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५६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
निरोध को भी ध्यान कहा गया गया है ।+ तत्त्वानशासन में भी एकाग्र चिन्ता को ध्यान का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है और वह निर्जरा तथा संवर का कारण है।→ योगसार प्राभत में ध्यान के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि आत्मस्वरूप का प्ररूपक रत्नत्रयमय ध्यान किसी एक ही वस्तु में चित्त के स्थिर करने वाले साधु के होता हैं जो उसके कर्मक्षय को करता है। x वस्तुत: चित्त को किसी एक वस्तु अथवा बिन्दु पर केन्द्रित करना कठिन है, क्योंकि यह किसी भी विषय पर अन्तमुहर्त से ज्यादा टिक नहीं पाता तथा एक महतं ध्यान में व्यतीत हो जाने के पश्चात् यह स्थिर नहीं रहता और यदि कभी हो भी जाये तो वह ध्यान न कहलाकर चिन्तन कहलायेगा अथवा आलम्बन की भिन्नता से दूसरा ध्यान कहलायेगा। प्रकारान्तर से ध्यान अथवा समाधि वह है, जिसमें संसार बन्धनों को तोड़ने वाले वाक्यों के अर्थ का चिन्तन किया जाता है अर्थात समस्त कर्म मल नष्ट होने पर सिर्फ वाक्यों का आलम्बन लेकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाने का प्रयत्न किया जाता
तत्वार्थधिगम भाष्य में अगमोक्त विधि के अनुसार वचन, काय और चित्त के निरोध को ध्यान कहा गया है। A ध्यान को साम्य भाव बताते हुए कहा गया है कि योगी जब ध्यान में तन्मय हो जाता + जिदरागो जिददोसो जिदिदिओ जिदभओ जिदकसाओ।
अरदिरदिमोहमहणो ज्झाणोवगओ सदा होहि । (भगवती आराधना वि. टी. १६६३) → एकाग्र-चिन्ता रोधो यः परिस्पन्देन वजितः ।
तद्ध्यानं निर्जरा-हेतुः संवरस्य च कारणम् । (तत्त्वानुशासन, ५६] x योगसार प्राभृत (अमितगति प्रथम) ६-७ मुहर्तात्परतश्चिन्ता यहा ध्यानान्तरं भवेत् । वहवर्थसंक्रमे तु स्याद्दीर्घाऽपि ध्यान-सन्ततिः ॥ (योगशास्त्र,
४/११६) - योगप्रदीप, १३८ । A तत्वार्थाधिगम भाष्य, सिद्धसेन गणि, ६-२०