थान १ (ग) तत्वार्थं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् (तत्वार्थ सूत्र १ / २ ) (घ) नियमसार - तात्पर्यवृत्ति ३ समयसार १४ यज्जीवादिपदार्थानां श्रद्धानं तद्धि दर्शनम् । निसर्गेणाधिगत्या वा तद्भव्यस्यैव जायते ।। (ज्ञानार्णव ६ / ६ ] + तत्वार्थ सूत्र १/४, (ख) रुचिजिनोक्त त्वेषु सम्यक् श्रद्धानमुच्यते (योगशास्त्र १ / १७ ] • Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन सम्यक्त्व के पाँच लक्षण -→ १- शम: क्रोध, मान, माया और लोभरूपी कषायों का शमन अर्थात् उनको उदित होने पर शान्त करना । इसका नाम प्रशम भी है । २- संवेग मोक्ष की अभिलाषा करना । ३- निर्वेद ४ सांसारिक विषयों के प्रति विरक्ति । अनुकम्पा - निःस्वार्थ भाव से दुखी जीवों के दुखों को दूर करने की इच्छा करना । ५- आस्तिक्य सर्वज्ञ कथित तत्वों पर दृढ़ श्रद्धा रखते हुए उस पर शंका का भाव न लाकर विश्वास करना । इन पाँच लक्षणों से सम्यक्त्व की पहचान होती है। सम्यक्त्व के पच्चीस दोष सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए एवं उसकी पच्चीस दोषों को त्यागना अति आवश्यक है, क्योंकि बिना सम्यक्त्व की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होती है । मूढताएँ, आठ मद छह अनायतन और आठ शंका आदि के → वही २/१५ + ज्ञानार्णव ६/८ शुद्धता के लिए उनको त्यागे वे दोष-तीन रूप में कहे गये (क) मूत्रयं मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि षड्- १ अष्टौ शंकादयश्चेति दृग्दोषाः पंचविंशति ॥ ( उपासकाध्ययन २१ / २४१] (ख) मुलाचार प्रदीप ५/६६-६७ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (१०८) तीन मूढ़तायें - १- देवमूढ़ता, २- गुरुमूढ़ता, ३- लोक मूढ़ता । आठ मद - १- जाति मद, २- कुल मद, ३- बलमद, ४- लाभमद, ५- ज्ञान मद, ६- तपभद, रूपमद, ऐश्वर्य मद । आठ शंकायें - १- शंका, २- कांक्षा, ३ प्रशंसा, ५- निन्दा, ६ छह अनायतन - १ - मिथ्यादर्शन, २- मिथ्याज्ञान, ३- मिथ्याचारित्र, ४- मिथ्यादृष्टि, ५- मिथ्याज्ञानी, ६- मिथ्याचारित्री |विचिकित्सा, ४- अन्यदृष्टि अस्थिरीकरण, ७- अवात्सल्य, ८- अप्रभावना | सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार शंका, २ सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार इस प्रकार से हैं १कांक्षा, ३- त्रिचिकित्सा, ४- मिथ्यात्त्रियों को प्रशंसा ५- मिथ्यादृष्टियों का संस्तव । ... सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन के लिए जिन तत्वों पर श्रद्धान अपेक्षित है उनको विधिवत् अर्थात् सही रूप में है । X अर्थात् अनेक धर्मयुक्त 'स्व' तथा 'पर' सम्यग्ज्ञान है । अपने स्वरूप को जानना हो ग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान का होना असम्भव है 14 सम्यग्ज्ञान के तीन दोष हैं १- संशय, २- विपर्यय, ३ अर्थात् विश्वास करना जानना ही सम्यग्ज्ञान पदार्थों को जानना ही सम्यग्ज्ञान है । सम्य अनध्यवसाय | इन तीनों मूलाचार प्रदीप ५/८५ योगशास्त्र २ / १७ x नाणेण जाणइ भावे । ( उत्तराध्ययन सूत्र २८ / ३५ ] * स्वापूर्वाथं व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । ( प्रमेय रत्नमाला १ ) 4 सम्यग्ज्ञानं कार्यं सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः । ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ॥ कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिब, सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ।। ( पुरुषार्थं सिद्धयुपाय ३३,३४) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१०६) दोषों को दूर करके आत्मस्वरूप को जानना चाहिये ।- आत्मस्वरूप को जानना ही निश्चय दृष्टि से सम्यग्ज्ञान है । इसके पाँच भेद बतलाये गये हैं।+ १- मतिज्ञान, २- श्रुत ज्ञान, ३- अवधि ज्ञान, ४मनः पर्यंय ज्ञान, सश्यकचारित्र सम्यग्दर्शन की उपलब्धि और सम्यग्ज्ञान की आराधना के बाद साधक का चारित्र सम्यक्चारित्र हो जाता है। इसका कारण यह है कि दृष्टि शुद्ध और यथार्थ ग्राहिणी हो जाती है। साधक जितनी भी योग क्रियायें करता है, वे सब सम्यकचारित्र बन जाती है। ज्ञान को आचरण में लाना, यही चारित्र धर्म हैं तथा इसी का दूसरा नाम सम्यकचारित्र हैं । अज्ञानपूर्वक चारित्र का ग्रहण सम्यक कहा गया है।X श्रमण और श्रावक की अपेक्षा से सम्यकलारित्र के दो भेद किये गये हैं१. सकल चारित्र, २- विकलचारित्र । आगमों में इनके दो भेद - तातै जिनवरकथित तत्व अभ्यास करीजे। संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लख लीजे ॥ (छहढाला ४/६) आप रूप को जानपनौं सो सम्यग्ज्ञान कला है । (छहढाला ३/२ + (क) मति श्रु तावधिमन' पर्ययकेवलानि ज्ञानम् । (तत्वार्थ सूत्र १/६] (ख) मति श्र तावधिज्ञानं मनः पर्यय केवलम। तदित्थं सान्वयभेदैः पञ्चधेति प्रकल्पितम् ॥ (ज्ञानार्णव → प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग । (समीचीन धर्मशास्त्र २, ४३-४६) x नहि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । ज्ञानान्तरमुक्तं, चारित्राराधनं तस्मात् ॥ (पुरूषार्थ सिद्धयुपाय सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानाम् । अनगाराणां, विकलं सागाराणां ससंगानाम् ।। [समीचीन -धर्म शास्त्र ३/४/५०) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (११० निम्न प्रकार से किये गये हैं १- अनगार धर्म, २- आगार धर्म ।चारित्र के पाँच भेदों का भी वर्णन प्राप्त होता है।A १- सामयिक चारित्र, २-छेदोपस्थापना चारित्र, ३- परिहार विशुद्धि चारित्र, ४सूक्ष्मासम्पराय चारित्र, ५- यथाख्यातचारित्र। इसके चार लक्षणों का भी वर्णन है* १. अपुनर्बन्धक, २- सम्यग्दृष्टि, ३- देशविरति, ४सर्वविरति । - चरित्तधम्मे दुविहे पण्णते, तं जहा-अणगार चरित्त धम्मे, अगार चरित्त धम्मे चेव । (स्थानाड्.ग, स्थान २] A (क] सामायिकछेदोपस्थापना परिहार विशुद्धि सूक्ष्मसाम्पराय यथाख्यातमिति चारित्रम् । तत्वार्थ सूत्र ९/१८) (ख) सामाइयत्थ पढम, छेओवट्ठावणं भवे बीयं । परिहार विसुद्धीयं, सुहुम तह संपरायं च ॥ अकसायं अहक्खायं, छउमत्थस्स जिणस्म व।। एवं चयरित्तकर, चारित्तं होइ आहियं ॥ (उत्तराध्ययन २८/३२-३३) . . * योगशतक १३-१६ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद ध्यान के भेद - द्विविध एवं चतुविध वर्गीकरण जैन आगमों तथा अन्य ग्रन्थों में ध्यान के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है । + आर्त, रौद्र, धर्म्य एवं शुक्ल । इनमें प्रथम के दो आत्तं एवं गैद्र अप्रशस्त और अन्तिम दो प्रशस्त कहे गये हैं। अप्रशस्त होने के कारण शुरू के दो ध्यान संसार के कर्मबन्ध के हेतु हैं, और अन्तिम दो प्रशस्त होने के से मुक्ति के कारण एवं कर्मो का क्षय करके मुक्ति के है | = कारण है और कारण संसार हेतु माने गये षट्खण्डागम की आचार्य वीरसेन के टीका में एक विशेषता देखी जाती है कि वहाँ और शुक्ल इन दो भेदों का वर्णन किया है रौद्र इन दो भेदों का वहाँ वर्णन नहीं दिखाई पड़ता + भगवता सूत्र २५/७, स्थाना. ग ४ / २४७, समवायांग ४, औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार सूत्र ३०, आवश्यक नियुक्ति १४५८, दशवैकालिक, अध्ययन १ अटं रुद्द धम्मं सुक्कं झाणा इ तत्थ अंताई । J निव्वाण साहणाई भवकारणमट्ट - रुद्दाइ ॥ ( ध्यान शतक, ५) आतं रौद्र धर्म्य शुक्लानि ॥ ( तत्वार्थ सूत्र ६ / २८ ) मूलाचार ५/१६७ तत्वानुशासन ३४ स्यातां तत्रातंरौद्र े द्व दुर्ध्यानेऽत्यन्तदुःखदे । धर्म शुक् ततोऽन्ये द्वं कर्म निर्मूलनक्षमे ॥ ( ज्ञानार्णव २५ / २१ ) अतं रौद्र ं च दुर्ध्यानं वर्जनीयमिदं सदा । धर्म शुक्ल च सदृष्यानमुपादेयं मुमुक्षुभिः । (तत्वानुशासन ३४) द्वारा विरचित धबला - ध्यान के केवल धर्म लेकिन आर्त और Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान के भेद (११२) है, ऐसा हो सकता है कि वहाँ ता का प्रकरण होने के कारण इन दो अप्रशस्त अर्थात् दुानों का वर्णन नहीं किया गया होगा किन्तु तप का प्रकरण होने पर भी कई ग्रन्थों में आत, रौद्र, धर्म एवं शक्ल इन चारों प्रकारों का वर्णन प्राप्त होता है ।.... आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने योगशास्त्र में धयं एवं शुक्ल इन दो भेदों को ही निर्दिष्ट किया है।x . इधर कुछ अर्वाचीन ध्यान साहित्य में ध्यान के इन चार भेदों के अतिरिक्त पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये अन्य चार भेद भी उपलब्ध होते हैं किन्तु इनका स्त्रोत कहाँ है और ये किस प्रकार से विकसित हुए यह पता नहीं लेकिन इनका वर्णन या निर्देश मुलाचार, भगवती आराधना, ध्यान शतक, स्थानाड़.ग, समवायांग और आदि पुराण आदि ग्रन्थों में कहीं नहीं हैं। परन्तु आचार्य देवसेन द्वारा विरचित भावसंग्रह एवं योगीन्दु के योगसार में इन नामों का उल्लेख प्राप्त होता है । ____आचार्य अमितगतिने भी ध्यान के आर्त आदि चार प्रकारों का वर्णन किया है। A नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव ने ध्यान के आर्त आदि किसी भी भेद का वर्णन न करके वहाँ परमेष्ठिवाचक अनेक पदों का जो वर्णन किया है उससे पदस्थ, पण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का संकेत मिलता हैं । ज्ञानार्णव के अनुसार भी ध्यान के दो भेद A झाणं दुविहं-धम्म ज्झाणं सुक्कज्झाणमिदि । (धवला पूस्तक १३, पृ०७०) .... (क] मूलाचार ५/१६७ (ख) औपपातिक सूत्र २० (ग) तत्वार्थ सूत्र 8/२८ x योगशास्त्र ४/११५ । * (क) भावसंग्रह-पिण्डस्थ ६१६/२२, पदस्थ ६२६/२७, रूपस्थ ६२३/२५, रूपातीत ६२८/३० (ख) योगसार, गाथा ६८ A श्रावकाचार १५-२३ = वृहद् द्रव्यसंग्रह (मूल) ४६-५४ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन को मिलते हैं १- प्रशस्त, २- अप्रशस्त । यहाँ चारों भेदों का भी समर्थन किया गया है। श्री अमतचन्द्र सूरि ने भी ध्यान के चार प्रकारों का वर्णन किया है लेकिन उन्होंने अन्त के दो ध्यानों को तप का अड्.ग माना है।+ इष्टोपदेश में भी ध्यान के चार प्रकारों का उल्लेख करते हए पूज्यपादाचार्य ने शरू के दो ध्यानों का परित्याग एवं अन्त के दो ध्यानों की उपासना करने के लिए कहा है... । स्वामि कार्तिकेय ने भी चारों प्रकारों का वर्णन, किया है। x इन सबके अतिरिक्त ध्यान के चौबीस भेदों का भी उल्लेख मिलता है,* जिनमें बारह ध्यान क्रमशः ध्यान, शून्य, कला, ज्योति, बिन्दु, नाद, तारा, लय, मात्रा, पद और सिद्धि हैं, तथा इन ध्यानों के साथ 'परम' पद लगाने से ध्यान के अन्य भेद बनते हैं । इस प्रकार कुल मिलाकर पता चलता है कि ध्यान के चार भेद ही सर्व सम्मति से अभीष्ट हैं। आर्तध्यानआर्तध्यान शब्द का अर्थ चेतना की अरति या वेदनामय एकाग्र परिणति को आतध्यान कहा गया है। 'ऋते भवम् आतम्' इस निरुक्ति के अनुसार दुःख आतरौद्र विकल्पेन दुर्व्यानं देहिनां द्विधा । द्विधा प्रशस्तमत्युक्तं धर्म शुक्लविकल्पतः॥ (ज्ञानार्णव २५/२०] + आतरौद्र च धम्यं च शक्लं चेति चतुर्विधम । ध्यानमुक्तं परं तत्र तपोऽड्.गमुभयं भवेत् ॥ (तत्वार्थसार ३५/६) ... तद्ध्यानं रौद्रमात्तं वा यदैहिक फलार्थिनां । तस्मादेतत्परित्यज्य धर्म्य शुक्लमुपास्यताम् ।। (इष्टोपदेश २०) x असुहं अट्ट रउद्द, धम्म सुक्कं च सुहयरं होदि । अट्ट तिव्वकषायं, तिव्वतमकसायदो रुदं।। (श्रीकार्तिकेयानुप्रेक्षा४६६) * सुन्न-कुल-जोइ-बिंदु-नादो-तारो-लओ-लवो मत्ता। पय-सिद्धि परमजुया झाणाई हुति चउबीसं ॥ (नमस्कार स्वाध्याय (प्राकृत) पृ० २२५] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान के भेद (११४) में होने वाली संक्लिष्ट परिणति का नाम आत्तं ध्यान है । A दुख के निमित्त से या दुख में होने वाली दशा या परिणति को आत ध्यान कहा गया है। इसी प्रकार राग भाव से जो उन्मत्तता होती है+, वह केवल अज्ञान के कारण ही होती हैं जिसके फलस्वरूप जोव उस अवांछनीय वस्तु के प्राप्ति-अप्राप्ति के प्रति होता है हैं वही आत्तं ध्यान है । आर्त ध्यान सामान्यत: तो दुख क्लेशरूप परिणाम है। आर्तध्यान के भेद आतध्यान के चार प्रकार हैA १- इष्टवियोग आत ध्यान, २- अनिष्ट सयोग आर्तध्यान, ३- प्रतिकूल वेदना आतध्यान, ४निदान आतध्यान । तत्वार्थसत्र में भी आतध्यान के चार प्रकार बतलाये हैं ।* अमृत चन्द्र सूरि ने भी चार प्रकारों को माना A ऋते भवमथात स्यादसद्धयानं शरीरिणाम् । दिग्मोहोन्मततातुल्यमविद्यावासनावशात् ।। (ज्ञानार्णव २५/२३) = अमणुन्नसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओग सतिसमण्णागते यावि भवति । (स्थानाड्.ग ४-२४७) + समवायांग ४ दशवकालिक अध्ययन, १ = कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४७१ A (क) औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३० [ख) स्थाना.ग, स्थान ४ (ग) भगवती २५/७ [घ) ज्ञानार्णव २५/२४ [ङ) आवश्यक अध्ययन ४ (अ) इष्टवियोगानिष्टसंयोगव्याधिप्रतिकार भोगनिदानेषु वाञ्छारूपं चतुर्विध आतंध्यानम् । (द्रव्यसंग्रह टीका ४८/२०१) [आ) भगवती आराधना, विजयोदया टी०, १६६७ * तत्वार्थ सूत्र ६/३० Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (११५) हैं । अन्य ध्यान से सम्बन्धित ग्रन्थों में भी आतं ध्यान चार भेदों वाला माना गया है ।.... १- इष्ट वियोग आर्तध्यान धा, ऐश्वयं, स्त्री-पुरुष, कुटुम्ब, मित्र आदि सांसारिक काम भोगों के पदार्थो से विमुक्त होने पर हाय तौबा करते हए उनके प्रति गमगीन बने रहना यही आर्त ध्यान का प्रथम भेद इष्ट वियोग आत्तंध्यान कहलाता है ।→ अर्थात् अपनी प्यारी वस्तु के नष्ट होने पर उसकी फिर से प्राप्ति के लिए जो दुःख होता है वह इष्ट वियोग आर्तध्यान कहलाता है।x २- अनिष्ट संयोग आर्तध्यान अनिष्ट ओर अप्रिय वस्तुओं के संयोग होने पर जो संक्लेश होता है वह अनिष्ट संयोगज आत्तं ध्यान है अर्थात् यह मेरा शत्रु है मुझे कोई हानि न पहुँचा दे इससे कैसे छुटकारा मिले इस सम्बन्ध में सोचते हए जो दुःख या क्लेश जीव को उत्पन्न होता है, या अग्नि, सर्प, सिंह, जल आदि के निमित जो क्लेश होता है वही दूसरा आत्तं ध्यान अर्थात् अनिष्ट संयोग आतध्यान कहलाता x प्रिय भ्रशेऽप्रिय प्राप्तौ निदाने वेदनोदये । आत कषाय संयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः ।। (तत्वार्थसार ३६) ... [क) विप्रयोगे मनोज्ञस्य संप्रयोगाय संततम् । संयोगे चामनोज्ञस्य तद्वियोगाय या स्मृतिः ॥ (ध्यान स्तव ६) [ख] मूलाचार प्रदीप २००३-२००५ (ग) ध्यान शतक ६ + विपरीतं मनोज्ञस्य । (तत्वार्थ सूत्र ६/३१) x (क) मनोज्ञवस्तुविध्वंसे मनस्तत्संगमाथिभिः । क्लिश्यते यत्तदेतत्स्या द्वितीयात्तस्य लक्षणम् ।। (ज्ञानार्णव २५/३१) (ख] सर्वार्थसिद्धि ६/३१/४४७/१ [ग) चारित्रसार १६९/१ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान के भेद (११६) है ।* दुखों के कारण उत्पन्न होने पर उसके समाप्त करने की इच्छा का बार-बार संकल्प या चिन्तवन करना भी दूसरा आतं ध्यान कहलाता है । ३- प्रतिकूल वेदना या रोगात ध्यान___ शारीरिक एवं मानसिक आधि-व्याधियों के उत्पन्न होने पर जीव उनसे मुक्त होने के लिए रात-दिन चिन्ता करता रहता है + अर्थात् शूल सिरदर्द आदि रोगों से उत्पन्न वेदना के प्रति चिन्तन करना ही रोग सम्बन्धी आतध्यान है। और साथ ही भविष्य के विषय में चिन्तन करना कि यह रोग या क्लेश स्वप्न में भी कभी न हो ऐसा सोचकर दुखी रहना ही तीसरा आर्त ध्यान कहलाता है। - यह ध्यान दुःखों का आकर और भविष्य के लिए पाप बन्ध का कारण है ।* * (क) ज्ञानार्णव २५/२५ (ख] तस्वार्थ सूत्र ६/३० (ग) तत्वार्थ वृत्ति ८६ अनिष्ट संयोगाद्वा समुजातमातध्यानम् । (घ] अमनोज्ञमप्रियं विषकष्टकशत्रु शस्त्रादि, तबाधा कारणवाद् ____ 'अमनोज्ञम्' इत्युच्यते। [सवार्थ सिद्धि ६/३०/६) A एकदुःखसाधन सद्भावे तस्य विनाशका.क्षात्पन्नविनाश संकल्पाध्यवसानं द्वितीयात्तं । (चारित्रसार १६८/५) + [क) ज्ञानार्णव २५/३२ (ख) वेदनायाश्च । (तत्वार्थ सूत्र ६/३२] तहसूलसीसरोगाइ वेयणाए विजोगपणिहाणं। तदसंपओगचिंता तप्पडियाराउल मणस्स ।। (ध्यान शतक ७] - स्वल्पानामपि रोगाणां माभूत्स्वत्नेऽपि संभवः । ममेति या नृणां चिंता स्यादात्तं तत्तृतीयकम् ।। (ज्ञानार्णव २५/३३] * निसर्ग जनितं निंद्यं पूर्वसंस्कारयोगतः। विश्वदुःखाकरीभूत कृत्स्नपापनिबंधनम् ॥ (मूलाचार प्रदीप, षष्ठ अधिकार, २०२०) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपरम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [११७) ४- निदान आत ध्यान___ जो काम भोग इस जीवन में न मिले हों उन्हें अगले जन्म में प्राप्त करने की तीव्र इच्छा या अभिलाषा रखना या शत्र से अगले जन्म में बदला लेने की लालसा रखना ही चौथा अर्थात् निदान आतध्यान होता है।.... अर्थात् आगामी विषय की प्राप्ति के लिए निरन्तर चिन्ता करना ही निदान आत्त ध्यान कहलाता संसार के अधिकतर प्राणियों को आर्तध्यान ही होता है ये जीव आत ध्यान में ही निमग्न रहते हैं। किसी को इष्ट का वियोग होने के कारण दुख है तो किसी को अनिष्ट के सम्बन्ध में कि कहीं हमारा किसी विषय में अनिष्ट से संयोग न हो जाये इसकी पीड़ा है, तो कहीं रोग की चिन्ता है, तो किन्हीं लोगों को काम भोगों की तीन लालसा ने विकल कर रखा है। ये सभी प्रकार आतध्यान संसार के कर्म बन्धन हैं ये अशुभ ध्यान हैं और सदा अच्छे पुण्यों आदि का नाश करके जीव को सांसारिक विषय भोगों की ओर उन्मुक्त करते हैं। जिससे उसका मोक्ष मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। इसलिए ये आतं ध्यान सर्वदा ज्याज्य .... (क) इष्ट भोगादिसिद्धयर्थं रिपुधातार्थमेव वा।। यन्निदानं मनुष्याणां स्यादातं तस्तुरीयकं (ज्ञानार्णव २५/२६) (ख) गृहस्थस्य निदानेन विना साधोस्त्रय क्वचित् । (ध्यान स्तव १०) [ग) देविदं-चक्कवट्टित्तणाई गुण-रिद्धिपत्थणमईयं । अहमं नियाणचिंतणमण्णाणुगयमच्चंतं ।। (ध्यान,शतक ६) ४ (क) निदानं च । (तत्वार्थ सूत्र ६/३३) (ख] द्वितीयं वल्लभधनादि विषयम्, चतुर्थ तत्संपाद्यशब्दादि भोग विषय मिति भेदोऽनयोर्भावनीयः। शास्त्रान्तरे तु द्वितीयचतुर्थयोरेकत्वेन तृतीयत्वम्, चतुर्थं तु तत्र निदानमुक्तम् । (स्थानाङ्ग टीका, १४७, पृ० १९६] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [११८] आर्त ध्यान के अनन्त भेद+ आत ध्यान मनोज्ञ अमनोज्ञ अनुत्पत्ति संप्रयोग संकल्प अनुत्पत्ति विप्रयोग ' संकल्प - बाह्य ... आध्यात्मिक बाह्य आध्यात्मिक चेतन कृत अचेतन कृत । । शारीरिक मानसिक . . शारीरिक मानसिक चेतन कृत अचेतन कृत आर्तध्यान के लक्षण ___ आरतं ध्यान से आश्रित चित्त वाले जीवों के बाह्य चिह्नों के सम्बन्ध में शास्त्रों के विद्वानों ने कहा है कि मनुष्य चाहे अपने को + चारित्रसार १६७/४ - Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का भद (११६) चालाक समझकर यह छपाये कि उसे आर्त ध्यान नहीं होता किन्तु उसके दिल में स्थित आत्तं ध्यान नहीं होता, किन्तु उसके दिल में स्थित आत्तं ध्यान का पता उसके बाह्य चिह्नों से हो जाता है, जैसे आत ध्यान से पीड़ित व्यक्ति सबसे पहले तो शंकाल होता है फिर उसको शोक व भय से प्रमाद तक होने लगता है, उसका चित्त एक जगह नहीं ठहरता । वह विषयी हींकर हर वक्त सोने लगता है, उसका शरीर धीरे-धीरे शिथिल पड़ने लगता है ।... वह जीव निरन्तर आक्रन्द, शोक, क्रोध आदि क्रियायें करता है। जो इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग तथा वेदना के कारण होते हैं। वह जोर-जोर से चिल्लाकर छाती पीट-पीट कर रोता है, आँसू बहाता है, बाल नोचता है एवं वाणी से दिल का गुस्सा उतारता है। वह परिग्रह में. अत्यन्त आसक्त होकर एव लोभी होकर, शोक करता हुआ अपनी जीविका चलाता है।* उसका शरीर क्षीण पड़ जाता है व मूच्र्छा आती है, शरीर की कान्ति नष्ट हो जाती है। इस प्रकार से इन अनेक बाह्य लक्षणों से आत्तं ध्यान का पता चल जाता है । जिसे केवल अपनी ही आत्मा जान सके वह आध्यात्मिक आत्तं ध्यान कहलाता है और जिसे अन्य लोग अनुमान कर सके बाह्य आर्त कहलाता ... ज्ञानार्णव २५/४३ x तस्सऽक्कंदण-सोयण-परिदेवण-ताडणाई लिंगाई। इट्ठा ऽणिविओगाऽविओग-वियणानिमित्ताई। (ध्यानशतक १५-१७) * मूर्छा कौशोल्यकेनाश्यकोसोद्यान्यति ग्ध्नुता। भयोटे गानुशोकाच्च लिड्.गान्या स्मृतानि वै ॥ .. बाह्यं च लिड्.गमात्तस्य गात्रग्लानिर्विवर्णता। हस्तान्यत्कपोलत्वं साथ तान्यच्च तादृशम् ॥ (महापुराण २१/४०-४१] A (क) चारित्रसार १६७/४ . (ख) अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं (पण्णत्ता) तं० (तं जहा] कंदणता सोचणता तिप्पणता परिदेवणता। (स्थानाड्ग टी. पृ० १६) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२० ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन है। + आर्त ध्यान और गुण स्थान एवं स्वामी आत्तं ध्यान चारों भेदों सहित छठे गुणस्थान तक हो रहता है। आचार्य पूज्यपाद ने भी सर्वार्थसिद्धि टीका में कहा है कि आवरतो - असंयत- सम्यग्दृष्टि तक और देशविरतों के ही आतं ध्यान होता है, क्योंकि वे सब असंयमी होते हैं | हरिवंश पुराण में छह गुण स्थानों तक छह भूमि वाला आतं ध्यान माना गया है । 4 ज्ञानार्णव में भी छह गुण स्थान तक ही आतं ध्यान माना है लेकिन संयतासंयतनामा पाँचवें गुणस्थान तक तो चार भेद सहित रहता हैं किन्तु छठे गुण स्थान में निदान रहित तीन प्रकार का ही रहता है । * तत्वार्थवार्तिक में कहा गया हैं कि निदान को छोड़कर शेष तीन ध्यान प्रमाद के उदय की तीव्रता से प्रमतसंयतों के कभी-कभी होते हैं, निदान प्रमत संयतों के नहीं होता है। X मूलाचार, स्थाना.ग समवायांग और औपपातिक सूत्र में से किसी में भी ध्यान के स्वामियों का उल्लेख नहीं किया गया है। ध्यान शतक में भी अविरत - मिथ्यादृष्टि व असंयत्तसम्यग्दृष्टि, देशविरतों के ही आर्त ध्यान होता है + स्वसंवेद्याध्यात्मिकात्तध्यान । ( चारित्रसार १६७ / ५ ] (क) तदविरत - देशविरत प्रमत्तसंयतानाम् । [ तत्वार्थ सूत्र ९ / ३४) [ख) महापुराण २१/३७ - तत्राविरत - देशविरतानां चतुविधमार्तं भवति, असंयमपरिणामोपेतत्वात् प्रमत्तसंयतानां तु निदानं वज्यंमन्यदातंत्रयं प्रमादोदयोद्र ेकात् कदाचित् स्यात् । ( सर्वार्थसिद्धि ६ / ३४ ) 4 अधिष्ठानं प्रमादोऽस्य तिर्यग्गतिफलस्य हि । परोक्षं मिश्रको भाबः षड्गुणस्थान भूमिकम् || ( हरिवंश पुराण ५६/१८) * ज्ञानार्णव २५ / ३८-३६ X कदाचित् प्राच्य मार्तध्यानत्रयं प्रमात्तानाम् । निदानं वर्जयित्वा अन्यदात्तत्रयं प्रमादोदयोद्रकात् कदाचित् प्रमत्तसंयतानां भवति । [ तत्वार्थ वार्तिक ३ / ४१/१) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का भेद (१२१) ऐसा कहा गया है और मुनिजनों के लिए यह सर्वथा त्याज्य है।.... आत ध्यान और लेश्या__ आत ध्यान अशुभ और अप्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत आता है इसलिए यह अशुभ होने के कारण अशुभ लेश्या वाला ही होता है । इसके कुष्ण, कापोत और नील ये तीन अशुभ लेश्यायें होती हैं जो पाप रूप अग्नि में ईधन के समान होती हैं। जीव के कर्मों से उदित हई ये तीनों लेश्यायें अत्यधिक संक्लिष्ट नहीं होतों । जितनी वे रौद्र ध्यान में अपने अत्यधिक रूप में रहती है, उतनी वे आत ध्यान में प्रभावशाली नहीं होकर हीन रूप से विद्यमान रहती है हैं ।* इन्हीं अशुभ लेश्याओं पर आश्रित होकर अशुभ आत ध्यान उत्पन्न होता आत ध्यान का फल संसार कर्म बन्धन के कारण खड़ा होता है । आर्त ध्यान से कर्मों का क्षय नहीं होता अपितु कर्मों का बन्धन बढ़ता है और कर्मों का बन्धन बढ़ने से संसार की वृद्धि होती है, वह माया मोह के चक्कर में पड़ जाता है एवं जन्म-मरण के भव सागर में चक्कर लगाता है ये सब ही आत ध्यान के फलस्वरूप होता है और यही आत्त ध्यान का सामान्य रूप से फल है लेकिन इस फल के अलावा आत ध्यान का एक विशेष फल तिर्यंचगति है।+ तिर्यंचगति अनन्त दुखों से व्याप्त .... तदविरय-देसविरया-पमायपरसंजयासणुगं झाण । ___ सबप्पमायमूलं वज्जेयव्वं जइजणेणं ।। (ध्यान शतक १८) x कृष्णनीलाद्यसल्लेश्याबलेनज प्रविम्भते । इदं दुरितदावाचिः प्रसूतेरिन्धनोपमं ॥ (ज्ञानार्णव २५/४०) * कावोय-नील-कालालेस्साओ पाइसंकिलिट्ठाओ। ___अट्टज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणिआओ॥ [ध्यान शतक १४) A (क) अप्रशस्ततमं लेश्या त्रयमाश्रित्य जम्भितम् । अन्तर्मुहूर्त कालं तद् अप्रशस्तावलम्बनम् ।। (महापुराण २१/३८ (ख] चारित्रसार १६९/३ + एयं चउविहं राग-दोस-मोहं कियस्स जीवस्स । अट्टज्झाणं संसार वखणं तिरियगइमूलं ।। (ध्यान शतक १०) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन होती है, यह भाव क्षयोपशमिक है इसका काल अन्तमूहर्त हैं । यह आर्त ध्यान एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय एवं पंचेन्द्रिय तियंचगति के योग्य कर्म बंध करवाता है । आत ध्यान अत्यन्त अशुभ, दुखों से व्याप्त एवं समस्त क्लेशों से भरा हुआ होने के कारण संसार के बन्धन का हेतु माना गया है। अनन्तदुःखसंकीर्णमस्य तियंग्गतेः फलम् । क्षायोपशमिको भाव: कालश्चान्तमुहूर्तकः ॥ (ज्ञानार्णव २५/४२] .- (क) सर्वार्थसिद्धि ६/२६ (ख] तियंग्भवगमनपर्यवसानम्। (राजवार्तिक ६/३३/१/६२६ (ग) हरिवंशपुराण ५६/१८ (घ] चारित्रसार १६६/४ E] विश्वसंक्लेशंसपूर्ण तिर्यग्गतिकरं फलम् । मिथ्यादृशामति क्लेशात्सदृष्टीनां च तद्व्ययात् ॥ [मूलाचार प्रदीप ६/२०१६) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिच्छेद रौद्र ध्यान रौद्र ध्यान का लक्षण___'प्राणिनां रोदनाद् रुद्रः, तत्र भवं रोद्रम्' अर्थात् क्रूर, कठोर एवं हिंसक व्यक्ति को रुद्र कहा जाता है और उस प्राणी अर्थात् उस रुद्र प्राणी के द्वारा जो कार्य किया जाता हैं उसके भाव को रोद्र कहते हैं ।... इन अतिशय कर गावनाओं तथा प्रवृत्तियों से संलिष्ट ध्यान रौद्र ध्यान है । - जो पुरुष प्राणियों को रुलाता है, वह रुद्र व क्रूर कहलाता है और उस पुरुष के द्वारा जो ध्यान किया जाता है वह रौद्र ध्यान कहलाता है। यह ध्यान भी अशुभ अथवा अप्रशस्त ध्यान है। इसमें जीव स्वभाववश सभी प्रकार के पापों को करने में लगा रहता है व हिंसा आदि पाप कार्य करके गर्वपूर्वक डींगे ... रुद्रःक्रूराशय: प्राणी प्रणीतस्तत्त्वदर्शिभिः। रुद्रस्य कर्मभावो वा रौमित्यभिधीयते ॥ (ज्ञानार्णव २६/२] ४ (क) रुद्रः क राशय: कर्म तत्र भवं वा रौद्रम् । (सर्वार्थसिद्धि /२८/४४५/१०) (ख) राजवातिक ९/२८/२/६२७/२८ (ग) भावपाहुड़ टीका ७८/२०२६/१७ * (क) प्राणिनां रोदनाद् रुद्रः क्रूरः सत्त्वेषु निघृणः । पुसांस्तत्र भक्रौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम् ।। (महापुराण २१/४२ ख) तेणिकमोससंरक्खणेसु तह चेव छविहारंभे । रुद्घ कसायसहितं झाणं भणियं समासेण ।। (भगवती आरा धना, मूल, १७०३/१५२८) (ग] मूलाचार ३६६ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपरम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [१२४) मारता है। यह ध्यान अत्यन्त अनिष्टकारी है। चोर, शत्र जनों के वध सम्बन्धी महाद्वेष से उत्पन्न ध्यान रौद्र ध्यान कहलाता हैं IA रोद्र ध्यान के भेद रौद्र ध्यान के हिंसा, असत्य, चोरी और विषय संरक्षण से चार प्रकार के भेद हैं।+ इसमें जीव को हमेशा हिंसा में आनन्द आता है, चोरी करने में आनन्द का अनुभव करता है सदैव असत्य बोलने में ही उसे आनन्द की प्राप्ति होती है और विषयों की रक्षा करने में हमेशा तत्पर रहते हुए वह आनन्दित रहता है यही रौद्र ध्यान के भेद हैं । स्थाना.ग में भी रौद्र ध्यान को निरूपति करते हुए उसके चार ही भेदों का उल्लेख किया गया है। - हिंसादि में जीव आनन्द की प्राप्ति करता है इसलिए इन्हें हिसानन्द, मषानन्द, चौर्यानन्द और विषय संरक्षणानन्द भी कहते है। लेकिन चारित्रसार में बाह्य और आध्यात्मिक ये रौद्र ध्यान के दो भेद भी A (क) चौरजारशात्रवजनवधबधन सन्निबद्ध महद द्वेषजनित रौद्रध्यानम् । (नियमसार, तात्पर्य वृत्ति ८६) (ख) स्थानाड्.ग ४/२४७, समवायांग ४ (ग) दशवकालिक सूत्र टीका, अध्ययन १ + (क) हिंसानृतस्तेय विषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरत देविरतयोः । (तत्वार्थ सूत्र ६/३५) [ख] भगवती २५/७ (ग) औपपातिक तपोऽधिकार सूत्र ३० (घ) भगवती आराधना, वि० टी० १६९८ (क) हिंसानन्दान्मृषानन्दाच्चौर्यात्संरक्षणात्तथा । प्रभवड्गिनां शश्वदपि रौद्र चतुर्विधम् ।। । ज्ञानार्णव २६/३) (ख] हिंसानन्द मषानन्दस्तेयसंरक्षणात्मकम् ।। (महापुराण २१/४३) (ग) कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४७३-४७४ - रोहे झाणे चउबिहे पं० तं०-हिंसाणुबन्धि मोसाणुबन्धि तेणाणु बन्धि सारक्खणाणुंबन्धि । (स्थानाड्.ग पृ० १८८) A हिंसानन्दंमृषानन्दस्तेयानन्दसमाहृयम्।। विषयाचंतसंरक्षणानन्दंतच्चतुर्विधम् ॥ (मूलाचार प्रदीप ६/२०२४] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रौद्र ध्यान (१२५) निरूपित किये गये हैं। → हिसानन्द रौद्र ध्यान :__अन्य प्राणियों को अपने या किसी दूसरे के द्वारा मारने, काटने या या पीडित किये जाने पर अथवा ध्वंस किये जाने पर उसे जो हर्ष या सूख होता है वह हिसानन्द रोद्रध्यान कहलाता है ।... जीव हिमा में ही आनन्द प्राप्त करता है किसी दूसरे को पीड़ित करने में ही उसे सुखानुभूति होती हैं । - इस रौद्र ध्यान का आधार क्रोध कषाय हैं। इसलिए इस कषाय से पीड़ित होकर व्यक्ति क्रोधी हो जाता है और क्रोध में आकर वह हमेशा हिंसादि की बातें सोचता रहता है कि आज उसकी पिटाई करूं, उसे चाबुक लगाउँ। उसे अग्नि में जला दूं इत्यादि भावनायें उसके दिल में आती रहती है । ऐसा व्यक्ति बहुत ही क्रूर और कठोर होता है। उसमें क्रोध का विष भरा रहता हैं ।* उसका स्वभाव निर्दयी और बुद्धि पापमयी हो जाती → रौद्र च बाह्याध्यात्मिक भेदेन द्विविधम् । (चारित्रसार १७०/१) ... (क) ते निष्पीडिते ध्वस्ते जन्तुजाते कथिते । स्वेन चान्येन यो हर्षस्तद्धि सारौद्रमुच्यते ॥ (ज्ञानार्णव (ख) सत्तवह-वेह-बंधण-डहणंऽकण-मारणाइपणिहाणं । अइकोहग्गपत्थं निग्घिणमणसोऽहमविवागं ॥ [ध्यान शतक १९) (ग] तीनकषायानुरंजनं हिंसानन्दं प्रथमरौद्रम् । [चारित्रसार १७०/२) . (घ] हिंसाणंदेणं जुदो असच्च वयणेण परिणदो जो हु । (कार्तिकेया नुप्रेक्षा ४७५) x हिंसायां परपीडायां संरम्भाद्यैः कदर्थनैः । संकल्पकरणयद्वा बाधितेष्वांगिराशिषु ॥ (मूलाचार प्रदीप ६/२०२५) * अनारतं निष्करुणस्वभावः स्वभावतः क्रोधकषायदीप्तः । मदोद्धतः पापमतिः कुशीलः स्यान्नास्तिको यः स हि रौद्रधामा । (ज्ञानार्णव २६/५) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१२६) मषानेन्द रौद्रध्यान- असत्य, झूठी कल्पनाओं से ग्रस्त होकर दूसरों को धोखा देने और छल कपट से उन्हें ठगने आदि का चिन्तवन करना ही मषानन्द रौद्रध्यान है A दूसरों को ठगने में चतुर व्यक्ति दूसरों को ठगने के लिए अपनी पापमय दुर्बद्धि से मिथ्या वचन बोलते हैं, ऐसे व्यक्तियों को मृषानन्द नामक रौद्र ध्यान होता है।+ ऐसे व्यक्ति को अपत्य बोलने में ही आनन्द की प्राप्ति होती है और उसी में उसका चित्त विक्षिप्त हो जाता है। यदि व्यक्ति इस प्रकार से सोचे कि मैं अपने वचनों की कुशलता से अपने कार्य की सिद्धि के लिए दूसरों को अनर्थ के संकट में डाल दूँगा ऐसा चिन्तन करना भी रौद्र ध्यान होता है। ऐसे ध्यान बाले मनष्य का चित्त हमेशा झठ फरेब आदि में लगा रहता है। वह अपना झूठ पकड़े जाने पर भी ढीठ बना रहता है। चौर्यानन्द रौद्र ध्यान_____चोरी सम्बन्धी कार्यों, उपदेशों तथा चोरी के कर्मों में चतुरता का दिखाना ही चौर्यानन्द रौद्र ध्यान है इसमें जीव चोरी के कार्यों A (क) असत्यकल्पनाजाल कश्मलीकृतमानसः । चेष्टते यज्जनस्तद्धि मृषारौद्रं प्रकीर्तितम् ॥ (ज्ञानार्णव २६/१६) (ख) स्वबुद्धि विकल्पितयुक्तिभिः परेषां श्रद्धेयरूपाभिः परवञ्चनं प्रति मृषाकथने संकल्पाध्यवसानं मृषानन्द द्वितीय रौद्र म् ।। (चारित्रसार १७०/२) + (क) पिसुणासम्भापब्भूय-भूय धायाइवयणपणिहाणं । माया विणोऽइसधणपरस्स पज्छन्नपाबस्स ॥ (ध्यान शतक २०) (ख) दुर्बुद्धि कल्पनायुक्त्यापरवचन हेतवे । ब्रूयते यन्मृषावादं परवंचनपंडितै ।। (मूलाचार प्रदीप ६/२०२७) छ तत्थेव अथिर-चित्तोसद्ध झाणं हवे तस्स । (कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४७६] - पातयामि जनं मूढं व्यसनेऽनर्थसंकटे ।। वाक्कौशल प्रयोगेण वाञ्छितार्थप्रसिद्धये ॥ (ज्ञानार्णव २६/२१) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रौद्र ध्यान (१२७) में ही तत्पर रखता है। A जो तीव्र क्रोध व लोभ से व्याकुल रहता है, उसका चित्त दूसरों के सामान को हड़पने में ही लगा रहता है ऐसे जीव को चोरी करने में हा आनन्द की प्राप्ति होती है।* वह हमेशा लोभ के कारण दूसरों की नक्ष्मी, स्त्री व धन को हड़पने का ही चिन्तवन अपने अशुभ चित्त में करता रहता है।.... ऐसा व्यक्ति चोरी, तस्करी आदि के विषय में ही चिन्तवन करता रहता है । परिणाम स्वरूप वह सभी प्रकार की चोरियाँ करने लगता है और अपनी चोरी में ही प्रसन्न रहकर गर्व करता है। यह ध्यान अत्यधिक निन्दा का कारण है। विषय संरक्षणानन्द___काम-भोग के साधन एवं धनादि के संरक्षण, उन्हें और अधिक बढ़ाने की लालसा, व्यापार आदि तथा धनोपार्जन के साधनों की लाम वद्धि की अभिलाषा आदि सभी विषयसंरक्षणानन्द रौद्र ध्यान हैं । क्रूर परिणामों से युक्त होकर तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं को नष्ट करके उनके ऐश्वर्य तथा सम्पत्ति को भोगने की इच्छा रखना, शत्र से भयभीत होकर अपने धन, स्त्री, पूत्र राज्यादि के संरक्षण के विषय में तरह-तरह की चिन्ता करना विषय संरक्षणाA (क) तहतिव्वकोह-लोहाउलस्स भूओवघायणमणज्ज । परदव्वहरणचित्तं परलोयावाय निरवेक्खं ।। [ध्यानशतक २१) [ख) हठात्कारेण प्रमादप्रतीक्षया वा परस्वापहरणं प्रति सकल्पा ___ ध्यवसानं तृतीयरौद्रम । (चारित्रसार १७०/२) (ग) पर-विसय-हरण-सीतोसणीय-बिसए सुरक्खणे दुक्खो (कार्ति केयानुप्रेक्षा ४७६] .... परश्री स्त्रीसुवस्त्वादिहरणे लोभिभिर्भशम् । संकल्प: क्रियते चित्ते योशुभोवात्रतस्करैः ।। (मूलाचार प्रदीप ६/२०२६) X ज्ञानार्णव २६/२५ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [१२८] नन्द रौद्र ध्यान है ।* ऐसा जीव कामभोग के साधन आदि सांसारिक वैभव के संचय और संरक्षण में सदा व्यस्त रहता है और हमेशा उनका ही चिन्तवन करता रहता है।