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________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (५६ उसका नाम समाधि है । तत्वा आचार्य वीरसेन ने समाधि के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में जो सम्यक् अवस्थान होता है उसका नाम समाधि है | नुशासन में ध्याता और ध्येय कीं एकरूपता को समाधि कहा गया है पाहुडदोहा में समाधि की विशेषता को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार नमक पानी में विलीन होकर समरस हो जाता है उसी प्रकार यदि चित्त आत्मा में विलीन होकर समरस हो जावे तो फिर जीव को समाधि में और क्या करना है अर्थात् बाह्य विषयों की ओर से निःस्पृह होकर चित्त का जो आत्म स्वरूप में लोन होना है, यही समाधि है ।... योगसूत्र में उस ध्यान को ही समाधि कहा गया है कि जो ध्येय मात्र के निर्भासरूप होकर प्रत्ययात्मक स्वरूप से शून्य के समान हो जाता है ध्याता, ध्येय और ध्यान इन तीनों के स्वरूप की कल्पना से रहित होकर निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त होता है X इसी प्रकार समाधि तत्त्र की आचार्य प्रभाचन्द्र विरचित टीका में समाहित समाधि युक्त - अन्तः करण के अर्थ को स्पष्ट करते हुए उसे एकाग्रीभूत मन कहा है विष्णु पुराण में भी परमात्मा के स्वरूप का जो विकल्प यथा भण्डारागारे दहने समुपस्थिते तत्प्रशमनमनुष्ठीष्यते बहूपकारकत्वात् तथाऽनेकव्रत शीलसमृद्धस्य मुनेस्तपसः कुतश्चित् प्रत्यूहे समुपस्थिते तत्संधारणं समाधिः । (सर्वार्थ सिद्धि, ६-२४ (ख) तत्वार्थवार्तिक, ६ . २४.८ ) 4 दसंण - णाण-चरित्तेसु सम्ममवट्ठाणं समाही णाम । (धवला पु०८, पृ ८८) * सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् । एतदेव समाधिः स्याल्लोकद्वयफलप्रदः ॥ ( तत्वानुशासन, १३७ ) जिमि लोणु बिलिज्जइ पाणियहं तिमि जई चित्तु विलिज्ज । समरसि हवइ जीवडा काइ समाहि करिज्ज || ( पाहुड़दोहा, १७६ ) X तदेवार्थमात्र निर्भासं स्वरूप शून्यमिव समाधिः । ( योगसूत्र, ३ - ३ ) समाहितान्तः करणेन - समाहितम् एकाग्रीभूतं तच्च तदन्तःकरणं च मनस्तेन । (समाधितन्त्र टीका, ३) ――
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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