________________
तृतीय परिच्छेद जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप
ध्यान का महत्व
जैन साहित्य में 'ध्यान' का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है । सब प्राणी सुख के अभिलाषी होते हैं और दुःख को कोई भी नहीं चाहता । पर वह सुख क्या है और कहाँ है तथा उसकी प्राप्ति के क्या उपाय है, इसका विवेक अधिकांश को नहीं रहता है । अज्ञानी प्राणी जिसे सुख मानता है वह यथार्थ में सुख नहीं है, किन्तु सुख का आभास मात्र है । इस प्रकार कर्म बन्धन में बद्ध होकर वे सुख के स्थान में दुख का अनुभव किया करते हैं ।
तब यथार्थ सुख कौन हो सकता है, यह प्रश्न उपस्थित होता है । इसके समाधान स्वरूप यह कहा गया है कि जिसमें असुख का लेश भी नहीं है उसे ही यथार्थ सुख समझना चाहिये ।' + ऐसा सुख जीव को कर्म बन्धन से रहित हो जाने पर मुक्ति में ही प्राप्त हो सकता है, जन्म मरणरूप संसार में वह सम्भव नहीं है । उस मुक्ति के कारण सम्यग्दर्शन, और सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र है, जिन्हें समस्त रूपों में मोक्ष का मार्ग माना गया है । निश्चय और व्यवहार के भेद से दों प्रकार के उस मोक्ष मार्ग की प्राप्ति का कारण ध्यान है, अतएव मुक्ति प्राप्ति के लिए उस ध्यान के अध्यास की जहाँ तहाँ प्र ेरणा की गई है । -- क्योकि जो व्यक्ति जिस समय जिस भाव का चिन्तवन + स धर्मों यत्र नाधर्मस्तत् सुखं यत्र नासुखम् ।
तज्ज्ञान यत्र नाज्ञानं सा गतिर्यत्र नाऽऽगतिः ॥ ( आत्मानुशासन, ४३] आत्मायतं निराबाधमतीन्द्रियमनश्वरम् ।
घातिकर्मक्षयोद्भूतं यत् तन्मोक्षसुखं विदुः ।। [ तत्त्वानुशासन, २४२ ) दुविह पि मोवखहेउं झाणे पाउणदिजं मुणीणियमा । तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह || ( द्रव्यसंग्रह, ४७ )