+ यह भी अनिष्ट है-और आत्महितैषी सत्पुरुष उसकी कभी भी इच्छा नहीं करता। रौद्रध्यान के बाह्य लक्षण __आचार्यों ने क्रूरता, दण्डकी, परुषता, वञ्चकता, कठोरता, निर्दयता ये रौद्रध्यान के बाह्य चिन्ह बतलाये हैं। इसमें उसके अग्नि के समान लाल नेत्र हो जाते हैं, भोहें टेढ़ी हो जाती है, वह जीव कंपित देह वाला हो जाता है उसकी आकृति भयानक हो जाती है । वह कठोर बोलता है, तिरस्कार करता है, ताड़न करता *(क] बहृवारम्भ परिग्रहेषु नियतं रक्षार्थमभ्युद्यते, यत्सकल्पपरम्परां वितनुते प्राणीह रौद्राशयः । यच्चालम्ब्य महत्वमुन्नतमना राजेत्यह मन्यते, तत्तुर्य प्रवदन्ति निमलधियो रौद्रं भवाशंसिनाम् ।। [ज्ञानार्णव २६/२६) [ख] सदाइविसयसाहणधणसारक्खण परायणमणिठें । सत्वाभि संकणपरोवघायकलसाउलं चित्तं ।। [ध्यानशतक २२) (ग) चेतनाचेतन लक्षणे स्वपरिग्रह ममेवेदं स्वम हमेवास्य स्वामीत्य भिनिवेशात्तदपहारकाव्यापादनेन संरक्षणं प्रति सकल्पाध्यवसानं संरक्षणानन्दं चतुर्थं रोद्रम् । [चारित्रसार १७०/२] + मदीया -स्तुसद्राज्यरामसेनादि सम्पदः । यो हरेत्त दुरात्मानं हन्मि पौरुषयोगतः ॥ इतिस्ववस्तु रक्षायांसंकल्प करणंहृदि । दुधियां तत्समस्तं विषयसरक्षणाभिधम् ॥ (मूलाचार प्रदीप ६/२०३१-३२) विस्फुलिड.गनिभे नेत्रे वका भीषणाकृतिः । कम्पः स्वेदादिलिड्.गानि रोद्रे बाह्यानि देहिनाम् ॥ [ज्ञानार्णव २६/३८) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रौद्र ध्यान (१२ε है, परस्त्री पर अतिक्रमण करता हैं। ध्यान शतक में रौद्रध्यान के दोष बतलाये वाह्य करण-वचन और काय से रौद्रध्यानी जीव के चार गये हैं। जो इस प्रकार हैं - उत्सन्न दोष, बहुलदोष नानाविध दोष और आमरण दोष । इस प्रकार से इन वाह्य लक्षणों से रोद्र ध्यानी का पता चल जाता है । महापुराण में चारों रौद्र ध्यानों के अलग-अलग लक्षण बतलाये गये है । * रौद्रध्यान में गुणस्थान एवं स्वामी यह रौद्र ध्यान अविरत और देशविरत के होता है ।... यह ध्यान छठे गुणस्थान के पहले पाँच गुणस्थानों में होता है । यह रौद्र ध्यान पाँच गुणस्थानवर्ती भावकों के मन द्वारा होता है, प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानों में वह नहीं होता । यह केवल मिथ्यादृष्टि से परानुमेयं परुष निष्ठुराक्रोशन निर्भत्र्सन बन्धनतर्जन ताडन पीडन परदारातिक्रमणादि लक्षणम् । ( चारित्रसार १७० /१) 4 (क) लिंगाई तस्स उस्सण्ण - बहुल - नाणाविहारऽऽमरणदोसा | तेसि चिय हिसाइ बाहिरकरणोवउत्तस्स || ( ध्यान शतक २६) (ख) रौद्रकर्म भवं रौद्रकर्म भाव निबन्धनम् । रौद्रदुःखकरं रौद्रगति रौद्रद योगजम् ॥ ( मूलाचार प्रदीप ६/२०३६२०४०] [( ग ) रुद्दस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० तं०-ओसण्ण दोसे बहुद से अन्नादोसे आमरणदोसे ( स्थाना. ग, पृ० १०८ * महापुराण २१/४९-५३) रौद्रमविरत देश विरतयो: । ( तत्वार्थ सूत्र ९ / ३५] ... X ( क ) स्यात्पञ्चगुण भूमिकम् । (ज्ञानार्णव २६ / ३६) (ख) षष्ठात्तु तदगुणस्थानात् प्राक् पञ्चगुण भूमिकम् । [महापुराण २१ / ४३ ) (ग) चारित्रसार १७१ / १) * इंय करण - कारणाणुमइ विसंयमणु चितणं चउब्भेयं । अविरय-देसासंजय जण मणसंसेवियमहण्णं ॥ ( ध्यान शतक २३ ) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३० ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन पंचम गुणस्थान तक के जीवों के ही होता है।A सर्व विरति मुनि को यह रौद्र ध्यान इसलिए नहीं होता क्योंकि वह हिमादि पापों से मन वचन काया से प्रतिज्ञाबद्ध होकर सर्वथा विरमित है। वह कभी प्रमाद के कारण आत्तध्यानी तो हो सकता है लेकिन रौद्रध्यानो नहीं हो सकता । मिथ्यादष्टि जीवों को तो सच्चे तत्व एवं श्रद्धा का पता नहीं होता इसलिए वह इस रौद्रध्यान में फंस जाता है । वैसे ये ध्यान चाहे किसी के भी हो परन्तु, यह ध्यान प्रशंसनीय नही होता, यह सर्वथा त्यागने योग्य है। रौद्र ध्यान और लेश्या एवं भाव यह रौद्रध्यान अत्यन्त अशुभ है। इसमें कापोत, नील एवं कृष्ण ये तीन अतिशय खोटी एव अशुभ लेश्यायें हआ करती हैं।+ यह रौद्र ध्यान कृष्ण लेश्याओं के बल से संयुक्त है । यह क्षायोपशमिक भाव से युक्त है एवं इसका काल अन्तमुहर्त पर्यन्त है।= यह ध्यान खोटी वस्तुओं पर ही होता है। इसमें भाव लेश्या और A (क] रौद्रध्यान तारतम्येन मिथ्यादृष्टि आदिपञ्चम गुणस्थानतिजी वसंभवम् । [द्रव्यसंग्रह टीका २०१/) (ख) सर्वार्थसिद्धि ६/३५/४४८) (ग) आदिमे च गुणस्थानेत्रदुतकृष्ट मंजसा । जघन्यं पंचमेस्याद्वित्रिचतुर्थे च मध्यमम्।। ]मूलाचार प्रदीप ६/२०३८) । +प्रकृष्ट तरदुर्लेश्यात्रयोपोद्बवृलंहितम् ।। ___ अन्तमुहतंकालोत्थं पूर्ववद्भाव इष्यते ॥ (महापुराण २१/४४) क] कृष्णलेश्याबलोपेतं श्वभ्रपातर्फलाडि.कतम् । (ज्ञानार्णव २६/३६) [ग] कावोय-नील-काला लेसाओ तिव्वसंकलिठाओ। रोदज्झामोवगयस्स कम्मपरिणामणियाओ।। [ध्यान शतक २५) = (क) ज्ञानार्णव २६/३६) (ख] उत्कृष्टाशुभलेश्यात्रयावला धानमस्य च । भाव औदयिको निद्यःक्षायोपशमिकोथवा ॥ (मूलाचार प्रदीप ६/२०३६) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रौद्र ध्यान (१३१) कषायों की प्रधानता होने से औदयिक भाव है। A इस ध्यान में ये तीनों लेश्यायें अपने प्रभावशाली रूप में स्थितरहती हैं। यह अत्याधि दुष्प्रभाव वाली होती हैं । लेश्या कर्मजन्य पुद्गल परिणाम है, जैसे वर्ण के पुद्गल होते हैं वैसे ही उसके सम्बन्ध से जीव को भाव जागता है । यह अप्रशस्त ध्यान जब जीवों पर होता है तब वह उसकी धर्मरूपी लक्ष्मी को क्षण भर में जला डालता हैं। रौद्र ध्यान का फल रौद्र ध्यान सामान्य तौर से संसार की वृद्धि करने वाला है और खास तौर से नरक गति के पापों को उत्पन्न करने याला है। यह ध्यान नरकगति की जड़ है। अत्यन्त दुख और सन्ताप से भरे हुए नरक में अनेक सागर पयंत डाले रखना इसका फल है ।.... उत्कृष्ट दुखों को देने वाली गति नरक गति कहलाता है। रौद्र ध्यान में तीव्र संक्लेश ही होता है, इससे उनसे बाँधे जाने वाले सानुबन्ध कर्म द्वारा भव परम्परा का सर्जन होना, संसार की वद्धि होना यह स्वाभाविक है । इससे व्यक्ति संसार के वन्धन में पड़ जाता है और नरक को प्राप्त करता है। यह ध्यान अतिशय कठिन फल वाला है, तीव्र दुःख ही इस रौद्र ध्यान का फल माना गया है।४ A चारित्रसार १७०/५ * एयं वसव्विहं राग-दोष-मौहाउलस्स जीवस्स। __रोदज्झाणं संसार बद्धणं नरयगइमूलं । (ध्यान शतक २४] .... बहु सागरपर्यंतफलमस्यदुरात्मनाम् । [मूलाचार प्रदीप ६/२०३५) x क्वचित्क्वचिदमी भावाः प्रवर्तन्ते मुनेरपि ।। प्राक्क मंगौरवाच्चित्रं प्रायः संसारकारणम् ।। (ज्ञानार्णव २६/४२) x इति विगतकलंकैणितं चित्ररूप दुरितविपिनबीजं निन्द्यदुर्ध्यान युम्मम् । कटुकतरफलाढयं सम्यगालोच्य धीर त्यज सपदि यदि त्वं मोक्षमोर्गे प्रवृत्तः ॥ (ज्ञानार्णव २६/४४) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिच्छेद धर्मध्यान का स्वरूप धर्म नाम स्वभाव का है। जीव का स्वभाव आनन्द है न कि ऐन्द्रिय सुख । अतः वह अतीन्द्रिय आनन्द ही जीव का धर्म है, जिससे धर्म का परिज्ञान होता है वही धर्मध्यान कहलाता है । जो धर्म से युक्त होता है वह धर्म्य है और इससे जो ध्यान किया जाये वह धर्मध्यान है।+ लेकिन कहीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र को धर्म कहा गया है और उस धर्म चिन्तन से युक्त जो ध्यान होता है, वह धर्म ध्यान कहा गया है।- स्थानाङग में इस ध्यान को श्रुत, चारित्र एवं धर्म से युक्त कहा है ।A ज्ञानसार में रागद्वेष को त्याग कर साम्यभाव से जीवादि पदार्थो का अपने स्वरूप के अनुसार ध्यान करना धर्मध्यान माना गया है । अपने धर्म से च्युत न होकर स्वभाव में आरूढ़ रहना भी धर्म ध्यान माना गया है ।.... x (क) धम्मस्स लक्खणं से अज्जवलहुगतमद्दवुवदेसा। उवदेसणा य सुत्ते णिसग्गजाओ रुचीओ दे । (भगवती आराधना, विजयोदया टी० १७०४) (ख) मूलाचार ६७६ + (क) महापुराण २१/१३३ (ख) सर्वार्थसिद्धि ६/३६/४५०/४ (ग) भावपाहुड़ टीका ७८/२२६/१७ - (क) सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः । तस्माद्यदनपेतं हि धर्म्य तद्ध्यानमभ्यधुः ॥ (तत्वानुशासन (ख) रयणसार मूल ६७ A स्थानाड्.ग ४/२४७ जीवादयो ये पदार्थाः ध्यातव्याः ते यथास्थिताः चैव । धर्म ध्यानं भणितं रागद्वेषौ प्रमुच्य"..." ।। (ज्ञानसार १७) .. तत्रानपेतं यद्धर्मात्तद्ध्यानं धर्म्यमिष्यते। धोहि वस्तुयाथात्म्यमुत्पादादि त्रयात्मकम् ॥[आदिपुराण १३३/२१] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का स्वरूप (१३३) तत्वानशासन में रत्नत्रयसे युक्त ध्यान के अलावा, जो धर्म से युक्त ध्यान है वह भा धर्म ध्यान है ऐसा माना गया है ।- जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र मोक्ष सुख का कारण है, वह भी धर्म ध्यान है। X जो मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का निज परिणाम है वह भी धर्म ध्यान है। * यह ध्यान प्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत आता है यह शुभ या सद्ध्यान माना गया है क्योंकि इस ध्यान से जीव का रागभाव मंद होता है और वह आत्मचिन्तन की ओर प्रवृत्त होता है। यह धर्मध्यान आत्मविकास का प्रथम सोपान है। इस प्रकार निष्कर्ष यह निकलता है कि धर्म के स्वरूप का चिन्तन ही धर्मध्यान है । धर्म ध्यान प्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत आता है, इसलिए इस ध्यान को शुभ ध्यान भी कहा गया है। धर्मध्यान के लक्षण :जिनसे धर्म ध्यान की पहचान हो वही लक्षण कहलाता है। धर्म ध्यान के आर्जव, लघुता, मार्दव और उपदेश ये चार प्रकार के लक्षण कहे गये हैं । + १- आर्जव : जिसमें खिचाव आने पर भी कुटिलता नहीं आती अपितु सरलता ही रहती है ऐसी सरलता को आर्जव कहते हैं । अर्थात् काय, वचन और मन की प्रवृत्ति को सरल रखना आर्जव है। - सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः। तस्माद्यदपेतं हि धयं तद्ध्यानमभ्यधुः ।। (तत्वानुशासन ५२) X सष्टिज्ञान वृत्तानि मोह क्षोभ विवर्जितः ।। यश्चात्मनो भवेद् भावो धर्मः शर्मकरो हि सः ।। (ध्यानस्तव १४) * चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दिट्ठो।। ___ मोह क्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।। (प्रवचनसार१/३७ A (क) धम्मो वत्थु-सहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ।। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४७८ (ख) भगवती सूत्र २५/७/८०३ (ग) उत्तराध्ययन सूत्र ३०/३५ + (क) भगवती आराधना, विजयोदया टी० १७०४ (ख) औपपातिक . Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन २-लघुता : अनासक्ति और निर्लोभता को लघुता कहते हैं । ३-मार्दव : कुल, जाति, बल, रूप, विद्या, ऐश्वर्य, धनादि बातों पर अहंकार न करना ही मार्दव है। ४-उपदेश : "उप" अर्थात् किसी के पास जाकर "देश" अर्थात जिनमत का कथन करना ही उपदेश है । लेकिन स्थानाड.ग में धर्म ध्यान के अन्य चार लक्षण निर्दिष्ट हैं वहां-१-आज्ञा रुचि, २-निसगं रुचि, ३-सूत्र रुचि और ४- अवगाढ रुचि ये चार लक्षण कहे गये हैं .... और ज्ञानार्णव आदि में विषय लम्पटता का न होना, शरीर नीरोग होना, चित्त का प्रसन्न होना, आगम, उपदेश और जिनाज्ञा का अनुसरण करने वाला, विनयी, दानी, धर्म से प्रेम रखने वाला, सदाचारी, धम ध्यान के लक्षण कहे गये हैं।x धर्म ध्यान के आलम्बन : वाचना, पृच्छना, परिवर्तन एवं अनुप्रेक्षा ये ध्यान के चार आलम्बन कहे गये हैं ।* .... स्थानाड.ग ४/२४७ x (क) ज्ञानार्णव ४१/१५/१ (ख) मूलाचार प्रदीप २०४१ (ग) धवला १३/५,४, २६/५४-५५ (घ) आदिपुराण १५६-१६१/२१ * आलंबणं च वायणपुच्छण परिवट्टणाणुपेहाओ। धम्मस्स तेण अविरुद्धाओ सव्वाणुपेहाओ। (भवगती आराधना, विजयोदया टी० १७०५) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का स्वरूप (१३५) स्थाना.ग में पृच्छना के स्थान पर प्रतिप्रच्छना शब्द का प्रयोग किया गया है और परिवर्तन को परिवर्तना कहा गया है । वैसे उसमें भी ये चारों भेद ही निर्दिष्ट किये गये हैं। ध्यान शतक में वाचना, प्रश्न, परावर्तन और अनुचिन्ता तथा सामायिक आदि व सद्धर्मावश्यक आदि धर्म ध्यान के आलम्बन कहे गये हैं।+ वाचना - पढ़ना।। प्रतिप्रच्छना - शंका निवारण के लिए प्रश्न करना। परिवर्तना - पुनरावर्तन करना। अनप्रेक्षा - अर्थ का चिन्तन करना। इस प्रकार ये चार प्रकार के मालम्बन धर्म ध्यान के हैं। धर्म ध्यान तथा मैत्री आदिक भावनायें : धर्म ध्यान के लिए आगमों में चार प्रकार की भावनायें बतलायी गई हैं । वे इस प्रकार से हैं-१-मैत्री भावना , २-प्रमोद भावनाA, ३-कारुण्य भावना*, और ४-माध्यस्थ भावना ।.... ___आगमों के पश्चात् तत्वार्थ सूत्र में इसका उल्लेख मिलता है। स्थानाड्.ग ४/२४७ + आलंबणाई वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुचिंताओ। सामाइयाइयाइं सद्धम्मावस्सयाइं च ॥ (ध्यानशतक ४२) x (क) मित्ती मे सव्वभूएसु । (आवश्यक सूत्र ४) (ख) न विरुज्झेज्ज केणइ । (सूत्रकृताड्.ग १/१५/१३) (ग) मेत्तिं भूएसु कप्पए । (उत्तराध्ययन ६/२) A सुस्सूसमाणो उवासेज्जा सुप्पन्न सुतबस्सियं । (सूत्रकृताड्.ग १/६/३३) * सव्वेसि जीवियं पियं नाइवाएज्ज कंचणं । (आचाराड.ग १/२/३) ... (क) अणुक्कसे अप्पलीणे मज्झेण मुणि जावए । (सूत्रकृताड्.ग १/१/४/२) (ख) उवेह एणं बहिया य लोगं । से सव्व लोगम्मि जे केइ बिण्णू ॥ __ आचाराड्ग १/४/३) : मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थानि च सत्व गुणाधिक किलश्यमानाविनयेषु । (तत्वासूर्थ व ७/११) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [१३६] __ वहां कहा गया है कि प्राणीमात्र में मंत्री गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिशयमानों में करुणा की वृत्ति और अविनीत जनों पर माध्यस्थ भाव रखना चाहिये : इन चारों भावनाओं का वर्णन पातञ्जल योगसूत्र में भी मिलता है।+ आचार्य हेमचन्द्र ने इन भावनाओं को ध्यान को पुष्ट करने वालो बतलाया है। उन्होंने कहा है कि मंत्री आदि भावनाओं से धर्मध्यान पुष्ट होता है। आचार्य अमितगति ने इन भावनाओं के सम्बन्ध में एक बहुत ही प्रसिद्ध एवं उत्तम श्लोक कहा है :सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, किलष्टेषु जीवेष कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्य भाव विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ।। आचार्य हरिभद्र ने जो आठ दष्टियों का वर्णन किया है उनमें भी प्रथम दृष्टि का नाम “मित्रा" रखा है = इन सबसे पता चलता है कि मैत्री आदि चारों भावनायें ध्यान (योग) से सम्बन्धित है । इनकी साधना साधक को समत्व ध्यान के समीप में पहुंचा देती है । इन चारों भावनाओं से धर्म ध्यान की वृद्धि होती है व उन्नति होती है और साधक के सभी रागद्वेष आदि से दूर हो जाते हैं। मैत्री भावना : जिस साधक में मैत्री भावना होती है वह सभी जीवों को समान भा० से देखता है उन्हें अपनी आत्मा के समान जानता है। इस भावना के अभ्यास से उस साधक के हृदय में से ईर्ष्या शत्रता आदि सभी अशुभ भावनायें समाप्त ो जाती हैं और सब जीव मेरे मित्र हैं ... + मैत्री करुणांमुदितोपेक्षाणां सुख दुःख पुण्यापुण्य विषयाणां भावनात श्चितप्रादनम् । (पातञ्जल योगसत्र, समाधिपाद, सूत्र ३३) D मैत्रो-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थानि नियोजयेत।। धर्मध्यानमपस्क तधि तस्य रसायनम ।। योगशास्त्र ४/११] = मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा।। नामानि योगदृष्टीनां लक्षण च दिबोधत ।। योगदृष्टि समुच्चय १३) ... उत्तराध्ययन ६/२ जीवन्तु जन्तवः सर्वे कलेशव्यसन वजितः । प्राप्नवन्तु सुखं त्यक्त्वा वैरं पापम् पराभवम् ॥ (ज्ञानार्णव २७/७) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का स्वरूप (१३७) ऐसी भावनायें बलवती हो जाती हैं । उसका अहिंसा भाव परिपुष्ट हो जाता है वह सभी जीवों के हित में अपना चित्त लगाये रखता है। वह सभी की कल्याण कामना करता हुआ सभी का मंगल करता है। वह हमेशा यही विचार करता रहता है कि सारे संसार के जीव मेरे अपने हैं इन सब ने मेरे ऊपर बहुत उपकार किये हैं । इस प्रकार की भावना से उसका मैत्री भाव बढ़ता है । उसके इस स्वभाव का प्रभाव अन्य लोगों पर भी पड़ता है और वे भी शत्रुता को छोड़कर साधक बन जाते हैं । इस भावना का विषय प्राणीमात्र है । वह समता योगी बन जाता है । प्रमोद भावना : आध्यात्मिक उन्नति और अध्यात्म योग की साधना के लिए साधक को गुण ग्रहण करने चाहिये । साधक गुणों को तभी ग्रहण कर सकता है जब वह गुणवान व्यक्तियों के प्रति प्रेम भाव रखे और उनका सम्मान करे । प्रमोद मावना की साधना के द्वारा व्यक्ति ( साधक) अपनी गुण को ग्रहण करने की शक्ति को उन्नत करता है। गुणी लोगों के सम्पर्क में आने से एवं उनसे प्रेम करने व उनका सम्मान करने से उसके अन्दर भी सभी सद्गुण आ जाते हैं उसकी इसी विनम्रतापूर्ण भावना से उसके सद्गुणों का विकास होता है कितुम्हारा आर्जव आश्चयंकारी है और आश्चर्यकारी है तुम्हारा मार्दव । उत्तम है तुम्हारी क्षमा और मुक्ति । इस प्रमोद भावना को समता योग का नेत्र कहा गया है । जैसे नेत्र सुन्दर, असुन्दर सभी चीजों को देखता है किन्तु सुन्दर वस्तुओं के प्रति ही आकर्षित होता है उसी प्रकार से गुणी व्यक्ति सद्गुणों को ही ग्रहण करता है । यह गुण ग्रहण करना ही प्रमोद भावना कहलाता है । कारुण्य भावना : बन्धन से मुक्त करने का प्रयत्न व चिन्तन करना ही कारुण्य भावना कहलाती है + (क) उत्तराध्ययन ६/५७ (ख) ज्ञानार्णव २७/११-१२ (क) उत्तराध्ययन १३ / १६ (ख) ज्ञानार्णव २७ / ८-१० Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१३८) अर्थात् जो साधक कारुण्य भावना का अन चिन्तन करता है वह न तो स्वयं कभी भयभीत रहता है और न ही कभी किसी को भयभीत करता है । अपितु वह भय से आक्रान्त एवं दुखी प्राणियों के प्रति प्रेम रखता है और चाहता हैं कि सभी सुखी रहें, सब के दुखों का अन्त हो जायेसर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत् ।। कारुण्य भावना का बार-बार अभ्यास करने से साधक का हृदय दया से परिपूर्ण हो जाता है, उसके हृदय में करुणा एवं वात्सल्य का सागर उमड़ने लगता है । वह "स्व" एव "पर" दोनों प्रकार की दया से परिपूर्ण व्यवहार करता हुआ उनका पालन करता है। "स्व" अर्थात् अपनी आत्मा को पीड़ित नहीं करता है, “पर” अर्थात वह कभी भी दूसरों को कष्ट नहीं देता । यह भावना समता योग का हृदय कहलाती है, अर्थात जो स्थान शरीर में हृदय का होता है, वही स्थान समता योग में कारुण्य भावना का है । जिस साधक का चित्त निर्मल एवं हृदय कोमल होता है जो किसी दूसरे का दुख न देख सके, उसी को समता योग की साधना की सिद्धि प्राप्त होती है कठोर हृदय वाला इसकी साधना नहीं कर सकता। यह अध्वात्म योग का लक्ष्य है। माध्यस्थ भावना : समझाने-बुझाने पर भी सामने वाला व्यक्ति देष का त्याग न करे, उस स्थिति में उत्तेजित न होना, किन्तु योग्यता की विचित्रता का चिन्तन करता है वही माध्यस्थ भावना है।+ माध्यस्थ भावना का दूसरा नाम उपेक्षा वृत्ति है । राग द्वेष को न करना, सुख दुख की प्रतिकूल स्थितियों में भी समान रूप से रहना सदैव उपेक्षावृत्ति एवं माध्यस्थ भावना में रमण करना ये ही इस भावना के चिन्ह हैं । + उत्तराध्ययन १३/२३ ज्ञानार्णव २७/१४ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्याम का स्वरूप [१३६] जो साधक इस भावना का अभ्यास करता है वह प्रतिकल स्थिति आने पर भी समभाव से यही सोचता है कि दुख और सुख एक सिक्के के दो पहलू हैं इनमें से कभी सुख आता है और कभी दुख । सुख आने पर अत्यधिक हर्ष नहीं करता और दुःख के आगमन पर विषाद भी नहीं करता। माध्यस्थ भावना द्विमुखी है-यह राग और द्वष दोनों पर ही विजय प्राप्त करती है । दोनों ही परिस्थितियों में समभाव से रहने वाले साधक सदैव सुखी रहते हैं । जो मनुष्य सुख आने पर भावों में आसक्त हो जाता है और प्रतिकूल परिस्थितियों के आने पर द्वेष भाव से युक्त हो जाता है वह अज्ञानी पुरुष हमेशा दुखी रहता है।* वह यही सोचता है कि ये सांसारिक सुख और दुःख की परिस्थितियां न तो शाश्वत हैं और न ही स्थिर, ये सब संसार तो परिवर्तनशील है, इसलिए राग द्वेष की भावना करना व्यर्थ है और उसके (साधक) इन्हों विचारों से वह समभाव की स्थिति में पहुंच जाता है । जहां उसे न तो शोक होता है और न हर्ष, वह इन सबसे परे पहुँच जाता है । जहां उसे न तो कषायों कीकलुषता रहती है न ही राग द्वेष की ज्वाला जलती है वह तो इन्द्रियों पर भी विजय प्राप्त कर लेता है। यह माध्यस्थ भावना समत्व योग की अन्तिम परिणति है। लक्ष्य बिन्दु है। ___इन मैत्री आदि चारों भावनाओं से साधक वीतरागता को प्राप्त करता है। उसके आत्मिक भावों की उन्नति होती है और एक दिन वह आत्मोन्नति के शिखर पर पहुँच जाता है यही मानव का चरम लक्ष्य है जो वह प्राप्त कर लेता है, और उसके विशुद्ध ध्यान का क्रम जो विच्छिन्न होता है वह पुनः सध जाता है + * एगन्तरत्ते रुइरंसि भावे, अतालिसे सो कुण पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ दाले, न लिप्पइ तेण मुणी विरागो।। (उत्तराध्ययन ३२]६१) + [क] आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः । त्रुटितामपि संधत्ते, विशुद्धध्यानसन्ततिम् ।। [योगशास्त्र ४/१२२] [ख] आभिर्यदानिशं विश्वं भावयत्यखिलं वशी। तदौदासीन्यमापन्नश्चरत्यत्रैव मुक्तवत् । (ज्ञानार्णव २७/१६) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१४०) धर्मध्यान की मर्यादायें :___ ध्यान करने की कुछ मर्यादायें हैं उन्हें समझ लेने पर ही ध्यान प्राप्त होता है। अधिकतर सभी ध्यान शास्त्रों में कहीं कम तो कहीं ज्यादा रूप से उसकी चर्चा की गई है । ध्यान शतक में ध्यान से सम्बन्धित बारह विषयों पर विचार करने के लिए एवं उनका अभ्यास करने के लिए कहा गया है । वे बारह विचार इस प्रकार से हैं-१-भावना, २-देश, ३-काल, ४-आसन विशेष, ५-आलम्बन, ६-क्रम, ७-ध्यातव्य, ८-ध्याता, ६-अनुप्रेक्षा, १०-लेश्या, ११-लिड्.ग, १२-फल IX आदिपुराण में भी इन्हीं विचारों को प्ररूपित किया है।+ इन बारह द्वारों से धर्म ध्यान का अच्छा परिचय प्राप्त करके उसकी भावना आदि का अच्छा अभ्यास करना चाहिये। १-भावना : ध्यान से पूर्व जो भावना अर्थात् अभ्यास के साधन का अच्छी तरह से विचार कर लेता है वह साधक धर्मध्यान की योग्यता को प्राप्त कर लेता है । इसके लिए चार भावनायें कही गयी हैं ।* १-ज्ञान भावना, २-दर्शन भावना, ३-चारित्र भावना, ४-वैराग्य भावना । x झाणस्स भावणाओ देसं कालं तहासणविसेसे । आलेवणं कमं झाइयवयं जे य झायारो।। तत्तोऽणुप्पेहाओ लेस्सा लिंगं फलं य नाऊणं । धम्मं झाइज्ज मुणी तग्गयजोगो तओ सुक्क । (ध्यानशतक २८, २९) + आदिपुराण २१/५४ * (क) ध्यानशतक ३० (ख) आदिपुराण २१/६५ भावनाभिरसंमूढो मुनिनिस्थिरीभवेत् । ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वैराग्योपगताश्च ताः । २१/६५ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ध्यान का स्वरूप ( १४१ ) १- ज्ञान भावना : ज्ञान का अभ्यास करना ही ज्ञान भावना है । इसके आश्रय से साधक का मन अशुभ कार्यो को छोड़कर शुभ कार्यों में लगता है, और वह तत्व क्या है और अतत्व क्या है इस रहस्य को जान लेने पर स्थिर बुद्धि वाला होकर ध्यान को करने में लग जाता है । + ज्ञान में मन का लीन हो जाना ही ज्ञान भावना है। ज्ञान भावना के पांच प्रकार बतलाये गये हैं १ - वाचना, २- पृच्छना, ३-अनुप्रेक्षण, ४- परिवर्तन, ५ - सद्धमंदेशन । ध्यानशतककार ने इन पांचों प्रकारों को धर्म ध्यान के आलम्बन के रूप में स्वीकार किया है । - २- दर्शन भावना : मानसिक मूढ़ता के निरसन का अभ्यास करना ही दर्शन भावना है । इसमें आत्मा सम्यग्दर्शन से ऐसा भावित हो जाता है कि यदि वैसा न हो तो उसके विपरीत दोषों के कारण ध्यान असम्भव हो जाता है ऐसा इन गुणों के कारण स्थिर रूप से ध्यान करता है। दर्शन भावना के पाँच गुण और पांच दोष कहे गये हैं। .... पाँच गुण इस प्रकार हैं-१- प्रशम, २ - संवेग, ३ - निर्वेद, ४- अनुकम्पा, ५- आस्तिक्य | पांच दोष इस प्रकार हैं १ - शंका, I २- कांक्षा, ३ - विचिकित्सा, ४ - प्रशंसा, ५ - सस्तव जबकि आदिपुराण में दर्शन भावना के सात प्रकार १हे गये हैं I X + झाणेणिच्चभासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धिं च । गाणगुण मुणियासारो सोझाइ सुनिच्चलमई ओ ॥ [ ध्यानशतक ३१] आदिपुराण २१ / ९६ ध्यानशतक ४२ वही ३२ ... X संवेग, प्रशम, स्थैर्य, अमूढ़ता, अगवंता, आस्तिक्य एवं अनुकम्पा ये सात प्रकार हैं । [आदिपुराण २१ / ६६-६६ ] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [१४२] प्रशम : क्रोध, मान, माया, लोभ का उदय न होना ही प्रशम है । अर्थात् उदय में आये हुए कषायों के भावों का शमन करना ही प्रशम है । संवेग : मोक्ष की तीव्र अभिलाषा का उत्पन्न होना ही संवेग है अर्थात् मोक्ष सुख का और उसके लिए देव, गुरु, धर्म का ऐसा रंग हो कि जिससे सांसारिक रंग उतर जाये यह ही संवेग है । निर्वेद : सांसरिक विषय भोगों के प्रति विरक्ति होना उनको हेय समझ कर उनकी उपेक्षा का भाव जगना उनके प्रति अभाव, ग्लानि, अनास्था के उत्पन्न होने को निर्वेद कहते हैं । अनुकम्पा : बिना किसी भेदभाव के दुखी जोवों पर दया करके दुख को दूर करने की इच्छा या प्रयास करना अनुकम्पा है । आस्तिक्य : सर्वज्ञकथित तत्वों में थोड़ी सी भी शंका न करके पूरी तरह से आस्था रखना, आत्मा एवं लोक सत्ता में पूर्ण रूप से विश्वास करना ही आस्तिक्य है । दर्शन भावना के पांच दोष भी हैं, ये इस प्रकार -- शंका : जिन वचन पर विश्वास न करके शंका करना काँक्षा : बौद्ध आदि अन्य मतों की आकांक्षा या अभिलाषाः Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का स्वरूप (१४३) विचिकित्सा : युक्ति और आगम से संगत क्रिया में भी रोग की चिकित्सा की तरह फल की शंका करना। प्रशंसा : सर्वज्ञ एवं व्रतधारी और तत्वज्ञ की स्तुति न करके किसी दूसरे पाखण्डी की प्रशंसा करना । संस्तव : मिथ्यादृष्टियों से मिलना-जुलना एवं उनका परिचय ये सब त्याज्य हैं क्योंकि अज्ञानी जीवों के साथ रहने से उनमें रुचि उत्पन्न हो जाती है। ३-चरित्र भावना : समता का अभ्यास अर्थात चारित्र के अभ्यास को चारित्र भावना कहते हैं।+ लोक और जीवों के द्वारा प्रशंसनीय बर्ताव जिस प्रकार के क्षयोपशन से होता है वह चारित्र कहलाता है । इस भावना के रहने से जीव को अर्थात साधक को तीन प्रकार के फल स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं । १-नवीन कर्मों के ग्रहण का अभाव, २-पूर्व संचित कर्मों का निर्जरा, ३-शुभ कर्मों का ग्रहण और ध्यान । जबकि आदिपुराण में चारित्र भावना के नौ प्रकार बतलाये गये हैं । पांच समितियाँ, तीन गुप्तियां और कष्ट सहिष्णुता। पांच समितियां-१-ईर्या समिति, २-भाषा समिति, ३-एषणा समिति, ४-आदान निक्षेपण समिति, ५-व्युत्सगं समिति और मनोगुप्ति, वचन गुप्ति एवं कायगुप्ति ये तीन प्रकार की गुप्तियाँ हैं। + नवकम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभायाणं ।। चारित्त भावणाए झाणमयत्तेण य समेहः ॥ (ध्यान शतक आदिपुराण २१/६७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ४-वैराग्य भावना :___जगत् के स्वभाव का यथार्थ दर्शन करके विषयासक्ति से रहित होना एवं भय और आकांक्षा से मुक्त होना ही वैराग्य भावना है । अर्थात् जो प्राणी चराचर जगत के स्वभाव को अच्छी तरह से जान लेता है उसके अन्तःकरण में वैराग्य की भावना प्रस्फुटित हो जाती है । + वैराग्य भावना के तीन प्रकार कहे गये हैं-१-विषयों में अनासक्ति, २-काव्यतत्व का अनुचिन्तन एवं ३-जगत् के स्वभाव का विवेचन। २-ध्यान के लिए देश या स्थान : __ध्यान के लिए एकान्त स्थान अधिकतर माना गया है, वह स्थान निर्जन होना चाहिये क्योंकि इससे उसके सामने इन्द्रियों के विषय नहीं आते हैं और साधक का मन भी विचलित नहीं होता है इसलिये मुनियों के लिए एकान्त स्थान ही सामान्य कहा गया है किन्तु कभीकभी यह देखने को मिलता है कि एकान्त वास में उसका चित्त एकाग्र नहीं हो पाता इसलिए जरूरी नहीं है कि ध्यान के लिए एकान्त स्थान ही हो। भगवान महावीर ने कहा है कि साधना गांव में भी हो सकती है और वन में भी, इसके लिए भाव का होना आवश्यक है। - वैसे जो स्थान स्त्रियों, पशुओं, नपुसक जीवों एवं क्षद्र मनष्यों से से वित हो, वह स्थान सर्वथा त्याज्य माना गया है। ... ऐसा स्थान जहाँ दुष्ट राजा, पाखंडी लोग, मद्यपानी, जुआरी आदि लोग रहते हों वह स्थान कभी भी ध्यान के लिए उपयुक्त नहीं माना गया है। + सुविदियजगस्सभावो निस्सगो निभओ निरासो य। वैरग्गभावियमणो झाणमि सुनिच्चलो होइ ।। [ध्यानशतक ३४] महापुराण पर्व २१/७०-८०. -गामे वा अदुवा रणे, णेव गामे व रणे धम्ममायाणह (आचाराङग १/८/१/१४) (क) स्त्रीपशुक्लीवसंसक्तरहित विजनं मुनेः। सवदेवोचित स्थानं ध्य नकाले विशेषत: ।। (आर्ष,२१-७७) (ख) ध्यानशतक ३५ (ग) तत्वानुशासन ६०-६१ A ज्ञानार्णव २७/२३-२६ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का स्वरूप (१४५) वैसे ध्यान के लिए विशेष रूप से कोई प्रदेश की ऐकान्तिक मर्यादा नहीं है, धीर व्यक्ति निर्जन एवं जनयुक्त दोनों ही स्थानों में ध्यान कर सकता है उसके लिए देश या स्थान की महत्ता कुछ नहीं होती बस जहां मन, वाणी और शरीर को समाधान मिले वही स्थान ध्यान के लिए सर्वोत्तम माना गया है। ३-काल : ध्यान की सिद्धि के लिए सामान्यतः किसी काल तथा अवस्था का कोई नियम नहीं है जिस काल में ध्यान की निर्विघ्न मिद्धि हो वही काल सर्वोत्तम है। यह ध्यानसर्वकालिक है जब भी भावना हो तभी किया जा सकता है।- जब भी मन का समाधान हो इसके लिए रात या दिन किसी भी विशेष समय का उपदेश नहीं है। ४-आसन : ध्यान के लिए जो आसन शरीर के लिए सुलभ हो वही उपयुक्त माना गया है जिस आसन से शरीर को कष्ट न हो। खड़े, बैठे और सोते तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है। * वैसे कायोत्सर्ग, पदमासन और वीरासन आदि ध्यान के लिए योग्य माने गये हैं। A ध्यान किसी ऊचे आसनादि पर बैठकर नहीं करना चाहिये उसके लिए 'भूतल" और "शिलापट्ट" ये दोनों उपयुक्त माने गये हैं - + थिर-कय जागाण पूण मूणीण झाणे सूनिच्चलमणाणं ।। गामंमि जणाइण्णे सुण्णे रणे व ण विसे सो।। (ध्यानशतक ३६) कालो वि सोच्चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहई। न उ दिवसनिसावेलाइ नियमणं झाइणो भणियं ।। (ध्यानशतक ३८) -न चाहोरात्र सन्ध्यादि-लक्षण: कालपर्ययः ।। नियतोडस्यास्ति दिध्यासोः तद्ध्यानं सार्वकालिकम् ।। (महापुराण २१/८१) *वही २१/७५ A ध्यानशतक ३६ -> भूतले वा शिलापट्ट सुखाऽऽसीनः स्थितोऽथवा । सममृज्वायत गात्रं निःकम्पाऽवयवं दधत् ।। (तत्त्वानुशासन ६२) सममृज्वायतं विद्गात्रमस्तब्धवृत्तिकम् । (आर्ष २१/६०) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ५-आलम्बन : जिस प्रकार मजबूत रस्सी का सहारा लेकर व्यक्ति दुर्गम से दुर्गम स्थान पर पहुच जाता है या कुएं में गिरने पर मजबूत रस्सी का सहारा लेकर ऊपर आ जाता है उसी प्रकार ध्याता भी ध्यान के आलम्बनों का सहारा लेकर श्रेष्ठ एवं उत्तम ध्यान की प्राप्ति कर लेता है। ये आलम्बन चार प्रकार के हैं-१-वाचना, २-प्रतिपृच्छना, ३-परिवर्तना, ४-अनुप्रेक्षा । ६-क्रम : पहले स्थिर रहने का अभ्यास करना चाहिये और फिर मौन रहने का अभ्यास करना चाहिये। केवल ज्ञानी जब मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य के निकट आ जाते हैं तो वे पहले मनोयोग का निग्रह करते हैं उसके पश्चात् वचनयोग का निग्रह करके ही सूक्ष्म रूप से काययोग का निग्रह करते हैं । वैसे तो केवल ज्ञानियों को ध्यान की साधना नहीं करनी पड़ती किन्तु जब वे मोक्ष के अत्यन्त समीप में पहचते हैं तो उन्हें मोक्ष प्राप्ति के लिए योग का निरोध करना ही पड़ता है क्योंकि योग का निरोध किये बिना मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है। कर्म के बन्ध से जब तक वह मुक्त नहीं होवेगा तब तक उसका कमबोध चलता ही रहता है और कर्मों के बन्ध में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय के बाद योग मुख्य कारण होता है अतः योग का निरोध करना जरूरी हो जाता है । यह क्रिया भवकाल के अन्तर्गत आती है और दूसरे क्रम में जब केवल ज्ञानी मोक्ष के अति निकट पहचकर समस्त योगों का निरोध करने की क्रिया को करता है तो वह क्रिया शैलेशी क्रिया कहलाती है । इस प्रकार से ध्यान प्राप्ति के दो क्रम कहे गये हैं। X वैसे अपनी शक्ति के अनुसार ध्यान साधना के अनेक क्रम भी हो सकते हैं। * ध्यानशतक ४३, आदिपुराण २१/८८ x झाणप्पडिवत्तिकमो होइ मणोजोगनिग्गहाईओ। भवकाले केवलिगो सेसाण जहासमाहीए ।। (ध्यानशतक ४४) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का स्वरूप(१४७) ७-ध्यातव्य का ध्येय : जिसका चिन्तन किया जाये ऐसा ध्यान का विषय ध्यातव्य या ध्येय कहलाता है । ध्यान करने योग्य पदार्थ, वस्तु और आलम्बन जिसका ध्यान किया जा सके, जिस पर मन को एकाग्र किया जा सके वही ध्येय है । ध्यान के भेद ध्येय का आश्रय लेकर किये गये हैं । आज्ञा, विपाक, अपाय और संस्थान, ये चार धर्मध्यान के प्रकार बतलाये गये हैं । + लेकिन इस प्रकार से और अनेक प्रकार भी हो सकते हैं इनकी संख्या निश्चित नहीं हो सकती । जिनसेन ने शब्द, अर्थ और ज्ञान ये तीन प्रकार के ध्येय बतलाये हैं इन तीनों से ही जगत् के सभी पदार्थ ध्येय की कोटि को प्राप्त हो जाते हैं । ८-ध्याता : ध्यान करने वाला साधक ध्याता कहलाता है। ध्यान करने के लिए विशेष गुणों की आवश्यकता होती है जो साधक इन विशेष गुणों से युक्त होता है वही धर्मध्यान का ध्याता बनता है। ध्यानशतक में ध्याता के लिए तीन गुण बतलाये गये हैं -:अप्रमादी - जो मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा जो ___ इन पांचों प्रमादों से रहित हो वही ध्याता है। निर्मोही - जिस साधक का मोह क्षीय हो गया हो या मोह का क्षय होकर प्रशान्त मोह वाला हो। ज्ञान सम्पन्न-जो ज्ञान रुपी धन सम्पदा से युक्त हो वही साधक धर्म ध्यान का अधिकारी या ध्याता होता है। + (क) आज्ञापाय विपाकानां, संस्थानस्य चिन्तनात्। इत्थं वा ध्येय भेदेन, धयं ध्यानं चतुर्विधम् ॥ (योगशास्त्र १०/७) (ख) ध्यानशतक ४५-४६ आदिपुराण २१/१३४ - सव्वप्पमायरहिया मुणओ खीणोवसंतमोहा य। झायारो नाण-धणा धम्मज्झाणस्स निद्दिट्ठा ।। (ध्यानशतक ६३) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१४८) तत्वानुशासन में ध्याता उसे कहा गया है जिसकी मुक्ति निकट आ रही हो, जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया हो, जो परिग्रह त्यागी हो जिसने आर्त व रोद्र ध्यान का त्याग करके ध्यान में चित्त को लगा लिया हो यही ध्याता कहलाता है। + यहाँ ध्यान की सामग्री के आधार पर भी ध्याता व ध्यान के तीन-तीन भेद किये हैं उत्कृष्ट सामग्री उत्कृष्ट ध्याता उत्कृष्ट ध्यान मध्यम सामग्री मध्यम ध्याता मध्यम ध्यान जघन्य सामग्री जघन्य ध्याता जघन्य ध्यान आचार्य जिनसेन ने जो वज्रवषभ नाराच संहनन नामक अतिशय बलवान शरीर वाला, जो शास्त्रों का ज्ञाता हो, तप करने में शूरवीर हो एवं जिसने सभी अशुभ लेश्याओं का त्याग किया हो आदि इन गुणों से युक्त साधक को ध्याता कहा है ।