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(५८) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक
समीक्षात्मक अध्ययन
इन परिभाषाओं के आधार पर जाना जा सकता है कि जैन आचार्य जड़तामय शून्यता व चेतना की मूर्च्छा को ध्यान कहना मानते थे ।
ध्यान का पर्याय:
ध्यान के पर्याय के रूप में तप, समाधि, धीरोध, स्वान्तनिग्रह, अतः संलीनता, साम्यभाव, समरसीभाव, सवीर्यध्यान आदि का प्रयोग किया गया है । + योग को भी ध्यान के समानार्थक रूप में प्रयोग किया गया है । इन तीनों शब्दों [ ध्यान, समाधि, योग) के अर्थ में सामान्य से कुछ भेद नहीं है, क्योंकि वे तीनों ही शब्द प्रायः एकाग्रचिन्ता निरोध रूप समान अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं । इन तीनो शब्दों के अर्थ में एक रूपता होते हुए भी कुछ भेद भी हैं ।
समाधि
सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्थवार्तिक में समाधि के स्वरूप प्रगट करते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार भाण्डारागर में अग्नि के लग जाने पर बहुत उपकारक होने के कारण उसे शान्त किया जाता है उसी प्रकार अनेक व्रतशीलों से सम्पन्न मुनि के तप में कहीं से बाधा के उपस्थित होने पर उस बाधा को दूर कर जिसे धारण किया जाता है + योगो ध्यानं समाधिश्च धी- रोधः स्वान्तनिग्रहः ;
अन्त: संलीनता चेति तत्पर्यायाः स्मृता बुधैः ॥
[ आर्ष २१ / १२; तत्वानुशासन, पृ० ६१)
(क) युजेः समाधि वचनस्य योगः, समाधि ध्यानमित्यनर्थान्तरम् । ( तत्वार्थवार्तिक ६,१.१२)
(ख) प्रत्याहृत्य यदा चिन्तां नानालम्बनवर्तिनीम् ।
एकालम्बन एवैनां निरुणद्धि विशुद्ध धीः ॥
तदास्य योगिनो योगश्चिन्तैकाग्रनिरोधनम् ।
प्रसंख्यानं समाधिः स्याद् ध्यानं स्वेष्टफलप्रदम् ।। ( तत्वानुशासन ६०-६१)
(ग) योगः समाधिः, स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्मः ॥ ( योगसूत्र
भाष्य :- १ ।