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( ६० ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
से रहित ग्रहण होता है उसका नाम समाधि है । इसकी सिद्धि ध्यान से होती हैं, ऐसा कहा गया है । 4
योगः
याग शब्द 'युज्' धातु से बना है। संस्कृत व्याकरण में दो युज् धातुओं का उल्लेख है जिसमें एक का अर्थ जोड़ना है, तथा दूसरे का अर्थ समाधिः मनः स्थिरता है । इस शब्द का प्रयोग भारतीय योगदर्शन में दोनों अर्थों में हुआ है । 'युजे समाधि वचनस्य योगः ' इस निरुक्ति के अनुसार योग को समाधिपरक कहा गया है । + पतञ्जलि ने चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है । यहाँ निरोध का अर्थ चित्त वृत्तियों को नष्ट करना है । तत्वार्थसूत्र में शरीर, वाणी तथा मन के कर्म का निरोध संवर है और यही योग है । .... इसी प्रकार योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास ने 'योगः समाधिः' X कहकर योग को समाधि के रूप में ग्रहण किया है जिसका अर्थ है समाधि द्वारा सच्चिदानन्द का साक्षात्कार । हरिभद्र सूरि ने उन सभी निर्मल धर्म व्यापार को योग कहा हैं जो मोक्ष से योजित करता है । उनके द्वारा योग के -अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंशय ये पाँच भेद किये गये हैं । + हेमचन्द्र ने मोक्ष के उपाय रूप योग को ज्ञान, श्रद्धान और चारित्रात्मक कहा है । - यशोविजय ने भी हरिभद्र के 4 तस्यैव कल्पनाहीनं स्वरूपग्रहणं हि यत् ।
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मनसा ध्यान निष्पाद्यं समाधिः सोऽभिधीयते ।। (विष्णुपुराण, ६, ७, ६० ) युजपी योगे । (हेमचन्द्र, धातुमाला, गण ७ ) युजिंच समाधौ । ( वही गण ४ )
+ तत्वार्थवार्तिक, ६,१, १२
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-→ योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । ( योगदर्शन, १/२) आस्तव निरोधः संवरः । ( तत्वार्थ सूत्र, ६ / १ ) x योगदर्शन, भाष्य, पृ० २
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* मोक्खेण जोयणाओ जोगो । (योग विंशिका, । ( योगबिन्दु, ३१]
+ वही
मोक्षोपाय योगो ज्ञानश्रद्धानचरणात्मकः । ( अभिधान चिन्तामणि १/७७ )