- ऐसा नहीं है कि जो व्यक्ति ज्ञानी हो वही धर्म्य ध्यान का अधिकारी हो अल्पज्ञानी भी ध्याता हो सकता है लेकिन जिसका मन अस्थिर हो वह ध्याता नहीं हो सकता है ।* ध्यान के लिए ज्ञानी होना कोई जरूरी नहीं है। गृहस्थ व्यक्ति को भी जिसमें सभी गुण होते हैं ध्याता माना गया है उसको भो धम्यं ध्यान हो सकता है ।.... अनुप्रेक्षा : स्वाध्याय मोर ध्यान ये दोनों आत्मोपलब्धि के साधन हैं । ये दोनों एक-दूसरे के सहायक हैं इसलिए एक के द्वारा दूसरे का अभ्यास किया जाता है. दोनों का अभ्यास जब खूब परिपक्व हो जाता है तो वह परमविशुद्ध स्वानुभूति का विषय बन जाता है। + तत्त्वानुशासन ४१-४५ सामग्रीतः प्रकृष्टाया ध्यातरि ध्यानमुत्तमम् । स्याज्जघन्यं जघन्याया मध्यमायास्तु मध्यमम् ।। (तत्त्वानुशासन ४६) - आदिपुराण २१/८५-८६ * महापुराण २१/१०२ .... ज्ञानार्णव ४/१७ = स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां ध्यानात्स्वाध्यायमाऽऽमनेत् । ध्यान-स्वाध्याय-सम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते ॥ (तत्त्वानुशासन ८१) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ध्यान का स्वरूप (१४६) स्वाध्याय का एक अंग अनुप्रेक्षा भी है। ध्यान को सिद्धि के लिए अनुप्रेक्षा का अभ्यास बहुत ही जरूरी है । इनके अभ्यास से साधक का मन सुवासित हो जाता है वह समभाव को प्राप्त हो जाता है । धर्मध्यान के लिए स्थानाङ्ग में चार अनुप्रेक्षायें बतलायी गयी हैं । + लेकिन ध्यानशतक में सभी बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करने के लिए कहा गया है। इन बारह अनुप्रेक्षाओं का कथन पहले किया जा चुका है । * धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षायें इस प्रकार हैं : एकत्व अनुप्रेक्षा अकेलेपन का अनुभव करके चिन्तन करना । अनित्य अनुप्रेक्षा जगत् में सभी पदार्थ अनित्य हैं, नश्वर हैं । अशरण अनुप्रेक्षा - जगत् में धर्म के सिवा कोई शरण नही है | संसार अनुप्रेक्षा - संसार में जन्म-मरण के चक्र का करना । परिवार हैं । - करना चाहिये । १०- लेश्या : चिन्तन स्वाध्याय आदि तपोयोग एवं बारह अनुप्रेक्षायें ये सब ध्यान के ही अतः मोक्ष के अभिलाषी को निरन्तर ध्यान का यत्न ध्यान साधना का नाम है, किन्तु इसमें प्रक्रिया और अनुभूतियाँ नई नहीं होती हैं । यह कषायों से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति है । ..... + झाणोवरमेऽवि मुणी णिच्चमणिच्चा इभावणापरमो । होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणेण जो पुव्विं ॥ ( ध्यान शतक ६५ ) * धम्मस्सं णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पं तं -एगाणुप्पेहा अणिच्चाणुपेहा असरणाणुप्पेहा ससाराणुप्पेहा (स्थानाङ्ग पू. १८८) ध्यानस्यैव तपोयोगाः शेषाः परिकरा मताः - .... ध्यानाभ्यासे ततो यत्नः शश्वत्कार्यो मुमुक्षुभि: । ( आषं २१ / २१५) (क) मोहोदय खओवस मोवसमखयजजीव फंदणं भावो । (गोम्मटसार, जीवकाण्ड, मूल ५३६ / ९३१) (ख) कषायोदया रंजिता योगप्रवृत्तिरिति (सर्वार्थसिद्धि २ / ६ / १५६ / ११ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१५०) . मानव के अन्दर के मन में दो प्रकार के स्पन्दन निरन्तर होते रहते हैं और साथ ही साथ दो प्रकार की धारायें बहती रहती हैं, जिनमें एक धारा विचारों की होती है और दूसरी धारा भावों को होती है । ज्ञान से सम्बन्धित धारा विचारों की कहलाती है । भावों की धारा कषायों अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ की धारा कहलाती है यह प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ही प्रकार की होती है। यह धारा मोह जन्य कहलाती है। आगमों में लेश्या को आणविक आभा, कान्ति, प्रभा और छाया रूप बतलाया गया है। + जैन दर्शन के अनुसार लेश्या के दो भेदभाव लेश्या एवं द्रव्य लेश्या किये गये हैं। वैसे लेश्या के छ: प्रकार किये गये हैं-१-कृष्ण लेश्या २-नीन लेश्या, ३-कापोत लेश्या, ४-तेजो लेश्या, ५-पद्म लेश्या, ६- शुक्ल लेश्या । - धमध्यान चकि शभ ध्यान के अन्तगत आता है इसलिए इसमें शुभ लेश्या ही होती है । इन शभ लेश्याओं में पीत अर्थात् तेजो लेश्या, पदम लेश्या एवं शक्ल लेश्या आती हैं । ये तीनों लेश्यायें जीव में क्रम से विशुद्धि को प्राप्त होकर आती हैं। * क्योंकि तेजस् लेश्या से पद्म लेश्या शुद्ध होती है और पदम लेश्या से शबल लेश्या विशद्ध होती है। हर एक लेश्या के परिणाम भी मद, मध्यम और तीव्र होते हैं । धर्मध्यान मे ये लेश्यायें मन्द से मध्यम रूप तक ही होती हैं। + लेशयति-श्लेषयतिवात्मनि जननय नानीति लेश्या-अतीव चक्षरापेक्षिका स्निग्धदीप्त रूपा छाया । [उत्तराध्ययन वहद्वत्ति, पत्र ६५०) D(क) लेश्या द्विविधा द्रव्य लेश्या भावलेश्या चेति। (सर्वार्थसिद्धि (ख) राजवार्तिक २/६/८/१०६/२२ (ग) धवला २/१/१/४१६/८ - (क) सा षड्विधा कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या. तेजो लेश्या, पद्म लेश्या, शुक्ल लेश्या चेति । (सर्वार्थसिद्धि २/६/१५६१२) (ख) द्रव्य संग्रह, टीका १३/३८ * ध्यानशतक ६६, आदिपुराण २१/१५५-५६ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का स्वरूप [१५१] लिड.ग : साधु आदि के बाह्य वेष को लिड्.ग कहते हैं । जैन दर्शन में इसके तीन प्रकार माने गये हैं-१-साधु, २-आर्यिका, ३-उत्कृष्ट पावक । ये तीनों भी द्रव्य एवं भाव के भेद से दो ! कार के हो जाते हैं. जिनमें शरीर का वेष द्रव्य लिड़.ग और अन्दर की वीतरागता भावलिड़.ग कहे जाते हैं । लिड्.ग शब्द चिन्ह अर्थात् लक्षण का वाचक होता है । ध्यान व्यक्ति की आन्तरिक प्रवृत्ति होता है उसे देखा नहीं जा सकता है, किन्तु उस व्यक्ति की सत्य से सम्बन्धित आस्था को देखकर उस ध्यान को माना जा सकता है इसलिए यह सत्य की आस्था ही उसका लिड़.ग होता है। धर्म ध्यान के चार लिड्.ग बतलाये गये हैं १-आज्ञा रुचि - प्रवचन आदि में श्रद्धा का होना । २-निसगं रुचि - सत्य में श्रद्धा का होना। ३-सूत्र रुचि - सूत्र पढ़ने से उसमें श्रद्धा का उत्पन्न होना। ४-अवगाढ़ रुचि - विस्तारपूर्वक सत्य की उपलब्धि होना ।+ ध्यान शतक में भी आगम, उपदेश, आज्ञा एवं स्वभाव से जिन भगवान के द्वारा बतलाये गये पदार्थों में श्रद्धा का होना ये धर्मध्यान के लिड.ग कहे हैं । धर्म ध्यान का प्रथम फल आत्मज्ञान हो होता है । जो मत्य अनेक तर्कों के करने पर भी नहों जाना जा सकता वही सत्य ध्यान के द्वारा आसानी से जाना जा सकता है । धर्मध्यान के प्रधान फल विपुल शभास्रब, संवर, निर्जरा और देवसूख आदि कहे गये हैं। + धम्मस्स ण झाणस्स चत्तारि लक्खणा प० तं० आणारुईणिसग्ग रूई __सत्तरुई ओगाढरूईति (स्थानाड्ग पृ०१८८) आगम-उवएसाऽऽणा-णिसंग्गओ जं जिणप्पणीयाणं । भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तं लिड्.गं ।। (ध्यानशतक ६७) होंति सुहासव-संवर-विणिज्जराऽमरसुहाइ विउलाई। झाणवरस्स फलाइं सहाणबंधीणि धम्मस्स ।। (ध्यानशतक ६३) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१५२) आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि कर्मों के क्षीण होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है और कर्म आत्मज्ञान से क्षीण होता है, और आत्मज्ञान ध्यान से ही होता है । यही ध्यान का फल होता है। + जिस व्यक्ति को ध्यान अर्थात धर्मध्यान की सिद्धि हो जाती है उसको कषायों से उत्पन्न होने वाले दुःख जैसे ईर्ष्या, विषाद, शोक हर्ष आदि नहीं होते हैं । उसको कोई भी शारीरिक एव मानसिक रोग नहीं होते और न ही वह उनसे पीड़ित होता है। धर्मध्यानी को अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है । इस धर्मध्यान में कर्मों का क्षय करने वाले सम्यग्दष्टि नामक चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक अनुक्रम से असख्यात गुणा कर्म का समूह क्षय होता है - और साधक इन्द्र को जो सुख मिलता है उनसे कई गुना सुख प्राप्त करता है।* -: ० : + मोक्ष: कर्मक्षयादेव, स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तदध्यान हितमात्मनः ।। (योगशास्त्र ४/११३) ध्यानशतक १०३ -- असख्येयमसंख्येयं सददृष्टयादिगुणेऽपि च । क्षीयते क्षपकस्यैव कमंजा.मन क्रमात् । शमकस्य क्रमात कर्म शान्तिमायाति पूर्ववत् । प्राप्नोति निर्गतातड्.कः स सौख्यं शमलक्षणम् ।। ज्ञानार्णव (४१/१२-१३) * देवराज्यं समासाद्य यत्सुखं कल्पवासिनाम । निर्विशान्ति ततोऽनन्त सौख्यं कल्पातिबतिनः ॥ (ज्ञानार्णव ४१/१६) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम परिच्छेद धर्मध्यान का वर्गीकरण धर्म ध्यान के भेद : नय दृष्टि से ध्यान दो प्रकार का माना गया है + -१सालम्बन व २-निरालम्बन । सालम्बन अर्थात् इसमें किसी वस्तु का आश्रय लिया जाता है । सालम्बन ध्यान भेदात्मक रूप में होता है और उसमें ध्यान और ध्येय को अलग-अलग माना गया है। आलम्बन के अनुसार धर्म ध्यान को चार प्रकार का माना गया है । आचार्य शुभचन्द्र जी महाराज ने भी धर्म ध्यान के चार भेदों का वर्णन किया है । = चित्त की एकाग्रता के साथ धर्मध्यान के चार प्रकारों का चिन्तन करना चाहिये । * तत्वार्थ सूत्र में भी धर्म ध्यान के निमित्त से चार ही प्रकारों का उल्लेख किया गया है ।x + तत्त्वानुशासन ६६ (क) आज्ञापाय विपाकानां, संस्थानस्य चिन्तनात् । इत्थं वा ध्येय भेदेन, धम्यं ध्यानं चतुर्विधम् ॥ योग शास्त्र १०/७) (ख) भगवती आराधना, मूल, १७०८, १५३६ (ग) महापुराण २१/१३४ (घ) द्रव्यसंग्रह, टाका ४८/२०२/३ (ड.) कार्तिकेयानुप्रेक्षा, टीका ४८०/३६६/४ = आज्ञापाय विपाकानां क्रमशः संस्थितेस्तथा। विचयो यः पृथक् तद्धि धर्मध्यानं चतुर्विधम् । (ज्ञानार्णव * आज्ञाऽपायौ विपाकं च संस्थानं भुवनस्य च । यथागममविक्षिप्त-चेतसा चिन्तयेन्मुनिः ॥ (तत्त्वानुशासन ६८) x आज्ञापाय विपाक संस्थान विचयाय धर्म्यम् ॥ (तत्वार्थ सूत्र Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [१५४] वे चार इस प्रकार हैं-१-आज्ञा विचय धर्म ध्यान, २अपाय विचय धर्म ध्यान, ३-विधाक विचय धर्म ध्यान, ४-संस्थान विचय धर्म ध्यान । इनके अलावा अन्य अनेक ग्रन्थों में भी धर्मध्यान के चार भेदों को स्वीकारा गया है । + लेकिन इन सब से अलग अनेक ग्रन्थों में धर्म ध्यान के दश प्रकार देखने को मिलते हैं ऐसे अनेक ग्रन्थ हैं जिन्होंने धर्म ध्यान के दस भेदों को स्वीकार करते हुए उनका वर्णन किया है। हरिबंश पुराण में धर्मध्यान के दस भेदों का उल्लेख किया गया है। वे दस भेद इस प्रकार हैं-१-अपाय विचय, २. उपाय विचय, ३-जीव विचय, ४-अजीव विचय, ५-विपाक विचय, ६विराग विचय, ७-भव विचय,८-संस्थान विचय, ह-आज्ञा विचय तथा १०-हेतु विचय । + [क] तदाज्ञापाय-संस्थान-विपाक विचयात्मकम् । चतुर्विकल्पमाम्नातं ध्यानमाम्नाय वेदिभिः ।। (आर्ष २१/१३४) [ख] तत्थ धम्मज्झाणं ज्झेय भेदेण चम्विहं होदि-आणा विचओ अपाय विचओ विवागविचओ संठाणविचओ चेदि । (षट्खंडा गमः, धवला टो., पृ० १३, पृ० ७०) [ग] धम्मे झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पण्णत्ता तं जहा-आमाविजये अवायविजये विवाग विजये संठाणविजये । (स्थानाड्.ग, पृ० १८८) [घ] आदिपुराण २१/१३४ [क] धर्मध्यानं दशविधम् । (शास्त्रसार समुच्चय ५६) [ख] भावपाहुड़, टीका। १६/२०७/२ (ग) अपायविचयं ध्यानमुपायविचयं ततः जीवादिवियध्यानमजीव विचयाह्वयम् विपाकविचयं ध्यानं विराग विच यंमहत्। भावादि विचयं ध्यानं संस्थान-विचयाभिधम् तथाज्ञाविचयंहेतु विचयाख्यमिति स्फुटम् । धर्मध्यानं महाधर्माकरं दशविधं महत् ॥ (मूलाचार प्रदीप ६/२०, ४३-४५) - हरिवंशपुराण ५६/३८-५० Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१५५) १-आज्ञा विचय धर्म ध्यान : 'आज्ञा का अभिप्राय है कि किसी विषय को भली प्रकार से जानकर उसका भली प्रकार से आचरण करना लेकिन ध्यान के अर्थ में इसका अभिप्राय जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा से है और "विचय" का अर्थ हैविचार या चिन्तन करना । इस प्रकार आज्ञा विचय का अर्थ ध्यान में सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रधान मानकर उसके द्वारा बताये गये पदार्थों का भली प्रकार से चिन्तन करना चाहिये, ऐसा किया गया है । इस ध्यान में तीर्थकरों के द्वारा बतलाये गये उपदेशों का चिन्तन करते हुए साधक को उसकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए ऐसा सोचना चाहिए कि सर्वज्ञ की वाणी या उपदेशों में किसी भी प्रकार कोई त्रटि नहीं होती और न ही उसके वचन कभी असत्य होते हैं उस पर पूरी तरह से विश्वास करना चाहिये । * मति की दुर्बलता होने से, अध्यात्म विद्या के जानकार आचार्यों का विरह होने से, ज्ञेय की गहनता होने से, ज्ञान को आवरण करने वाले कर्म की तीव्रता होने आदि इस प्रकार से सर्वज्ञ प्रतिपादित मत सत्य है, ऐसा सोचना चाहिये । + क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग तीर्थंकर देव वस्तु को भली प्रकार से प्रत्यक्ष में देखकर ही और जानकर ही उसका उपदेश देते हैं अतः वह हमारे हितकर ही होते हैं।.... A सर्वज्ञाज्ञां पुरस्कृत्य सम्यगर्थान् विचिन्तयेत् । __ यत्र तद्धयानमाम्नातमाज्ञारव्यं योगि पुड्.गवैः ।। (ज्ञानाणंव ३३/२२) * आज्ञायत्र पुरस्कृत्य सर्वज्ञानामबाधितम् । तत्वतश्चिन्तयदस्तिदाज्ञा-ध्यानमुच्यते ।। सर्वज्ञवचनं सूक्ष्म हन्यते यन्न हेतुभिः । तदाज्ञारुपमादेयं न मृषा भाषिणो जिनाः॥ (योगशास्त्र १०/८-६) + षट्खण्डागम, धवला टी. पृ० १३, ५/४/२६/३५-३६ .... प्रमाणीकृत्य तीर्थेशान् सर्वज्ञान दोषदूरगान्। तत्प्रणीतेषु सूक्ष्मेषु विश्वदृग्गोचरेषु च ॥ लोकालोकादितत्त्वेषु धर्मेषु मुक्ति वर्त्मसु । रुत्ति: श्रद्धा प्रतीतिर्या तदाज्ञाविचयंसताम् ॥ (मूलाचार प्रदोप ६०२०६२-६३) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन उन वचनों एवं उपदेशों को जान सुनकर साधक उन शब्दों के अर्थो को भली प्रकार समझता है और फिर उन तत्वों का सहारा लेकर वह उनसे साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है एवं उसकी साधना करता है। इसी साधना को "आणाए तवो, आणाय संजमो"+ कहा गया है । इसी प्रकार दूसरे सूत्र में उसे "आणाए मामथं धम्म" वाक्य के रूप में कहा गया है । ध्यानशतक में आज्ञा की विशेषता को दर्शाते हुए उसके लिए अतिशय निपुणा, अनादिनिधना, अना, अमिता, अजिता, महार्था बादि विशेषणों का प्रयोग किया गया है = उसी प्रकार आदिपुराण में भी उसे इसी प्रकार के विशेषणों से युक्त कहा है ... पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, काल, द्रव्य तथा इसी प्रकार आज्ञा को ग्रहण करने वाले अन्य जितने भी पदार्थ हैं उनका आज्ञाविचय धर्म ध्यान के द्वारा साधक चिन्तन करता है x जिनेन्द्र भगवान जो उपदेश देते हैं या आज्ञा देते हैं उनका विषय अतिसूक्ष्म होता है उन्हें क्षायोपशमिक भावों के द्वारा जीव जान नहीं सकता अत: उसके लिए सर्वज्ञ भगवान की आज्ञा ही प्रमाण रूप होती है। + सम्बोधसत्तरि ३२ आचाराड्.ग ३/२ = ध्यानशतक ४५-४६ ... आदिपुराण २१/१३७-३८ x (क) पंचाथिकायछज्जीवकाइए कालदव्वमण्णे य । आणागेज्झे भावे आणाविचएण विचिणादि ।। [षट्खण्डागम, धवला टी० १३/५/४/२६/३८ (ख) महापुराण २१/१३५-१४० (ग) भगवती आराधना, वि० टी० १७०६ A शास्त्रसार समुच्चय, पृ० २८८ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१५७) ऐसी आज्ञा को ग्रहण करने वाले विषयों का जो विचार विवेक या चिन्तन है वही आज्ञाविचय धर्मध्यान कहलाता है । २-अपाय विचय धर्म ध्यान : "अपाय" का अर्थ है दोष अथवा दुर्गुण, जिनसे सांसारिक जीव परेशान होता है और राग द्वेष, क्रोधादि कषाय, मिथ्यात्वादि ये सब दोषों के अन्तर्गत आते हैं। साधक इन से छटने का प्रयत्न करता है और चिन्तन करता है ऐसे चिन्तन करने को ही अपाय विचय धर्म ध्यान कहते हैं । → कर्मों के नाश का मुख्य साधन अप्रमत्त सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यग्चारित्र की त्रिपुटी या रत्नत्रय ही हैं इस ध्यान में कर्मों के आस्त्रव को रोकने का चिन्तन किया जाता है। x जीव के जो शुभाशुभ भाव होते हैं. उनका चिन्तवन करना भी अपायविचय धर्म ध्यान कहलाता है । ... सत्तका द्विविधो नयः शिवपथस्त्रेधा चतुर्धा गतिः । काया: पंच षडंगिनां चं निच याः सा सप्तभगीति च ।। अष्टौ सिद्ध गुणाः पदार्थनवकं धर्म दशांगं जिनः । प्राहैकादश देश संयतादशाः सवादशांगं तपः । सम्यकप्रेक्षा चक्षषा वीक्ष्यमाणो यद्यादक्षं सर्ववेद्याचचक्षे । तत्तादृक्षं चिन्तयन्वस्तु यायादाज्ञा धर्म्य ध्यानमुद्रां मुनीन्द्रः ।। (आत्म प्रबोध ८६-६०) → (क) रागद्दोस कसाया ऽऽसवादिकरियासु वट्ट माणाणं । इह-परलोयावाओ झाइज्जा व्रज्जपरिवज्जी ।। (घ्यानशतक५०) (ख) षटखण्डागम, धवला टी. १३/५/४/२६/३६-४० x श्रीमत्सर्वज्ञ निर्दिष्ट मार्ग रत्नत्रयात्मकम् । अनासाद्य भवारण्ये चिरं नष्टाः शरीरिणः ॥ मज्जनोन्मज्जनं शश्वद्भजन्ति भवसागरे । वराकाः प्राणिनोऽप्राप्य यानपात्रं जिनेश्वरम् ।।(ज्ञानार्णव ३४/२-३) .... (क) कल्लाणपावगाणउपाये विचिणादि जिणमदमुवेच्च । विचिणादि वा अवाए जीवाण सुभे य असुभे य ॥ (भगवती आराधना, विजयोदया टी० १७०७) (ख) मूलाचार प्रदीप ६/२०४६-४७ (ग) मूलाराधना ४०० Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन - आदिपुराण में "अपाय" को अभाव कहा जाता है, मिथ्यादष्टियों के मार्ग के अभाव का विचार करने को अपायविचय धर्म ध्यान कहा है । + मन, वचन, काय इन तीनों की योग की प्रवृत्ति को संसार का कारण माना गया है । अत: इन प्रवृत्तियों से कैसे छ टकारा पाया जा सकता है, इस प्रकार का विचार अपाय विचय ध्यान ही कहलाता है । * इस ध्यान में यह. भी विचार किया जाता है कि मिथ्यात्व के वशीभूत होकर राग द्वेष में लिप्त हुए प्राणी जो दुख या कष्ट उठा रहे हैं और जन्म-मरण के भव में पड़ हुए हैं उनसे कैसे छुटकारा हो सकता है । - साधक इस ध्यान में सभी दोषों को जानता और समझता है और उनसे बचने का उपाय निरन्तर करता रहता है और नये कर्म किम उपाय से नहीं बंधेगे, ऐसे उपायों को करता रहता है और आत्मा की सिद्धि के लिए निश्चय कर लेता है । ... यही अपायविचय धर्म ध्यान कहलाता है । + आज्ञाविचय एवं स्यादपायविचयः पुनः । तापत्रयादि जन्माब्धिगतापार्या विचिन्तनम ॥ तदपाय प्रतीकार चित्रोपायानुचिन्तनम् । . अत्रैवान्तगति ध्येयमनुप्रेक्षादि लक्षणम् ।। (आदिपुराण २१/१४१-४२) * संसारहेतवः प्राय स्त्रियोगानां प्रवृत्तयः। अपायोयर्जन तासां स मे स्यात्कथमित्यलम् ।। चिन्ताप्रबन्ध संबन्धः शुभलेश्यान जिता। अपायविचयाख्यं तत्प्रथम धर्म्यमभीप्सितम्।।(हरिवंशपुराण५६/३६-४०) (क) रागद्वेषकषायाद्यैर्जायमानान् विचिन्तयेत् । यत्रपायांस्तदपाय-विचय-ध्यानमिष्यते ।। (योगशास्त्र १०/१०) (क) कथं मागं प्रपद्यरत्नमी उन्मार्गतो जनाः । अपायमिति या चिन्ता तदपायविचारणम् ।।(तत्वार्थसार ४१) (ख) इत्युपायो विनिश्चेयो मार्गाच्यवनलक्षणः । कर्मणां च तथापाय उपायश्चात्मसिद्धये ॥ (ज्ञानार्णव ३४/१६) । ग) चारित्रसार १७३/३ (घ) मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः कथं नाम इमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिसमन्वाहारोऽपाय विचयः। [सर्वार्थसिद्धि ९/३६/४४६/११] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१५६) ३-विपाक यिचय धर्म ध्यान :___ "विपाक" का अभिप्राय कर्म फल से है । कर्म फल शुभ-अशुभ दोनों ही प्रकार के होते हैं और इन कर्म फल के चिन्तन को विपाक विच य कहते हैं । + इस ध्यान में साधक विचार करता है कि कर्म ही उदय में आने पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय पाकर ज्ञान दर्शन को परिष्कृत करके शुभ और अशुभ फल देते हैं । कर्मों की इस विचित्रता पर विचार करके उसके क्षण प्रति क्षण उदय होने की प्रक्रिया पर चिन्तन करना विपाक विचय धर्म ध्यान कहलाता है । - कर्मों के शुभ अशुभ फल का एवं उदय, उदीरणा, सक्रम, बन्ध और मोक्ष का विचार करना भी विपाक विचय धर्म ध्यान है।" षटखण्डागम में शुभ अशुभ को प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश से चार भेद वाला बताते हुए उनके चिन्तन को विपाक विचय धम ध्यान बतलाया है । A + पयइ-ठिइ-पएसा ऽणुभाव भिन्नं सुहासुहविहत्त। जोगाण भावजणियं कम्मविवागं विचितेज्जा ।। (ध्यानशतक ५१) (क) द्रव्यादि प्रत्ययं कर्मफलानुभवनं प्रति । भवति प्राणिधान यद् विपाक विच यस्तु सः ।। (तत्वार्थ सार ४२) (ख) कमंजातं फलं दत्ते विचित्रमिह देहिनाम् । आसाद्य नियतं नाम द्रव्यादिक चतुष्ट्यम् ॥ (ज्ञानार्णव ३५/२) - आदिपुराण २१/१४३-१४६, ज्ञानार्णव ३५/१ ... एयाणेय भवगदं जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं । उदओदीरण संक्रमबंधे मोक्खं च विचिणादि। (भगवती आराधना, विजयोदया टी०, १७०८) A पयडिट्ठिदिप्पदेसाणु भागभिण्णं सुहासुहविहत्तं । जोगाणुभागजणियं कम्मविवागं विचितेज्जो। (षट्खण्डागम, घ.टी. १३/५/४/२६/४१) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६० ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन अष्ट कर्म का उदय और फलोदय किस प्रकार से होता है और जीव का उस निमित्त से किस-किस प्रकार विपरिणमन होता है, उदय में आकर दुःखों और सुखों को कर्म किस प्रकार से देते हैं इत्यादि कर्मों की विविध अवस्थाओं का विचार करना भी विपाक विचय धर्म ध्यान होता है । ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के प्रकृति स्थिति, प्रदेश और अनुभाग रूप चार बन्धों का भी विचार करना विपाक विच य ध्यान कहलाता है ।+ गुड़, खांड, मिश्री को शुभ कर्मो का और नीम, विष और हलाहल आदि को अशग कर्मों का विपाक या फल कहा गया है । ध्यान योगी साधक इन दोनों कर्मों के विपाक को भली प्रकार जानकर कर्मो के बन्ध से छटकारा पाने का प्रयास करता रहता है । विपाकों को ध्येय बनाकर वह अपने स्वभाव को उनसे अलग समझने की चेष्टा या साधना करता है। इस ध्यान से साधक का चित्त शान्त एवं निर्मल होता है और वह कर्मो का नाश करने की दिशा को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार से वह शुद्धाशय से स्वरूपोपलब्धि रूप ध्यान के फल को पा लेता है। + (क) यच्चतुर्विधबन्धस्य कर्मणो इष्ट विधस्य तु। विपाक चिंतनं धर्म्य विपाक विच यं विदुः ।। (हरिवंशपुराण (ख) कम फलानु भव विवेक प्रति प्रणिधानं विपाक विचय । (तत्वार्थ राजवार्तिक ८) (ग) चारित्रसार १७४/२ (घ) सर्वार्थसिद्धि 8/३६/४५०/२ (ङ) महापुराण २१/५४३-१४७ (क) सत्पुण्यकृतीनां गुडखंडशर्करामतः । समोद्य* कृतीनां च निम्बादिसदृशोशुभः ।। विपाको बहुधादश्चिन्त्यते यत्रमानसे । तद्विपाकजयायोच्चैविपाक विचयं हि तत् ।। (मूलाचार प्रदीप ६/२०५४-५५) (ख) शास्त्रसार समुच्चय, पृ० २८७) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१६१) ४-संस्थान विचय धर्म ध्यान : __"संस्थान" का अभिप्राय "आकार" से है । इस ध्यान में ऊर्ध्व, मध्य और अधो लोक का चिन्तन किया जाता है । तीनों लोकों के संस्थान, प्रमाण और आयू आदि का चिन्तवन करना ही संस्थान विचय धर्म ध्यान कहलाता है। अनादि काल से, अव्याहत रूप से जो अस्तित्व में है उस जगत के ध्यान को करने का संस्थानविचय धर्म ध्यान कहते हैं । = इस ध्यान में द्रव्यों के लक्षण, आकार, आसन, भेद, मान आदि का विचार किया जाता है और चूँकि यह जगत् उत्पाद, ध्रौव्य और भंग से युक्त है अत: उस पर भी विचार किया जाता है। A पर्याय की दष्टि के अनुसार पदार्थो का उत्पाद और व्यय होता ही रहता है, लेकिन अगर द्रव्य की दष्टि से देखा जाये तो पदार्थ नित्य ही रहता है । भगवती आराधना में भेदों से यूक्त तथा वेत्रासन, झल्लरी और मदंग के समान आकार के साथ ऊर्ध्व लोक, अधोलोक और मध्यलोक के चिन्तन को संस्थान विचय धर्म ध्यान कहा है।→ [क] सुप्रतिष्ठितमाकाशमाकाशे वलयत्रयम् । संस्थानध्यानमित्यादि संस्थानविच यं स्थितम् (हरिवंश पुराण ५६/४८) [ख] सर्वार्थसिद्धि ६/३६/४५०/३ [ग] तत्वार्थसार ७/४३ घि] द्रव्यसंग्रह टीका ४८/२०३/२ [ड़.] राजवार्तिक ९/३६/१०/६३२/६ -- अनाद्यनंतस्य लोकस्य स्थित्युत्पत्ति व्यायात्मनः । आकृति चिन्तयेद्यत्र संस्थान विचयः स तु ॥(योगशास्त्र १०/१४) A (क) जिणदेसियाइ लक्खण-संठाणाऽऽसण-विहाण-माणाई। उप्पायट्टिइभगाइ पज्जवा जे य दव्वाणं ।।(ध्यानशतक ५२) (ख) स्थित्युत्पत्ति व्ययोपेतैः पदार्थेश्चेतनेतरैः । सम्पूर्णोऽनादिसंसिद्धः कर्तृ व्यापार बजितः ।। (ज्ञानार्णव३६/२) → अह तिरियउड्ढलोए विचिणादि सपज्जए ससंठाणे । एत्थे व अणुगदाओ अणुपेहाओ वि विचिणादि ।। (भगवती आराधना विजयोदया टी० १७०६) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२) नैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___ संस्थान विचय धर्म ध्यान में इससे सम्बन्धित अनुप्रेक्षाओं के विचार करने को कहा गया है जबकि शास्त्रसार समुच्चय में अनित्यादि सभी बारह अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन करने को संस्थान विचय धर्म ध्यान कहा है। + इसी तरह का वर्णन हमें अन्य स्थानों पर भी प्राप्त हआ है। तीनों लोकों के संस्थान, प्रमाण और आयु आदि के चिन्तन को संस्थान विचय धर्म ध्यान कहते हैं । - इस मत को अधिकतर सभी ग्रन्थकारों ने स्वीकार किया है । इस ध्यान को करने से जीव या साधक की नित्य अनित्यादि पर्यायों का विचार करने से वैराग्य की भावना प्रशस्त एवं सुदृढ़ हो जाती है और वह इस ध्यान की परिधि में आ जाता है । इस ध्यान के लिए साधक को तीन लोकों का चिन्तन करने के लिए कहा गया है वे तीनों लोक निम्न प्रकार से इस तरह हैं + (क) भगवती आराधना वि० टी० १७०६ (ख) शास्त्रसार समुच्चय, पृ० २८८ R (क) अनित्याद्या अनुप्रेक्षा द्वादशानन्तशर्मदाः । वैराग्यमातरो रागनाशिन्योमुक्तिमातृकाः॥ चिन्त्यते रागनाशाय यत्रवैराग्यवृद्धये । योगिभिर्योगसंसिद्धयै संस्थानविचयहि तत् ॥ (मूलाचार प्रदीप ६/२०६०-६१) (ख) ज्झाणोवरमे वि मुणी णिच्चमणिच्चादिचिंतणापरमो । होइसुभावियचित्तो धम्मज्झाणे जिह व पुव्वं ।। (षट्खण्डागम धवला टी. १३/५/४/२६/५०) - जिणदेसियाइ लक्खण संठाणासणविहाणमाणाई। उप्पाद-ट्ठिदिभंगादिपज्जया जेय दव्वाणं ॥ पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खादं । णामादिभेयविहियं तिविहमहोलोगभागादि ।। [षट्खण्डागम धवला टी. १३/५/४/२६/४३.४४) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१६३) लोक :___इस अनन्त एवं असीम आकाश के मध्य का वह अनादि एवं अकृत्रिम अर्थात् प्राकृतिक भाग जिसमें कि जीव पुद्गल आदि छहों द्रव्य दिखाई देते हैं वही लोक कहलाता है । लोक आकाश की तुलना में न के बराबर है। उसके अर्थात् लोक के चारों तरफ का शेष अनन्त आकाश अलोक है । आकाश का यह हिस्सा जो लोक के अन्तर्गत आता है वह मनुष्याकार है और वह चारों ओर तीन प्रकार की वायु से वेष्टित है। इन तीनों पवनों में पहले तो यह लोक धनोदधि नामक वायु से बेढ़ा गया है । ये तीनों वायु ही तीनों लोकों को धारण करके अपनी शक्ति से ही इस अनन्त आकाश में अपने शरीर को विस्तारपूर्वक स्थिर किये हुए हैं। + लोक के ऊपर से लेकर नीचे तक बीचों-बीच एक राजू प्रमाण विस्तार वाली त्रस नाली है । त्रस जीव इसके बाहर नहीं जा सकते लेकिन स्थावर जीव सभी जगह रहते हैं। राजवार्तिक में लोक की परिभाषा इस प्रकार दी गई है कि जहाँ पुण्य और पाप का फल सुख-दुख देखा जाता है वही लोक है, यहाँ व्युप्पत्ति के अनुसार लोक का अर्थ आत्मा माना है। लोक को तीन भागों में विभक्त किया गया है। १-अधोलोक. २-मध्यलोक, ३-ऊर्ध्व लोक । - यद्यपि इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस सम्बन्ध में अनेक मतभेद हैं परन्तु वर्तमान भूगोल में प्रत्यक्ष इन्द्रिय को आधार माना गया है। + धनाब्धिः प्रथमस्तेषां ततोऽन्यो धनमारुतः । तन वातस्ततीयोऽन्ते विज्ञेया वायवः क्रमातः । उद्धत्य सकलं लोक स्वशक्त्यैव व्यवस्थिताः । पर्यन्तरहिते व्योम्नि मरुतः प्रांशुविग्रहाः ।। (ज्ञानार्णव ३६/५/६) राजवातिक ५/१२/१०-१३/४५५/२० (क) सयलो एस य लोओ णिप्पण्णो सेढिविंदमाणेण । तिबियप्पो णादश्वो हेट्टिममज्झिल्लउड्ढ भेएण ॥ (तिलोयप पणत्ती १/१३६) (ख) धवला १३/५/५/५०/२८८/४ (ग) बारस अणुवेक्खा ३६ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन सभी मान्यताएं भिन्न-भिन्न होते हुए भी थोड़ी बहुत मिलती भी हैं । वर्तमान भूगोल के साथ इन बातों का अर्थात पूर्व मतों का कोई मेल नहीं बैठता, परन्तु यदि विशेषज्ञ चाहें तो इस विषय की गहराइयों में पहुँचकर पूर्व आचार्यों के मतों को सत्यापित कर सकते हैं और सत्यता पर अमिट छाप लगा सकते हैं। अधोलोक : अधोलोक मेरुतल के नीचे के क्षेत्र को कहते हैं। यह लोक नीचे से वेत्रासन अर्थात् मोढ़ के आकार का है, यह नीचे से चौड़ा और फिर घटता-घटता मध्य लोक तक संकरा है ।+ यह लोक ७ राज ऊचा और सात राजू मोटा है और सात राजू नीचे व एक राजू प्रमाण चौड़ा ऊपर है । इसमें ऊपर से नीचे तक क्रम से रत्नप्रभा, शकराप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा व महातमप्रभा नाम से सात पथिवियाँ लगभग एक राजू के अन्तराज से स्थित हैं। प्रत्येक पृथ्वी में १३, ११ आदि पटल १००० योजन अन्तराज से स्थित है जिनमें कुल मिलाकर ४६ पटल हैं। प्रत्येक पटल में अनेकों गुफायें हैं, अनेको बिल हैं, इन बिलों में नारकीय जीव रहते हैं । नारकीय जीवों के रहने के लिए अतिदुखएवं कष्टों से युक्त सात नरक हैं जहाँ पापी जीव मरकर जन्म लेते हैं। इस लोक में अत्यन्त भयंकर निवास-स्थान नपुसक जीवों के रहने के लिए हैं। इन नारकीय पध्वियों में से कुछ तो अत्यधिक उष्ण हैं, तो कुछ अत्यधिक शीतलता से युक्त हैं और अत्यन्त बर्फ से ढकी हुई हैं जो बहुत ही भयानक हैं। - + अधो वेत्रासनाकारो मध्ये स्याज्झल्लरी निभः । मृदड्.गाभस्ततोप्यूध्वंस त्रिति व्यवस्थितः ।। (ज्ञानार्णव ३६/८) रत्नशर्करा पालुकापड्.क धू मतमोमहातमः प्रभाः।। भूमियो घनाम्वु पाताकाश प्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः ॥ (तत्वार्थ सूत्र ३/१) नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणाम देहवेदना विक्रियाः। (वही ३/३) - ज्ञानार्णव ३६/११ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण[१६५] इस लोक में रौद्रध्यानी, मिथ्यात्व एवं अविरति से युक्त एवं कृष्ण लेश्या से युक्त प्राणी ही जाते हैं जो हडक संस्थान वाले होते हैं। + यहाँ कोई न तो किसी का स्वामी होता और न ही मित्र और न ही कोई सम्बन्धी होता है । मध्य लोक : यह लोक अधोलोक के ऊपर झालर के समान गोलाकार रूप में स्थित मध्यभाग वाला है, इस लोक में असंख्य द्वीप समुद्र गोल-गोल कड़ों के समान स्थित है। .... यह लोक तनवातबलय के अन्त भाग तक स्थित है । मेरु पर्वत द्वारा ऊपर तथा नीचे इस मध्य लोक की अवधि निश्चित है और मेरु पर्वत एक लाख योजन तक फैला हुआ है । - इस मध्य लोक में जम्बू द्वीप आदि द्वीप व लवण समुद्रादिक समृद्र हैं ।* सब ही द्वीप समुद्र असंख्यात एवं समवृत्त हैं। यह लोक चित्रा पथ्वी के ऊपर बहमध्य भाग में एक राज लम्बे और एक राज चौड़े क्षेत्र के अन्दर एक-एक को चारों ओर से घेरे द्वीप व समृद्र के रूप में स्थित है। + ज्ञानार्णव ३६/१५ - वही ३६/६८ ... (क) मध्यभागस्ततो मध्ये तत्रास्ते झल्लरीनिभः। ____ यत्र द्वीप समुद्राणां व्यवस्था वलयाकृतिः ।। (वही ३६/८२) (ख) द्विढिविष्कम्भाः पूर्वपूर्व परिक्षेपिणो वलयाकृतयः । (तत्वार्थ सूत्र ३/८) - तन्मध्ये मेम्नाभिवृत्तो योजनशतसहस्त्र विष्कम्भो जम्बूद्वीपः । (तत्वार्थसूत्र ३/६) *क) जम्बूद्वीपादयो द्वीपा लवणोदादयोऽर्णवाः । स्वयम्भूरमणान्तास्ते प्रत्येक द्वीपसागराः ॥ [ज्ञानार्णव ३६/८३] (ख) जम्बूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः । (तत्वार्थ सूत्र ३/७) (ग) मूलाचार १०७७ (ध) राजवार्तिक ३/३८/७/२०८/१७ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___इस लोक के सभी समुद्र चित्रा पृथ्वी को खण्डित करके वज्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित हैं और सभी द्वीप चित्रा पृथ्वी के ऊपर हैं।+ इस लोक में सात क्षेत्र भारतवर्ष, हेमवत वर्ष, हरिवर्ष, विदेह वर्ष, रम्यक वर्ष, हैराण्यवत वर्ष और ऐरावत वर्ष नाम से हैं और हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी नाम के छह पर्वत हैं । इस लोक के केवल अढाई द्वीपों में ही मनुष्य रहते हैं और उसी अढाई द्वीपों में अनेक खण्ड हैं जिनमें कुछ खण्डों में आर्य पुरुषों के रहने से उनका नाम आयखण्ड ओर कुछ खण्डों में म्लेच्छ लोगों के रहने से म्लेच्छ खण्ड नाम से उन्हें पुकारा जाता है । आर्य पुरुषों का आचरण उत्तम होता है और वे लोग उत्तम गुणों से युक्त होते हैं जबकि म्लेच्छ लोग निकृष्ट आचरण वाले एव निकृष्टतर गुणों वाले होते हैं।ऊर्ध्व लोक : मध्य लोक के समाप्त होने पर सुमेरू पर्वत की चोटी से नाममात्र के अन्तर से ऊध्वं लोक को सीमा प्रारम्भ हो जाती है । यह लोक सात राजू प्रमाण १००४०० योजन तक फैला हुआ है। इस लोक को दो भागों में विभक्त किया गया है, शिखर से २१ योजन ४२५ धनुष तक तो स्वर्ग लोक है और उसके ऊपर सिद्ध लोक है। इस लोक में देवों के विमान रहते हैं वे चर और स्थिर भेद से दो प्रकार के हैं । चर विमान वे होते हैं, जो निरन्तर घूमते रहते हैं और कई विमान जो स्थिर होते हैं वे स्थिर विमान कहलाते हैं । = + चित्तोवरि बहुमज्झे रज्जू परिमण दोह विक्खंभे। चेठंतिदीवस्वहीएवकेवकं वेढिऊण हुट परिदो ।। (तिलोयपप्णत ५/६) भरतहैमवतहरि विदेहरम्यक है रण्यवतैरावतवर्षा: क्षेत्राणि । (तत्वार्थसूत्र ३/१०-११) -तत्रार्यम्लेच्छखण्डानि भूरिभेदानि तेष्वमी। आर्या म्लेच्छा नराः सन्ति तत्क्षेत्रजनितैर्गुणैः ॥ (ज्ञानार्णव ३६/८६) = ततो नभसि तिष्ठन्ति विमानानि दिवौकसाम् । चरस्थिर विकल्यानि ज्योतिष्काणां यथाक्रमम् ।। (ज्ञानार्णव ३६/८८) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१६७) स्वर्ग लोक में कल्प और कल्पातीत नामक दो पटल, । इन्द्र व सामानिक आदि १० कल्पनाओं से यक्त देव कल्पवासी कहलाते हैं कल्पनाओं से रहित अहमिन्द्र कल्पातीत विमानवासी कहलाते हैं । इस लोक में दो स्वर्ग के ऊपर दो स्वर्ग, फिर उन दो स्वर्ग के ऊपर फिर दो स्वर्ग, इस प्रकार से दो-दो के आठ युगल हैं और उनके ऊपर एक-एक विमान करके नौ विमान हैं। + जो ग्रेवेवक विमान कहलाते हैं । स्वर्ग लोक में रात्रि और दिन का कोई प्रावधान नहीं है वहां तो रत्नों से ही हमेशा प्रकाश रहता है । वहाँ उत्पात, भय, संताप, चोर आदि जीव स्वप्न में भी नहीं दीखते । स्वर्ग लोक में हर प्रकार का ऐश्वर्य एवं वैभव है वहाँ सभी प्रकार के भोग विलास के साधन मौजद हैं वहाँ पर कोई भी दीन दुखी नहीं है बल्कि सभी पुष्ट एवं दिव्य शरीर वाले देव हैं । स्वर्ग लोक के ऊपर जो सिद्ध लोक है वहाँ अहमिन्द्र नाम वाले देव रहते हैं। ये देव काम से रहित होते हैं इन देवों का शुभ ध्यान हमेशा बढ़ता रहता है ये देव शुक्ल लेश्या से युक्त होते हैं। - संस्थान विचय धर्म ध्यान में लोकों का चिन्तन किया जाता है इसलिए यहां हमने लोकों का संक्षिप्त रूप से वर्णन करना उपयुक्त समझा। ___ आगमों के उत्तरवर्ती साहित्य में ध्यान के चतुष्ट य का दूसरा वर्गीकरण भी प्राप्त होता है। किसी भी साधक का ध्यान एकाएक निरालम्ब वस्तु में नहीं लग सकता, इसलिए स्थल एवं इन्द्रियगोचर पदार्थों से सूक्ष्म इन्द्रियों के अगोचर पदार्थों का + उपर्यु परि देवेशनिवास युगल क्रमात् । अच्युत न्त ततोऽप्यूर्ध्वमेकैक त्रिदशास्पदम् ॥ (वही ३६/६०) र उत्पातभयसन्ताप भड्.य चौरारिविद्धराः । न हि स्वप्नेऽपि दृश्यन्ते क्षुद्रसत्वाश्च दुर्जनाः ॥ [वही ३६/६३] - अहमिन्द्राभिधानास्ते प्रवीचारविजिताः । विद्धितशुभध्यानाः शुक्ललेश्याबलम्बिनः ॥ [ज्ञानार्णव ३६/१७६] Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६८ ] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन चिन्तवन करना आवश्यक माना गया है। आलम्बन का पर्याय " ध्येय " माना जाता है । इसी ध्येय को चार भेदों वाला कहा गया है - १ - पिण्डस्थ, २- पदस्थ, ३ - रूपस्थ और ४- रूपातीत । = इन भेदों के सम्बन्ध में कुछ मतभेद पाये जाते हैं क्योंकि इस वर्गीकरण का वर्णन प्राचीन साहित्य, जैसे मूलाचार, भगवती आराधना, तत्त्वार्थसूत्र, स्थानाड.ग. हरिवंशपुराण और आदिपुराण आदि ग्रन्थों में नहीं किया गया है, फिर इनका स्रोत कहाँ से है, यह बात अभी तक पता नहीं चली फिर भी देवसेन विरचित सम्भवतः वि० १०वीं शती में लिखित भावसंग्रह में यह सबसे पहले उल्लिखित है इससे पूर्व के किसी भी ग्रन्थ में इस वर्गीकरण का उल्लेख नहीं मिलता है ।... ज्ञानसार में एवं योगसार में भी इसका वर्णन मिलता है लेकिन ज्ञानसार में रुपातीत का निर्देश नहीं किया है । वहां केवल पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ काही वर्णन किया गया है । X ध्यान में चूँकि ध्याता के शरीर में स्थित ही ध्येय के अर्थ का विचार किया जाता है, इसलिए बहुत से आचार्य उसे पिण्डस्थ ध्येय कहते हैं ऐसा विचार तत्वानुशासन में प्रगट किया गया है । * ज्ञानार्णव में भी इन चारों भेदों का वर्णन किया गया है । A = (क) स्थूले वा यदि वा सूक्ष्मे साकारे वा निराकृते । ध्यानं ध्यायेत स्थिरं चित्तं एक प्रत्यय संगते ।। ( योगप्रदीप १३६ ) (ख) अलक्ष्यं लक्ष्यसंबन्धात स्थूलात्सूक्ष्मं विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्बं तत्ववित्तत्त्व मञ्जसा ।। (ज्ञानार्णव ३३/४) पिण्डस्थं च पदस्थं रूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः ! | (योगशास्त्र १८ ) (क) ध्यानशतक, प्रस्तावना, पृ० १८ (ख) भाव संग्रह ६१६ X ज्ञानसार १८-२८ * ध्यातुः पिण्डे स्थितश्चैव ध्येयोऽर्थो ध्यायते यतः । ध्येयं पिण्डस्थमित्य' हरतएव च केचन ॥ ( लत्त्वानुशासन १३४ ) 4 पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्धा घ्या माम्नातं भव्यराजीव भास्करैः ॥ [ ज्ञानार्णव ३७ /१] Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१६९) आचार्य वसूनन्दी ने भी इसी क्रम से पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत का उल्लेख किया है। + योगसार में केवल इनके नामों का उल्लेख किया है लेकिन विस्तार से वर्णन नहीं किया गया है । श्रावकाचार में आर्त आदि चारों भेदों का विवेचन करके, क्रम से फिर इस ध्यान के भेदों का वर्णन किया है वहाँ पदस्थ ध्यान को पिण्डस्थ से पहले रखा गया है। इसके अतिरिक्त कई अन्य ग्रन्थों में भी इन चारों ध्येय के भेदों का वर्णन मिलता है।- ये चात अलग है कि इनके क्रम में थोडी बहत फेरबदल की गयी है। नंत्र शास्त्र में पिण्ड, पद, रूप और रूपातीत इन चारों भेदों का वर्णन किया गया है । - दोनों के अर्थ भेद को छोड़कर देखा जाये तो लगता है कि जैन साहित्य का वर्गीकरण तंत्र शास्त्र से प्रभावित है। पिण्डस्थ ध्यान : "पिण्डस्थ स्वात्मचिन्तनम्" अर्थात् आत्म स्वरूप या निजात्मा का + श्रावकाचार ४५६ जो पिंडत्थ पयत्थु बुह स्वस्थ वि जिण उत्तु । रूवातीत मूणेहि लह जिमि परु होहि पवित्त ।। (योगसार १८) - (क) पदस्थमन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूप रूपातीतं निरूजनम् ।। (द्रव्य संग्रह टी. ४८/२०५/३) (ख) पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्धा ध्यानमाम्नातं भव्यराजीव भास्करैः ॥ (शास्त्रसार समुच्चय ३५) (ग) उक्मेव पुनर्देव सर्व ध्यानं चतुर्विधम। पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवजितम् ॥ (ध्यान स्तव २४) (घ) भावपाड़ टीका ८६/२३६/१३ .. पिण्ड, पदं तथा रूपं, रूपातीतं चतुष्टयम्। यो वा सम्यग् विजानाति, स गुरू: परिकीर्तितः ।। पिण्डं कुण्डलिनी-शक्तिः, पदं हंसः प्रकीर्तितः। रूपं बिन्दुरिति ज्ञेयं, रूपातीतं निरंजनम् ।। (नवचक्रेश्वरतंत्र) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन चिन्तवन करना ही "पिण्डस्थ ध्यान है | 4 पण्ड" अर्थात् शरीर और उस शरीर में रहने वाली आत्मा है । अतः पिण्ड सहित या शरीर सहित आत्मा का ध्यान पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है । भाव संग्रह में अपने शरीर में स्थित अच्छे गुण वाले आत्मप्रदेशों के समूह के चिन्तन करने को पिण्डस्थ ध्यान कहा गया है । * जबकि ज्ञानसार में अपने नाभि के मध्य स्थित अरहन्त के स्वरूप के विचार करने को पिण्डस्थ ध्यान कहा गया है । श्वेत किरणों से विस्फुरित होते हुए एवं अष्ट महाप्रतिहार्यों से परिवृत्त जो निजरूप है उसका ध्यान भी पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है | X ज्ञानार्णव में इस ध्यान का विस्तृत वर्णन करते हुए आचार्य ने इस ध्यान के लिए पाँच धारणाओं का निर्देश दिया है जो इस प्रकार से हैं - ९ - पार्थिवी धारणा, २ - आग्नेयी धारणा, ३- श्वसना धारणा, ४ - वारुणी धारणा तथा ५-तस्वरूपवती धारणा ।... योगशास्त्र में भी इन्हीं पाँचों धारणाओं का वर्णन किया गया है । → 44 4 पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् । (द्रव्यसंग्रह टी. ४८/२०५) * भावसंग्रह ६२२ + निजनाभिकमलमध्ये परिस्थितं विस्फुरद्रवितेनः । ध्यायते अर्हद्रूपं ध्यानं तत् मन्यस्व पिण्डस्थं ॥ ध्यायत निजकरमध्ये भालतले हृदय कन्ददेशे । निजरूपं रवितेजः पिण्डस्थं मन्यस्व ध्यानमिदं ।। (ज्ञानसार १६ - २० ) X ( क ) पलुकिन कोउदोलुसहजं । वेलगुवशनिकान्तदेसेव विवाकृतितं । नोलगोल तोलगि बेलगुव । बेलगं निजमागि कंडोडदु पिण्डस्थं । । ( शास्त्रसार समुच्चय २०२ ) ... (ख) सियकिरणवित्पुरतं अट्ठमहापाडिहेरपरियरियं । झाइज्जइ जं निययं पिण्डस्थं जाण तं झाणं ॥ [ वसुनन्दिश्रावकाचार ४५६) पार्थिवी स्यात्तथाग्नेयी श्वसमा वाथ वारुणी । तत्त्वरूपवती चेति विज्ञेयास्ता यथा क्रमम् ।। (ज्ञानार्णव ३७ / ३) → पार्थिवी स्याद्याग्नेयी मारुती वारुणी तथा । तत्व भूः पंचमी चेति पिण्डस्थे पंच धारणा || (योगशास्त्र ७ / ६ ) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण (१७१) तत्त्वानुशासन में भी इन पाँच में से तीन धारणायें मिलती हैं वहाँ श्वसना, आग्नेयी और वारुणी के पर्याय रूप में क्रमशः मारुती, तेजसी और आप्या के नाम से उपलब्ध है । + ऐसा लगता है कि आवार्य शुभचन्द्र ने तत्त्वानशासन से इन तीन धारणाओं को लेकर और उनमें पार्थिवी एवं तत्त्वरूपवती इन दो धारणाओं को मिलाकर उन्हें उसी क्रम में व्यवस्थित कर दिया। पार्थिवी धारणा : किसी भी आसन से बैठकर साधक पार्थिवी धारणा का चिन्तन करता है। वह मेरुदण्ड को सीधा करके नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि को जमाकर ध्यान करता है कि मध्यलोक के बराबर नि:शब्द, कल्लोल रहित तथा हार और बफ के समान सफेद समुद्र है उसमें जम्बूद्वीप के बराबर लाख योजन वाला तथा हजार पंखड़ी वाला कमल है जो सोने के समान पीला है और उसके मध्य केसर है जो बहुत अधिक मात्रा में सुशोभित है । उन केसरों में स्फुरायमान करने वाली देदीप्यमान प्रभा से युक्त सुवर्णाचल के समान एक ऊँची कणिका है, उस कणिका पर चन्द्रमा के समान श्वेत रंग का एक ऊँचा सिंहासन है और उस आसन पर मेरी आत्मा विराजमान है । साथ ही साथ यह भी विचार करे कि मेरी आत्मा रागद्वेषादि से. रहित है और समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ है । इन बड़ी चाजों को ध्यान में लाने के बाद सूक्ष्म वस्तु में ध्यान केन्द्रित करने से समस्त चिन्ताओं पर रोक लग जाती है । आग्नेयो धारणा : पाथिवी धारणा के पश्चात् साधक आग्नेयी धारणा की साधना + तत्राऽऽदौ पिण्ड सिद्धयर्थं निर्मलीकरणाय च । मारुतीं तैजसीमाप्यां विदध्याद्धारणांक्रमात् । [तत्वानुशासन १८३] (क) ज्ञानार्णव ३७/४-६ . (ख) योगशास्त्र ७/१०-१२ (ग) योगप्रदीप २०/४०५-८ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७२)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन करता है । इस धारणा में साधक ऐसा चिन्तवन करे कि मेरे नाभि मण्डल में सोलह पांखड़ियों से सुशोभित एक मनोहर कमल है ।+ उस कमल की सोलह पांखुड़ियों में क्रम में "अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, ल, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ." ये सोलह बीजाक्षर हैं तथा उस कमल की कणिका पर "ह" महामन्त्र लिखा हना या स्थापित है इस महामन्त्र स्वरूप "ह" के रेफ से धीरे-धारे धुआँ की शिखा निकल रही है उसके पश्चात अग्नि के स्फूलिड ग निकल रहे हैं । ये पंक्तिबद्ध चिनगारियाँ क्रमशः शनैः-शनैः अग्नि ज्वाला के रूप में परिणमित हो रही है और फिर वह अग्नि प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है और हृदयस्थ कमल को दग्ध कर देती है। - जिस कर्म चक्र को रेफ की अग्नि जलाती है वह हृदस्थ कमल अधोमुख वाला और आठ पत्रों का होता है । इसके आठों पत्रों पर क्रमशः ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय नामक आठ कर्म आत्मा को घेरे हुए हैं । इस कमल के आठों दलों को कुम्भक पवन के बल से खोलकर फैलाकर उक्त "" बीनाक्षर के रेफ से उत्पन्न हई प्रबल अग्नि से भस्म किया जाता है। + ततोऽसौ निश्चलाभ्यासात्कमल नाभिमण्डले। ___ स्मरत्यतिमनोहारि षोडशोन्नतपत्रकम् ॥ (ज्ञानार्णव ३७/१०) (क) नाभौषोडश विद्यात्तद्वयष्टासु दलमध्यगं । हकारं बिन्दुसंयुक्तं रेफाक्रान्तं प्रचिन्तयेत्।। (विद्यानुशासन ३/७८) (ख) प्रतिपत्र समासीन स्वरमालाविराजितम् । कणिकायां महामन्त्रं विस्फुरन्तं विचिन्तयेत् ॥(ज्ञानार्णव३७/११) - (क) योगशास्त्र ७/१३-१८ (ख) ज्ञानार्णव ३७/१३-१४ (ग) तत्त्वानुशासन १८४ A (क) हृद्यष्टकर्मनिर्माणं द्विचतुः पत्र मम्बुजं । मुकुलीभूतमात्मानमावृत्यावस्थितं स्मरेत् ।। कनफेन तदम्भोजपत्राणि विकचयय च । निर्दहेन्नाभिपंकेज बीजबिन्दु-शिखाग्निना ॥ (विद्यानुशासन ३/७६-८०) (ख) तदष्टकमंनिर्माणमष्टपत्रमधोमुखम् । दहत्येव महामन्त्र ध्यानोत्थप्रबलोऽनलः ।। (ज्ञानार्णव ३७/१५) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१७३) वह अग्नि मस्तक तक पहुँच जाती है और वहाँ से अग्नि की एक लकीर बाई ओर नीचे और दूसरी दाई ओर नीचे की तरफ उस साधक के आसन तक पहुँच जाती है तथा आसन के आधार पर चलकर दूसरे से मिल जाती है और इस प्रकार से एक त्रिकोण की आकृति बन जाती है। वह अग्निमण्डल "र र र र" ऐसे बीज अक्षरों से व्याप्त है तथा उसके अन्त में + सांथिया चिन्ह है।+ यह अग्नि धूम से रहित एवं अत्यधिक देदीप्यमान है और अपनी ज्वालाओं के समूह से नाभि में स्थित कमल और शरीर को भस्म करके जलाने योग्य पदार्थ के न रहने पर अपने आप शान्त हो जाती है । अर्थात् ''अतृणे पतितो बाह्न स्वयमेव प्रशाम्यति ।” अर्थात् जलाने योग्य समस्त कर्म राशि को भस्म कर अब स्वयं मात्र राख की ढेरी रह गई है। ऐसा चिन्तवन करना आग्नेयी धारणा है । मारुती धारणा : आग्नेयी धारणा द्वारा शरीर और द्रव्यकर्म, भावकर्म की समूल राख ढेरी हो गई तो उसको भी किस प्रकार से अपने से पृथक् करे इस लिए साधक वायु धारणा का चिन्तबन करता है। वह विचारता है कि आकाश में एक प्रचण्ड वायू उठी हैं। - और वह इतनी वेगवान है कि मेरु पर्वत को भी कम्पित कर रही है और देवों की सेना के समूहों को चलायमान कर रही है एवं मेघों के समूह का विघटन करती हई तेजी से बह रही है। उस जल ने सागर को भी क्षुभित कर दिया है, धीरे-धीरे वह वायू तीव्र गति से दसों दिशाओं में फैल रही है, पृथ्वी तल को विदीर्ण करके भीतर प्रवेश कर रही है और आग्नेयी धारणा द्वारा भस्म हुई राख को संचित करके अपने वेग से उड़ा कर ले जा रही है, यहाँ तक कि उसने क्षण मात्र में ही विशाल भस्म राशि + वह्नि बीजसमाक्रान्तं पर्यन्ते स्वस्तिकाडि.कतम् । ऊर्ध्व वायुपुरोद्भूतं निधूम काञ्चनप्रभम् ।। (ज्ञानार्णव ३७/१७) ज्ञानार्णव ३७/१८-१६ - विमानपथमापूर्य संचरन्तं समीरणम् । स्मरत्यविरतं योगी महावेगं महाबलम् ॥ (वही ३७/२०) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७४) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन को उड़ा दिया। अब मात्र आत्मा ही रह जाती है और यह वायू धीरेधीरे अपने आप शान्त हो जाती है यही चिन्तबन करना मारुती धारणा है।+ वारुणी धारणा : मारुती धारणा से साधक की भस्म-राख उड जाती है किन्तु छाया रह जाती है उसके लिए वह वारुणी धारणा का चिन्तन करता है। वह सोचता है कि आकाश काले-काले बादलों से आच्छादित है एवं चारों ओर घनघोर घटाएँ घिरी हुई हैं, बिजली चमक रही है एवं इन्द्र धनष दिखाई दे रहा है बोच-बीच में होने वाली गर्जनाओं से दिशायें कम्पित हो रही हैं एवं उन बादलों से निकलने वाली जल की अमत के समान स्वच्छ धाराओं से आकाश व्याप्त हो गया है। ये जल की धारायें हमारे ऊपर गिरती हैं और राख के ढेर की छाप को बिल्कुल धोकर स्वच्छ कर दिया है और मेरी आत्मा स्फटिक मणि के समान स्वच्छ एवं निर्मल हो गयी है ऐसा चिन्तवन करना हो वारुणी धारणा है । तत्त्वरूपवती धारणा : इस धारणा में साधक ऐसा चिन्तन करता है कि मेरी आत्मा सप्त धातु से रहित है और पूर्ण चन्द्रमा के समान उज्ज्वल एवं निर्मल है। मेरी आत्मा सर्वज्ञ है। मेरी आत्मा अतिशय युक्त सिंहासन पर आरुढ़ है और इन्द्र, धरणेन्द्र, दानवेन्द्र, नरेन्द्र आदि से पूजित है। मेरे समस्त आठों कर्म नष्ट हो गये हैं और कर्म रहित मैं पुरुषाकार हैं एवं ज्ञानमात्र ही मेरा शरीर है। ऐसा चिन्तवन करना ही तत्त्वरूपवती धारणा है । + (क) योगशास्त्र ७/१६-२० (ख) ज्ञानार्णव ३७/२१-२३ (क) सुधाम्बुप्रभवः सान्द्रबिन्दुभि मौंवितकोज्वलैः । वर्षन्तं तं स्मरेद्धीरः स्थूलस्थूलैनिरूतरम् ।। (ज्ञानार्णव ३७/२५) (ख) योगशास्त्र ७/२१-२३ - सप्तधातु विनिमुक्तं पूर्णचन्द्र मलत्विषम्। सर्वज्ञ कल्पमात्मानं तत: स्मरति संयमी ॥ (ज्ञानार्णव ३७/२८-३०) योगशास्त्र ७/२३-२५ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१७५) इस प्रकार पाँचों धारणाओं से युक्त पिण्डस्थ ध्यान का अभ्यास करने वाले ध्याता को मंत्र, माया, शक्ति, जादू आदि से कोई नुकसान नहीं होता है। प्रथम धारणा से साधक अपने मन को स्थिर करता है, दूसरी से शरीर कर्म को नष्ट करता है, और तीसरी से शरीर के कर्मों के सम्बन्ध को भिन्न देखता है, चौथी धारणा से शेष कर्म का नष्ट होना देखता है और पांचवीं धारणा से शरीर एवं कर्म से रहित शुद्ध आत्मा को देखता है। इस प्रकार से वह इस ध्यान के अभ्यास से मन एवं चित्त को एकाग्र करके शुवल ध्यान में पहुँचने की स्थिति प्राप्त कर लेता है। पदस्थ ध्यान : "पदस्थ मन्त्र वाक्यस्थं" अर्थात् मन्त्र वाक्यों में जो स्थित है वह "पदस्थ ध्यान' है।+ इस ध्यान का मुख्य आलम्बन "शब्द" है। इस ध्यान के द्वारा साधक अपने को एक ही केन्द्र बिन्दु पर केन्द्रित करते हुए मन को अन्य विषयों से पराभूत कर लेता है और केवल सूक्ष्म वस्तु का ही चिन्तवन करता है । ज्ञानाणंव में कहा गया है कि “पवित्र पदों का आलम्बन लेकर जो अनुष्ठान या चिन्तवन किया जाता है वह 'पदस्थ ध्यान'' है । यही बात योगशास्त्र में भी कही गयी है। = एक अक्षर आदि को लेकर अनेक प्रकार के पंच परमेष्ठी वाचक पवित्र मन्त्र पदों का उच्चारण जिस ध्यान में किया जाता है वह "पदस्थ ध्यान" कहलाता है।* + (क) द्रव्यसंग्रह, टीका ४८/२०५ (ख) भावपाहुड़, टीका, ८६/२३६ (ग) परमात्म प्रकाश, टीका, १/६/६ पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभियंद्विधीयते । तत्पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः ।। (ज्ञानार्णव ३८/१) = योगशास्त्र ८/१ * (क) ज झाइज्जइ उच्चरिऊण परमेट्ठिमंतपयममलं । एयक्खरादि विविहं पयत्थ झाणं मुणेयव्वं ।। - (वसुनन्दि श्रावकाचार ४६४) (ख) गुणभद्र श्रावकाचार २३२ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७६)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन पदस्थ ध्यान करने वाला योगी सबसे पहले वर्ण मातका का ध्यान करता है, क्योंकि वर्णमाला सब मन्त्रों की जननी होने के कारण "वर्ण मातका" कहलाती है । अनादि सिद्धान्त में जो वर्णमातका अर्थात् अकारादि स्वर और ककरादि व्यञ्जन से ही शब्दों की उत्पत्ति पदस्थ ध्यान पाँच प्रकार से निष्पन्न किया जाता है : अक्षर ध्यान :-इसके अन्तर्गत नाभि-कमल, हृदय कमल और मुख कमल से शरीर के इन तीन भागों की परिकल्पना की जाती है। इसमें नाभि कमल में साधक यह चिन्तवन करता है कि मेरे नाभि कमल में सोलह दल वाला एक कमल है, जिसकी प्रत्येक पंखुड़ी पर 'अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, ल, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:" सोलह अक्षर लिखे हुए हैं। = वह इन वर्गों पर मन को टिकाता है, जिससे उसका चित्त एकाग्र हो जाता है और ज्ञान तन्तुओं के सक्रिय होने से बुद्धि कौशल जागृत होता है : हृदय कमल में वह सोचता है कि हृदय स्थल पर चौबीस पाँखड़ियों वाला एक कमल है, उस कमल के मध्य एक काणिका भी है, इन चौबीस दलों एवं कणिका पर क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ,ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, ये पच्चीस वर्ण लिखे हुए हैं। * इस ध्यान से प्रज्ञा शक्ति जागत होती है। मुख कमल में वह ध्यान करता है कि मुखमण्डल के ऊपर ८ पत्रों वाला एक कमल बना हुआ है जिसमें प्रत्येक पत्रपर य, र, ल, व, श, ष, सह... - ध्यायेदनादिसिद्धान्त प्रसिद्धां दर्णमातृकाम् । निःशेषशब्द विन्यासजन्मभूमि जगन्नताम् ।। (ज्ञानार्णव ३८/२) = द्विगुणाष्ट दलाम्भोजे नाभि मण्डलवतिनि ।। भ्रमन्तीं चिन्तयेद्धयानी प्रतिपत्र स्वरावलीम् ।। (वही ३८/३) * चतुर्विंशतिपत्राढ्य हृदि कञ्ज सकणिकम् । तत्र वर्णानिमान्ध्यायेत्संयमी पञ्चविंशतिम् ।। (वही ३८/४) .... ततो वदनराजीवे पत्राष्टकविभूषिते । परं वर्णाष्टकं ध्यायेत्सञ्चरन्तं प्रदक्षिणम् ॥ (वही ३८/५) तत्त्वानुशासन १०५-१०६ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - धर्मध्यान का वर्गीकरण(१७७) ये आठ वर्ण अन्कित हैं। अपने-अपने मण्डलों में विद्यमान अकार से हकार तक के परम शक्ति सम्पन्न मन्त्रों का ध्यान करने से ये मन्त्र इहलोक और परलोक में फल देने वाले होते हैं। + मन्त्रों व पदों का स्वामी एवं सभी तत्वों का नायक "अह" माना गया है जिसके आदि में वाड.मय अर्थात वर्णभाला का पहला अक्षर "अ" मध्य में मध्याक्षर "र" और अन्त में अन्तिम अक्षर "ह" है। इस तरह जो सारे वाड्.मय को अपने में व्याप्त कर "अक्षर ब्रह्म" है वह "शब्द ब्रह्म" भी कहलाता है। "अहैं" इस परम ब्रह्म के वाचक अक्षर ब्रह्म में "अ" अक्षर साक्षात् अमतमयमूर्ति के रूप में स्थित सुख का कर्ता है, स्फुरायमान रेफ (') अक्षर अविकल रत्नत्रय-सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की प्रतिमूर्ति है और "ह"अक्षर मोहसहित और पाप समूह के हंता का रूप धारण किये हुए है। - "अहं''यह बीजाक्षर अनाहत सहित मन्त्रराज कहलाता है।* + अकरादि-हकारान्ता: मंत्रा: परमशक्तयः । स्वमण्डल-गता: ध्येया लोकन्य फलप्रदाः ।। (तत्त्वानुशासन १०७) अकारादि-हकरान्ता वर्णा मन्त्राः प्रकीर्तिताः। सर्व रसहाया वा संयुक्ता वा परस्परम् ।। (विद्यानुशासन २-३) 18 (क) आदौ मध्ये ऽवसाने यद्वाड्.मयं व्याप्न्य तिष्ठति । हृदि ज्योतिष्मदृद्गच्छन्नामध्येयं तदर्हताम्।। (तत्त्वानुशासन १०१) (ख) अहमित्यक्षरं ब्रह्म वाचकं परमेष्ठिनः । सिद्ध चक्रस्य सदबीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् ।। (वही प. १०.) - अकरादि-हकारान्त-रेफमध्यान्त बिन्दुकं । ध्यायन् परमिदं बीज मुवत्यर्थी नाऽवसीदति ।। (आर्ष २१/२३१) * अथमन्त्रपदाधीशं सर्वतत्त्वैकनायकम् ।। आदि मध्यान्तभेदेन स्वरव्यञ्जनसम्भवम् ।। ऊधिोरेफसरुद्धं सपर बिन्दुलाञ्छितम् । अनाहत युतं तत्त्वं मन्त्रराज प्रचक्षते ।। (ज्ञानार्णव ३८/७-८) [ख] बिन्दाकारहरोर्ध्वरेफ बिन्द्वानवाक्षरम् । मालाधःस्यन्दि पीयूष बिन्दु विदुरनाहतम्। तत्त्वानुशासन१०८) (ग) अनाहत का आकार-इसमें १-उकार, २.अनुस्वार, ३-ईकार, ४-ऊद्ध वरकार, ५-हकार, ६-हकार, ७-निम्न स्कार, ८-अनस्वार, ६-ईकार । ये नौ अक्षर मिले हैं। (ज्ञानार्णव पृ. ३८६, ३६९) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७८]जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन यह मन्त्र राज सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, शान्तमूर्ति के धारक साक्षात श्री जिनेन्द्र भगवान के समान ही है । इस ध्यान में ध्याता यह कल्पना करता है कि एक सोने का कमल है और उसके मध्य में कणिका पर विराजमान, निष्कलंक, निर्मल चन्द्रमा की किरणों के समान, आकाशगामी एवं सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त "अह" मन्त्र है, वह उसी मन्त्र का स्मरण करता है । इसके पश्चात मुख कमल में प्रवेश करता हुआ, तालु छिद्र में गमन करता हुआ, अमृत से युक्त जल से झरता हमा, नेत्रपलकों पर स्फूरित होता हुआ, केशों में स्थिति करता हआ, ज्योतिष मण्डल में विचरता हआ, उज्ज्वल चन्द्रमा के साथ स्पर्धा करता हुआ, आकाश में उछलता, कलंक के समूह को छेदता, संसार के भ्रम को दूर करता हुआ तथा मोक्ष के साथ मिलाप करते हुए सम्पूर्ण अवयवों में व्याप्त कुम्भक के द्वारा इस मन्त्रराज "अहं" का चिन्तवन करना चाहिये।= इस मन्त्रराज के ध्यान से ध्याता एकाग्रता को प्राप्त होकर चित्त को स्थिर कर लेता है और उसी समय ज्योतिर्मय जगत को साक्षात देख लेता है । इस मन्त्र से ध्यानी अणिमादि सभी सिद्धियों को प्राप्त कर अलक्ष्य में अपने मन को स्थिर कर लेता है जिससे उसके अन्तरंग में इन्द्रियों से अगोचर ज्ञान प्रकट होता है। इसी को आत्मज्ञान कहते हैं।x ये सभी वर्ण एवं पद सर्वसाधारण के उपयोग में सदैव आते हैं परन्तु इनमें शक्ति और अतिशय लाना प्रयोक्ता, के भाव मन्त्रमूर्ति समादाय देवदेवः स्वयं जिनः । सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः सोऽयं साक्षाव्यवस्थितः ॥ (ज्ञानार्णव ३८/१२) = (क) ज्ञानार्णव ३८/१६-१६ (ख) योगशास्त्र ८/१८-२२ x सिद्धयन्ति सिद्धयः सर्वा अणिमाद्या न संशयः । सेवां कुर्वन्ति दैत्याद्या आज्ञैश्वर्यं च जायते ।। क्रमात्प्रच्याव्य लक्ष्येभ्यस्ततोऽलक्ष्ये स्थिरं मनः । दधतोऽस्य स्फुरत्यन्तज्योतिरत्यक्षमक्षयम् ॥ (ज्ञानार्णव ३८/२७-२८) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण (१७६) आदि पर निर्भर होता है । विशिष्ट ध्यान के द्वारा नियमपूर्वक एवं भली प्रकार से ध्यान करने पर अक्षर और पद प्रभावशाली, महत्वपूर्ण एवं रहस्यमयी होकर दिव्य ज्योति को प्रकट करते हैं इसीलिए ये मन्त्र कहलाते हैं । इन मन्त्रों का बार-बार उच्चारण करने से मन की चंचलता दूर होकर बिखरी शक्ति प्राप्त हो जाती है । इन मन्त्रों में बीजाक्षरों की शक्ति सूक्ष्म रूप से रहती है । इस प्रकार मन्त्रराज और अनाहत दोनों मन्त्रों के ध्यान के पश्चात् प्रणव नामक ध्यान को ध्याने के लिए कहा गया है। प्रणव ध्यान में 'ॐ" पद का ध्यान किया जाता है। भारतीय संस्कृति में "ॐ" का एक विशिष्ट स्थान है । सभी मोक्षवादी परम्पराये इसके महत्व को एकमत से मानती हैं । वैदिक परम्परा का तो ये प्राण ही है । प्रत्येक वैदिक मन्त्र में इसका होना जरूरी सा होता है, और तो और वैदिक ऋषि तो ब्रह्म को भी ॐकारमय मानते हैं। उनके मतानुसार ॐ शब्द ब्रह्म है । यह सारा जगत् ॐमय ही है । वैदिक परम्परा के अनसार ॐ शब्द "अ" "उ" "म" इन तीन अक्षरों के संयोग से सम्पन्न हुआ है । वहां 'अ' को ब्रह्मा, 'उ' को विष्णु तथा 'म' को महेश कहा गया है तथा ये तोनों शक्तियाँ इससे जुड़ी हुई मानी हैं। जैनाचार्यों ने ॐ को पंच परमेष्ठी वाचक माना है। उन्होंने अरहंत, अशरीरी-सिद्ध. आचार्य, उपाध्याय और मुनि, इन पाँचों परमेष्ठियों के प्रथम वर्ण लेकर सन्धि करने से "ॐ' को निष्पन्न माना है अर्थात् अ+अ+आ+उ+म=अ+अ+आ=आ। आ-+उ=ओ और ओम्=ओम या ॐ ऐसा माना गया है। कुछ जैनाचार्यों ने ॐ की निष्पत्ति इस प्रकार भी की है-"अ"-ज्ञान, "उ"-दर्शन, "म्"-चारित्र का प्रतीक है । इस प्रकार ये तीनों मिलकर अ+उ+ म= ओम या ॐ रूप बनता है। [क] अरहता-असरीरा-आयारिय-उवज्झाय-मुणिणो। पंचक्खरनिप्पण्णो ओंकारो पंच परमिट्ठी ।। [ख] हत्पंकजे चतुष्पत्रे ज्योतिष्मन्ति प्रदक्षिणम। अ-स-आ-उ साऽक्षराणिध्येयानि परमेष्ठिनाम् ॥ [तत्त्वानुशासन १०२) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन इस ध्यान का साधक सबसे पहले हदय कमल में स्थित कर्णिका में इस पद की स्थापना करता है, तथा देव व दैत्यों से पृजित एवं वचन विलास की उत्पत्ति के अद्वितीय कारण, स्वर तथा व्यञ्जन से युक्त, पंचपरमेष्ठी के वाचक, मूर्धा में स्थित चन्द्र व ला से झरने वाले अमत के रस से आद्रित इस महातत्त्व, महाबीज, महामंत्र, महापदस्वरूप "ॐ" को कुम्भक करके ध्याता है । "ॐ" की साधना विभिन्न रंगों के साथ की जाती है। श्वेत वर्ण वाले 'ॐ' की साधना शान्ति, पुष्टि कर्मों को क्षय करने वाला एवं मोक्ष को देने वाली होती है। पीले रंग के "ॐ' का जप ध्यान ज्ञान तन्तुओं को सक्रिय बनाने के लिए किया जाता है । वशीकरण के लिए लाल रंग के ॐ' का ध्यान किया जाता है। नीले रंग की साधना साधक को शान्ति प्रदान करती है तथा श्याम वर्ण के 'ॐ' की साधना साधक को कष्टसहिष्णु बनाती है।इस प्रणव ॐ का ध्यान सांसारिक वैभव एवं सुखों के साथ-साथ मोक्ष को भी देने वाला होता है।... ॐ की साधना का महत्त्व इसलिए भी अधिक माना गया है क्योंकि यह पंचपरमेष्ठी वाचक एक अक्षर का (क) ज्ञानाणव ३८/३३-३५ (ख) तथाहत्पद्ममध्यस्थं शब्द ब्रह्म ककारणम् । स्वर व्यंजन-संवीतं वाचकं परमेष्ठिनः ।। मूर्ध-संस्थित-शीतांशु कलामतरस-प्लुतम् । कुम्भकेन महामन्त्रं प्रणव परिचिन्तयेत् ॥ (योगशास्त्र ८/२६-३०) -- (क) सान्द्रसि दूरवर्णाभं यदि वा विद्रुमप्रभम् । चिन्त्यमानं जगत्सवं क्षोभयत्यभिसंगतम् ।। जाम्बूनदनिभम् स्तम्भे विद्वषे कज्जलविषम् । ध्येयं वश्यादिके रक्तं चन्द्राभं कर्म शातने ॥ (ज्ञानार्णव ३५/३६-३७) (ख) पोतं स्तम्भेऽरुण वश्ये क्षोभणे विद्रुमप्रभम् । कृष्णं विद्वोषणे ध्यायेत् कर्मघाते शशिप्रभम् ॥ (योगशास्त्र८/३१) ... ॐ कारं विन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः। कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण [१८१ उठते-बैठते, चलते-फिरते मन्त्र है और इसे साधक किसी भी वक्त किसी भी अवस्था में जप सकता है । पंचपरमेष्ठी नामक ध्यान में साधक चिन्तवन करता है कि मेरे हृदय में आठ पाँखुड़ियों से विभूषित एक कमल है । उस कमल की कणिका पर "णमो अरहंताणं" नामक सात अक्षरों का मन्त्र लिखा है, तत्पश्चात् उस कणिका के बाहर के आठ पत्रों में से चार दिशाओं के चार दलों पर क्रमशः ' णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाण, णमो लोए सव्वमहूणं" का ध्यान किया जाता है तथा चार बिदिशाओं पत्रों पर क्रमशः "एसो पंचणमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसि पढमं हवइ मगलम् " का चिन्तवन किया जाता है । आचार्य शुभचन्द्र ने पहले चार पदों पर तो णमों अरहंताणं आदि को ध्याने के लिए बताया है परन्तु अन्य चार विदिशाओं के चार पत्रों पर क्रमशः सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः, सम्यक्चारित्राय नमः, सम्यक्तपसे नमः, इन चार नमस्कार मन्त्रों के चिन्तवन करने को कहा है। इस प्रकार अष्टदल कमल और एक कणिका में नव मन्त्रों को स्थापित करके उनका ध्यान किया जाता है । इस महामन्त्र का प्रभाव योगी मुनियों के लिए भी अगोचर एवं अनभिज्ञ होता है । + यही महामन्त्र सबका रक्षक माना गया है । - अष्टपत्रे सिताम्भोजे कणिकायां कृतस्थितिम् । आद्यं सप्ताक्षर मन्त्रं पवित्रं चिन्तयेत्ततः ।। सिद्धादिक-चतुष्कं च दिक्पतेषु यथाक्रमम् । चूलापाद-चतुष्कं च विदिक्पत्रेषु चिन्तयेत् ।। (योगशास्त्र ८ / ३३-३४) स्फुरद्विमलचन्द्राभे दलाष्टकविभूषिते । कञ्जे तत्कणिकासीनं मन्त्रं सप्ताक्षरं स्मरेत् ॥ दिलेषु ततोऽन्येषु विदिक्पत्रेष्वनुक्रमात् । सिद्धादिकं चतुष्कं च दृष्टिबोधादिक तथा ।। (ज्ञानार्णव ३८ / ३६ -४० ) + प्रभावमस्य निःशेषं योगिनामप्यगोचरम् । अनभिज्ञो जनो ब्रूते यः स मन्येऽनिलादितः ॥ ( ज्ञानार्णव ३८ / ४२ ) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८२)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___इन मन्त्रों को समझने के लिए उनके विषय में जानकारी का होना अत्यन्त आवश्यक है । अत: इन मन्त्रों का यहाँ संक्षेप में वर्णन किया जाता हैणमो अरिहंताणं : “णमो अरिहंताणं" पद में सात अक्षर हैं । इन मन्त्र के विषय में कहा गया है कि इसे गुरु के उपदेश से मूख के सात रन्ध्रों-छिदो में स्थापित करके उसी ध्याता को ध्याना चाहिये जो दूर से सुनने, दर से देखने, दूर से सघने और दूर से रसास्वादन की शक्ति को प्राप्त करना चाहता हो । + सात छिद्रों में दो अक्षर कानों के छिद्रों में दो अक्षर आँखों के छिद्रों में, नाक के दोनों नथनों में दो अक्षर तथा एक अक्षर रसनालयका में स्थापित माना गया है। मगर कौन सा अक्षर कौन से छिद्र में स्थित है इसका प्रमाण अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है यह विषय अभी तक रहस्यमयी है। परन्तु रामसेनाचार्य ने इस सम्बन्ध में अपना मत प्रगट करते हए यह कहा है कि जहाँ तक मुझे “इच्छन दूरश्रवादिकम्"पदों पर से यह आभास होता है कि सुनने की शक्ति के विकास को पहले कहा गया है, तब "आदि" शब्द से देखने, सूघने एवं रसास्वाद की बात बाद में आती है, अत: कानों के रन्ध्रों में पहले दो अक्षर बाँये से दाँये की ओर अर्थात बाँयी ओर "ण" और दांये कर्ण में “मो" स्थापित होना चाहिये । नेत्र के रन्ध्रों में तृतीय एवं चतुर्थ अक्षर, नासिका के दोनों छिन्द्रों में पञ्च एवम् षष्ठम अक्षर तथा सातवें अक्षर 'ण" की स्थापना रसना इन्द्रिय के रन्ध्र मार्ग में की जानी चाहिये ऐसा प्रतीत होता है लेकिन इन्होंने अपनी इस कल्पना को ठोस रूप से प्रगट नहीं किया है मात्र अपना विचार प्रगट किया है । * अगर इस मन्त्र को तत्व की दृष्टि से देखा जाये तो "ई" और "र" अग्नि बीज हैं, "अ" और "ता" वायु बीज हैं, 'ह', 'मो' और 'ण' आकाश बीज हैं । अर्थात् इस पद में अग्नि, वायु और आकाश तीनों + सप्ताक्षर महामन्त्रं मुख-रन्ध्रेषु सप्तसु।। ___ गुरूपदेशतो ध्यायेदिच्छन-दूरश्रवादिकम् ।। (तत्त्वानुशासन १०४) * वही पृ० १०४ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१८३) तत्त्व मौजूद हैं । अग्नि तत्त्व अशुभ कर्मो को निर्जरा करता है और वायु तत्त्व निर्जरा किये हुए कर्मों की राख को उड़ाकर साफ कर देता है और आकाश तत्त्व साधक के चारों ओर एक कवच का निर्माण करके उसकी शक्ति को बढ़ाता है जिससे सांसारिक विकार उसकी आत्मा, मन और शरीर में प्रवेश न कर सके। मन्त्रशास्त्रों में इस पद का रंग श्वेत बतलाया गया है और साधक को इसी रंग को ध्यान में रखकर इस पद का ध्यान करना चाहिये क्योंकि श्वेत रंग शान्ति, समता, शुभ्रता एवं सात्त्विकता आदि का प्रतीक माना गया है। आचार्य शुभचन्द्र ने भी इस सात अक्षर वाले "णमो अरहंताण" पद का ध्यान करने के लिए कहा है कि जो प्राणी इस संसार रूपी अग्नि से दुखी हैं उन्हें इस पद का ध्यान करना चाहिये । णमो सिद्धाण : मंत्रशास्त्र की दष्टि से ये बीजाक्षर है। तत्त्व की दृष्टि से 'णमो" और “ण” आकाश तत्त्व, "स" और "द" जल तत्व, "ध'' पृथ्वी तत्व और “इ” अग्नि तत्व माना गया है इस प्रकार से इस पद में पृथ्वी. अग्नि, जल और आकाश ये चारों तत्व मौजूद हैं। इस पद में दो नासिक्य अर्थात अनुनासिक वर्ण भी हैं, मंत्रशास्त्र में अनुनासिक वर्गों का बहत अधिक महत्व माना गया है, क्योंकि इन वर्गों के उच्चारण के समय ध्वनि तरंगे सीधी ब्रह्मरंध्र तथा मस्तिष्क के ज्ञानवाही और क्रियाशील तन्तुओं से टकराती है जो अत्यधिक शक्ति को उत्पन्न करने वाले होते हैं । इस पद में “ण” एवं अनुस्वार (') ये दोनों विशिष्ट शक्ति को उत्पन्न करते हैं । इस पद में 'ध' वर्ण धारण शक्ति को प्रबल करता है और 'द' दमन, दान आदि की ओर इशारा करता है। इस पद में जल तत्त्व होने के कारण यह शीतलता को प्रदान करता है। साधक को इस पद का ध्यान लाल रंग में करना चाहिए। यदि साक्षात्समुश्विग्नो जन्मदावोग्रसंक्रमात्।। तदा स्मरादिमन्त्रस्य प्राचीनं वर्ण सप्तकम् ॥ (ज्ञानार्णव ३८/८५) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८४)मैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन णमो आयरियाणं : ___ इस पद के पांच वर्ण अनुनामिक हैं। इसमें णमो' और ण' आकाश तत्त्व के अन्तर्गत आते हैं । 