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भारतीय परम्परा में ध्यान (५७) है, तब उसे द्वैत ज्ञान रहता ही नहीं और वह समस्त रागद्वेषादि सांसारिकता से ऊपर उठकर चित् स्वरूप आत्मा के ही ध्यान में निमग्न हो जाता है ।* इसी परिभाषा की पुष्टि करते हुए ध्यान के सन्दर्भ में समरसीभाव तथा सवीर्यध्यान→ का प्रयोग हुआ है। रयणसार में जिनागम का अभ्यास, पठन, पाठन, चितवन मनन और वस्तु स्वरूप के विचार को ही ध्यान माना गया है।...
श्री जिनागम में परिणाम की स्थिरता को ध्यान कहा गया है।x
महषि पतञ्जलि विरचित योगसूत्र में ध्यान का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि धारणा में जहाँ चित्त को धारण किया गया है वहीं पर जो प्रत्यय की एकाग्रता है-विसदश परिणाम को छोड़कर जिसे धारणा में आलम्बन भूत किया गया है उसी के आलमदन रूप जो निरन्तर ज्ञान की उत्पत्ति होती है-उसे ध्यान कहते हैं। पतञ्जलि ने एकाग्रता और निरोध ये दोनों केवल चित्त के ही माने है। A चित्त के विक्षेप का त्याग करना ध्यान है ।
उक्त विवरण से फलित होता है कि चिन्तन-शून्यता ध्यान नहीं और वह चिन्तन भी ध्यान नहीं है, जो अनेकाग्र है। एकाग्र चिन्तन ध्यान है, भाव क्रिया ध्यान है, और चेतना के व्यापक प्रकाश में जब चित्त विलीन हो जाता है, वह भी ध्यान है।
साम्यमेव परं ध्यानं प्रणीतं विश्वदशिभिः । तस्यैव व्यक्तये नूनं मन्येऽयं शास्त्रविस्तरः।। ज्ञानार्णव,अध्याय २४/१३ X सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरण स्मतम् ।
एतदेव समाधि: स्याल्लोक-द्वय-फल-प्रदः ॥ तत्वानुशासन, १३७ → ज्ञानार्णव, अध्याय ३१, सवीर्य ध्यानम्। ... अज्झयणमेव झाणं पंचेदियणिग्गहं कसायं पि । (रयणसार, ६५) x श्री जिनागम, १२ * तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् । (योगदर्शन ३-२ A पातञ्जल योगदर्शन, १/१८ - चित्त विक्षेपत्यागो ध्यानम् । (सर्वार्थसिद्धि, ६/२०/४३६/८)