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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (५५) करता है, तो वह उसी भाव में तमन्य हो जाता है । ध्यान का अर्थ
ध्यान शब्द 'ध्यै चिन्तायाम' धातु से निष्पन्न होता है, किन्तु प्रवृत्ति-लभ्य अर्थ उससे भिन्न है। ध्यान का अर्थ चिन्तन नहीं किन्तु चिन्तन का एकाग्रीकरण अर्थात चित्त को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर रखना या उसका निरोध करना है।... आचार्य कुन्दकुन्द ने ध्यान को सम्यग्दर्शन व ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य के संसर्ग से रहित कहा हैं।X तत्त्वार्थ सूत्र में अनेक अर्थों का आलम्बन लेने वाली चिता के निरोध को अन्य विषयों की आर से हटाकर उसे किसी एक ही वस्तु में नियन्त्रित करने को ध्यान कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि जैन परम्परा में ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से ही माना गया था। वह मन, वाणी और शरीर तीनों से सम्बन्धित था । इस अभिमत के आधार पर उसकी निरंजन-दशा-निष्प्रकम्प-दशा ध्यान है। ध्यान शतक में स्थिर अध्यवसान को ध्यान का स्वरूप बतलाया है और जो एकाग्रता को प्राप्त मन है उसको ध्यान कहा है।- आदिपुराण में भी चित्त का एकाग्र रूप से निरोध करना ध्यान हैं, यह बतलाया गया हैं। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में राग, द्वष और मिथ्यात्व के सम्पर्क से रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है उसे ध्यान कहा गया है । वहीं आगे एकाग्र चिन्ता ... अंतो मुहत्तकालं चित्तस्सेगग्गगया हवइ झाणं । (आवश्यक नियुक्ति
गाथा, ९४६३) x दसण-णाणसमग्गं झाणं णो अण्णदव्वसंजुत्तं । (पंचास्तिकाय,
१५२) * उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानमान्तमुहूर्तात् । (तत्त्वार्थ
सूत्र, ६/२७) A आवश्यक नियुक्ति, १४६७-७८ -जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । (ध्यान शतक २) एकाग्रयेण निरोधो यश्चित्तयस्यैकत्र वस्तुनि । (आदिपुराण, सर्ग २१, श्लोक ८)