'आ' 'य' और 'या' वायु तत्व हैं तथा 'रि' अग्नि तत्त्व है । अर्थात् इस पद में वायु, आकाश एव अग्नि तत्त्व मौजद हैं। मंत्रशास्त्रों में इस पद का रंग पीला माना गया है, इसीलिए साधक को इसकी साधना पीले रंग में करनी चाहिये। पीला रंग ज्ञानवाही तन्तुओं को और अधिक संवेदनशील करके शक्तिशाली बनाता है। इस पद में पाँच नासिक्य अर्थान् अनुनासिक स्वरों के होने से इसकी महत्ता अत्यधिक बढ़ जाती है। साधारण मन्त्रों की अपेक्षा ये मन्त्र जपने से साधक के मन मस्तिष्क में सहस्त्रगुनी ऊर्जा उत्पन्न होती है। णमो उवज्झायाणं : इस पद में 'णमो' एवं ण' आकाश तत्त्व हैं तथा 'उ' और ' पृथ्वी तत्त्व के अन्तर्गत आते हैं । जल तत्व 'व' एवं 'झा' हैं तथा 'य' वायु तत्त्व है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस पद में आकाश, पथ्वी, जल एवं वायु तत्व के रूप में चार तत्व मौजूद हैं लेकिन शेष एक अग्नि तत्व मौजद नहीं है इसीलिए यह पद साधक को अत्यधिक शीतलता प्रदान करने वाला है। इन चारों तत्त्वों के एक साथ मौजद होने से इस पद का रंग आकाश की भाँति हल्का नीला माना गया है। साधक को इस रग को ध्यान में रखकर ही इसकी साधना करनी चाहिये। यह पद साधक में क्षमाशीलता के भाव का विकास करता है णमो लोए सव्वासाहणं : तत्त्व की दष्टि से इस पद में णमो' 'ह' एवं 'ण' ये आकाश तत्त्व हैं, और 'लो' पृथ्वी तत्त्व है । वाय तत्त्व के अन्तर्गत 'ए' वर्ण आता है तथा जल तत्त्व 'स', 'व्व', 'सा' वर्ण हैं, अर्थात इस पद में आकाश, वायु. जल एवं पृथ्वी ये चार तत्त्व आते हैं लेकिन आकाश तत्त्व की अधिकता है क्योंकि इसमें आकाश तत्त्व के चार वर्ण मौजूद हैं। इसलिए इस तत्त्व की अधिकता से एवं ज्यादा प्रभाव होने के कारण इस पद का रंग काला माना गया है क्योंकि आकाश का रंग भी गहरा नीला या काला माना Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण (१८५) जाता है, किन्तु एक बात और गौर करने वाली है वह यह कि इस पद में पृथ्वी एवं जल तत्त्व भी काफी मात्रा में स्थित है इसलिए इस पद का वर्ण एकदम काला न मानकर कस्तूरी के समान माना गया है । यद्यपि साधारणतया लोक मान्यता के अनुसार श्याम रंग अप्रशस्त माना गया है किन्तु योग ध्यान की विधि में श्याम रंग को बहुत अधिक महत्व दिया गया है । इस पद के ध्यान से साधक इन्द्रिय एवम् मनोविजेता बन जाता है जिससे उसकी प्राणधारा शुद्ध होती है और चेतना धारा का ऊर्ध्वारोहण होता है । इस प्रकार इन नवकार मन्त्र की साधना से साधक अपने सभी कर्मों का क्षय करके, दिव्य शक्ति को विकसित करके एवं ज्ञान शक्ति का विकास करके, आचार शुद्धि करके एवं स्मरण शक्ति को प्रखर बनाकर, काम वासना आदि की इच्छा को समाप्त करके, अतीन्द्रिय ज्ञान एवं प्रतिभा को प्राप्त करता है एवं अमृत के तुल्य अनुपम रस का पान करता है । वृहद्रव्य संग्रह में इस मन्त्र को पैंतीस अक्षरों वाला मंत्र पद माना गया है जिसे णमोकारमंत्र, मूल मन्त्र तथा अपराजित मन्त्र भी कहा गया है । इन मन्त्रों के अतिरिक्त और भी ऐसे कई मन्त्र हैं जिनका नित्य जप करने से साधक को शान्ति की प्राप्ति होती है एवं उसके कर्मों का क्षय होता है । इन्हीं मन्त्रों में एक सोलह अक्षरों वाले एक मन्त्र को सोलह अक्षरी विद्या कहकर उसका ध्यान करने के लिए साधक से कहा गया है । वह सोलह अक्षरी विद्या यह है"अहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसवं साधुभ्यो नमः ।" इस विद्या को एकाग्रचित होकर दो सौ बार जाने से एक उपवास का फल मिलता है। वृहद्रव्यसंग्रह में सोलह वर्ण वाला पद या मन्त्र दूसरा ही कहा गया है वहाँ + पण तीम सोल छप्पण चदु दुगमेगं च जवह झाएह । परमेट्ठिवाचयाणं अण्ण चं गुरुवए सेण । ( वृहद्रव्य संग्रह ४६) स्मर पञ्चपदोद्भूतां महाविद्यां जगन्नुताम् । गुरुपञ्चक नामोत्थां षोडशाक्षरराजिताम् ३८/४८-४९) 11 ( ज्ञानार्णव Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन "अरिहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय साहू" को सोलह अक्षरी मन्त्र कहा है 1+ 'अरहन्त सिद्ध' यह छह अक्षर वाला मन्त्र तीन सौ बार जपने से साधक एक उपवास के फल को प्राप्त करता है । चार अक्षर वाला मन्त्र 'अरहन्त' माना गया है जो धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप फल को देने वाला है । दो अक्षरों का मन्त्र है- 'सिद्ध' जो समस्त क्लेशों का नाश करके मोक्ष को देने वाला है तथा एकाक्षरी मन्त्र 'अ' है जो पाँच सौ बार जपने से एक उपवास का फल देता है । - इसी प्रकार 'ॐ ह्रां ह्रीं हूँ ह्रीं इ :' 'अ सि आ उ सा नमः' ये पाँच अक्षरी विद्या के निरन्तर अभ्यास से साधक मन को वश में करके संसार रूपी बन्धन को शीघ्र काट देता है एवं एकाग्र चित्त से मंगल, उत्तम पदों का जप करता हुआ मोक्ष को प्राप्त करता है। ... साधक को मन्त्र पदों के स्वामी 'अ सि आ उसा' को ज्योतिषमान् रूप में ध्याने के लिए कहा गया है । वे 'अ' को अरहन्त, 'सि' को सिद्ध, 'आ' को बाचार्य, 'उ' को उपाध्याय, 'सा' को साधु मानते हैं । * इनको ध्याने के लिए 'अ' अक्षर को नाभि कमल में, 'सि' + वृहद्रव्यसंग्रह, पृ० २०३ विद्यां षड्वर्गसम्भूतामजय्यां पुण्यशालिनीम् । जपन्प्रागुक्तमभ्येति फलं ध्यानी शतत्रयम् ।। (ज्ञानार्णव ३८ / ५० ) - ... (क) वही ३८ / ५२-५३ (ख) वृहद्रव्यसंग्रह, टी० ४६ (क) पंचवर्णमयी पंचतत्त्वा विद्याद्धृता श्रुताम् । अभ्यस्यमाना सततं भवक्लेशं निरस्यति । मंगलोत्तम - शरण - पदान्यव्यग्र - मानसः । चतुश्रमाश्रमाण्येव स्मरन् मोक्षम् प्रपद्यते ।। (योगशास्त्र ८/४१-४२) (ख) पंचवर्णमयीं विद्यां पञ्चतस्वोपलक्षिताम् । मुनिवीरैः श्रुतस्कन्धाजबीबुद्ध्या समुद्धृताम्।। (ज्ञानाणंव ३८ / ५५-५७) * हृत्पंकजे चतुष्पत्रे ज्योतिष्मन्ति प्रदक्षिणम् । अ-सि-आ-उ-साऽक्षराणि ध्यैमानि परमेष्ठिनाम्॥(तत्त्वानशासन १०२ ) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१८७) को मस्तक कमल पर, 'आ' को कंठस्थ कमल में 'उ' को हृदय कमल पर एव 'सा' को मुखस्थ कमल पर ध्याने के लिये, ये स्थान निर्धारित किये गये हैं।+ ज्ञानार्णव में माया वणं 'ह्रों' का भी चिन्तवन करने के लिए कहा गया है । यह माया वर्ण चन्द्रमा की कान्ति के समान है। इस मन्त्र को देव दैत्य आदि सभी पूजते हैं। इसको ध्याने से साधक श्रीमत्सर्वज्ञ देव का प्रत्यक्ष दर्शन कर लेता है ।- एक अन्य विद्या 'क्ष्वी' का भी चिन्तवन करने का विधान है। इस विद्या को भाल प्रदेश पर स्थिर करके निश्चल मन से ध्यान करने पर साधक समस्त कल्याण के समूह को प्राप्त कर लेता है । इन मन्त्रों के अतिरिक्त और भी कई मन्त्र हैं । जिनके ध्यान से साधक मोक्ष पद को प्राप्त करता है । वे मन्त्र इस प्रकार से हैं'ॐ अहंत् सिद्ध सयोग केवली स्वाहा ।', 'ॐ ह्रीं श्रीं अहं नमः ।', 'नमः सर्व सिद्धेभ्यः ।', 'ॐ जोग्गे मग्गे तच्चे भूदे भव्वे भविस्से अक्खे पक्खे जिणपारिस्से स्वाहा ।, ॐ ह्रीं स्वहं नमो नमोऽहंताणं ह्रीं नमः'। एवं 'नमो नाणस्स', 'नमो दसणस्स', 'नमो चरित्तस्स', 'नमोतवस्स'। 'एसो पंच णमोकारो, 'सव्व पावप्पणासणो', 'मंगलाणं च सव्वेसिं', 'पढमं हवइ मंगलं' इत्यादि। + स्मर मन्त्रपदाधीशं मुक्ति मार्ग प्रदीपकम् । नाभिपङकज संलीनमवर्णविश्वतोमुखम् ।। सिवर्ण मस्ताम्भोजे साकारं मुखपङ कजे । आकारं कण्ठकजस्थं स्मरोकारं हृदिस्थितम् ।। (ज्ञानार्णव ३८/१०८-१०६) -- प्रोद्यत्सपूर्ण चन्द्राभं चन्द्र बिम्बाच्छनै शनैः । समागच्छत्सुधाबीजं मायावणं तु चिन्तयेत् ॥ (ज्ञानार्णव ३८/६७-८०) x अविचलमनसा ध्यायल्ललाटदेशे स्थितामिमां देवीम् । प्राप्नोति मुनिरजस्र समस्तकल्याणनिकुरम्बम् ।। (वहो ३८/८२) विद्याक्ष्वाँ इति मालस्थां ध्यायेत्कल्याणकारकम् । (योगशास्त्र ८/५७) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन इस प्रकार पदस्थ ध्यान में चित्त को एकाग्र करने के लिए पदों अर्थात् मन्त्रों एवं बीजाक्षरों का सहारा लिया जाता है जो मुक्ति की कामना करने वाले हैं उनके लिए मन्त्र रूपी पदों का अभ्यास करने के लिए कहा गया है, इन मन्त्रों के अभ्यास से साधक के समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है एवं उसके लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि के साथ-साथ मोक्ष पद की प्राप्ति हो जाती है । रूपस्थ ध्यान : 'रूप' शब्द के अनेक अर्थ हैं, कहीं तो उसका तात्पर्य नेत्रों द्वारा ग्रहण किये गये गुण से है तो कहीं स्वभाव से है लेकिन ध्यान योग के सम्बन्ध में इसका अर्थ अलग ही निकाला गया है वहाँ 'अन्तरंग शुद्धात्मानुभूति की द्योतक निर्ग्रन्थ एव निर्विकार साधुओं की बीतराग मुद्रा को रूप कहा गया है ।" और रूपस्थ ध्यान अर्थात् रूपयुक्त तीर्थंकर आदि इष्ट देव का ध्यान करना रूपस्थ ध्यान कहलाता है। इस ध्यान में साधक तीर्थंकर आदि के गुणों एवं आदर्शो को अपने समक्ष रखकर उनके स्वरूप का सहारा लेकर जो ध्यान करता है वही ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है। - इसमें योगी तीर्थंकर के नाम एवं उनके उज्ज्वल धवल प्रतिबिम्ब का ध्यान करता है । .... आकाश और स्फटिक मणि के समान स्वच्छ अपने शरीर की प्रभा रूपी जल निधि में लीन तथा जिनके चरण मनुष्य एवं देवों के मुकुट में लगी हुए मणियों से अनुरंजित हैं एवं जो माठ महाप्रतिहार्यों से घिरे हुए हैं ऐसे अरहन्त भगवान का ध्यान ही - + ज्ञानार्णव ३८/९१६ । र अन्तरङगशुद्धात्मानुभूति रूपकं निर्ग्रन्थं निर्विकारं रूपमुच्यते। (प्रवचनसार, ता. वृ. २०३/२७६/८) -- अर्हतो रूपमालम्ब्य ध्यानं रूपस्थमुच्यो । (योगशास्त्र ६/७) ... तव नामाक्षरं शुभ्र प्रतिबिम्बं च योगिनः । ध्यायतो भिन्नमीशेदं ध्यानं रूपस्थ मीडितम् ॥ (ध्यानस्तव ३१) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१८६) रूपस्थ ध्यान कहलाता है।+ जिन अरहन्त देव से अनन्तज्ञान, दर्शन दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र इन नौ लब्धि रूपी लक्ष्मी की उत्पत्ति हुई है एवं जो सर्वज्ञ है, दाता हैं, सर्व हितैषी हैं, वर्धमान हैं, निरामय हैं, नित्य हैं, अव्यय हैं, अव्यक्त हैं, एवं पुरातन हैं, ऐसे तीर्थकर का स्मरण करके जो ध्यान साधका करता है वही ध्यान रूपस्थ ध्यान है । सर्वचिद्रूप का चिन्तवन रूपस्थ ध्यान है। - इस ध्यान में वीतरागी का ही ध्यान करना चाहिये क्योंकि जब साधक वीतरागी का ध्यान करता है तो वह वीतरागी बन जाता है और रागी का चिन्तन करने से वह स्वयं भी रागी बन जाता है =, क्योंकि जिन-जिन भावों से वह जीव जूड़ता है वह उन्हीं भावों से तन्मयता को प्राप्त हो जाता है। + (क) वसुनन्दि श्रावकाचार ४७२-४७५ (ख) गुणभद्र श्रावकाचार २४२ (ग) ज्ञानार्णव ३६/१-८ (घ) शास्त्रसारसमुच्चय २०३ नवके वललब्धि श्री संभवं स्वात्मसंभवम् । तुर्यध्यान महावह्नौ हुतकर्मेन्धनोत्करम् ।। रत्नत्रयसुधास्यन्दमन्दीकृत भवश्रमम् । वीतसगं जितद्वतं शिवं शान्तं सनातनम् ॥ अहन्तमजमव्यक्तं कामदं कामनाशकम् । पूराण पुरुषं देवं देव देवं जिनेश्वरम् ॥ ज्ञानार्णव ३६/२४-३१ ।। - रूपस्थं सर्वचिद्रूपं । (वहद्रव्यसंग्रह ४८/२०१) -- (क) वीतरागो विमुच्येत वीतरागं विचिन्तयन् । रागिणं तु समालम्ब्य रागी स्यात् क्षोभणादिकृत ॥ (योग शास्त्र ९/१३) (ख) एष देवः स सर्वज्ञः सोऽहं तपतां गतः । तस्मात्स एब नान्योऽहं विश्वदर्शीति मन्यते ॥ (ज्ञानार्णक ३९/४३) * येन येन हि भावेन युज्यते यन्त्रवाहकः । तेन तन्मयतां याति विश्वरूपो मणिर्यथा।। (योगशास्त्र ६/१४) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन __ रूपस्थ ध्यान को करने वाला साधक सर्वज्ञ देव की आराधना करके जो संसार को दुर्लभ है ऐसे मोक्ष पद को प्राप्त होता है, वह सभी अवस्थाओं में उस परमेष्ठी को देखता है ।.... रूपातीत ध्यान : . रूपातीत-रूप और अतीत मिलकर बना है। "रूप" का अर्थ हैमूर्तिमान पदार्थ सहित पुद्गल दृश्यमान पदार्थ और 'अतीत' का अर्थ है-रहित । अर्थात् शुद्ध चैतन्य ज्ञानानन्दघन स्वरूप आत्मा-शद्धात्मा । इस प्रकार का आत्मा जो द्रव्यकर्म, भाव कम ओर नौ कम से रहित हो ऐसे निरञ्जन स्वरूप का ध्यान रूपातीत ध्यान कहलाता है। A इस ध्यान में साधक चिदानन्दमय, शद्ध, अमूर्त परमाक्षर आत्मा को आत्मा से ही ध्याता है । x रूपातीत ध्यान परमात्मा का शुद्ध रूप ध्यान है, इसमें मुनि अपनी आत्मा को ही परमात्मा समझ कर स्मरण करता है । ध्यानी सिद्ध परमेष्ठी के ध्यान का अभ्यास करके शक्ति की अपेक्षा से अपने आपको भी उनके समान जानकर अपने आपको उनके ही समान व्यक्त रूप करने के लिए उनमें लीन होता है और .... यमाराध्य शिवं प्राप्ता योगिनो जन्मनिस्पृहाः । यं स्मरन्त्यनिशंभव्याः शिवश्रीसगमोत्सुका: ॥ ज्ञानार्णव ३६/३३-३६) A (क) “रूपातीतं निरुजनम् । (वृहद्रव्यसंग्रह ४८/२०१) (ख) परमात्म प्रकाश १/६/६ (ग) गुणभद्रश्रावकाचार २४३ x (क) चिदानन्दमयं शद्धममूर्त परमाक्षरम् । स्मरेद्यत्रात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते ॥ (ज्ञानार्णव४०/१६) । (ख) वण्ण-रस-गंध-फासेहिं वज्जिओ णाण-दसणसरूवो। ज झाइज्जइ एवं तं झाणं रुवरहियंति ।। (वसुनन्दि भावका चार ४७६) (ग) योगशास्त्र १०/१ (घ) रूपातीतं भवेत्तस्य यस्त्वां ध्यायति शुद्ध धीः । आत्मस्थं देहतो भिन्नं देहमात्र चिदात्मकम् ॥ (ध्यानस्तव ३२) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण (१६१) अपने कर्मों का नाश करके व्यक्त रूप परमेष्ठी हो जाता है ।+ इस ध्यान में ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता हो जाती है और इसी एकता को समरसीभाव भी कहते हैं । यह ध्यान निरालम्ब ध्यान के अन्तर्गत आता है नयोंकि इसमें न तो किसी प्रकार का मन्त्र जप होता है और न ही किसी चीज का अवलम्बन । रूपातीत ध्यान का आलम्बन अमूर्त-आत्मा का चिदानन्दमय स्वरूप होता है, इसका साधक आत्मा के ज्ञान-दर्शन-चारित्र-सुख आदि गुणों में अपनी चित्त वृत्ति को स्थिर कर लेता है । इस ध्यान को मानने का आधार निश्चय-नय है । पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ये तीनों ध्यान सालम्बन ध्यान के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि इन ध्यानों में आत्मा से भिन्न वस्तुओं-जैसे मन्त्र, अप आदि का आलम्बन लिया जाता है। प्रारम्भ में साधक को सालम्बन ध्यान को रोकने के लिए कहा गया है क्योंकि इस ध्यान में एक स्थूल आलम्बन होता है जिससे साधक का मन एकाग्र होकर चिन्तन करता है। इससे ध्यान सुविधाजनक हो जाता है । जब साधक या मुनि इस ध्यान में परिपक्व हो जाते हैं, तब निरालम्बन ध्यान को ध्याने की योग्यता उसमें आ जाती है और वह इस निरालम्बन ध्यान अर्थात् रूपातीत ध्यान का चिन्तन कर सकता है । इसीलिए आचार्यों ने पहले सालम्बन ध्यान का अभ्यास करने के लिए कहा है और जब साधक इस ध्यान में सध जाये तो उसे छोड़कर निरालम्बन ध्यान के अभ्यास को कहा है।क्योंकि स्थल से सूक्ष्म, सविकल्प से निर्विकल्प और सालम्बन से निरालम्बन की ओर ही जाया जाता है, यह तो सर्व सम्मत है। + (क) तद्गुणग्रामसंपूर्ण तत्स्वभावकभावितः । कृत्वात्मानं ततो ध्यानी योजयेत्परमात्मनि ।। (ज्ञानार्णव४०/१९) (ख) सहज सुख सहजबोधं । सहजात्मकवेनिप काष्के एंबीनलविं। सहजमेने नेलसिनिंदी। वहलतेयिंददविनाश रूपातीतं ॥ (शास्त्रसार समुच्चय २०४) योगशास्त्र १०/३-४ (क) ज्ञानसार ३७ (ख) योगशास्त्र १०/५ - Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन धर्म ध्यान के अन्य भेद : धर्म ध्यान के इन चार भेदों प्रभेदों के अलावा अन्य छ: भेद और भी बतलाये गये हैं, लेकिन इन भेदों का वर्णन हर जगह नहीं मिलता है ऐसे कुछ ही ग्रन्थ हैं जिन्होंने इनका स्वरूप दर्शाया है। + वे अन्य भेद कुछ इस प्रकार से हैं-उपाय विचय, जीव विचय, अजीव विचय, विराग विचय, भव विचय, हेतु विचय। उपाय विचय धर्म ध्यान : पुण्य रूप योग की प्रवृत्तियों को अपने आधीन करना उपाय कहलाता है और यह उपाय मेरे किस प्रकार से हो सकता है इस प्रकार के संकल्प को करके जो चिन्तवन होता है, वह उपाय विचय धर्मध्यान कहलाता है। मोक्षार्थी पुरुष अपने मन-वचन-काय को शुद्ध करने के लिए चिन्तन करते हैं कि किस प्रकार से मेरे मनवचन-काय शुभ हो जायेंगे और कैसे मेरे कर्मों का आस्व मकेगा, ऐसा ध्यान करना ही उपाय विचय धर्मध्यान है। जीव विचय धर्मध्यान : यह जीव ज्ञान दर्शन उपयोग वाला है। द्रव्याथिक नय से जीव अनादि अनिधन है। अपने द्वारा सम्पादित शुभाशुभ कर्मों का फल वह स्वयं भोगता है एव अपने द्वारा प्राप्त सूक्ष्म एवं स्थूल शरीर को + (क) हरिवंशपुराण ५६/३८-५० (ख) शास्त्रसार समुच्चय ५६ 1 उपाय विचयं तासां पूण्यानामात्मसात्क्रिया। उपायः स कथं मे स्यादिति सवरूप सन्ततिः ॥ (हरिवंश पुराण = (क) मनोवाक्काययोगादि प्रशस्तं में भवेत्कथम् । कर्मास्रवविनिष्क्रान्तं ध्यानेनाध्ययनेन वा ।। इत्यु'पायोऽत्र तच्छ द्धयै चिन्त्यते यो मुमुक्षुभिः । नानोपायैः श्रुताभ्यासरुपार्यावचयं हि तत् ।। (मूलाचार प्रदीप ६/२०४८-४६) (ख) चारित्रसार १७३/३ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धमंध्यान का वर्गीकरण[१६३] वह स्वयं ही धारण करता है। संकोच विस्तार तथा ऊर्ध्वगमन करने वाला भी स्वयं ही है इस प्रकार जीव की विविध दशाओं का ध्यान करना जीव विचय धर्म ध्यान कहलाता है। + यह जीव अत्यन्त सूक्ष्म है, असंख्यात प्रदेशी है और कर्मों के अधीन होकर इस जाम-मरण रूप संसार में निरन्तर आवागमन करता रहता है । अजीव विचय धर्मध्यान : धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पाँचों अजीव द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप का चिन्तन करना अजीव विचय धर्मध्यान है।योगी लोग इन पांचों अजीव द्रव्यों के स्वरूप के चिन्तन के साथसाथ उनके उत्पाद व्यय ध्रौव्य गुणों के द्वारा चिन्तन करते हैं ।विराग विचय धर्म ध्यान : यह शरीर अनित्य है, अशरण है, वात, पित्त, कफ से दोषमय है । रक्त, रस, माँस मेदा, हड्डी, मज्जा तथा वीर्य इन सात धातुओं से भरा हुआ है एवं मूत्रादि भिष्टा पदार्थो का घर है, इसके भोग किंपाक फल के समान तत्काल सुन्दर तथा फल काल में भयानक + (क) अनादि निधना जीवा द्रव्यार्थादन्यथान्यथा । असख्येय प्रदेशास्ते स्वोपयोगत्व लक्षणाः ॥ अचेतनोपकरणाः स्वकृतोचित्त भोगिनः । इत्यादि चेतना ध्यानं यज्जीव विचयं हित त् ॥ [हरिवंश पुराण ५६/४२-४३) सूक्षमसंख्यप्रदेशोऽत्रपराधीनोऽनिशंभमेत् । [मूलाचार प्रदीप ६/२०५१] चारित्रसार १७३/५ -- द्रव्याणाप्यजीवानां धर्माधर्मादिसंज्ञिनाम् । स्वभाव चिन्तनं धय॑मजीवविचयं मतम् ॥ (हरिवंशपुराण ५६/४४) = धर्मा धर्मनभ: कालपुद्गलानां जिनागमे । अचेतनमयानां च धर्मध्यानाय योगिनाम् ।। अनेक गुण पर्यायैः स्वरूपचिन्तनं हृदि।। ध्रौव्योत्पादव्ययैर्यत्तदजोवविचयं परम् ॥ (मूलाचार प्रदीप ६/२०५२-५३) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन विषैले हैं, अत: इनसे विरक्त बुद्धि होना परमावश्यक है । यह संसार भी अनंत दुःखों से भरा हुआ है और सुख से सर्वथा दूर है ऐसा विचार करना विराग विचय धर्मध्यान है।* भव विचय धर्म ध्यान : चारों गतियों में भ्रमण करने वाले इन जीवों को मरने के बाद जो पर्याय होती है वह भव कहलाता है यह भव दुःखरूप है इस प्रकार का चिन्तवन करना भव विचय धर्म ध्यान कहलाता है। इस संमार में कर्मो के जाल में फंसे हुए प्राणी अपने कर्मो के उदय से अनेक प्रकार की योनियों में निरन्तर घूमते रहते हैं ऐसा चिन्तवन करना भव विचय धर्मध्यान है।..सम्यदर्शन, सम्यकचारित्र के बिना यह जीव इस अनन्त संसार में भव धारण करता है ऐसा ध्यान करना भवविचय धर्म ध्यान है। हेतु विचय धर्म ध्यान : सूक्ष्म परमागम में यदि कहों भेद प्रतीत हो तो उसे प्रमाण, नय, *(क) शरीरमशुचिर्भोगा किंपाकफल पाकिनः ।। विरागबुद्धिरित्यादि विरागविचयं स्मृतम् ॥ (हरिवंश पुराण ५६/४६) (ख) चारित्रसार १७१/१ (ग) अनन्दुः खसम्पूर्णात्संसाराच्चसुखच्युतात् । विरक्तिः या सतां चित्ते विराग विचयं हि तत् ।। (मूलाचार प्रदीप ६/२०५७) x (क) प्रेत्यभावो भवोऽमीषां चतुर्गतिषु देहिनाम् । दुःखात्मेत्यादि चिन्ता तु भवादि विचयं पुनः ।। (हरिवंश पुराण ५६/४७) (ख) चारित्रसार १७६/१ ... अनन्तदुखसंकीर्णे भवेनादौ सुखातिगे। सचित्ताचित्तमिश्रादिनानायोनिषुकर्मभिः ।। भ्रमन्ति प्राणिनोश्रान्तंकर्मपाशवृता इति । । भवभ्रमण दुःखानुचिन्तनंध्यानसप्तमम् ॥ (मूलाचार प्रदीप ६/२०५८-५६) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१६५) निक्षेप, सूयूक्ति से दूर करना, स्वसमयभूषण पर समय दूषण रूप से चिन्तन करना हेतु विचय धर्म ध्यान कहलाता है । भगवान् सर्वज्ञ देव के कहे हए पदार्थो को जो संसार भर में स्थापित कर देते हैं या उनके यथार्थ स्वरूप को अपने हृदय में स्थापित कर लेते हैं उनको हेतु विचय धर्मध्यान कहा गया है । धर्म ध्यान के गुणस्थान एवं स्वामी : धर्मध्यान के स्वामी के विषय में विद्वानों में परस्पर मतभेद रहा है जैसे तत्त्वार्थ सूत्र में अप्रमत्तसंयत, उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय से उसका सद्भाव प्रगट किया गया है → यहां "अप्रमत्तसंयतस्य" से उसके केवल सातवे गुण स्थान को ही ग्रहण किया गया है, उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय शब्दों से ग्यारहवाँ एवं बारहवाँ ये दो गुणस्थान पता चलते हैं ऐसे में आठवें, नवें एवं दसवें गुणस्थानों में कौन सा ध्यान होता है यह स्पष्ट नहीं होता और यही बात ध्यान देने योग्य है। ध्यानशतक में भी लगभग ऐसा ही वर्णन प्राप्त होता है वहाँ पर भी अप्रमतसंयत से लेकर सूक्ष्म साम्पराय तक सभी साधक धर्मध्यानी कहे गये हैं लेकिन उपशान्तमोह और क्षीणमोह का अलग से वर्णन किया है।ॐ धवला में धर्म ध्यान के स्वामियों का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है । वहाँ धर्म ध्यान की प्रवृत्ति असंयतसम्यगदृष्टि, संयतासंयत, प्रमतसंयत, अप्रमतसंयत, अपूर्वसंयत, अनिवृत्तिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायिक A (क) तर्कानुसारिणः पुंसः स्याद्वादप्रक्रियाश्रयात्। सन्मार्गाश्रयणध्यानं यद्धेतुविचयं हि तत् ॥ (हरिवंशपुराण ५६/५०) (ख)सर्वज्ञोक्ता: पदार्थाद्या: स्थापयन्ते यत्र भूतले। यथातथ्येनचित्तवा तद्धतुविचयाभिधम् ।। (मूलाचार प्रदीप ६/२०६५) (ग) चारित्रसार २०२/३ → तत्त्वार्थ सूत्र टीका ६/३८/४२२ ॐ सबप्पमायरहिया मुणओखीणोवसंतमोहा य । झायारो नाण-धणा धम्मज्झाणस्स णिदिदट्ठा ।। (ध्यान शतक ६३) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन क्षपकों व उपशमकों में होती है।+ आदिपुराण में धर्म ध्यान की स्थिति को आगम परम्परा के अनुसार सम्यग्दृष्टियों, संयतासंयतो और प्रमत्तसंयतों में स्वीकार करते हुए उसका परम प्रकर्ष अप्रमत्तों में माना गया है । ÷ वृहद्रव्य संग्रह टीका में धर्मं ध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत इन चार के माना गया है। तत्त्वानुशासन में भी अप्रमत्त (सप्तमगुणस्थान) प्रमत्त, (षष्ठगुणस्थान), देशसंयमी (पंचम गुणस्थान) और सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थान) ऐसे धर्म ध्यान के स्वामी माने हैं लेकिन वहाँ मुख्य व गौण रूप से दो प्रकार का धर्म ध्यान मानकर सातवें गुणस्थानवर्ती को मुख्य धर्म ध्यानी व चौथे, पांचवे, छठे स्थान वाला गौण धर्म ध्यानी माना गया है । — अमितगतिश्रावकाचार में भी असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुण - स्थानों में ही धर्मध्यान का भाव माना गया है । = + असंजदसम्मादिट्ठि - संजदासंजद - पमत्तसजद - अप्पमत्तसंजद - अपुव्वसंजदअणियट्ठिसंजद - सुहुमसां पराइयखवगोवसामएस धम्मज्झाणस्स प्रवृत्ती होदित्ति जिणोवएसादो । (धनला पृ० १३, पृ० ७४) - आदिपुराण २१/१५५-१५६ C चतुर्भेद भिन्नं तारतम्यवृद्धिक्रमेणासंयत सम्यग्दृष्टि- देशविरतप्रमत्त संयता - प्रमत्ताभिधान चतुर्गुणस्थानवति जीव सम्भवम् । (वृहद्रव्यसंग्रह टी०, पृ० १६८) अप्रमत्तः प्रमत्तश्च सदृष्टिर्देश संयतः । धर्मध्यानस्य चत्वारस्तत्वार्थेस्वामिनः स्मृताः ॥ मुख्योपचारभेदेन धर्म्यध्यानिमिह द्विधा । अप्रमत्तेषु तन्मुख्यमितरेष्वौपचारिकम् ।। (तत्त्वानुशासन ४६-४७ ) अनपेतस्य धर्मस्य धर्मतो दशभेदतः । चतुर्थः पंचमः षष्ठः सप्तमश्च प्रवर्तकः ॥ [ अमितगति श्रावकाचार [१५-१७] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१९७) ध्यान स्तव मे भी लगभग आदिपुराण की तरह ही धर्मध्यान के स्वामी का वर्णन किया गया है। ज्ञानार्णव में मुख्य और उपचार के भेद से धर्म ध्यान के स्वामी अप्रमत्त और प्रमत्त मुनि कहे गये हैं ।... हरिवंश पुराण में इस प्रसंग में केवल इतना ही कहा गया है कि प्रमाद के अभाव से उत्पन्न होने वाला वह अप्रमतगुणस्थान भूमिक हैअप्रमतगुणस्थान तक होता है । यहाँ यह नहीं कहा गया कि वह प्रथम से सातवें गुणस्थान तक होता है या केवल सातवें गुणस्थान तक IX इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अधिकांश ग्रन्थकारों ने केवल उन्हीं शब्दों द्वारा ही वर्णन किया है जो पहले से प्रचलित थे, लेकिन स्पष्ट वर्णन नहीं किया। N ... * मुख्यं धयं प्रमर्तादित्रये गौणं हि तत्प्रभो। धम्यंमेवातिशुद्धं स्थाच्छ क्लं श्रेष्योश्च तुर्विधम् ।। (ध्यानस्तव १६) .... मुख्योपचार भेदेन द्वौ मुनी स्वामिनी मती। - अप्रमत्त-प्रमत्ताख्यो धर्मस्येतौ यथायथम् ॥ (ज्ञानार्णव ३१) - हरिवंशपुराण ५६/५१ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिच्छेद शुक्ल ध्यान शक्ल ध्यान का लक्षण : शुक्ल ध्यान, योग ध्यान की सर्वोत्तम दशा है । इस ध्यान में चित्त की एकाग्रता और निरोध पूरी तरह से सम्पन्न होता है। साधक जिस लक्ष्य को लेकर योग मार्ग की प्रवृत्ति को अपनाता है वह उस लक्ष्य को प्राप्त करके पूर्णता को प्राप्त होता है। शुक्ल ध्यान के लिए अभी तक पूरी तरह से सामग्री प्राप्त नहीं हो पाई है, अत: आधुनिक लोगों के लिए उसका ध्यान असम्भव सा है । लेकिन परम्परानुसार उसका उल्लेख करना भी जरूरी माना गया है क्योंकि आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार किसी भी व्यक्ति को परम्परा का विच्छेद नहीं करना चाहिए।+ "शुचं क्लमयतीति शुक्लम्" इस निरुक्ति के अनुसार जो ध्यान शोक आदि दोषों को दूर करने वाला है वह शक्ल ध्यान है। आत्मा की अत्यन्त विशुद्ध अवस्था को शुक्ल ध्यान कहते हैं । जो निष्क्रिय हैं, इन्द्रियातीत हैं और ध्यान की धारणा से रहित हैं अर्थात् "मैं इसका ध्यान करू” इरा इच्छा से रहित है, वह शुक्ल ध्यान है।- जिसमें शचि गृण का सम्बन्ध है वह शुक्ल ध्यान है... जिस प्रकार से मैल के धुल जाने पर वस्त्र साफ हो जाता है उसी प्रकार निर्मल गुणों से युक्त आत्मा की परिणति भी शुक्ल है ।* जहाँ गुण + योगशास्त्र ९१/३-४ शुचं क्लमयतीति शुक्लम, शोकं ग्ल पतीत्यर्थः । (ध्यानशतक, १, टी.) - निष्क्रिय करणातीतं ध्यानधारणजितम्। अन्तर्मुखं च यच्चित्त तच्छ वलमिति पठ्यते ।। (ज्ञानार्णव ४२/४) शुचिगुणयोगाच्छ क्लम् । (सर्वार्थसिद्धि ६/२८/४४५/११) * यथा मलद्रव्यापायात् शुचिगुणयोगाच्छु क्लं वस्त्र तथा तद्गुणसाध ादात्मपरिणामस्वरूपमपि शवलमिति निरुच्यते ॥ (राजवार्तिक ६/२८/४/६२७/३१) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुवल ध्यान (१९९) विशुद्ध होते हैं तथा कर्मो का क्षय और उपशम होते हैं वहाँ लेश्या भी शुक्ल होती है उसे ही शुक्ल ध्यान कहा गया है। अपूर्वकरण आदि गुण स्थानों में जो उदासीन तत्त्वज्ञान होता है वह दोनों प्रकार के मल के नाश होने के कारण शक्ल ध्यान कहलाता है। यह ध्यान माणिक्य शिखा की तरह निर्मल और निष्कम्प रहता है । 4 समवायांग के अनुसार श्र त के आधार से मन की आत्यन्तिक स्थिरता एवं योग का निरोध शुक्ल ध्यान है । A जो शुचित्व अर्थात् शौच का अभिप्राय दोष आदि का अभाव हो जाना है ।= कषायमल का अभाव होने से शुक्लपना प्राप्त होता है ।+ ध्यान-ध्येय-ध्याता और ध्यान का फल आदि के विविध विकल्पों से विमुक्त, अन्तमुखाकार, समस्त इन्द्रिय समह के अगोचर निरंजन निज परमतत्व में अविचल x जत्थगुणा सविसुद्धा उपसम-खमण च जत्थ कम्माण । लेसा वि जत्थ सुक्का तं सुक्कं भण्णदे झाणं ॥ (कार्तिकेयानुप्रेक्षा, मूल, ४८३) ॐ तत्त्वज्ञानमुदासीनमपूर्वकरणादिषु । शुभाशुभ-मलाऽपायद्विशुद्ध शुक्लमभ्यधुः ।। शुचिगुण-योगाच्छु क्लं कषाय-रजसः क्षयादुयशमाद्वा । माणिक्य-शिखा-वदिदं सुनिर्मल निष्प्रकम्पं च ।। (तत्त्वानशासन २२१, २२२) A समवायांग ४ = शुक्लं शुचित्वसम्बन्धाच्छौचं दोषाद्यपोढता । (हरिवंश पुराण ५६/५३) + (क) कुदो एदस्स सुक्कत्तं कसायमलाभावादो। (धवला १३/५, ४, २६/७७/६) (ख) कषायमल विश्लेषात्प्रशमाद्वा प्रसूयते । - यतः पुंसामतस्तज्ज्ञैः शुक्लमुक्त मिरुत्तिकम् ।। (ज्ञानार्णव४२/६) (ग) मलरहितात्मपरिणामोद्भवं शुक्लं । (भावपाहुड टो० ७८/२२६/१८) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन स्थिति रूप वह निश्चय शुक्ल ध्यान है । → भगवती आराधना में कहा गया है कि धर्म ध्यान में परिपूर्ण हआ अप्रमत्त संयमी ही शुक्ल ध्यान करने में समर्थ होता है क्योंकि जब तक वह पहली सीढ़ी (अर्थात् धर्म ध्यानी नहीं हो जाता) नहीं चढ़ पाता तब तक दूसरी सीढ़ी चढ़ना असम्भव है। + .. शक्ल ध्यान की मर्यादायें : जिस तरह से धर्मध्यान की बारह प्ररूपणायें की गई हैं उसी प्रकार से शुक्ल ध्यान की भी बारह अधिकारों वाली प्ररूपणा है । उनमें भावना, देश, काल और आसन विशेष इन चार अधिकारों में धर्म ध्यान से कोई भी भिन्नता नहीं है, इसलिए इन चार अधिकारों का यहाँ वर्णन नहीं किया जा रहा है। बाकी के अधिकार ये हैंआलम्बन : ध्यान के सन्दर्भ में आलम्बन साधक के लिए सहायक रूप में होते हैं, जिनका सहारा लेकर साधक आत्मिक प्रगति की सीढ़ी चढ़ता हुआ शिखर पर पहुँचता है। बिना आलम्बन के साधक लड़खड़ा सा जाता है इसलिए आलम्बन का सहारा लेता है। आलम्बन चार प्रकार के हैं .... → (क) ध्यान ध्येयध्याततत्फलादि विविध विकल्पनिमुक्तान्तम खाकार निखिलकरण ग्राम गोचर निरंजन निजपरमतत्वाविचलस्थिति रूप शक्लध्यानम् ।। (नियमसार, ता व० १२३) (ख) स्वशुद्धात्मनि निर्विकल्पसमाधिलक्षण शुक्ल ध्यानम् । प्रवचन सार ता पृ० ८/१२) + इच्चेवमादिक्कतो धम्मज्झाणं जदा हवाइ खवओ। सुक्कज्झाणं झायदि तत्तो सुविसुद्धलेस्साओ । (भगवती आराधना १८७१) ध्यान शतक, वृत्ति ६८ .... [क] अह खंति-मद्दवऽज्जव-मुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ। आलंबणाइजेहिं सुक्कज्झाणं समारुहइ ॥ (ध्यानशतक ६६) (ख) भगवती शंतक २५/७ (ग) सूक्स्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पं.त-खंती मुत्ती मददवे अज्जवे (स्थानाङग, पृ० १८८) Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ल ध्यान (२०१) -क्षमा, २-मार्दव, ३-आर्जव और ४-मुक्ति। १-क्षमा :-शुक्ल ध्यानी साधक क्रोध विजेता होता है। क्रोध त्याग ही क्षमा है । कैसा भी क्रोध का प्रसंग आने पर शुक्लध्यानी के मानस में कभी भी क्रोध नहीं आता वह क्रोध कषाय पर विजय प्राप्त कर लेता है उसमें उत्तम क्षमा साकार हो जाती है। २-मार्दव :-शक्लध्यानी साधक मार्दव अर्थात् मान कषाय पर विजय प्राप्त कर लेता है। चाहे उसे कितना भी ज्ञान हो जाये लेकिन वह मान नहीं करता हमेशा मदु व्यवहार रखता है । ३-आर्जव :- शुक्ल ध्यानी साधक का चित्त अत्यन्त सरल होता है वह माया रूप कषाय का पूरी तरह से त्याग कर देता है। माया संसार के भवों को जननी मानी गयी है। ४-मुक्ति :- शक्ल ध्यानी साधक लोभी नहीं होता उसे किसी भी प्रकार का लोभ नहीं रहता वह पूरी तरह से इस कषाय से मुक्त रहता है। क्रम : शक्ल ध्यान करने वाला साधक क्रमशः महद् आलम्बन की ओर बढ़ता है। प्रारम्भ में उसके मन का आलम्बन सारा जगत् होता है । धीरे-धीरे अभ्यास को करते हुए वह एक सूक्ष्म वस्तु पर स्थिर हो जाता है और जब तक वह मोक्ष पाने की अवस्था में आता है तब तक उनके मन का कहीं भी अस्तित्व नहीं रह पाता + ध्यान शतक में उसके आलम्बनों को दृष्टान्त से बतलाया गया है। जैसे सारे शरीर में फैले हए विष को मंत्र के द्वारा डंक वाले स्थान में रोका जाता है और फिर उसे बाहर निकाल दिया जाता है उसी प्रकार से विश्व के सभी विषयों में फैले हुए मन को एक परमाणु में नरुद्ध किया जाता है और फिर उससे हटाकर आत्मस्थ किया जाता है । इसी बात को और भी दृष्टान्तों में कहा गया है जैसे लोहे + तिहुयण विसयं कमसो संखि विउ मणो अणुमि छउमत्थो । ___झायइ सुनिप्पकपो झाणं अमणो जिणो होइ । (ध्यानशतक ७०) जह सव्वसरीरगयं मंतेण विसं निम् भए डंके । तत्तो पुणोऽवणिज्जइ पहाणयरमंतजोगेणं ॥ तह तिहुयण-तणुविसयं मणोविसं जोगमंत बलजुत्तो। परमाणंमि निरुभइ अवणेइ तओवि जिण-वेज्जो।(ध्यानशतक७१/७२) Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन के गर्म बर्तन में डाला हुआ जल क्रमशः हीन हो जाता है उसी प्रकार से शुक्ल ध्यान का मन अप्रमाद से क्षीण हो जाता है । = महर्षि पतञ्जलि के अनुसार योगी का चित्त सूक्ष्म में निविशमान होता है, तब परमाणु स्थिर हो जाता है और जब स्थूल में स्थिर होता है तब परम महतु उसका विषय बन जाता है।ध्येय : ध्येय का अर्थ है ध्यान का विषय । शुक्ल ध्यान के ध्येय एक द्रव्य के पर्याय हैं। शक्ल ध्यान का विषय धर्म ध्यान की अपेक्षा अति सूक्ष्म है । शक्ल ध्यान का ध्येय पृथक्त्व-वितर्क सविचार और एकत्व-वितर्क अविचार इन दो रूपों में विभक्त है। इनमें पहला ध्येय भेदात्मक रूप है और दूसरा अभेदात्मक । ध्याता : शुक्ल ध्यान का ध्याता धर्म ध्यान के. ध्याता के समान ही होता है । शुक्ल ध्यानी अतिशय प्रशस्त संहनन, वज्रर्षभनाराच-संहनन से युक्त होते हुए श्रुतकेवली होते हैं। बाद के दो शुक्ल ध्यानों का ध्याता सयोग केवली और अयोग केवली होता है ।..... अनुप्रेक्षा :___ शुक्ल ध्यान से चित्त के सुसंस्कृत हो जाने पर एवं ध्यान के समाप्त हो जाने पर चारित्र से युक्त जो ध्याता है, वह चार अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता है। x वे चार अनुप्रेक्षा इस प्रकार = ध्यानशतक ७५ - पातञ्जल योगसूत्र १/४० .... एएच्चिय पुब्वाणं पुव्वधरा सुप्पसत्थसंघयणा । दोण्ह सजोगाजोगा सुक्काण पराण केलिणो ।। (ध्यानशतक ६४) x सुक्कज्झाण सुभाविय चित्तो चितेइ झाणविरमेऽवि। णिययमणुप्पेहाओ चत्तारि चरित्तसंपन्नो ।। (वही ६७). Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ल ध्यान (२०३) १-आस्थवद्वारापाय : इस अनुप्रेक्षा में साधक अनंत भव परम्परा का चिन्तवन करता है। वह मिथ्यात्व, अविरति और कर्मबन्ध के हेतु अर्थात आस्त्रव द्वार कौन-कौन से हैं और उनके सेवन करने से इस लोक में और परलोक में कौन-कौन से दुखों का जीव को सामना करना पड़ता है इस विषय का चिन्तन करता है। २-संसारासुखानुभव : इसमें साधक संसार के अशुभ रूप का गहराई से विचार करता है । वह मोचता है प्राणी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को प्राप्त करता है और यह क्रम चलता ही रहता है और इसी शरीर ग्रहण करने व छोड़ने को संसार कहते हैं, जो नरकादि चतुर्गतिस्वरूप है इनमें से किसी में भी सुख नहीं है, क्योंकि अभीष्ट वस्तु को प्राप्त कर लेने पर सुख की प्राप्ति होती है लेकिन वह सुख थोड़े ही समय के लिए होता है। जो सम्यग्दष्टि होते हैं वे किसी भी अवस्था के छ टने पर दुखी नहीं होते । इस प्रकार से संसार की असारता या दुःखरूपता का चिन्तन करना ही संसारासुखानुभव अनुप्रेक्षा है । ३-भवसन्तान की अनन्तता :___संसार के आवागमन के कारण मिथ्यात्व, राग, द्वेष एवं मोह आदि माने गये हैं। इनमें भी मिथ्यात्व को प्रमुख कारण माना गया है क्योंकि जब तक जीव मिथ्यात्व दष्टि वाला रहता है तब तक उसके लिए यह संसार अनन्त बना रहता है और जिसने मिथ्यात्व पर विजय प्राप्त कर ली है वह प्राणी अनन्त संसारी नहीं रहता अपित अधिक से अधिक अर्धपुद्गल प्रमाण संसार वाला हो जाता है। इस प्रकार का चिन्तन इस तीसरी अनुप्रेक्षा में किया जाता है। ४-वस्तु विपरिणामानुप्रेक्षा : इस अनुप्रक्षा में साधक वस्तुओं के परिणमनशील स्वभाव अर्थात् वस्तुओं के परिवर्तन के स्वभाव पर चिन्तन करता है। वह विचार करता है कि सभी वस्तुयें प्रतिपल प्रतिक्षम परिवर्तित होती रहती हैं, Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४]जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है । शुभ अशुभ में बदलती है और अशुभ शुभ में परिवर्तित होती रहती हैं। अतः सभी वस्तुएँ अहेयोपादेय हैं। इस अनुप्रेक्षा के चिन्तन करने से साधक की वस्तुओं की यहाँ तक कि अपने शरीर की भी आसक्ति छ ट जाती है। - इस प्रकार से ये चारों अनुप्रेक्षायें प्रथम दो शुक्ल ध्यानों से ही सम्बन्धित हैं अन्तिम दोनों शुक्ल ध्यानों में ये अनुप्रेक्षायें नहीं होती। लेश्या : शुक्ल ध्यान के पहले दो भेदों में शुवल लेश्या होती है और तीसरे भेद अर्थात् सूक्ष्मक्रिय-अनिवति शुक्ल ध्यान में परम शुवल होती है और चतुर्थ भेद समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति शुक्ल ध्यान लेश्या से अतीत अर्थात् रहित होता है । A क्योंकि यहाँ तो योग दशा में से आगे बढ़कर सर्वथा योगनिरोध अवस्था प्राप्त हो जाती है इसे 'शैलेशी' भी कहते हैं; शुक्लध्यान के लिड्.ग : लिड्ग का अभिप्राय चिन्ह अथवा लक्षण से है। शुक्लध्यान में चित्त लगा हो ऐसे मुनि की पहचान के लिए चार लिड्ग बतलाये गये हैं। वे इस प्रकार हैं १-अव्यथ, २-असम्मोह, ३-विवेक और ४-व्युत्सर्ग :-→ १-अव्यथ : शुक्ल ध्यानी साधक मानव, देव, तिर्यंच कृत उपसर्गों और सभी प्रकार के परीषहों को समभाव से सहने में सक्षम होता है। वह न तो * आसवादारावाए तह संसारासुहाणु भावं च। भव संताण मणन्तं वत्थूणं विपरिमाणं च।। (ध्यानशतक ८८) A सुक्काए लेसाए दो ततियं परमसुक्कलेस्साए। ____ थिरयांजियसेलेसि लेसाईयं परमसुक्कं ॥ (ध्यानशतक ८९) म अवहाऽसंमोह-विवेग-विउ सग्गा तस्स होंति लिंगाई। लिगिज्जइ जेहिं मुणी सुक्कज्झाणोवगयचित्तो ।। (वही १०) → ध्यानशतक ६१ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ल ध्यान (२०५) भयभीत होता है और न ही उनका प्रतिकार करता है और न ही अपने मन को विचलित करता है। २-असम्मोह :___ शुक्ल घ्यान के समय 'पूर्व' गत सूक्ष्म पदार्थ पर एकाग्रता होती है, तो वहाँ चाहे जितना गहन पदार्थ हो तब भी चित्त मोहित नहीं होता। उस साधक की श्रद्धा अचल होती है । देव, दानव, गन्धर्व, मानव, राक्षस कोई भी उसे उसकी श्रद्धा से नहीं डिगा सकता। ३-विवेक : शक्लध्यानी साधक अपनी आत्मा को देह से बिल्कुल भिन्न देखता है। उसका तत्व विषयक विवेक बहुत गहरा होता है वह जीव को जीव और अजीव को अजीव ही मानता है। आत्मा और शरीर की पृथक्ता का उसे पूर्ण विश्वास होता है। ४-व्युत्सर्ग : शुक्लध्यानी सभी आसक्तियों से विमुक्त होता है। वह शरीर तथा उपाधि से बिल्कुल नि:संग बनकर उसका सर्वथा त्याग करता है। उसमें भोगेच्छा और यशेच्छा किंचित् मात्र भी नहीं होती। चह निरन्तर अपने वीतराग भाव में निरत रहता है और उसे बढ़ाता जाता है । जो धर्मध्यान का फल होता है वही उत्कृष्ट स्थिति में पहुंचकर शुक्ल ध्यान का फल बन जाता है । प्रारम्भ के दो शक्ल ध्यान का फल धर्म ध्यान के फल के समान है इससे विपुल शुभास्त्रव, संवर, निजंरा और दिव्य सुख निष्पन्न होते हैं । अन्तिम दो शुक्ल ध्यान तो केवलज्ञानी को होते हैं । अतः इससे तो सर्व कर्मक्षय होने के कारण फल के रूप में मोक्ष गमन होता है । = + देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे । देहोवहि वोसग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ ।। (वही १२) ते य विसे लेण सुभासवाद ओऽणुत्तरामरसुहं च । दोण्हं सक्काण फलं परिनिव्वाण परिल्लाणं ।। (बही ६४) Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन शुक्ल ध्यान के भेद : साधक धर्म ध्यान का अभ्यास करते-करते शुक्ल ध्यान की अवस्था में पहुँचता है । धर्म ध्यान में उसके जो कम कषाय शेष रह जाते हैं वह शक्ल ध्यान में नष्ट हो जाते हैं। शक्ल ध्यान को परम समाधि की अवस्था भी कहा जाता है । इसके चार भेद बतलाये गये हैं जो कि शवल ध्यान के चार चरण कहे जाते हैं इसके प्रत्येक चरण से गुजरता हुआ साधक ऊपर उठता है । वे चार इस प्रकार से हैं-९-पृथक्त्व वितर्क सविचार, २-एकत्व वितक विचार, ३-सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती तथा ४-व्यूपरतक्रियानिति ।+ हरिवंश पुराण में शवलध्यान दो प्रकार का माना गया है पहला शक्ल और दूसरा परम शुक्ल । पृथक्त्व वितर्क विचार और एकत्व वितर्क अविचार । ये दोनों शुक्ल ध्यान के और सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती व व्यूपरतक्रि यानिवति ये दो परम शुक्ल ध्यान के भेद कहे गये हैं। योगशास्त्र में इसके चौथे भेद का नाम बदला हआ है वहाँ व्यूपरत क्रिया निवति के स्थान पर उत्सन्न-क्रिया प्रतिपाति कहा गया है।+ (क) पृथक्त्वकत्ववितर्क सूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवर्तीनि। तत्त्वार्थ सत्र ६/३६) (ख) सवितर्क सवां वारं सपृथक्त्वं च कीर्तितम् । शुक्लमाद्यं द्वितोयं तु विपर्यस्तमतोऽपरम् ।। सवितर्कमवीचारमेकत्व पदलाञ्छितम् । कीर्तितं मुनिभिः शुक्ल द्वितीयमति निर्मलम् । सूक्ष्म क्रिया प्रतीपाति तृतीयं मार्थनामकम् । समुच्छिन्नक्रियं ध्यानं तुर्यमायनिवेदितम् ॥ ज्ञानार्णव ६, १०, ११) (ग) द्रव्यसंग्रह, टी. ४८/१९६ शुक्लं परमशुवलं च प्रत्येकं द्विधा मते । सविचार विवीचार पथक्त्वैक्य वितकके । सूक्ष्मोच्छिन्नक्रियापूर्वप्रतिपाति निवर्तके।। (हरिवंशपुराण ५६/५३-५४) --- ज्ञेयं नानात्वश्रुतविचारमैक्य-अताविचारं च । सूक्ष्म-क्रियमुत्सन्न-क्रियामिति भेदैश्चतुर्धा-तत् ।। (योगशास्त्र ११/५) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शुक्ल ध्यान (२०७) भगवती आराधना में भी चार भेद कहे गये हैं । + धवला में पृथक्त्व वितर्क वीचार, एकत्व वितर्क अवीचार, सूक्ष्म क्रियाअप्रतिपाती और समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती से चार प्रकार कहे गये हैं। चारित्रसार में भी हरिवंश पुराण के समान ही वर्णन किया गया है वहाँ भी दो भेद व दोनों के प्रभेद रूप में चार भेद कहे गये हैं। और भी कई ग्रन्थों में इसके चारों भेदों को स्वीकारा गया है।... + ज्झाणं पुधत्त सवितक्कसवीचारं हवे पढमसुक्क । सवितक्केक्कत्तावीचारं ज्झाणं विदियसुक्कं ॥ सुहुमकिरियं तु तदियं सुक्कज्झाणं जिणेहिं पण्णत्तं । वेति च उत्थं सुक्कं जिणा समुच्छिण्णकिरिय तु॥ (भगवती आराधना, विजयोदया टी. १८७२-७३) - तं च चविहं-पुधत्तविदक्कवीचारं एयत्तविदक्कअवीचारं सुहु मंकिरियमप्पडिवादि समुच्छिण्णकिरियम प्पडिवादि चेदि । (षट्खण्डागम, धवला, टी० ५/४/२६/७७) = शुक्लध्यानं द्विविध शुक्लं परमशुक्लमिति ।। शुक्लं द्विविध पृथक्त्व वितर्कवीचारमेकत्व वितर्कावीचारमिति । परमशुक्ल द्विविधं सूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिसमुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति भेदात्। (चारित्रसार २०३/४) ... (क) उत्तराध्ययन ३०/३५ (ख)मूलाराधना ४०४-४०५ (ग) राजवार्तिक १/७/१४/४० (घ) शुक्लपरमशुक्लं च शुक्लंध्यानमिति द्विधा। सपृथक्त्वंवितर्काढय वीचारं शुक्लमादिमम् ॥ तथक्त्ववितर्काविचार शक्लं द्वितीयकम । प्रतिपातिविनिष्क्रान्तं शुक्लं सूक्ष्म क्रियाहेद्धयम् ।। समुच्छिन्नक्रिय शुक्लंद्विधेति परमम् स्मृतम् ॥ (मूलाचार प्रदीप २०७५-७७) (3) सुक्के झाणे च उविहे च उच्पडोआरे पं० तं०-पुत्तवितक्के सवि यारी १-एकत्तवितक्के अविचारी २-सुहमकिरिये अणियट्टी, ३ समुच्छिन्नकिरिये अप्पडिवाती ४॥ (स्थानाङग, पृ० १८८) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०८) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन इसमें प्रथम दो शवल ध्यान छद्मस्थ अर्थात् अल्पज्ञानियों के लिए विहित है । उनमें श्र तज्ञानपूर्वक पदार्थ का आलम्बन होता है और अन्त के दो शक्ल ध्यान जो आलम्बन से रहित होते हैं, वे जिनेन्द्र देव को होते हैं । पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्ल ध्यान : पृथकत्ववितर्कत्रीचार नामक ध्यान शुक्ल ध्यान का प्रथम चरण है। इस ध्यान में पृथक-पृथक रूप से वितर्क अर्थात् श्रत का वीचार अर्थात् श्रुतज्ञान बदलता रहता है इसलिए इसे सवितर्क सवीचार और सपक्त्व ध्यान कहा गया है । * यह ध्यान मन, काय और वचन इन तीन योगों वाले मुनियों के होता है । किसी एक वस्तु में उत्पाद, स्थिति और व्यय आदि पर्यायों का चिन्तन श्रत का आधार लेकर करना भी पृथक्त्व वितर्कवीचार शुक्ल ध्यान होता है । ... अर्थ, व्यञ्जन और योगों के संक्रमण का नाम वीचार कहा गया है । A x श्र तज्ञानार्थ सम्बन्धाच्छ, तालम्बन पूर्वके। पूर्वे परे जिनेन्द्रस्य निः शोषालम्बनच्युते ।। (ज्ञानार्णव ४२/८) * (क) पृथकत्वेन वितकस्य वीचारो यत्र विद्यते।। सवितर्क सवीचार सपृथक्त्वं तदिष्यते ।।(ज्ञानार्णव ४२/१३) (ख) दव्वाइ अणेयाइं तीहि वि जोगेहिं जेण ज्झायंति । उवसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तंति तं भणिया ।। (भगवती आरा धना वि. टी १८७४) . (क) उप्पाय-ट्ठिइ-भंगाइपज्जयाण जमेगवत्थुमि । नाणानयागु सरणं पुव्वगयसुयाणुसारेण (ध्यानशतक ७७-७८) (ख) एकत्र पर्यायाणां-योगान्त रेषु संक्रमण-युक्तमाद्यं तत् ।। (योगशास्त्र A (क) अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो ह वीचारो। तस्स य भावेण तयं खुत्ते उत्तसवीचारं ।।(भगवती आराधना, वि० टी० १८७६) (ख) अध्यात्मसार ५/६४-६७ (ग) पृथक्त्वं तत्र नानात्वं वितर्कः श्रु तमुच्यते । अर्थव्यञ्जन योगानां वीचारः संक्रमः स्मृतः।। (ज्ञानार्णव४२/१५) Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ल ध्यान (२०६ ) इसमें साधक कभी तो अर्थ का चिन्तन करते-करते शब्द का चिन्तन करने लगता है और कभी शब्द का चिन्तन करते-करते अर्थ का । जिस पदार्थ का ध्यान किया जाता है वह अर्थ कहलाता है, उसके प्रतिपादक शब्द को व्यञ्जन कहते हैं और वजन आदि योग कहे गये हैं जिसमें वितर्क के अर्थ यादि में क्रम से अनेक प्रकार के परिबर्तन होते हैं वही पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्ल ध्यान कहलाता है । + पृथक् व अर्थात भेद रूप से श्रुत की संक्रान्ति जिस ध्यान में होती है वह पृथक्त्व वितर्कवीचार नामक ध्यान है और भी अनेक जैन विद्वानों ने एक मत से इस शुक्ल ध्यान के भेद के स्वरूप को स्वीकार करते हुए अनेक ग्रन्थों में इसका वर्णन किया है । धवला में भी ज्ञानार्णव के समान पृथक्त्व वितर्कवीचार शुक्ल ध्यान का + पृथग्भावः पृथक्त्वं हि नानात्वमभिधोयते । वितर्को द्वादशाङ्गं तु श्रं ज्ञानमनाविलम् ॥ अर्थव्यञ्जनयोगानां वीचारः संक्रमः क्रमात् । ध्येयोऽर्थो व्यञ्जनं शब्दो योगी वागादिलक्षणं ॥ पृथक्त्वेन वितर्कस्य विचारोऽर्थादिषु क्रमात् । यस्मिन्नास्ति यथोक्तं तत्प्रथथमं शुवल मिष्यते ॥ (हरिवंश पुराण ५६/५७-५८) 1 तत्त्वार्थसूत्र ६/४१-४४ (क) महापुराण २१ / १७०-७३ (ख) सर्वार्थसिद्धि ९ / ४४/४५६/१ (ग) राजवार्तिक ९ / ४४/१/६३४/२५ (घ) कसायपाहुड, ११/१७/३१२/३३४/६ (ङ) मूलाचार प्रदीप ६/२०८०-८१ (च) द्रव्यसंग्रह टी० ४८ / २०३ (छ) चारित्रसार २०४/१ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१०)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन वर्णन किया गया है ।+ इस प्रकार हम देखते हैं कि मन, वचन एवं काय रूप योग में कभी मनोयोग से काययोग या वचनयोग में, वचन योग से काययोग या मनोयोग में, काय योग से मनोयोग या वचन योग में संक्रमण होता रहता है। अतः अर्थ शब्द-योग की दष्टि से संक्रमण होने पर भी ध्येय एक ही रहता है और मन भी एकाग्र रहता है साधक का चित्त अशान्त या अस्थिर नहीं रहता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने भी कहा है कि जब इन तीनों योगों को आत्मबुद्धि से ग्रहण किया जाता है, तब तक यह जीव संसार में ही रहता है । = श्रुतपूर्वक मन वचन कायादि में विचारों के संक्रमण के कारण ही जीव संसारी रहता है लेकिन फिर भी अचिन्त्य प्रभाव वाले ध्यान के कारण ही शान्तचित्त वाला मुनि क्षण मात्र में ही अपने समस्त कर्मों को मूल से नाश कर देता है । ... यह ध्यान एक शब्द से दूसरे शब्द पर और एक योग से दूसरे योग पर जाता है। इसी कारण इसको सवितर्कवीचार कहते हैं । + दव्वाइमणेगाइतीहिं वि जोगेहि जेण ज्झायंति । उवसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तं ति तं भणिदं ।। जम्हा सुदं विदक्कं जम्हा पुवगयअत्थकुसलो य । ज्झायदि ज्झाणं एवं सविदक्कं तेण तं ज्झाणं ।। अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमोहु वीचारो। तस्स य भावेण तगं सुत्ते उत्तं सवीचारं ॥ [षट्खण्डागम धवला टीका ५/४/२६/५८-६०] = स्वबुद्ध्या यावद्गृहीयात् कायवाक् चेतसा त्रयम् । संसारस्ताबदेतेषां भेदाभ्यासे तु निर्वृत्तिः । [समाधितन्त्र ६२] .... अस्याचिन्त्यप्रभावस्य सामर्थ्यात्स प्रशान्तधोः । मोहमुन्मूलत्येव शमयत्यथवा क्षणे ॥ 'इदमत्र तु तात्पर्य श्र तस्कन्ध महार्णवात् । अर्थमेकं समादाय ध्यायन्नर्थान्तरं व्रजेत् ॥' (ज्ञानार्णव में उद्धृत, ३, ४२/२०) *शब्दाच्छब्दान्तरं यायाद्योगं योगान्तरादपि । सवीनारमिदं तस्मात्सवितकं च लक्ष्यते ।। (वही ४२/२१) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ल ध्यान(२११) इस ध्यान के द्वारा साधक अपने चित्त पर विजय प्राप्त कर लेता है और अपने कषायों को शान्त कर लेता है। इस ध्यान के फलस्वरूप संवर, निर्जरा और अमरसुख प्राप्त होता है, क्योंकि इससे मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। २-एकत्ववितर्कअवीचार शुक्ल ध्यान : शुक्ल ध्यान के दूसरे चरण के ध्यान का नाम एकत्ववितर्कअबीचार है । इस ध्यान में साधक श्रु तज्ञान का आलम्बन लेकर भी अभेद प्रधान ध्यान में लीन रहता है, वह न तो अर्थ व्यञ्जन पर संक्रमण करता है और न ही योगों पर, वह तो पर्यायविषयक ध्यान करता है । + इस ध्यान में वितर्क का संक्रमण नहीं होता अपितु एक ही योग का आश्रय लेकर एक ही द्रव्य का ध्याता इसका चिन्तन करता है,एक ही द्रव्य का आलम्बन लेने से इस ध्यान को एकत्व कहते हैं । + जं पूण सुणिककंप निवायसरणाप्पईवमिव चित्त । उप्पाय-ठिइ-भगाइयाणमेगमि पज्जाए । अवियारमत्थ-वंजण-जोगंतरओ तयं बितियसुवकं । पुव्वगयसुयालंबणमेगत्त वितक्कमविचारं ।। (ध्यानशतक ७९-८०) एवं श्र तानसारादेकत्व-वितर्कमेक-पर्याये। अर्थ व्यञ्जन-योगान्तरेष्वसंक्रमणमन्यत्तु । (योगशास्त्र ११/७) (क) द्रव्यं चैकमण चैक पर्यायं चैकमश्रम । चिन्तयत्येकयोगेन यत्रैकत्वं तदुच्यते । एक द्रव्यमथाणु वा पर्यायं चिन्तयेद्य दि। योगकेन यदक्षीणं तदेकत्वमुदीरितम् ।। (ज्ञानार्णव में उद्धृत, ४,४२/२७) (ख) (भगवती आराधना, वि० टी० १८७७) (ग) (षट्खण्डागम १३/५/४/२६/६१-६३) (ध) तत्त्वार्थसूत्र ६/४४/४४५ (ङ) मूलाचार प्रदीप ६/२०८२ (च) हरिवंश पुराण ५६/६६-६८ (छ) सर्वार्थसिद्धि:/४४/४५६/४ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२)मैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन इससे पहले वाले ध्यान में योगी का मन अर्थ व्यञ्जन योग में चिन्तन करते हुए एक ही आश्रय पर उलट फेर करता रहता था लेकिन स्थिर नहीं हो पाता था परन्तु इसके विपरीत इस ध्यान में वह उलट फेर बन्द हो जाता है और योगी का मन एक ही आलम्बन पर स्थिर हो जाता है । वह योगी पृथक्त्व रहित, वीचार रहित और वितकं सहित एवं निर्मल एकत्व ध्यान को प्राप्त कर लेता है।+ इस शुक्ल ध्यान की साधना से साधक को एक विशेष प्रकार के उदात्त अनुभव की प्राप्ति होती है, उस योगी को सम्पूर्ण जगत् हस्तामलकवत् दीखने लगता है, क्योंकि इस ध्यान से केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है। केवलज्ञान इतना शक्तिशाली होता है कि इससे योगी सर्वज्ञ व त्रिकालज्ञ हो जाता है। इन्द्र, सूर्य, मनुष्य एव देवादि उसको पूजते हैं और वह अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आदि को प्राप्त करता है और वह शीलसहित पृथ्वी तल में विहार करते हैं । उनके वचनों को सभी प्राणी अपनी-अपनी भाषा में समझते हैं, वे जहाँ-जहाँ जाते हैं वहाँ-वहाँ खुशहाली एवं समृद्धि बढ़ती जाती है । + अपृथक्त्वमवीचारं सवितकं च योगिनः। . ____एकत्वमेकयोगस्य जायतेऽत्यन्तनिर्मलम् ।। (ज्ञानाणंव ४२/२६) सम्प्राप्य केवलज्ञानदर्शने दुर्लभे ततो योगी । जानाति पश्यति तथा लोकालोकं यथावस्थम् ॥ (योगशास्त्र ११/२३) x (क) निजशुद्धात्मद्रव्ये वा निर्विकारात्मसुखसंवित्ति पर्याये वा निरु पाधिस्वसंवेदनगुणे वा यत्रैकस्मिन् प्रवृत्तं तत्रैव वितर्कसंज्ञेन स्वसंवित्तिलक्षण भाव थ तबलेन स्थिरी भूयावीचारं गुणद्रव्यपर्याय परावर्तनं न करोति ।...."। तेनैव केवलज्ञानोस्पत्तिः इति। (वृहद्रव्यसंग्रह, टी० ४८/२००/३) (ख) आत्मलाभमथासाद्य शुद्धिचात्यन्तिकी पराम् । प्राप्नोति केवलज्ञानं तथा केवलदर्शनम् ॥ (ज्ञानार्णव ४२/३०) = वही ४२/३२-३३ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ल ध्यान (२१३) उनको अनेक प्रकार की लब्धियाँ होती हैं लेकिन वे किसी भी प्रकार से उन सुखों को भोगने की इच्छा नहीं करते । वे तो जीवों को मिथ्यात्व से दूर कर मोक्ष मार्ग में लगाते हैं और इसी से उन्हें आत्मसन्तुष्टि की प्राप्ति होती है । जिन जीवों को तीर्थकर पद की प्राप्ति नहीं होती वे जीव भी अपने ध्यान के बल से केवलज्ञान को प्राप्त करके शेष आयु तक धर्म का उपदेश देते हुए अन्त में मोक्ष को प्राप्त करते हैं । + इस प्रकार से एक ही योग का आश्रय लेकर एक द्रव्य पर्याय ध्यान करने को एकत्ववितर्कअवीचार ध्यान कहा का शुक्ल गया है । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुक्ल ध्यान : इस शुक्ल ध्यान में सूक्ष्म क्रिया का अभिप्राय काययोग को सूक्ष्म करना है तथा अप्रतिपाती विशेषण इस बात को प्रगट करता है कि शुक्ल ध्यान में प्रवेश करके साधक वापस नहीं लोटता अर्थात् जब सर्वज्ञ की आयुकर्म अन्तर्मुहुर्त प्रमाण तक ही अवशिष्ट रहती है तब अघातिया कर्मों अर्थात् नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीनों की स्थिति आयु से अधिक हो जाती है और वह केवल ज्ञान रूपीसूर्य से पदार्थों को प्रकाशित करने लगता है तब वह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती शुवल ध्यान के योग्य हो जाता है अर्थात् इससे पूर्व के शुक्ल X तीर्थंकर नामसंज्ञं न यस्य कर्मास्ति सोऽपि योगबलात् । उत्पन्न केवलः सन् सत्यायुषि बोधयत्युर्वीम् ।। (योगशास्त्र ११ / ४८ ) ध्यानस्तव १७-१६ (क) सुमम्मि कायजोगे, वट्टतो केवली तदियसुक्कं । झादि णिरुभिदु जे सुहमत्तं कायजोगंपि ।। (भगवती आराधना, वि० टी० १८८१) (ख) यदायुरधिकानि स्युः कर्माणि परमेष्ठिनः । समुद्यात विधिं साक्षात्प्रागेवारभते तदा ।। (ज्ञानार्णव ४२ / ४३) (ग) अन्तर्मुहुर्तशेषायुः स यदा भवतीश्वरः । तत्तुत्यस्थितिवेद्यादि त्रितयश्च तदा पुनः । समस्तवाङ मनोयोगं काययोगं च बादरम् । प्रहाप्यालम्ब्य सूक्ष्मं तु काययोगं स्वभावतः ॥ तृतीयं शुक्ल सामान्यात्प्रथमं तु विशेषतः । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यानमा स्कन्तुमर्हति ॥ (हरिवंशपुराण ५६ / ६९-७१ (घ) चारित्रसार २०७/३ (ड.) राजवार्तिक ९ / ४४/१/६३५/१ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१४] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ध्यान को करने से साधक ज्ञानावरणादि चारों घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने के कारण सर्वज्ञ हो जाता है, तब उसे केवली कहा जाता है। वे ही केवली जब अन्तमुहर्त मात्र आयु के शेष रहने पर मुक्ति गमन के समय कुछ योग निरोध कर चुकने वाले सूक्ष्म काय की क्रिया से जो ध्यान करते हैं, वह सूक्ष्म क्रिया-राप्रतिपाती शुक्ल ध्यान कहलाता है। __ इस ध्यान में सूक्ष्मकाययोग को अवस्था कुछ क्षण रहने के बाद बन्द हो जाती है क्योकि आत्म प्रदेशों को सर्वथा स्थिर निश्चल करने वाला अत्यन्त प्रवर्धमान पुरूषार्थ दादर सूक्ष्म मनोयोग वचनयोग तथा चादर काययोग का निरोध करता है और सूक्ष्म काययोग को भी बन्द करने के लिए उद्यत होता है और इस काययोग को शान्त कर देता है । A इस ध्यान के द्वारा योगी का मोक्ष प्राप्ति का समय नजदीक → (क) निव्वाणगमणकाले केविलणो दरनिरुद्धजोगस्स । सुहुमकिरियाऽनियट्टि तइयं तणुकायकिरियस्स ।। (ध्यान शतक ८१) (ख) एवमेकत्व वितर्कशुक्लध्यानवैश्वानरनिर्दग्धवातिकर्मेन्धन...... सयदान्तमूहर्त शेषायुष्क: "तदा सर्ववाड्.मनसयोगं बादरकाययोगं च परिहाप्य सूक्ष्मकाययोगालम्बनः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानमास्कन्दितुमर्हतीति ।। ....... समीकृतस्थितिशेष कर्मचतुष्टयः पूर्वशरीरप्रमाणो भूत्वा सूक्ष्मकाययोगेन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान घ्यायति । (सर्वार्थ सिद्धि ६/४४/४५६/८) A (क) काययोगे स्थिति कृत्वा बादरेऽचिन्त्यचेष्टितः । सक्ष्मीकरोति वाकचित्तयोगयुग्मं स बादरम् ॥ काययोगं ततस्त्यक्त्वा स्थितिमासाद्य तद्वये। स सूक्ष्मीकुरुते पश्चात् काययोगं च बादरम् ।। (ज्ञानार्णव ४२/४८-४६) (ख) योगशास्त्र ११/५३-५५ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ल ध्यान (२१५) आ जाने के कारण तीनों योगों में मनोयोग एवं वचनयोग का पूरी तरह से निरोध हो जाता है लेकिन काययोग स्थूल काययोग से बदल कर सूक्ष्म रूप में रह जाता है जो श्वासोच्छवास की क्रिया के रूप में विद्यमान रहता है । यह सब क्रियायें तेरहवे गुणस्थान के अन्तिम काल में होती हैं और जब तेरहवें गुणस्थान का समय समाप्त हो जाता है तो योगनिरोध पूरी तरह से हो जाता है और चौदहवाँ गुणस्थान प्रारम्भ हो जाता है। X 1.00 समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति शुक्ल ध्यान : जिस वक्त श्वास-प्रश्वास आदि क्रियाओं का भी निरोष हो जाता है और आत्मा के प्रदेशों में किसी भी प्रकार का कम्पन नहीं. होता तब वह ध्यान समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति कहलाता है, क्योंकि यह ध्यान वितर्क रहित और वीचार रहित होता है, तथा इसमें अनिवृत्ति है, क्रिया से रहित होने के कारण शैलेशी अवस्था को प्राप्त है एवं योग रहित है । इस ध्यान में सूक्ष्मकाय योग-काय(क) निर्वाणगमनसमये केवलिनो दरनिरुद्धयोगस्य । ... सूक्ष्म क्रिया-प्रतिपाति तृतीयं कीर्तितं शुक्लं । । [ योगशास्त्र ११ / ८ ) (ख) कीययोगे ततः सूक्ष्मे स्थिति कृत्वा पुनः क्षणात् । योगद्वयं निगृहीति सद्यो वाक्चित्तसंज्ञकम् ॥ ( ज्ञानार्णव ४२/५०) (ग) तदो अतोमुहतेण सुहुमकायजोगेण सुहुम उस्सासणिस्सासं णिरुभदि । तदो अन्तत गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुमकायजोगं णिरु भमाणो इमाणि करणाणि करेदिपढमसमए अपुब्वफद्दयाणि करेदि पुत्वफद्दयाण हेट्ठदो । (षट्खण्डागम, धवला टी० १३/५/४/२६/८५/३) (घ) सूक्ष्मक्रियानिवृत्याख्यं तृतीयं तु जिनस्यतत् । अर्धद्धांगयोगस्य, रुद्धयोगद्वयस्य च ॥ ( अध्यात्मसार ५ / ७८ ) X वृहद्रव्यसंग्रह, टी. ४८/२०० + (क) अविदक्कमवीचारं अणियट्टी अकिरियं च सेलेसि । 1 ज्झाणं निरुद्धजोगं अपच्छिम उत्तमं सुक्कं || ( षट्खण्डागम, ध. टी. १३/५/४/२६/७७) (ख) तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व णिष्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियम पडिवाइज्झाणं परमसुक्कं ।। (ध्यानशतक ८२ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन क्रिया भी समाप्त हो जाती है अतः कोई भी योग नहीं रहता और केवलज्ञानी अयोगकेवली बन जाते हैं क्योंकि इस समय आत्मा में किसी भी प्रकार के स्थूल, सूक्ष्म, मानसिक, वाचिक, कायिक व्यापार नहीं होते । A यह अति उत्तम ध्यान चौदहवें अयोगी गुणस्थान में प्रारम्भ होता है जिसमें केवली भगवान् अन्त समय से पहले समय में अर्थात् उपान्त्य में ७२ कर्मप्रकृतियों को तथा इसी गुणस्थान की अबशिष्ट तेरह कर्मप्रकृतियों को भी नष्ट कर देते हैं । + अयोगकेवली जब काययोग का निरोध करके औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों का नाश करता है तभी वह इस उत्तम और A ( क ) स्वप्रदेशपरिस्पन्दयोगप्राणादि कर्मणाम् । समुच्छिन्नतयोक्तं तत्समुच्छिन्नक्रियाख्यया ॥ सर्वबन्धास्रवाणां हि निरोधस्तत्र यत्नतः । अयोगस्य यथाख्यात चारित्रं मोक्षसाधनम् ॥ ( हरिवंश पुराण ५६/७८-७९ ) (ख) येन ध्यानेन चायोगी मिष्क्रियो योगवर्जितः । यातिमुक्तिपद शुक्लं तच्चतुर्थं क्रियातिगम् || (मूलाचार प्रदीप ६ / २०८४) (ग) ततस्तदनन्तरं समुच्छिन्न क्रियानिर्वत्तिध्यानमारभते । समुच्छिन्नप्राणापानप्रचार सर्वकायवाङ् मनोयोग सर्वप्रदेश परिस्पन्दन क्रिया व्यापारत्वात्समुच्छिन्ननिवृत्तीत्युच्यते ॥ ( सर्वार्थसिद्धि ९ / ४४/४५७/६) + द्वासप्ततिविलीयन्ते कर्मप्रकृतयो द्रुतम् । उपान्त्ये देवदेवस्य मुक्ति श्री प्रतिबन्धकाः ॥ तस्मिन्नेव क्षणे साक्षादाविर्भवति निर्मलम् । समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमयोगि परमेष्ठिनः ॥ (ज्ञानार्णव ४२ / ५२-५४ ) Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ल ध्यान (२१७) अतिनिर्मल ध्यान को प्राप्त करता है । + जब साधक की सूक्ष्म क्रिया की भी निवृत्ति हो जाती है, तथा जितने समय में वह अ, इ, उ, ऋ, ल इन पाँच ह्रस्व स्वरों को बोलता है उतने समय में इस ध्यान से वह केवली शैलेशी अवस्था को प्राप्त करके पर्वत की भाँति निश्चल एवं अडिग हो जाते हैं । इस ध्यान को दूसरे शब्दों में व्यपरतक्रियानिवृत्ति भी कहा गया है क्योंकि इस ध्यान में श्वासोच्छ वास के प्रचार रूप सूक्ष्म क्रिया का भी निरोध हो जाता है - और सम्पूर्ण कर्म की निर्जरा के बिना उससे लौटना सम्भव नहीं होता इसीलिए इसको व्यपरतक्रियानिवत्ति के नाम से भी जाना जाता है ।... इस प्रकार से इस ध्यान से योगी अयोगी अवस्था को प्राप्त कर लेता है। + (क) तं पुण णिरुद्ध जोगो सरीर तियणासणं करेमाणो । सवण्ह अपडिवादी ज्झायदि ज्झाणं चरिमसुक्कं ।। (भगवती आराधना, वि. टी., १८८३) (ख) चारित्रसार २०६/३ (ग) तत्त्वार्थसार ७/५३-५४ को तुरीयंतु समुच्छिन्न-क्रियमप्रतिपाति तत् । शैलवन्निष्प्रकम्पस्य, शैलेस्यां विश्ववेदिनः ॥ (अध्यात्म सार ५/७६) (ख) लघुवर्ण-पचकोद्गिरण तुल्यकालमवाप्य शैलेशीम् । (योगशास्त्र ११/५७) (ग) सहस्वोच्चारावृत्ती: पञ्च स्थित्वा स्वकालतः । सिद्धि सादिरनन्ता स्पादनन्तगुणसन्निधिः ॥ (हरिवंशपुराण ५६/११०) । - विशेषणोपरता निवृत्ता क्रिया यत्र तद व्यपरतक्रियं च तदनिवृत्ति चानिवर्तकं च तद् व्युपरतक्रियनिवृत्ति संज्ञं चतुर्थशुक्ल ध्यानं । (वृहद्रव्यसंग्रह ४/२००/८) .... ध्यानशतक, विवेचन ८२/४४ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१८) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन चारों शुक्ल ध्यानों में अन्तर : आचार्य अपराजितसूरि ने भगवती आराधना की विजयोदया टीका में इन चारों शुक्ल ध्यानों में अन्तर बतलाते हुए कहा है कि एकत्व वितर्कअवीचार शुक्ल ध्यान एक ही द्रव्य का आश्रय लेता है और जबकि पृथकत्ववितर्कवीचार में परिमित अनेक द्रव्यों एवं पर्यायों का आलम्बन लिया जाता है । तीसरा सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ध्यान और समुच्छिन्नक्रियअनिवृत्ति शुक्ल ध्यान सभी वस्तुओं को विषय करते हैं क्योंकि केवल ज्ञान का विषय सब द्रव्य और सब पर्याय हैं। पहले शुक्ल ध्यान का स्वामी उपशान्तमोह होता है जबकि दूसरे शुक्ल ध्यान का स्वामी क्षीणकषाय माना गया है । तीसरे शुक्ल ध्यान का सयोगकेवली कहा गया है जबकि चौथे शुक्ल ध्यान के स्वामी को अयोगकेवली कहा गया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि द्रव्य पर्याय एवं स्वामी की अपेक्षा से दूसरा शुक्ल ध्यान विलक्षण है एवं सभी शेष तीनों ध्यानों से भिन्न है । इन भिन्नता के साथ-साथ इन ध्यानों में कुछ समानता भी है जैसे पहले शुक्ल ध्यान की तरह दूसरा ध्यान भी सवितर्क है | X शुक्ल ध्यानों के स्वामी : तत्त्वार्थ सूत्र में प्रथम दो शुक्ल ध्यानों का स्वामी श्रुतकेवली और अन्तिम दो शुक्ल ध्यानों के स्वामी केवली कहे गये हैं। + धवला में पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्ल ध्यान का ध्याता चौदह, दस अथवा नौ पूर्वों का धारक तीन प्रकार के प्रशस्त संहनन वाला उपशान्तकषाय x ( क ) भगवती आराधना, वि. टी., पृ. ८३७/४ (ख) जम्हा सुदं वितक्कं जम्हा पुव्वगदअत्थकुसलो य । ज्झायदि ज्झाणं एवं सवितक्कं तेण तं ज्झाणं ॥ अत्थाण वंजणाण य जोगाणं संकमो ह बीचारो । तस्म अभावेण तयं झाणं अविचारमिति वृत्तं ॥ (भगवती आराधना १७७८-७९ ) + शुक्ले चाद्यै पूर्वविदः । परेकेवलिनः । (तत्त्वार्थ सूत्र ६ / ३७-३८) Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ल ध्यान (२१९) वीतराग छदमस्थ माना गया है ।- चारित्रसार में भी इसी बात का समर्थन किया गया है ।= आचार्य नेमिचन्द्र जी ने अपूर्वकरण, अनिवत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय उपशमक तथा उपशान्त कषाय इन चार गुणस्थानों में इस पहले ध्यान को माना है। A ज्ञानार्णव में कहा गया है कि जिन महामुनि ने द्वादशांग शास्त्ररूप महासमुद्र का अवगाहन किया है वही मुनि पृथक्त्व वितर्कवीचार शक्ल ध्यान को ध्यावे । → क्षीणकषाय गुणस्थान के काल में सभी जगह एकत्व वितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान होता है । *हरिवंशपुराण में बादर योगों के निरोध होने तक सम्भवत:, सयोगकेवली के द्वितीय शक्ल ध्यान माना है।) -- उवसंतकसायवीयराय छदुमत्थो चोद्दस-दस-णवपुवहरो पसत्थति विहसंघडणो कमाय-कलंकुत्तिण्णो तिसु जोगेसु एगजोगम्हि वट्टमाणो एगदव्वं गुणपज्जायं वा पढमसमए बहुणयगहमणिलीणं सुद-रविकिरणुज्जोय बलेण ज्झाएदि । (षट्खण्डागम, ध. टी., १३/५/४/२६/६०/१) = (क) चतुर्दशदशनवपूर्वधरयति वृषभनिषेव्यमुपशान्त क्षीण कषायभेदात्। (चारित्रसार २०६/१) A द्रव्यसंग्रह, टी. २०४/१ + श्रु तस्कन्धमहासिन्धुमवगाह्य महामुनिः । ___ध्यायेत् पृथक्त्ववितर्कवीचारं ध्यानमग्रिमम् ।। (ज्ञानार्णव ४२/२२) * (क) क्षीण कषायगुणस्थानसंभवं द्वितीयं शुक्लध्यानं । (द्रव्यसंग्रह टी० ४८/२००) (ख) खीणकसाओ सुक्कलेस्सिओ ओघबलो ओघसूरो वज्जरिसहव रणारायणसरीरसंधडणो अण्णदरसंठणो चोद्दसपुव्वधरो दसपुबहरोणवपुव्वहरो वा खइयसम्माइट्ठी खविदासेसकसायवग्गो । [षट्खण्डागम १३/५/४/२६/७९/१२] (ग) ज्ञानार्णव ४२/२५ महरिवंशपुराण ५६/७२-७८ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२०] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन अयोगकेवली गुणस्थान में योगों का पूर्ण रूप से निरोध होने पर समुच्छिन्नक्रियअप्रतिपाती शुक्ल ध्यान होता है जबकि सयोगकेवली गुणस्थान के अन्तिम अन्तर्मुहुर्त काल में जब मुनि स्थूल योगों का निरोध करके सक्ष्म काययोग में प्रवेश करता है तब सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती शुक्लध्यान होता है। आदिपुराण में छद्मस्थों के उपशान्तमोह और क्षीणमोह केशुक्ल और केवलियों के परमशुक्ल ध्यान माना है। A शुक्ल ध्यान का फल __शुक्ल ध्यान का मुख्य फल मोक्ष की प्राप्ति है लेकिन चारों ध्यानों का अलग-अलग जो फल है वह इस प्रकार है-पृथक्त्ववितकवीचार शक्ल ध्यान स्वर्ग एवं मोक्ष के सुखों को देने वाला है, इससे संवर, निर्जरा एवं अमर सुख तो प्राप्त होता है लेकिन मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। - इस ध्यान के द्वारा मुनि क्षण भर में मोहनीय कर्मो का मूल से ही नाश कर देता है।* तीन घातिया कर्मों का मूल रूप से ही नाश कर देना ही एकत्व वितर्कअवीचार शुक्लध्यान का फल है । x काययोगस्य सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती, अयोगस्यव्युपरतवि.यानिवर्तीति । [सर्वार्थसिद्धि ९/४०/४५४/७] A (क) शुक्लं परमशुक्लं चेत्याम्नाये तद् द्विधोदितम् । छद्मस्थ स्वामिक पूर्वं परं केवलिनां मतम् ।। (आदिपुराण २१/१६७) (ख) तत्त्वार्थसूत्र ६/३८-४० ... (क) स्वर्गा पवर्गगति फल संवर्तनीयमिति । [चारित्रसार २०६/२] (ख) एवं संवर-णिज्जरामर सुहफलं एदम्हादो णिव्वुइगमणाणुवलं भादो। [षट्खण्डागम, ध. टी., १३/५/४/२६/७६/१] * अस्याचिन्त्यप्रभावस्य सामर्थात्रा प्रशान्तधीः । मोहमुन्मूलयत्येव शमयत्यथवा क्षणे ॥ ज्ञानार्णव ४२/२०] तिण्णं धादिकम्माणं णिम्मूलविणासफलमैयविदक्क अवीचार ज्झाणं । [षट्खण्डागम, ध टी. १३/५/४/२६/८१/२] द्रग्बोधरोधकद्वन्द्वं मोहविघ्नस्य वापरम् । स क्षिणोति क्षणादेव शुक्लधूमध्वजाचिषा ।। (ज्ञानार्णव ४२/२६) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ल ध्यान (२२१) योग का निरोध करना एवं शैलेशी अवस्था के काल के क्षीण होने पर कर्मो से मुक्त होकर सिद्धि को प्राप्त करना ही क्रमशः सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती शुक्ल ध्यान एवं समुच्छिन्नक्रियनिवृत्ति शुक्ल ध्यान का फल है। इस प्रकार हम देखते हैं कि शुक्ल ध्यान में ही चित्त का निरोधपूर्ण रूप से होता है, चित्त की जितनी भी वत्तियां होती हैं वे इस ध्यान के द्वारा शान्त हो जाती हैं। इस ध्यान के द्वारा कर्मो का क्षय होता है और मन का आत्मा की सत्ता में विलय हो जाता है। शुक्ल ध्यान के द्वारा ही साधक अपनी आत्मिक अशुद्धियों को करके उन्हें पूरी तरह से शुद्ध करने में समर्थ हो जाता है। अतः शुक्ल ध्यान ही सर्वोत्कृष्ट तप है, समस्त धार्मिक क्रियाकलापों की यह चरम सीमा है । इस ध्यान की साधना के द्वारा साधक अपने चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। मोक्ष का वर्णन अगले परिच्छेद में किया जा रहा है । + तदियसुक्कझाणं जोगणिरोहफलं । सेलेसिय अद्धाए ज्झीणाए सव्वकम्मविप्पमुक्को एगसमएणसिद्धि गच्छदि । (षट्खण्डागम १३/५/४/२६/८८/१) Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम् परिच्छेद ध्यान एवं गुणस्थान जैन दर्शन में 'गुण' शब्द वस्तु की किन्हीं सहभावी विशेषताओं का वाचक माना गया है । प्रत्येक द्रव्य में अनेक गुण पाये जाते हैं । एक गुण में अनेकों पर्याय हो सकते हैं परन्तु एक गुण में कभी भी अन्य कोई और गुण नहीं हो सकता। दर्शन मोहनीय आदि कर्मो के उदय, उपशम, क्षय क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर जिन भावों के उत्पन्न होने से जीव लक्षित किये जाते हैं उन भावों को मनीषियों ने "गुणस्थान" कहा है। + मोह और मन, बचन काय की प्रवृत्ति के कारण जीवों के अन्तरंग परिणामों में प्रतिक्षण जो उतार-चढ़ाव होता रहता है वह गुणस्थान कहा गया है । यद्यपि विद्वानों ने माना है कि परिणाम हमेशा अनन्त होते हैं, परन्तु उत्कृष्ट मलिन परिणामों से लेकर उत्कृष्ट वीतराग परिणाम तक १४ गुणस्थान माने गये हैं, जो कि इस प्रकार से हैं-१-मिथ्यादृष्टि, २-सासादन सम्यग्दृष्टि, ३-सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ४-अविरतसम्यग्दृष्टि, ५-देबि रत, ६-प्रमत्तसयत, ७-अप्रमत्त संयत, ८-अपूर्वक रण, ६-अनिवृत्तिकरण, १०-सूक्ष्मसाम्पराय, ११-उपशाख कषाय, १२-क्षीण कषाय, १३-संयोगकेवली और १४-अयोगकेवली +- जेहिं दु लक्खिज्जते उदयादिसु संभवेहि भावेहिं । जीवा ते गुणसण्ण! णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं ॥ (पंचसंग्रह, प्रा० १/३) (क) षट्खण्डागम १/१/१/६-२२ (ख) मिच्छोसासण मिस्सो अबिरदसम्मो य देसविरदो य । विरदा पमत्त इदरो अपुव्व आणि यह सुहमो या उवसंत खीण मोहो सजोग केवलिजिणो अजोगीय । च उदस जीवसमासा कमेण सिद्धा य णादव्या ।। (शास्त्रसार समुच्चय पृ० ३५७) Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२३) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन १-मिथ्यादृष्टि : इस अवस्था में दर्शन मोहनीय कर्म की प्रबलता के कारण, वीत. राग सर्वज्ञ अर्हत भगवान के द्वारा बतलाये गये तत्त्व, द्रव्य, पदार्थ, गुरु एवं जिनवाणी के प्रति श्रद्धा का न होना मिथ्यात्व गुणस्थान है। यह गुण स्थान मिथ्यात्व कर्म के उदय से होता है। २-सासादन-सम्यग्दृष्टि : प्रथमोपशम सम्यक्त्व वाले व्यक्ति के जब चारों कषायों में से किसी एक कषाय का उदय हो जाता है तब उसका सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है। सम्यक्त्व का क्षणिक आस्वादन होने से ही इस गुण स्थान को सासादन कहा गया है। ३-सम्यक मिथ्यादृष्टि : जिस प्रकार से दही और खांड को मिला देने से एक अलग ही स्वाद बन जाता है उसमें न तो दही का स्वाद आता है और न ही खांड का अपितु एक मिश्रित स्वाद बन जाता है, उसी प्रकार सम्यगमिथ्यात्व के उदय से सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रित परिणाम होता है । इस गुण स्थान वाले न तो सत्य का ही दर्शन कर पाते हैं और न ही मिथ्यात्व का । इस गुणस्थान में न तो आयु बँधती है और न मरण होता है। ४-अविरत सम्यकदृष्टि : __ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति इन सात प्रकृतियों के उपशम होने से या क्षय अथवा क्षयोपशम होने से जो उपशम, क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है, किन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय बना रहता है । वह अविरत सम्यक्दृष्टि गुण स्थान होता है । ५-देशविरत :__ इस गुणस्थान में पूर्ण रूप से तो नहीं परन्तु आंशिक रूप में चारित्र का पालन होता है। यह पाँच पापों का एक देश त्याग करके ११ प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा का चारित्र पालन करता है तब उसके देशविरत गुण स्थान होता है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का लक्ष्य-लब्धियाँ एवम् मोक्ष (२२४) ६-प्रमत्तसंयत : इस गुणस्थान में स्थित साधक महाव्रती हो जाता है, किन्तु धूलिका रेखा के समान क्रोध आदि का क्षयोपशम हो जाने पर जब महाव्रत का आचरण होता है किन्तु जल रेखा के समान क्रोध आदि कषायों तथा नोकषायों के उदय से चारित्र में मैल रूप प्रमाद भी होता रहता है तब छठा गुण स्थान होता है। ७-अप्रमत्तसंयत : जब साधक संज्वलन कषाय तथा नोकषाय के मंद उदय से प्रमाद रहित होकर आत्म ध्यान में लीन हो जाता है तब उसको अप्रमत्तसंयत नामक गुण स्थान होता है । ८-अपूर्वकरण : यह अवस्था आत्मगुणशुद्धि या आत्मलाभ की अवस्था मानी जाती है क्योंकि इस अवस्था में साधक कषायों के सिवा चारित्र मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के क्षय करने के लिए श्रेणी चढ़ते समय जो प्रथम शुक्ल ध्यान के कारण प्रतिसमय अपूर्वपरिणाम होते हैं। उस साधक की साधना में नये-नये अपूर्व भाव प्रगट होते हैं। यही अपूर्वकरण नामक आठवाँ गुणस्थान है। ६-अनिवृत्तिकरण : __ इस गणस्थान में साधक के ६ नोकषायों का तथा अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान-आवरण कषाय सम्बन्धी क्रोध, मान, माया आदि २० चारित्र मोहनीय कर्म प्रकृतियों का क्षय होकर स्थूल लोभ शेष रह जाता है। इस गुणस्थानवर्ती के निरन्तर एक ही परिणाम होता है। १०-सूक्ष्मसाम्पराय : साम्पराय का अर्थ कषाय होता है । इस गुणस्थान में साधक के कुसुम्भ रंग के समान सूक्ष्म लोभ रह जाता है इसीलिए इसे सूक्ष्म कषाय के नाम से भी जाना जाता है। ११-उपशान्तकषाय : इस गुणस्थान तक पहुँचते-पहुँचते साधक के सम्पूर्ण कषायों का Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२५) नैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन क्षय हो जाता है यहाँ पर उसके विशुद्ध यथाख्यात चारित्र हो जाता है। रागद्वेष आदि कोई भी विकार नहीं रह पाता । इसीलिए वह साधक वीतराग हो जाता है। लेकिन कभी क्षय हुआ सूक्ष्म लोभ कषाय दुबारा से उदय हो जाता है, जिससे उपशान्त कषाय वाला साधक वापस सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान में पहुच जाता है। १२-क्षीण कषाय : इस गणस्थान में साधक या मुनि के सम्पूर्ण कषायों का क्षय हो जाता है जिससे उसे नीचे गिरने का भय नहीं रह पाता है उसे वीतराग पद सदा के लिए प्राप्त हो जाता है। इस गुणस्थानवर्ती को क्षीण कषाय निर्ग्रन्थ भी कहा जाता है। १३-सयोग केवली : इस गुणस्थान में मुनि सर्वज्ञ हो जाता है वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्म का पूरी तरह से क्षय कर देता है तब उसको अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन एवं अनन्तवीर्य की प्राप्ति होती है, लेकिन इस गुण स्थान में साधक की काया की सूक्ष्म क्रिया रह जाता है उसके भाव, मन, योग नहीं रहता और वचन योटी के कारण उनका दिव्य उपदेश होता है । साधक की इस अवस्था को जीवन्मुक्त अवस्था भी कहते हैं। १४-अयोग केवली: _आयु समाप्त होने से कुछ समय पहले ही जब योग का भो निरोध हो जाता है तब अन्तिम गुण स्थान अर्थात् चौदहवाँ गुणस्थान अयोगकेवली कहा जाता है । यहाँ तक आत्मा का विकास चरमोत्कर्ष तक पहुँच जाता है क्योंकि इस गुण स्थान में शेष समस्त अघाति कर्मों का नाश हो जाता है । द्रव्यकर्म, भाव कर्म और नोकर्म से रहित होकर सिद्ध अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार वाले हो हो जाते हैं और आत्मा के समस्त गुण विकसित हो जाते हैं और उसके पश्चात् एक ही समय में ऊर्ध्व गमन करके लोक के अग्रभाग में पहँचकर ठहर जाते हैं।+ + (क) मूलाराधना ११६५-११६६ (ख) राजवार्तिक ६/१/११/५८८/८ (ग) पंचसंग्रह, संस्कृत १/१५-१८ (घ) स्थानाङ्ग १४ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का लक्ष्य-लब्धियाँ एवम् मोक्ष(२२६) इन चौदह गुणस्थानों में से प्रारम्भ के चार गुणस्थानों का अन्तर्भाव बहिरात्मा में होता है + और चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवे गुणस्थान तक का बिलय अन्तरात्मा में हो होता है क्योंकि इन अवस्थाओं में आत्मा का बढ़ना एवं गिरना होता रहता है और इसलिए इन गुणों का अन्तर्भाव अन्तरात्मा में किया गया है । शेष अन्तिम दो गुणस्थानों अर्थात् सयोगकेवली एवं अयोगकेवली का अन्तर्भाव परमात्मा में किया गया है क्योंकि इन अवस्थाओं में जीव परम तत्त्व अर्थात् चरमोत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार से चौदह गुणस्थानों का बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा में अन्तर्भाव किया जाता है। ध्यान का लक्ष्य : लब्धियाँ योगी साधक यम, नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान, धारणा, तप आदि की साधना करके ध्यान की सिद्धि प्राप्त करता है और इस साधना के द्वारा वह अपने सभी संचित कर्मों का क्षय कर देता है । = ध्यान की साधना के द्वारा अनेक चमत्कारिक शक्तियों का उदय होता है जिन्हें लब्धियाँ कहते हैं । ये विशिष्ट शक्तियाँ जनसाधारण के लिए बहुत ही दुर्लभ होती हैं इसीलिए ये उन लोगों को अद्भुत एवं चमत्कारी प्रतीत होती हैं। जिस साधक का अन्तिम + (क) बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिरांतरः।। चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः परमात्माऽतिनिर्मलः ॥ (समाधि तन्त्र ५) (ख) योगसार ६ SH (क) अन्ये तु मिथ्यादर्शनादि भाव परिणतो बाह्यात्मा, सम्यग्दर्शना दिपरिणतस्त्वन्तरात्मा, केवलज्ञानादिपरिणतस्तु परमात्मा । तत्राद्य गुण स्थानेत्र बाह्यात्मा, ततः परं क्षीणमोहगणस्थानं यावदन्तरात्मा । तत: परन्तु परमात्मेति । (अध्यात्म परीक्षा १२५) (ख) आध्यात्मिक विकास क्रम, पृ० ४० = क्षिणोति योगः पापानि, चिरकालाजितान्यपि। प्रचितानि यथैधांसि, क्षणादेवाशुशुक्षणिः ॥ (योगशास्त्र १/७) Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२७] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन उददेश्य मोक्ष को प्राप्त करना ही होता है वे मुनि इन लब्धियों के माया-मोह में नहीं पड़ते....क्योंकि वे जानते हैं कि उनका लक्ष्य शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्ति करना है और लब्धियाँ उस साधना की फलसिद्धि हैं । जैसे-जैसे योगी का मन शुद्ध एवं निर्मल होता जाता है वैसे-वैसे ही उसमें समता, वैराग्य आदि भावनाओं का समावेश होता जाता है और वह सर्वज्ञ बन जाता है। इन विशिष्ट शक्तियों को जैनागमों (श्वेताम्बरों ग्रन्थों) में 'लब्धि' कहा गया है A, जबकि दिगम्बर ग्रन्थों में 'ऋद्धि' कहा गया है। वैदिक पुराणों में इन्हें 'सिद्धि' और पातञ्जल योगदर्शन में इन्हें 'विभूति' कहा गया है ।) ध्यान साधना से प्राप्त इन विशिष्ट शक्तियों के द्वारा साधक असम्भव कार्य को भी सम्भव करने में सक्षम होता है। योगसाधना में वैदिक, जैन एवं बौद्ध सम्प्रदाय को परम्पराये मानी जाती हैं इसीलिए इन लब्धियों का वर्णन इन तीनों ही परम्पराओं से प्राप्त होता है। वैदिक परम्परा में लब्धियाँ : वैदिक परम्परा में अध्यात्म साधना में उपनिषदों का महत्व बहुत माना गया है और श्वेताश्वतर उपनिषद् में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि लब्धियों से निरोगता, जरा मरण का अभाव, शरीर का हल्कापन, अरोग्य, विषयनिवृत्ति, शरीर कान्ति, स्वरमाधुर्य, मलमूत्र .... णो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, णो परलोगट्ठाए तवमहिट्ठिज्जा । णो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए, तवमहिट्ठिज्जा नण्णत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा । (दशवैकालिक सूत्र ६/४) A गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्य विशेषो लब्धिः । (आवश्यक मलगिरि वृत्ति, अ० १) * श्रीमद् भागवतपुराण ११/१५/१ ॐ पातञ्जल योगसूत्र, विभूतिपाद, सूत्र ३ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का लक्ष्य-लब्धियाँ एवं मोक्ष (२२८) की अल्पता आदि होती प्राप्त है। श्री मद्भगवद्गीता में तो पूरे एक अध्याय में इसका वर्णन किया गया है। पौराणिक साहित्य में सिद्धियों के १८ प्रकार बतलाये गये हैं। इनमें से-अणिमा, महिमा और लघिमा-ये तीन शारीरिक सिद्धियाँ कही गई हैं। वहाँ इन्द्रिय सिद्धि को 'प्राप्ति' कहा गया है। 'प्राकाम्य' नामक सिद्धि से साधक सभी पदार्थो को इच्छा के अनुसार प्राप्त कर लेता है । 'ईशिता' सिद्धि से माया के कार्यों को साधक प्रेरित करता है । 'वशिता' सिद्धि के द्वारा साधक भोगों में आसक्त नहीं होता है । 'कामावसायिता' सिद्धि के द्वारा साधक अपनी इच्छा के अनुसार सुखों को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है।= इन सिद्धियों के अलावा १-त्रिकालज्ञत्व, २-अद्वन्द्वत्व, ३-परचित्त अभिज्ञान, ४प्रतिष्टम्भ तथा ५-अपराभव-ये पाँच सिद्धियाँ और भी हैं।x हठयोग के ग्रन्थों में भी अनेक प्रकार की सिद्धि यों का वर्णन प्राप्त होता है। योग दर्शन में लब्धियाँ : योगदर्शन में जो यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि जो योग के आठ अंग बतलाये गये हैं, उनमें से प्रत्येक अङग की साधना करने से आभ्यन्तर एवं बाह्य दोनों प्रकार की सिद्धियाँ योगी को प्राप्त होती हैं । यम से प्राप्त विभूतियों के विषय में उल्लेख किया गया है कि अहिंसा व्रत का पालन करने वाले योगी के सान्निध्य में व्याघ्र, सिंह आदि हिंसक जीव भी अपनी क्रूर प्रवृत्ति को त्याग देते हैं। सत्य : न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् । लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं, वर्णप्रसाद स्वरसौष्ठवं च । गन्धः शुभोमूत्रपुरीषमल्पं, योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति । (श्वेताश्वतर उपनिषद् २/१२-१३) - श्री मद् भगवद्गीता, दशवां अध्याय .... = श्री मद् भागवत पुराण, स्कन्ध ११, अ. ५, श्लोक ६-७ x वही, स्कन्ध ११, अ. ५, श्लोक ८ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२६)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन व्रत का पालन करने वाले का वचन सदैव सत्य ही होता है मिथ्या नहीं होता । अस्तेय व्रत की प्रतिष्ठा से वह समद्धिशाली हो जाता है । अपरिग्रह की साधना से योगी को पूर्वजन्म के ज्ञान का बोध होता है। नियम से प्राप्त लब्धियों के द्वारा साधक की अन्तंबाह्य शौच पालन से शरीर एवं चित्त की शुद्धि होती है एवं वह एकाग्रता, इन्द्रिय जय एवं आत्मबोध की योग्यता को प्राप्त करता है। आसन के द्वारा साधक के समक्ष सर्दी-गर्मी की बाधायें उत्पन्न नहीं होतो । प्राणायाम के द्वारा विवेक ज्ञानावरण का क्षय होता है और विविध प्रकार की धारणा के लिए साधक मन की तैयारी करता है । प्रत्याहार के द्वारा समस्त इन्द्रियों पर साधक विजय प्राप्त करता है। इस प्रकार इन लब्धियों के द्वारा साधक सर्वज्ञता को भी प्राप्त करता है ।- योगदर्शन के विभूतिपाद में अनेक विभूतियोंलब्धियों का वर्णन किया गया है जिनमें कुछ विभूतियाँ ज्ञान से सम्बन्धित होने के कारण ज्ञान विभूतियाँ कहलाती हैं तथा कुछ शरीर से सम्बन्धित होने के कारण शरीर सम्बन्धी कहलाती हैं। उन विभूतियों में से कुछ प्रमुख विभूतियाँ इस प्रकार से हैं-अतीतानागत ज्ञान, सर्वभूत रुतज्ञान, परचित्त ज्ञान, पूर्वजाति ज्ञान, भुवन ज्ञान, तारा व्यूह ज्ञान, काव्यव्यूह ज्ञान, उपरान्त ज्ञान और सिद्ध दर्शनादि ज्ञान विभूतियाँ हैं तथा शारीरिक विभूतियाँ इस प्रकार से हैं-अन्तर्धान, परकायप्रवेश, आकाशगमन, हस्तिबल, रूपलावण्य, कायसम्पत्, क्षुत्पिपासानिवृत्ति और अणिमा, महिमा, लधिमा आदि का प्रादुर्भाव IX बौद्ध दर्शन में लब्धियाँ : बौद्ध परम्परा में लब्धियों का 'अभिज्ञा' नाम से उल्लेख किया + पातञ्जल योगदर्शन २/३५-३६-३७-३८-३६ वही २/४०-४६ = वही २/४६-५३-५४ - वही ३/५, १६-१८, २६, ४०-४२, ४५, ४८, ५० x पातञ्जल योग दर्शन, विभूतिपाद । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का लक्ष्य-लब्धियाँ एवम् मोक्ष (२३०) गया है । बौद्ध दर्शन के अनुसार अभिज्ञा अर्थात् लब्धियाँ दो प्रकार की हैं-१-लौकिक अभिज्ञा तथा २-लोकोत्तर अभिज्ञा ।+ लौकिक अभिज्ञाओं के अन्तर्गत ऋद्धिविध, दिव्यस्त्रोत, चैतीपयेज्ञान-पूर्वनिवा सानुस्मृति एवं चित्तोत्पाद अभिज्ञाये हैं जिनसे आकाशगमन, पशुपक्षी की बोलियों का ज्ञानादि होता है। जब साधक अर्हत् अवस्था को प्राप्त होकर फिर से साधारण लोगों के समक्ष निर्वाण मार्ग को बतलाने के लिए उपस्थित होता है तब उस साधक को लोकोत्तर अभिज्ञा की प्राप्ति होती है। यहाँ विभूतियों के दस प्रकार बतलाये गये हैं, जो कि इस प्रकार से हैं-१-अधिष्ठान, २-विकूर्वण, ३-मनोमया, ४-ज्ञानविस्फार, ५-समाधि विस्फार, ६-आर्य ऋद्धि, ७-कर्म विपाकजा, ८-पूण्यवती ऋद्धि, ६-विद्यामया ऋद्धि तथा १०-इज्झनठेन ऋद्धि । जैन दर्शन में लब्धियाँ : वैदिक परम्परा एवं दौद्ध दर्शन की भांति जैन योग में भी समाधि, तप एवं ध्यान के द्वारा अनेक प्रकार की लब्धियों को प्राप्त करने का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है । अङग ग्रन्थों से लेकर योगशास्त्र और ज्ञानार्णव तक इन लब्धियों का वर्णन स्पष्ट एव विस्तृत रूप से किया गया है। ये अलग बात है कि विभिन्न ग्रन्थों में इनकी संख्या भी भिन्न-भिन्न है । भगवती सूत्र में अनेक स्थलों पर लब्धियों का वर्णन किया गया है।- स्थानाङ्ग =, औपपातिक X, प्रज्ञापना *, में भी लब्धियों का उल्लेख मिलता है । इन में शारीरिक एवं मानसिक तथा आत्मिक सभी प्रकार की लब्धियों का वर्णन किया गया है। + विसुद्धिमग्गो, मगो१।। विसुद्धि मग्गो का इद्धि विध निदेसो पृ० २६१ से २६५ - भगवती सूत्र ५/४/१८६, १४/७/५२१-५२२, ५/४/१६६,२/१०/१२०, ___३/४/१६०, ३/५/१६१, १३/६/४६८ = स्थानाङ्ग २/२ x औपपातिक सूत्र २४ * प्रज्ञापना, पद ६, सूत्र १४४ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३१] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन जैन परम्परा में ज्ञान आदि शक्ति विशेष को लब्धि कहा गया है। जीव में संयम या संयामासंयम आदि को धारण करने वाली योग्यताएँ भी लब्धि कही जाती हैं। लब्धि के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न अर्थ किये हैं कहीं तप विशेष से प्राप्त होने वाली सिद्धि को लब्धि कहा गया है +, तो कहीं ज्ञानावरण के क्षयोपशम विशेष को लब्धि माना गया है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र में जो जीव समागम होता है उसे लब्धि कहते हैं । इस प्रकार लब्धि के अर्थ भिन्न-भिन्न लिये गये हैं किन्तु ध्यान का मुख्य फल मोह विलय एवं गौण फल लब्धियों का प्राप्त करना है। लब्धियों के प्रकार : लब्धियों की संख्या के बारे में विद्वान एक मत नहीं हैं। भगवती सूत्र में दस प्रकार की लब्धियाँ मानी गई हैं। - तो तिलोयपपणत्ती में ६४ प्रकार की लब्धियों का उल्लेख मिलता है। * आव. श्यकनियुक्ति ...में २८ प्रकार एवं षट्खण्डागम में ४४ प्रकार बतलाये गये हैं।A + तपोविशेषादृद्धि प्राप्तिलब्धिः । सर्वार्थसिद्धि २/४७/१६७/८) - इन्द्रियनिर्वत्तिहेतुः क्षयोपशमविशेषोलब्धिः । यत्संनिधानादात्माद्रव्येन्द्रिय निर्वत्ति प्रतिव्याप्रियते स ज्ञानावरण-क्षयोपशम विशेषोलब्धिरिति विज्ञायते । (षटखण्डागम, ध. टी. १/१, १, ३३/२३६/५) = धवला, ८/३, ४१/८६/३ - दसविधा लद्धी पण्णता, तंजहा-नाण लदधी, दंसणलद्धी, चरित्रलद्धी, चरिताचरितलद्धी, दाणलद्धी, लाभलद्धी, भोगलडी, उपभोगलद्धी, वीरियलद्धी, इंदियलद्धी। (भगवती सूत्र ८/२) * तिलोयपण्णत्ती, भाग १/४/१०६७-७१ .... आवश्यक नियुक्ति ६९-७० A षट्खण्डागम, खण्ड ४, १/६ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का लक्ष्य - लब्धियाँ एवम् मोक्ष (२३२) विद्यानुशासन में ४८, मंत्रराजरहस्य + में ५०, प्रवचनहारोंद्धार एवं विशेषावश्यकभाष्य में २८ २८ लब्धियों का उल्लेख मिलता है लेकिन इन लब्धियों के वर्गीकरण में भिन्नता पायी जाती है । ... योगशास्त्र एवं ज्ञानार्णव X में लब्धियों का वर्णन चमत्कारिक शक्तियों के रूप में हुआ है । लब्धियों के प्रकार इस प्रकार से हैं : १- आमर्षो षधि-लब्धि : - ( आमोसहि) - जिस प्रकार से अमृत के स्नान करने से रोग नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार से लब्धि के प्रभाव से साधक के शरीर के स्पर्श मात्र से रोगी स्वस्थ हो जाता है । यह योग विशेष से होने वाली दिव्य शक्ति है । २- विप्रोषधि-लब्धि : - (विप्पोसहि ) - इस लब्धि के प्रभाव से योगी के मल मूत्र भी औषधि का काम करते हैं । + श्रमण, वर्ष १६६५, अंक १-२, पृ० ७३ प्रवचनसारोद्धार २७०, १४६२-१५०८ आमोस हि विप्पोस हि खेलोस हि चेव । सव्वोसहि सभिन्ने ओहि रिउ विउलयइ लद्धी । चारण आसीविस केवलियगणहारिणो य पुव्वधरा । अरहन्त चक्वट्टी बलदेवा वासुदेवाय । खीरमहुसप्पि असव, कोट्टय बुद्धि पयाणुसारी य । तह बीयबुद्धि तेग आहारग सीयलेसा य ।। वे उव्वदेहलवी अक्खीण महाणसी पुलाया य । परिणाम तववसेण एमाई हुति लद्धीओ ॥ ( विशेषावश्यक भाष्य, १५०६-१५०६ ) योगशास्त्र, प्रकाश ५-६ X ज्ञानार्णव, प्रकरण २६ .... Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३३] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ३-श्लेष्मौषधि : (खेलोसहि)___ इस लब्धि के प्रभाव से योगी का श्लेष्म यदि कुष्ठी के शरीर पर मला जाये तो उसका कुष्ठ रोग भी समाप्त हो जाता है । ४-जल्लौषधि-लब्धि : (जल्लोसहि) इस लब्धि के प्रभाव से योगी के कान, मुख, नाक आदि के मैल से समस्त रक्त रोग समाप्त हो जाते हैं । ५-संभिन्न स्रोत :(संभिन्न श्रोत) इस लब्धि के प्रभाव से योगी शरीर के प्रत्येक अड़.ग द्वारा सुनने में समर्थ हो जाता है अर्थात् एक ही इन्द्रिय से पांचों ही इन्द्रियों के के विषयों का ग्रहण किया जा सकता है। ६-सर्वोषधि-लब्धि : (सव्वोसहि)___इस लब्धि के द्वारा मलमूत्रादि, नख, केश आदि में सुगन्ध आती है और रोग उपशमन की शक्ति प्राप्त होती है। ७-अवधि लब्धि : __ अवधिज्ञान-रूपी (रस, स्पर्श, गन्ध वाले) पदार्थों के भूत, भविष्य एवं वर्तमान तीनों कालों की पर्यायों को जानने की क्षमता योगी में आ जाती है। ८-ऋजुमति-लब्धि : यह लब्धि मनःपर्यय ज्ञानी योगी को प्राप्त होती है, जिससे साधक दूसरों के मनों के भावों को जान लेता है। ६-विपुलमति-लब्धि :__ यह लब्धि भी मनःपर्ययज्ञानी योगी को प्राप्त होती है, जिससे योगी संज्ञी जीवों के मन के भावों को सहजता से जान लेता है। १०-चारण लब्धि:___इस लब्धि के दो प्रकार हैं-१- जंघा चरण तथा २-विद्या चारण इस लब्धि के द्वारा योगी को आकाश में गमनागमन करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। इस लब्धि को आकाशगामिनी लब्धि भी कहते हैं। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का लक्ष्य-लब्धियाँ एवम् मोक्ष (२३४) ११-आशीविश लब्धि : इस लब्धि के द्वारा योगी को शाप देने तथा अनुग्रह करने की शक्ति प्राप्त होती है। १२-केवल लब्धि : यह सर्वोत्कृष्ट लब्धि मानी जाती है। यह योगी को चार घातिया कर्मों अर्थात् दर्शनावरण, ज्ञानावरण, मोहनीय एवं अन्तराय कर्मो के क्षय होने से प्राप्त होती है। इस केवल-लब्धि का धारक तीनों लोकों और तीनों कालों के विषय में सभी बातों की जानकारी रखता है और तीनों लोकों को स्पष्ट देखता है और अनन्त सुख में रमण करता है। १२-गणधर-लब्धि : इस लब्धि के धारक योगी को गणधर पद की प्राप्ति होती है, जो तीर्थकर के प्रधान शिष्य थे। १४-पूर्वधर-लब्धि: इस लब्धि के द्वारा साधक अन्तर्मुहूर्त में ही चौदह पूर्वो का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। १५-अर्हत्-लब्धि : इस लब्धि के द्वारा साधक अहंत् पद को प्राप्त करता है। १६-चक्रवर्ती-लब्धि : इस लब्धि के माध्यम से मुनि को चौदह रत्न, नव निधान और छह खण्ड पृथ्वी के स्वामी पद अर्थात् चक्रवर्ती पद की प्राप्ति होती है। १७-बलदेव-लब्धि: इस लब्धि से साधक बलदेव पद को प्राप्त करता है। १८-वासुदेव-लब्धि : __इस लब्धि के द्वारा मुनि को वासुदेव पद की प्राप्ति होती है। वासुदेव तीन खण्ड पृथ्वी के स्वामी होते हैं, इसीलिए उन्हें अर्द्धचक्री कहा जाता है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३५] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन १६-क्षीरमधुसपिरासव-लब्धि : क्षीर का अर्थ है दुध, मधु का शहद और सपि का घी, अर्थात इस लब्धि के घारक योगी के वचन दूध के समान मधुर, शहद के समान मीठे और घी के समान स्निग्ध अर्थात सुनने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्रिय लगते हैं । २०-कोष्ठक-लब्धि :: ____ इस लब्धि का धारक मुनि गुरुमुख से एक बार ही स्मृत, सुने हुए एवं पठित ज्ञान को कोष्ठागार में सुरक्षित अनाज की भाँति सुरक्षित कर लेता है तथा चिरकाल तक भी उन वचनों को नहीं भूलता। २१-पदानुसारिणो-लब्धि : इस लब्धि का स्वामी योगी एक पद को सुनकर ही उसके आगेपीछे के पदों को जान लेता है। २२-बीजबुद्धि-लब्धि : सुने हुए ग्रन्थ का एक बीजाक्षर जानने से ही अश्रुत पद एवं अर्थो को जान लेना ही उस बीज बुद्धि-लब्धि का लक्षण है। २३-तेजोलब्धि : तेजोलब्धि से सम्पन्न साधक का तैजस शरीर इतना तीव्र एवं बलशाली होता है कि वह अपने शरीर से तेजो लेश्या निकाल सकता है । दूरस्थ, सूक्ष्म तथा स्थूल पदार्थों को भस्म करने की शक्ति तेजोलब्धि कहलाती है। २४-आहारक लब्धि: यह लब्धि पूर्वधर साधकों को प्राप्त होता है। जिन शासन की प्रभावना के लिए पराजय के क्षणों में अपने शरीर से अन्य शरीर का निर्माण करके श्र तकेवली या तीर्थकर के पास भेजकर तत्काल शंका का समाधान पाने की शक्ति को आहारक लब्धि कहा गया है। २५-शीतललेश्या लब्धि : __ अत्यन्त करुणा भाव से प्रेरित होकर तेजो लेश्या के कारण जलते हुए प्राणियों के प्रति करुणाशील होकर शीतल लेश्या को छोडना और Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का लक्ष्य-लब्धियाँ एवम् मोक्ष(२३६) जलने से उनकी रक्षा करना इस लब्धि के गुण हैं । यह लब्धि तेजोलब्धि से विपरीत स्वभाव वाली होती है। २६ वैक्रियल ब्धि : इस लब्धि के प्रभाव से साधक अपने शरीर को छोटा-बड़ा, भारीहल्का कर सकता है। २७-अक्षीणमहानसल ब्धि : इस लधि के द्वारा साधक एक साथ ही हजारों व्यक्तियों को एक पात्र में से ही भोजन करा सकता है। फिर भी उस पात्र का भोजन तब तक समाप्त नहीं होता है जब तक वह मुनि स्वयं भोजन न कर ले । २८-पुलाक लब्धि : इस लब्धि की प्राप्ति करके अगर साधक चाहे तो वह चऋवर्ती सेना को भी पराजित कर सकता है लेकिन उसकी यह शक्ति अदृश्य होती है। इन लब्धियों का विवेचन प्रवचनसारोद्वार के अनुसार किया गया है। इन लब्धियों को तीन भेदों में बाँटा गया है-१-ज्ञान लब्धियाँ, २-शरीर लब्धियाँ, तथा ३-पद लब्धियाँ । ज्ञान लब्धियों के अन्तर्गत अवधि लब्धि, ऋजुमति लब्धि, विपुलमति लब्धि, केवल लब्धि, कोष्ठक लब्धि, पदानुसारिणी लब्धि, तथा बीजबद्धि लब्धि आती हैं। __शरीर लब्धियाँ इस प्रकार से हैं-आमोसहि, विप्पोसहि, खेलोसहि, जल्लोसहि, सव्वोसहि, संभिन्नस्त्रोत, चारण लब्धि, आशीविष लब्धि, क्षीरमधुसर्पिरास्त्रवलब्धि, तेजोलब्धि , आहारकलब्धि, शीतललेश्यालब्धि, वैक्रियल ब्धि, अक्षीणमहानसलब्धि तथा पुलाकलब्धि । पद लब्धियों के अन्तर्गत-गणधर लब्धि, पूर्वधर लब्धि, अर्हत लब्धि, चक्रवर्ती लब्धि, बलदेव लब्धि, वासुदेव लब्धि आती है। ये सभी लब्धियाँ योगी को संयम एवं साधना से ही प्राप्त होती हैं । जब भी योगी इन लब्धियों का प्रयोग करता है तभी जन साधारण को इनकी एवं योगी की सम्पन्नता का पता चलता है Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३७)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन लेकिन इन लब्धियों के व्यामोह से योगी को दूर रहने को ही कहा गया है, क्योंकि योगी का लक्ष्य तो मोक्ष की प्राप्ति करना होता है। यदि कभी मजबूरी में योगी को इन लब्धियों का प्रयोग करना भी पड जाये तो उसको बाद में प्रायश्चित करना बेहद जरूरी है अन्यथा वह योगी साधक से विराधक बन जाता है। योगी को तप की साधना केवल कर्मो की निर्जरा के लिए ही करनी चाहिए, किसी भी लौकिक प्रयोजन के लिए नहीं करनी चाहिये । + लब्धियाँ मोक्ष की साधना में बाधक होती है। अतः इनकी प्राप्ति के लिए न तो साधना करनी चाहिये और न ही इनका प्रयोग वैदिक परम्परा में कैवल्य : ऋग्वेद एवं ब्राह्मणों के अनुसार मानव का लक्ष्य धरती पर उत्कृष्ट जीवन की प्राप्ति और स्वर्ग के देवताओं के सामीप्य में सुखोपभोग है, ब्राह्मण यथाविधि यज्ञानुष्ठान करने वालों को विविध देवताओं के सामीप्य में आनन्द लाभ की आशा दिलाते हैं। उपनिषदों, गीता, पुराणों, योगवाशिष्ठ एवं योगदर्शनादि वैदिक . ग्रन्थों में कहा गया है कि जब साधक अपने चित्त को पूरी तरह से शुद्ध कर लेता है तब उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष का वैदिक परम्परा में कैवल्य के नाम से भी वर्णन किया गया है । अमृतविन्दूपनिषद में मन के अवरोध को मोक्ष का उपाय बतलाया गया है। - योग के अभ्यास से साधक को मूक्ति एवं ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया गया है । = मोक्ष की प्राप्ति के लिए मुनि को पहले कुण्डलिनी शक्ति को जगाना पड़ता है जिससे वह मोक्ष के द्वार + शवैकालिक सूत्र ६/४ योगशतक,८३-८५ पातञ्जल योग सूत्र ३/३८-ते समाधाधुपसर्गाः व्युत्थाने सिद्ध यः । - अमृतविन्दूपनिषद् १/५ = योगात्संजायते ज्ञानं ज्ञानाद्योगः प्रवर्तते । (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् १९) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का लक्ष्य - लब्धियाँ एवं मोक्ष (२३८) का भेदन करता है । ÷ महर्षि पतञ्जलि के अनुसार जीवात्मा का सृष्टि के साथ कर्ता एवं भोक्ता का सम्बन्ध, या पुरुष एवं प्रकृति का सयोग ही दुख का कारण है..., एवं पुरुष व मन के संयोग का कारण अविद्या है X और इस अविद्या का बन्धन केवल योग के अनेक उपायों में से ही टूटता है । जब मुनि अपनी सभी वासनाओं एवं कर्मों की निर्जरा या क्षय कर देते हैं तब उनको कैवल्य की प्राप्ति होती है । यह कैवल्य वाणी एवं मन से अगोचर है। 4 अभीप्सित मोक्ष तो जीव और ब्रह्म के एक्य को समझ लेने पर इसी जीवन में मिल जाता है, जो इस बात को जान लेता है कि 'मैं तो ब्रह्म हूँ' ब्रह्माण्ड बन जाता है । स्वयं देवता भी ऐसा बन जाने से नहीं रोक सकते, क्योंकि वही तो इस विश्व की आत्मा है । + अथवा फिर मुण्डक के शब्दों में 'जो परब्रह्म को जान लेता है वही स्वयं ब्रह्म बन जाता है ।' इस तथ्य का निराज्ञान ही मोक्ष है, ऐसा योगी सब प्रकार की ईहा एवं एषणाओं से परे पहुँच जाता है, उसके पुण्य एवं पापों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । बौद्ध परम्परा में निर्वाण : बौद्ध मत में यह जगत् एक कोरी यन्त्रणा है, और मानव का परम पुरुषार्थ उस इच्छा को नष्ट करके, जो कि उसे एक जन्म : (क) ध्यानबिन्दूपनिषद् ६५-६६ (ख) योगचूडामण्युपनिषद् ३६-४४ ... योगदर्शन २/१७ X तस्यहेतुरविद्या । ( योगदर्शन २ / २४ ) * वासना प्रक्षयो मोक्षः सा जीवन्मुक्तिरिष्यते । विवेकचूड़ामणि ३१८ ) 4 यतो वाचो निवर्त्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चनेति ॥ । तैत्तिरीयोपनिषद् २/४ / १) 5 गौडपाद : माण्डूक्य कारिका ४.६८ + वृहदारण्यक उपनिषद् १/४/१० वही ३/२/६ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन से दूसरे जन्म के चक्कर में फँसाये रखती है इस यन्त्रणा से छुटकारा पा लेना है । बौद्ध दर्शन में मोक्ष या कैवल्व को ही निर्वाण की उपाधि दी गई है वहाँ कर्मों को मनुष्य की छाया के समान बतलाते हुए संसार की जड़ कहा है । क्योंकि कर्मों से विपाक प्रवर्तित होता है और स्वयं विपाक कर्म सम्भव है और कर्म से ही संसार चक्र प्रारम्भ होता है । बौद्ध योग के अनुसार निर्वाण एक आध्यात्मिक अनुभव है, जिसकी प्राप्ति के लिए चित्त की शुद्धि बहुत जरूरी है क्योंकि चित्त की शुद्धि ही निर्वाण कहलाती है। जब साधक निर्वाण की अवस्था में पहुँच जाता है तत्र उसके चित्त में मल नहीं रहता बौर यही कारण है कि जब योगी इस अवस्था में पहुँच जाता है तब उसे किसी की भी आकांक्षा नहीं रहती और उसे संसार में लौटने का कोई भय नहीं रहता वह परम सुख को प्राप्त कर लेता है । - मिलिन्दप्रश्न के अनुसार निर्वाण का स्वरूप इस प्रकार से कहा गया है कि तृष्णा के निरोध से उपादान का, उपादान के निरोध से बूढ़ा होना, मरना, शोक, दुःख, बेचैनो, परेशानी आदि सभी प्रकार के दुःख समाप्त हो जाते हैं । * तृष्णा, राग-द्वेष, मोह आदि संसार की जड़ तथा योगी के मन को चंचल बनाने के कारण हैं, जिनसे विविध प्रकार के कर्मों का आस्स्रव होता है । जब योगी राग-द्वेष मोह आदि का नाश कर देता है तो यही अवस्था निर्वाण कहलाती है । निर्वाण की अवस्था में दुःख लेशमात्र भी नहीं रहता 4, बल्कि वह स्थिति आनन्द की या सुख को पराकाष्ठा में पहुँच जाती . .... -- + मिलिन्द प्रश्न ३/२/१६ कम्मा विपाका वतन्ति विपाको कम्म सम्भवो । कम्मा पुनभवो होति एवं लोको पवत्ततीति ॥ (विसुद्धिमग्ग) विसुद्धीति सम्बलविरहितं अच्चन्तपरिसुद्ध निब्बाण वेदितव्यं । ( वही १ / १५ ) निब्बानं परमं सुखं । ( धम्मपद १५ / ८ ) * मिलिन्द प्रश्न, पृ० ८५ छेत्वा रागञ्च दोसञ्च ततो निब्बानामेहिसि । ( धम्मपद २५ / १०) 4 मिलिन्द प्रश्न, पृ० ३८६ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का लक्ष्य-लब्धियाँ एवम् मोक्ष (२४०) है। यह स्थिति केवल मन के द्वारा ही की जा सकती है, यह इन्द्रियों काल आदि से नहीं जानी जा सकती।x जैन परम्परा में मोक्ष : वैसे तो सभी सम्प्रदायों में मोक्ष को बहुत ही महत्व दिया है लेकिन जैन परम्परा में मोक्ष का स्थान सर्वोपरि माना गया है । साधक आत्मविकास की सीढ़ियों को क्रमशः पार करता हआ जब मात्म स्वरूप को पूरी तरह से पहचान लेता है और आत्म विकास की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है तब उसकी वह स्थिति मोक्ष हो है । मनुष्य की योनि मे ही जीव को मोक्ष की प्राप्ति सम्भव होती है । बन्ध हेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब कर्मो का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है । * साधक जब आत्मा एव बन्ध को अलग-अलग कर देता है तो वही मोक्ष कहलाता है। + जब बन्धावस्था को प्राप्त जीव और कर्मो के प्रदेश सदा के लिए एकदूसरे से अलग हो जाते हैं अर्थात् किसी भी कर्म का आत्मा के साथ किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं रह पाता तो यही मोक्ष की अवस्था है । ... आत्मा कर्ममल, रागद्वेष मोह और शरीर को जब अपने से हमेशा के लिए विलग कर लेती है, तब उसे ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप जो विलक्षण अवस्था प्राप्त होती है वह x वही पृ० ३३२ (क) बन्ध हेत्वाभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । (तत्त्वार्थ सूत्र १०/२) (ख) राजवार्तिक १/४/२०/२७/११ (ग) आप्तपरीक्षा ११६ । (घ) मोक्षः कर्मक्षयो नाम भोग संक्लेश वणितः [पूर्वसेवाद्वा त्रिशिका, २२] (ड.) स्याद्वादमंजरी २७/३०२ । + आत्मबन्धयोद्विधाकरणं मोक्षः। (समयसार, आ० २८८) ... आत्यन्तिक-स्वहेतोर्यो विश्लेषो जीव-कमणोः।। स मोक्ष फलमेतस्य ज्ञानाद्याः क्षायिकाः गुणाः ॥ [तत्त्वानुशासन २३०] Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४१) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन मोक्ष कहलाती है ।+ जब आत्मा का चतुर्गतियों में भ्रणमरुक जाता है तब समस्त कर्मो का आवागमन रुक जाता है और आत्मा स्वभावत: निजस्वरूप में स्थित हो जाती है। संवर के द्वारा आत्मा में नये कर्मों का प्रवेश तक रुक जाता है और निर्जरा से इकट्ठे हुए कर्मों का पूरी तरह से क्षय हो जाता है । तब आत्मा अनन्त सुख का अनुभव करती है। जैन आचार्यों ने मोक्ष के अनेक भेद किये हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने व्यतिरेक, अन्वय एवं सुख की प्रधानता से मोक्ष को तीन प्रकार का माना है।- जबकि देवसेनाचार्य ने द्रव्य एवं भाव के भेद से उसे दो प्रकार वाला कहा है ।= धबला में भी मोक्ष के तीन भेद कहे गये हैं ।x १-जीव मोक्ष, २-पुद्गल मोक्ष एवं ३जीव पुद्गल मोक्ष । सामान्यतः मोक्ष एक ही प्रकार का होता है, + (क) निः शेष कर्मसम्बन्ध परिविध्वंसलक्षणः । जन्मनः प्रतिपक्षो यः स मोक्षः परिकीर्तितः ।। [ज्ञाना र्णव ३/६] (ख) निखशेषनिराकृत कर्ममलकलंङ कस्याशरीरस्यात्मनोऽचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादिगुणमब्याबाध सुखात्म्यान्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष इति । [सर्वार्थसिद्धि ९/१ की उत्थानिका १/८] (ग) .......निर्विकल्प समाधिस्थानां परम योगिनां रागादिरहितत्वेन स्वसंवेद्यमात्मसुखं तद्विशेषेणातीन्द्रियम् ॥ (वृहद्रव्यसंग्रह, टी० ३७/१५४/५] (ध) परमात्मप्रकाश, मूल २/१० भणिदे मणुवावारे भमंति भूयाइ तेसु रायादी। ताण विरामे विरमदि सुचिरं अप्पा सरूवम्मि ।। (ज्ञानसार ४६) - ज्ञानार्णव ३/६-८ = तं मुक्खं अविरुद्धं दुविहं खलु दव्वभावगदं । (नयचक्र वृहद् १५६) x सो मोक्खो तिविहो-जीव मोक्खो पोग्गलमोक्खो जीवपोग्गल मोक्खो चेदि । (धवला १३/५/५/८२३/४८/१) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का लक्ष्य-लब्धियाँ एवम् मोक्ष (२४२) द्रव्य, भाव और भोक्तव्य की दृष्टि से अनेक प्रकार का है ।+ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग की प्रवृत्ति ये सब संसार के बन्धन के कारण माने गये हैं और इन्हीं कारणों के कारण जीव अपनी विवेक शक्ति को खो देता है और संसार की सभी बस्तुओं को भ्रान्तिवश अपनी समझने लगता है उसकी यही अवस्था संसार में भ्रमण करने का कारण है। मोहनीय कर्म के क्षय से एवं ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों के क्षय से जोव को केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। जैनाचार्यों ने केवलज्ञान की इस अवस्था को जीव की अरिहन्त दशा माना है। इस अरिहन्त अवस्था में मन, वचन एवं काय के योग में से सूक्ष्म काय योग का व्यापार चलता रहता है । तेरहवे गुणस्थान वाले इस ध्यान में श्वास क्रिया के शेष रहने के कारण जीव को केवलज्ञान की ही प्राप्ति होती है लेकिन मुक्ति नहीं होतो । = मुक्ति प्राप्त करने के लिए उसे चारों धातिया कर्मो का क्षय करना पड़ता है और उसकी जो श्वास प्रश्वास की क्रिया है उसका भी निरोध करना पड़ता है तब उसकी आत्मा के प्रदेशों में किसी भी प्रकार की हलचल शेष नहीं रहती वह अयोग केवली अवस्था को प्राप्त कर लेता है।- मोक्ष को प्राप्त करने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र की एकरूप परिपूर्णता जरूरी होती है। - मोक्ष कर्मों के क्षय से ही होता है। कर्मों का क्षय सम्यग्ज्ञान से ही होता है और सम्यग्ज्ञान + सामान्यादेको मोक्षः द्रव्य भावभोक्तव्य भेदादनेकोऽपि । (राजवार्तिक १/७/१४/४०/४२) मोहक्षयाज्ज्ञानदशनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । (तत्त्वार्थसूत्र १०/१) = वृहद्रव्यसंग्रह, टी. ४८/२.. - ध्यानशतक, विवेचन, ८२/४४ x (क) सम्यग्ज्ञानादिकं प्राहुजिना मुक्तेनिबन्धनम् । तेनैव साध्यते सिद्धिर्यस्मात्त दथिभिः स्फुटम् ॥ (ज्ञानार्णव ३/११) (ख) सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः । (तत्त्वार्थसूत्र १/१) Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४३] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ध्यान के द्वारा ही सिद्ध होता है। ज्ञान की एकाग्रता ध्यान से ही सिद्ध होती है। इसलिए ध्यान ही आत्मा का हित माना गया है।+ आत्मा स्वयं ही कर्ता-धर्ता एवं गुरु होती है। * सम्पूर्ण कमों के क्षय होने पर आत्मा स्वयं ही सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाती है तथा एक क्षण में ऊर्ध्वगमन कर लोकशिखर के अग्रभाग में पहुँच जाती है । जहां किसी भी प्रकार का राग भाव नहीं रहता ।= वहां आत्मा हमेशा समता भाव से परमानन्द का अनुभव करती हुई अचल रहती है ।- मुक्तावस्था में होने के कारण कर्मो के द्वारा आत्मा का शरीर निर्माण नहीं होता, .... लेकिन मुक्तात्मा का आकार प्रायः उस शरीर हो जितना रह जाता है जिसे त्यागकर वह मुक्त हुआ है और वह देह के प्रतिबिम्ब रूप रुचिराकार ही होता है । A + मोक्षः कर्मक्षयादेव स सम्यग्ज्ञानातः स्मृतः। ध्यानसाध्यं मतं तद्धि तस्मात्तद्धितमात्मनः ।। (ज्ञानार्णव ३/१३) नयत्यात्मानमात्मेव जन्म निर्वाणमेव च । गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः ।। (समाधि तन्त्र७५) (क) कर्म बन्धन विध्वंसावत्र ज्या-स्वभावतः। क्षण नैकेन मुक्तात्मा जगच्चूडाग्रमच्छति।।(तत्त्वानुशासन २३१) (ख) तदन्तर मूवं गच्छत्यालोकान्तात् । तत्त्वार्थ सूत्र १०/५) = द्वेषस्याभावरूपत्वाद् द्वेषश्चैक एवहि। रागात् क्षिप्र माच्चातः परमानन्दसंभवः ॥ (पूर्वसेवाद्वात्रिशिक ३२) - मुक्त्युपायेष नो चेष्टामल नायैव यत्तः। (मुक्त्य द्वेषप्राधान्य द्वात्रिशिका१) .... शरीर न से गृहणाति भूयः कम व्यपायत: । कारणख्यात्यये कार्य न कुत्रापि प्ररोहति ॥[योगसारप्राभृत ७/१६] A (क) पुसः संहार-विस्तारौ संसारे कर्म निमितौ। मुक्तौ तु तस्य तो न स्तः क्षयात्तद्धेतु-कर्मणाम् ॥ ततः सोऽनन्तर-त्यक्त-स्वशरीर-प्रमाणतः ।। किचिदूनस्तदाकारस्तत्रास्ते स्व-गुणात्मकः ॥ [तत्त्वानुशासन २३२-३३] (ख) अन्याकाराप्तिहेतुर्न च भवति परो येन तेनाऽल्पहीनः ।। प्रागात्मोपात्त देहप्रतिकृतिरुचिराकार एवं ह्यमूर्तः ।। (सि. भ. पूज्यपादः तत्त्वानुशासन पृ० १६५) Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का लक्ष्य - लब्धियाँ एवम् मोक्ष ( २४४ ) एक बात ध्यान देने योग्य यह है कि आत्मा जब तक संसार के बन्धन में रहती है तब तक वह नाम कर्म के उदय के कारण संकोचविस्तार शरीर धारण करती है और मुक्त हो जाने पर अशरीरी बन जाती है लेकिन आत्मा जिस अन्तिम शरीर के द्वारा मोक्ष को प्राप्त करती है, उसका १/३ भाग अर्थात् मुख, नाक, पेट खाली अङग होते हैं, बाकी २/३ भाग में उस जीवात्मा के उतने प्रदेश उस सिद्ध स्थान में व्याप्त हो जाते हैं, जिसे अवगाहना कहते हैं। 5 प्रत्येक जीव का अपना अस्तित्व होता है । ऐसी ही आत्मा संसार में दुबारा नहीं आती क्योंकि वह वीतराग, वीतमोह और वीतद्व ेष होती है । एक दीपक के प्रकाश में जैसे अनेकों दीपकों का प्रकाश समा जाता है, उसी प्रकार एक सिद्ध में अनेक सिद्धों को अवकाश देने की जगह होती है । सिद्धों में लोहे के गोले के समान नीचे आने को विवश गुरुता का और वायु से प्रेरित आक की रूई की तरह हल्का, लघु गुण भी होता है जिसे 'अगुरुलघुगुण' भी कहते हैं । + इस प्रकार सिद्धात्मा शरीर, इन्द्रिय, मनविकल्प एवं कर्मों से रहित होकर अनन्त वीयं को प्राप्त होता है और नित्य आनन्दस्वरूप में लीन हो जाता है । कर्मबन्ध का क्रम अवरुद्ध होने पर आत्मा अविद्या, अस्मिता, रागद्वेष एवं अभिनिवेशरूप क्लेशों के क्षीण हो जाने पर, विघ्नबाधाओं 5 उत्तराध्ययन सूत्र ३६ / ६४ + एकदीपप्रकाशे नानादीपप्रकाशवदेकसिद्धक्षेत्रे सङ्करव्यतिकर दोष परिहारेणानन्त सिद्धावकाशदान सामथ्यं मवगाहन गुणो भण्यते । यदि सर्वथा गुरुत्वं भवति तदा लोहपिण्डवदधः पतनं, यदि च सर्वथा लघुत्वं भवति तदा वाताहतातुर्क लवत्सर्वदैव भ्रमणमेव स्यान्न च तथा तस्मादगुरुलघुत्वगुणोऽभिधीयते । (वृहद्रव्यसंग्रह, टी. १४/४२/४) निष्कलः करणातीतो निर्विकल्पो निरंजनः । अनन्तवीर्यतापन्नो नित्यानन्दाभिनन्दितः ।। (ज्ञानार्णव ४२/७३) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४५] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन से रहित, शाश्वत आनन्द से युक्त मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेती है । इस सिद्धावस्था में आत्मा निद्रा, भय, भ्रान्ति, राग, द्वेष, पीड़ा, शोक, मोह, जरा, जन्म, मरण, क्षुधा, खेद, उन्माद, मूर्छा बादि से रहित हो जाती है तथा आत्मा में न तो वृद्धि होती है और न ही ह्रास | मुक्तात्मा के द्वारा जो आनन्द अनुभव किया जाता है वह अनिर्वचनीय है । योग परम्परा में सिद्ध आत्मा को अनेक नामों से पुकारा गया है । ब्राह्मणों ने उस सिद्धात्म को ब्रह्म कहा है, वैष्णवों ने विष्णु, तापसों ने रुद्र और जैन, बौद्ध एवं कौलिक आदि ने उसे क्रमशः जिनेन्द्र, बुद्ध एवं कौल कहा है । X चाहे इस सिद्धावस्था को अर्थात् निर्वाण को किसी भी नाम से किसी भी रूप में जाना जाये वह अनेक नामों वाला होकर भी एक ही तत्त्व का बोध कराता है । * इस प्रकार से हम देखते हैं कि जो भी सार पदार्थ है वह मोक्ष है और ध्यान की आराधना के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से सम्बन्ध विच्छेद रूप अभाव का नाम मोक्ष है। कर्मों. का यह अभाव ध्याग्नि से उन्हें जलाने के द्वारा बनता है । + एकान्तक्षीणसंक्लेशो निष्ठितार्थस्ततश्च सः । निराबाधः सदानन्दो मुक्तावात्माऽवतिष्ठते ।। ( योगबिन्दु ५०४ ) निद्रातन्द्राभयभ्भ्रान्तिरागद्वेषात्ति संशयः । शोकमोह जराजन्ममरणाद्यैश्च विच्युतः ॥ क्षुत्तृट्श्रममदोन्मादमूर्च्छामात्सर्य वर्जितः । वृद्धिह्रासव्यतीतात्मा कल्पनातीतवैक्षवः ।। (ज्ञानार्णव ४२/७१-७२ ) X ब्राह्मणैर्लक्ष्यते ब्रह्मा विष्णुः पीताम्बरंस्तथा । रुद्रस्तपस्विभिर्दृष्ट एष एव निरंजनः ।। जिनेन्द्रो जल्प्यते जैनैः बुद्धः कृत्वा च सौगतैः । कौलिकैः कौल आख्यातः स एवायं सनातनः ।। (योगप्रदीप ३३/३४) ** संसारातीततत्त्वं तु परं निर्वाणसंज्ञितम् । यद्धयेकमेव नियमात् शब्द भेदऽपि तत्त्वतः ॥ ( योगदृष्टि समुच्चय १२८) Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम परिच्छेद उपसंहार विश्व के सभी धर्मों का मूल स्त्रोत एक ही रहा है। सद्धमं वही है जो मानव को दुखों से मुक्त करके उसे निर्मल आनन्द स्वरूप प्रदान करे । मूल सद्धर्म के ही मूल आधार तत्वों को लेकर विभिन्न सम्प्रदाय परिपूष्ट हुए हैं । भारत के लब्ध प्रतिष्ठित वैदिक, बौद्ध एवं जैन- इन तीनों प्राचीन धर्मो का समान रूप से एक मौलिक सिद्धान्त है कि मानव जीवन का अन्तिम साध्य उसके आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता और उससे प्राप्त होने वाला परम कैवल्य या मोक्ष है । आत्म विकास के लिए ध्यान योग एक प्रमुख साधना है। भारतीय संस्कृति के समस्त विचारकों, तत्त्व-चिन्तकों एवं मननशील ऋषि मुनियों ने योग-साधना के महत्व को स्वीकार किया है। . वैदिक परम्परा में 'योग' शब्द का 'समाधि' एवं 'तप' के रूप में प्रयोग हुआ है लेकिन उपनिषदों में ध्यान का प्रचुर मात्रा में उल्लेख किया गया वहाँ ध्यान के द्वारा ही परमात्मा की प्राप्ति का निर्देश दिया गया है । ध्यान के द्वारा चित्त एक बिन्दु पर वेन्द्रित किया जाता है । गीता में भी भक्ति योग, ज्ञान योग एवं कर्मयोग के साथ ध्यान योग के महत्व को बतलाया गया है । बौद्ध योग में भी ध्यान की अनेक क्रियाओं के विषय में बतलाया गया है। बौद्ध परम्परा में तो ध्यान का इतना महत्त्व बढ़ा कि वहाँ एक सम्प्रदाय 'ध्यान सम्प्रदाय' के नाम से विख्यात हुआ। __ जैन परम्परा में तो ध्यान' का एक विशिष्ट एवं उच्च स्थान है । वहाँ ध्यान का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है । यहाँ ध्यान के पर्याय रूप में तप, समाधि, धीरोध, समरसीभाव एवं सबीर्यध्यान आदि का वर्णन किया गया है । चित्त को किसी भी एक विषय पर केन्द्रित करना अथवा मन, वचन एवं चित्त के निरोध को ध्यान कहते हैं । ध्यान को चार प्रकारों का बतलाते हुए उसे दो भागों में विभक्त किया गया है, जो कि अप्रशस्त ध्यान एवं प्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत आते हैं। अप्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत आत ध्यान एवं रौद्र ध्यान आते हैं, जिन्हें अशुभ ध्यान भी कहा जाता है । आर्त ध्यान Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४७) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन एव रौद्र ध्यान संसार बन्धन के हेतु माने गये हैं, जो कि दुखों से व्याप्त एवं समस्त क्लेशों से भरे हुए हैं । उत्कृष्ट दुखों को देने वाली नरक गति ही इन ध्यानों का फल है । इन दोनों ध्यानों के चारचार प्रभेद भी बतलाये गये हैं । प्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत धर्म्य ध्यान एवं शुक्ल ध्यान आते हैं जो कि शुभ ध्यान होते हैं । धर्म ध्यान तो आत्म विकास की प्रथम सीढ़ी है । इससे साधक को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और आत्मज्ञान को प्राप्त करके वह अपने कर्मों को क्षीण कर लेता है । जब साधक अपने कर्मों को निर्जरा कर देता है तो अन्त में उसे मोक्ष पद की प्राप्ति होती है । साधक जब ध्यान की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है तब उसे शुक्ल ध्यान होता है । शुक्ल ध्यान "ध्यान योग' की सर्वोत्तम अवस्था मानी गई है । धर्म ध्यान को करते हुए साधक शुक्ल ध्यान की अवस्था में पहुँचता है । शुक्ल ध्यान में हो वित्त का निरोध पूर्ण रूप से हो जाता है । साधक के समस्त कर्मो का क्षय हो जाता है और मन आत्मा की सत्ता में विलय हो जाता है । इस ध्यान का फल मोक्ष है । धर्म एवं शुक्ल के भी चार-चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । शुक्ल ध्यान के प्रथम को दो ध्यान अर्थात् पृथक्त्ववितकंवीचार एवं एकत्ववितर्कअवीचार शुक्ल ध्यान, बौद्ध एवं पतञ्जलि के योगदशन से मिलते-जुलते हैं । बौद्ध योग में बतलाये गये ध्यान के भेदों में वितर्क एवं विचार ध्यान बतलाया गया है। सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती शुक्ल ध्यान एवं वैदिक योग परम्परा में प्रयुक्त अध्यात्म प्रसाद और ऋतंभरा में अर्थ साम्यता मालूम पड़ती है । पतञ्जलि के योगदर्शन में असम्प्रज्ञात समाधि का उल्लेख किया गया है, जोकि शुक्ल ध्यान के अन्तिम भेद अर्थात् समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती से मिलती-जुलती है । इस अवस्था में साधक की श्वासोच्छ् वास की प्रक्रिया भी खत्म हो जाती है और वह जीवन्मुक्त हो जाता है । इस अवस्था को अर्हन्त अवस्था भी कहते हैं एवं साधक को अयोग केवलो कहते हैं । वैदिक, जैन एवं बौद्ध इन तीनों परम्पराओं में ध्यान का उद्देश्य आत्मा की पहचान करना है । आत्मा से मुक्ति अथवा मोक्ष Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार (२४८) की प्राप्ति एकदम नहीं होती बल्कि धीरे-धीरे कर्मों के क्षय होने पर होती है । जैसे-जैसे साधक का आत्मिक विकास होता है, वैसे-वैसे ही वह जीवन्मुक्ति के करीब पहुचने लगता है। जैन ध्यान परम्परा की सामान्य विशेषताये :.. जैन ध्यान परम्परा की सामान्य विशेषताओं को संक्षेप में निम्नलिखित रूप से व्यक्त किया जा सकता है :सदाचार पर बल : जैन परम्परा में सदाचार को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है । आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है : चारित्त खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्तिणिदिदट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥ चारित्र ही धर्म है । धर्म वह है जो समभाव शब्द से निर्दिष्ट किया गया है । समभाव मोह और क्षोभ से रहित आत्मा को निमंल परिणति का नाम है । इसी निर्मल परिणति की प्राप्ति होना ध्यान का उद्देश्य है । इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु जैन धर्म में पावकों के लिए पच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षा व्रत, सप्तव्यसन का त्याग, अष्टमूलगुण का धारण तथा षडावश्यकों के पालन का उपदेश दिया गया है । मुनि के लिए पंचमहाव्रत, तीन गुप्तियाँ, पाँच समितियाँ, दस धर्म. परीषह जय एव चारित्र का उपदेश दिया गया है। इस प्रकार आचरण की साधना के द्वारा परमात्मत्व अथवा मोक्ष की उपलब्धि का मार्ग सुगम होता है तथा लौकिक जीवन में भी नैतिकता की प्रतिष्ठा होती है। संयम का पालन : भले प्रकार प्रवृत्ति करने को संवम कहते हैं । संयम का पालन करने वाला व्यक्ति पाँच इन्द्रियों और मन का निरोध करता है तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव को किसी भी प्रकार की पीड़ा न हो इस प्रकार का प्रयत्न करता है । संयम को रत्न कहा गया है। जिस प्रकार रत्न की सुरक्षा बड़े यत्न से की जाती है उसी प्रकार संयम की सुरक्षा बड़े यत्न से की जाती है। संयम से अनेक जन्मों में संचित पाप नष्ट हो Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४६)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन जाते हैं। यह संयम स्वर्ग नरक और पशु गति में नहीं है । यह नालस्य को हरने वाला और सुख का कर्ता कहा जाता है। तप: तप शब्द की अनेक व्युत्पत्तियाँ शास्त्रकारों ने दी हैं-१-तप्यते इति तपः । २-इच्छानिरोधस्तपः । ३-कमक्षयार्थं तप्यते इति तपः । जो तपा जाये उसे तप कहते हैं । इस प्रकार का तप प्रत्येक सांसा. रिक जीव के होता है, क्योंकि जीवन निर्वाह के लिए व्यक्ति कुछ न कुछ कठिन श्रम करता ही है किन्तु कर्मो के क्षय के लिए इन्द्रिय और विषयों का परिहार करते हुए प्राणि पीड़ा से दूर रहते हुए दूसरे के अनुग्रह की बुद्धि से जो तप किया जाता है वही सार्थक है। इससे ही कर्मो का क्षय होता है । एक स्थान पर कहा गया है : अपत्यवित्तोत्तर लोक तृष्णया तपस्विन: के चन् कमं कुर्वते । भवान् पुनः जन्मजरा जिहासया त्रयी प्रवृत्तिं समधीरनारुणत् । कुछ लोग सन्तान के अर्थ तप की साधना करते हैं, कुछ लोग धन के लिए तप तपते हैं, कुछ लोग परलोक में सुख की प्राप्ति के लिए तप करते हैं, किन्तु हे भगवन् ! आप जन्म जरा और मरण का क्षय करने के लिए तप करते हैं : तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है"तपसा निर्जरा च” अर्थात तप से संवर (कर्मो के आने का रुकना) तथा निर्जरा (कर्मों का आंशिक क्षय) होता है। आंशिक रूप से कर्म क्षय होते-होते मोक्ष की उपलब्धि होती है इस प्रकार तप की बड़ी सार्थकता है । यह तप ध्यान में लवलीन हुए बिना नहीं हो सकता । इसीलिए तप के बारह भेदों (छह बाह्य तप-अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश एवं आभ्यन्यर तप-प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्यूत्सर्ग और ध्यान) में ध्यान को अन्तिम स्थान दिया गया है क्योंकि तप की चरमपरिणति ध्यान में होती है। अकिञ्चनत्व की भावना :__ जैन धर्म में अकिञ्चनत्व की भावना पर बड़ा जोर दिया गया है। आचार्य पूज्यपाद ने कहा है: Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार (२५०) अकिञ्चनोऽहं इति आस्व त्रैलोक्याधि पतिर्भवेत् । योगिगम्यम् तवप्रोक्तम रहस्यं परमात्मनः ।। अर्थात् मैं अकिञ्चन ह इस प्रकार की भावना करना चाहिए क्योंकि इससे तीनों लोकों के अधिपतित्व की प्राप्ति होती है । तुझ परमात्मा का जो रहस्य है वह योगिगम्य है। यथार्थ में जिसकी शरीर के साथ में भी एकता नहीं है उसकी पुत्र कलत्रादि के प्रति एकता कैसे हो सकती है । चर्म के अलग कर देने पर शरीर में रोमकप की स्थिति वहाँ रह सकती है। तात्पर्य यह है कि यह भावना रखनी चाहिए कि एक आत्मा को छोड़कर मेरा संसार में कुछ भी नहीं है । इस प्रकार की भावना पूर्वक समस्त पर वस्तुओं यहाँ तक कि रागद्वेषादि का भी जब परित्याग कर दिया जाता है, तो अकिञ्चनत्व की प्राप्ति होती है । गुणस्थान : साधक नब आत्म विकास के विभिन्न सोपानों को क्रमशः पार करता हुआ आत्मोन्नति की ओर जब अग्रसर होता है तो उसकी इस अवस्था को जैनागम में गुणस्थान नाम से कहा गया है। किस गुणस्थान में कौन सा ध्यान होता है यह विवरण भी आगम में उपलब्ध होता है । अन्त में गुणस्थानातीत अवस्था होती है जो चरम साक्ष्य है। अनुप्रेक्षा : साधक को आत्मोन्नति के लिए संसार शरीर और भोगो के स्वभाव का निरन्तर चिन्तन करते रहना चाहिये । इसे ही जैन परिभाषा में अनुप्रेक्षा कहा गया है। अनुप्रेक्षा से संसार का स्वरूप यथार्थ रूप में सामने आ जाता है । तब साधक अपने कर्तव्य कर्म का निश्चय करता हआ आगे बढ़ता है । ये अमुप्रेक्षाये द्वादश कही गयी हैं-१-अनित्य, २-अशरण, ३-संसार, ४-एकत्व, ५-अन्यत्व, ६अशुचि, ७-आस्तव, ८-संवर, 8-निर्जरा, १०-लोक, ११-बोधि दुर्लभ तथा १२-धर्म स्वाख्यात तत्व । इनका विस्तृत विवरण दिया जा चुका है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५१) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन मोह क्षय : मोह को सब कर्मो का राजा कहा गया है क्योंकि मोह की स्थिति सबसे उत्कृष्ट बतलायी गयी है। जिस प्रकार राजा पर विजय प्राप्त होने पर सेना अपने आप विजित हो जाती है उसी प्रकार मोह के पराजित हो जाने पर समस्त कर्मो की सेना अपने आप पराजित हो जाती है। आचार्य पूज्यपाद ने मोह की शक्ति के विषय में कहा है मोहेन संवृत्तं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि । मत्तः पुमान् पदार्थानाम् यथा मदन कोद्रवैः ।। ___ मोह से ढका हुआ ज्ञान स्वभाव की उपलब्धि नहीं कर सकता है । जिस प्रकार मदन कोद्रव का सेवन कर कोई व्यक्ति मदमत्त हो जाता है। ध्यान के लिए मोह दूर होना आवश्यक है। मोह का आवरण दूर हो जाने पर केवल ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है जो जीवनमुक्त जैसी स्थिति है । मोह को गाढ़ अन्धकार की उपमा दी गयी है, जिस प्रकार गाढ़ अन्धकार में पदार्थो का अवलोकन नहीं होता उसी प्रकार मोह के कारण पदार्थ का सम्यक अवलोकन नहीं हो पाता है। अतः जैन धर्म में स्थान-स्थान पर मोह को दूर करने का उपदेश दिया गया है। अतीन्द्रिय आनन्द की उपलब्धि : संसार में सभी व्यक्ति सुख अथवा आनन्द की उपलब्धि करना चाहते हैं। यह आनन्द इन्द्रिय सुख में नहीं है क्योंकि वह नष्ट होने वाला है । आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है___ सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विषमं। जं इन्दिए हि लद्धं तं सव्वं दुक्खमेव तहा। जो पर की अपेक्षा रखता है, बाधा सहित है, नष्ट हो जाने वाला है, बन्ध का कारण है और विषम है ऐसा इन्द्रि यजन्य सुख वास्तव में दुःख ही है। योगीजन इस ऐन्द्रियिक सुख का परित्याग कर अतीन्द्रिय सुख की उपलब्धि करना चाहते हैं । ध्यान के द्वारा अतीन्द्रिय सुख की Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार [२५२] प्राप्ति होती है, जिसके लिए किसी अन्य की अपेक्षा नहीं जो बाधा रहित तथा अविनश्वर है एवं बन्ध का कारण नहीं है। यह सुख ध्यान के द्वारा निज में लीन होने से ही होता है । कहा है यों चिन्त्य निज में थिर भये फिर अकथ जोआनन्द लहो। सो इन्द्रमाहिं नरेन्द्र वा अहमिन्द्र के नाही कहो ।। निज में स्थिर हो पर जो परम आह्लादरूप सुख की उपलब्धि होती है, वह इन्द्र, अथवा अहमिन्द्र के नहीं हो सकती है । इसी अतीन्द्रिय आनन्द की खोज भारतीय दर्शन का चरम लक्ष्य है । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ सूची १-अंगुत्तरनिकाय-प्रथम भाग, प्रकाशक महाबोधि सभा, कलकत्ता। २-अथर्ववेद आक्सफोर्स प्रेस, लन्दन । ३-अध्यात्म परीक्षा४-अध्यात्म रहस्य-जुगल किशोर मुख्तार, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली। ५-अध्यात्मसार-यशोविजय, केशर बाई ज्ञान भण्डार स्थापक, जामनगर । ६-अनगारधर्मामृत७-अमरौध शासन८-अमित गति श्रावकाचार६-अमृतनादोपनिषद् गीता प्रेस, गोरखपुर । १०-अमृतबिन्दूपनिषद् प्रकाशक पाण्डुरंग जावजी बम्बई । ११-अभिधान चिन्तामणि-हेमचन्द्र, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार सूरत । सन् १६४६ १२ -आचाराङ सूत्रम्-अखिल भारतीय श्वेताम्बर स्थापक जैन शास्त्रो द्धार समिति सन् १६५७ १३-आत्म प्रबोध१४-आत्मानुशासन-गुणभद्र, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई । १५-आदिपुराण-भाग १-जिनसेनाचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी । १६-आप्त परीक्षा-मुनि विद्यानन्द, प्रकाशक जैन साहित्य प्रसारक सभा बम्बई । १७-आध्यात्मिक विकास क्रम-पं. सुखलाल संघवी, गुर्जर ग्रन्थ रत्न कार्यालय, अहमदाबाद । १८-आवश्यक नियुक्ति-हरिभद्र, आगमोदय समिति, बम्बई । १६-इष्टोपदेश-पूज्यपाद, प्रकाशक, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद राजचन्द्र आश्रम, अगास, गुजरात ।। २०-उत्तराध्ययनसूत्रम्-अनुवादक आत्माराम जी महाराज, जैनशास्त्र माला कार्यालय, लाहौर । २१-उपासकाध्ययन-सोमदेवसूरि, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी। २२-ऐतरेयोपनिषद् गीता प्रेस, गोरखपुर। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) २२-ऐतरेय ब्राह्मण२३-औपपातिक सूत्रम्२४-ऋग्वेद संहिता-प्रकाशक स्वाध्याय मण्डल, औध, सतारा। २५-कसायपाहुड२६-कठोपनिषद् गीता प्रेस, गोरखपुर। २७-गुणभद्र श्रावकाचार२८-गोम्मटसार (जीवकाण्ड)-नेमिचन्द्र, परमश्र त प्रभावक मण्डल, बम्बई । २६-धेरण्डसंहिता३०-चारित्रसार-चामुण्डरायविरचित, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थ __माला प्रकाशन, बम्बई। ३१-छहढाला-दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर, सोनगढ़। ३२-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग १,-क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी सन् १६७० ३३-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग २-क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी सन १६७१ ३४-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग ३-क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी सन १९७२ ३५-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग ४-क्ष० जिनेन्द्र वर्णी भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी सन् १९७२ ३६-तत्वार्थराजवातिक-अकलङ कदेव, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन १६५७ । ३७-तत्त्वार्थ सूत्र-उमास्वाति, प्रकाशक गणेश प्रसाद वर्णी, जैन ग्रन्थमाला भदैनी, काशी, सम्वत् २४७६ ३८-तत्त्वानुशासन-रामसेनाचार्य, प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, सन १६६३ ३६-तैत्तिरीयोपनिषद् गीता प्रेस, गोरखपूर । ४०-तिलोयपण्णत्ती-आचार्य यति वृषभ, प्रकाशक जीवराज जैन ग्रन्थ __ माला, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर । ४१-तन्त्रालोक-अभिनव गुप्त, महाराज जम्मू एण्ड कश्मीर स्टेट श्रीनगर । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५ ) ४२-दर्शन और चिन्तन पं० सुखलाल संघवी, जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, बनारस, सन् १६५७ । ४३-दशवैकालिक सूत्र- श्री शय्यशं भवसूरि, अगरचन्द्र मैरोदान सेठिया जैन संस्था, बीकानेर | ४४-दीघनिकाय सम्पादक जगदीश कश्यप एवं राहुल सांस्कृत्यायन, महाबोधि सभा, सारनाथ । ४५ - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका यशोविजय, जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर । ४७-धम्मपद - धर्मरक्षित, मास्टर खेलाडीलाल एण्ड सन्स, बनारस । ४८ - ध्यानबिन्दुपनिषद्पाण्डुरंग जावजी, बम्बई । ४६-ध्यान शतक एवं ध्यान स्तव- वीर सेवा मन्दिर प्रकाशन, दिल्ली। ५० ध्यान सम्प्रदाय ५१-नमस्कार स्वाध्याय जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई । - ५२ - न्याय दर्शन भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी । ५३- नियमसार-कुन्कुन्दाचार्य, साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, ए-४ बापूनगर, जयपुर सन् १६८४ ५४ - नाथ सम्प्रदाय-हजारी प्रसाद द्विवेदी, नैवेद्य निकेतन, वाराणसी । ५५- पंचसंग्रह - प्रकाशक मुक्ताबाई ज्ञान मन्दिर, डमोई, गुजरात | ५६ पंचास्तिकाय - कुन्दकुन्दाचार्य, रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बई । ५७-परमात्म प्रकाश-योगीन्दु देव, प्रकाशक परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई | ५८- पाहुड़दोहा - रामसिंह मुनि, कारंजा जैन पब्लिकेशन सोसाइटी । ५ε-प्रज्ञापना सूत्र -मलयगिरि, अनुवादक भगवानदास हर्षचन्द्र, शारदा भवन, जैन सोसाइटी, अहमदाबाद । संस्कृति प्रकाशन, बरेलो । रविषेण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी । ६२-प्रत्याभिज्ञाहृदयम्-क्षेमराज, ऑकिओलाजिकल एण्ड रिसर्च डिपार्ट ६०-पाराशर स्मृति६१- पद्मपुराण मेन्ट, श्रीनगर । ६३ - पद्मनन्दि पंचविशतिका - जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर । ६४-प्रवचन सार-कुन्दकुन्दाचार्य, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई । ६५ - प्रमेय रत्नमाला - अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला समिति, बम्बई । ६६- प्रशमरति - प्रकरण - उमास्वाति, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) ६७-पुरुषार्थ सियुपाय-परमश्र त प्रभावक मण्डल, अगास, गुजरात । ६८-जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन-डॉ. अर्हदास बडोबा दिगे, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान आई.टी.आई.रोड, वाराणसी-५ ६६-बारसअणुवेक्खा७०-बोधिचर्यावतार-शान्तिदेव, बुद्ध विहार, लखनऊ, सन् १९५५ ७२-बृहदारण्यक उपनिषद्-प्रकाशक पाण्डुरंग जावजी, बम्बई । ७३-बौद्ध दर्शन-बलदेव उपाध्याय, प्रकाशक शारदा मन्दिर, काशी। ७४-श्रीमद् भगवद्गीता गीता प्रेस, गोरखपुर । ७५-भगवती सूत्र-घासीलाल जी महाराज, अ. भा. श्वे. संस्थान, जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, सन् १९६१ ७६-भगवतो आराधना-आ. शिवायं, सेठ लालचन्द्र हीराचन्द्र , जैन संस्कृति संरक्षक, शोलापुर। ७७ भारतीय संस्कृति और साधना-गोपीनाथ कविराज, बिहार राष्ट्र भाषा परिषद, पटना। ७८-श्री मद् भागवत पुराण गीता प्रेस, गोरखपुर । ७६-मनोनुशासन-आ. तुलसी, जैन भारतो, वर्ष २, अक २, जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी, महासभा, कलकत्ता । ८०-महाभारत ___ गीता प्रेस, गोरखपुर । ८१-महाप्रत्याख्यान८२-मिलिन्द प्रश्न-नागसेन, बर्मी धर्मशाला, सारनाथ, वाराणसी। ८३-मनुस्मृति-जवाहर बुक डिपो, गुजरी बाजार, मेरठ । ८४-मुण्डकोपनिषद पाण्डरंग जावजी. बम्बई । ८५-मूलाचार-बट्ट के र, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन माला, बम्बई। ८६-मूलाराधना-शिवाय, जैन पब्लिकेशन, कारंजा। ८७-मूलाराधना प्रदीप-सकल कीर्ति, दिगम्बर जैन समाज, मारौठ, राजस्थान । ८८-यशस्तिलकचम्पू-सोमदेव सूरि, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई । ८६-याज्ञवल्क्य स्मति संस्कृति संस्थान, बरेली। ६०-योगकुण्डल्योपनिषद्-पाण्डुरंग जावजी प्रकाशन, बम्बई । ६१-योग चूड़ामणि उपनिषद्-प्रकाशक पाण्डुरंग जावजी, बम्बई। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२-योगशिखोपनिषद्:प्रकाशक पाण्डुरंग जावजी, बम्बई । ६३-योगदर्शन पतञ्जलि, गीता प्रेस गोरखपुर । ६४-योगदृष्टि समुच्चय-हरिभद्र, जैन ग्रन्थ प्रसारक सभा, अह मदाबाद । ६.५-योगसार-योगीन्दु देव, परमश्रु त प्रभावक मण्डल प्रकाशन, बम्बई । ९६-योगबिन्दु-हरिभद्र सूरि, जैन ग्रन्थ प्रसारक सभा, अहमदाबाद । ६७-योगप्रदीप-मंगल विजय, हेमचन्द्र सावचन्दशाह, कलकत्ता। ६८-योगविशिका-हरिभद्र सूरि, जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर । १६-योगशास्त्र-हेमचन्द्र, जैन साहित्य प्रकाशन, अहमदाबाद । १००-योगवाशिष्ठ श्याम काशी प्रेस, मथुरा । १०१-रत्नकरण्डश्रावकाचार-समन्त भद्र, माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थ __ माला, बम्बई। १०२-वसूनन्दि श्रावकाचार-भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी। १०३-वशिष्ठ स्मृति संस्कृति संस्थान, बरेली। १०४-वायुपुराण-संस्कृति संस्थान, ख्वाजा कुतुब, वेदनगर, बरेली। १०५-विष्णु पुराण-संस्कृति संस्थान, ख्वाजा कुतुब, वेदनगर, बरेली। १०६-विसुद्धिमग्ग-बुद्धघोष, भारतीय विद्या भवन । १०७-विद्यानुशासन१०८-वैशेषिक दर्शन-कणाद, सम्पादक शंकरदत्त शर्मा, मुरादाबाद । १०६ वहद्रव्यसंग्रह-प्र. गणेशवर्णी दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, धनबाद, बिहार । ११०-वृहदारण्योपनिषद्-प्रकाशक पाण्डुरंग जावजी, बम्बई । १११-वृहद्नयचक्र११२-वैदिक धर्म एवं दर्शन-प्रकाशक मोतीलाल बनारसीदास, बगलो रोड, जवाहरनगर, दिल्ली । ११३-वैष्णव, शैव एवं अन्य धार्मिक मत-भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी । ११४-शान्तसुधारस-प्रकाशक भगवानदास म. मेहता, भावनगर । ११५-शास्त्रसार समुच्चय-राजेन्द्र कुमार जैन, ११ कीलिंग रोड, दिल्लो । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८ ) ११६-श्वेताश्वतरोपनिषद् गीता प्रस, गोरखपुर । ११७-शिव पुराण-कल्याण अंक वर्ष ३६, अंक १, गीता प्रेस, गोरखपुर । ११८-शैव दर्शन तत्त्व-आचार्य भारतीय, प्रकाशक, निर्मोही बन्धु . प्रकाशन, सी-७४७, लखनऊ। ११६-षट्खण्डागम-धवला, सम्पादक डा. हीरालाल जैन, शि० ल० जैन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, अमरावती। १२०-समवायांग-स्थानाङग सूत्र गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद । १२१-समयसार-कुन्दकुन्दाचार्य, गणेश प्रसाद वर्णी, जैन ग्रन्थमाला, १/१२ डुमराँव बाग, अस्सी, वाराणसी। १२२-समाधितन्त्र-पूज्यपाद, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी। १२३-स्कन्ध पुराण-राजा विनेन्द्र स्ट्रीट, कलकत्ता । १२४-सर्वार्थसिद्धि-पूज्यपाद, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी। १२५-सर्वदर्शन संग्रह-माधवाचार्य, चौखम्भा प्रकाशन, वाराणसी। १२६-स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा-स्वामी कातिवेय, वीतराग विज्ञान प्रकाशिनी ग्रन्थमाला, ठि. रूपचन्द्र सा. जैन मार्ग, खण्डवा, म. प्र. १२७-संयुत्त निकाय-जगदीश कश्यप, महाबोधि सभा, सारनाथ । १२८-सिद्ध सिद्धान्त पद्धति१२६-सूत्रकृताङ्ग । मोतीलाल प्रकाशन, पूना। १३०-हठयोग प्रदीपिका-श्री वेड कटेश्वर प्रेस प्रकाशन, मुम्बई, सन् १९६२ । १३१-हरिवंशपुराण-जिनसेन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी, सन् १६६२ । १३२-हारीत स्मृति-संस्कृति संस्थान, बरेली। १३३-त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद् __ गीता प्रेस, गोरखपुर। १३४-ज्ञानसार-पदमसिंह,मू.कि.कापाडिया, दिगम्बर जैन पुस्तकालय,सूरत १३५-ज्ञानाणंव-शुभचन्द्र, परमश्रु त प्रभावक मण्डल, अगास, गुजरात । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ० सीमा रानी शर्मा जन्म | | स्थान शिक्षा भाषा ज्ञान रचना - 27 नवम्बर 1966 ई. बिजनौर - एम.ए. (संस्कृत), पी-एच.डी. हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन विद्याध्ययन, संगीत एवम् समाज सेवा - द्वारा श्रीमती मनोरमा शर्मा स्टेट बैंक कॉलोनी रोड, बी-१४ नई बस्ती, बिजनौर, उ.प्र. / अभिरूचि स्थायी पता / COVER PRINTED BY JAYCO PRINTERS & PUBLISHERS PVT., LTD., F-34/5 OKHLA IND. AREA PH.II NEW DELHI.