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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६१)
अनुसार ज्ञन, श्रद्धान, चारित्रात्मक को ही योग कहा है। इस प्रकार जैन परम्परा में योग का अर्थ चित्त वत्ति का निरोध व मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला साधन है । इसके द्वारा भावना, ध्यान, समता का विकासे होकर कमंग्रन्थियों का नाश होता है। वैदिक बौद्ध व जैन दर्शनों में योग, समाधि व ध्यान (तप) बहुधा समानार्थक हैं। ध्यान के अंग__ध्यान के लिए प्रमुख रूप से तीन बातें होना आवश्यक हैं-१-ध्याता २- ध्येय, ३- ध्यान ।+
ध्याता
ध्याता अर्थात् ध्यान करने वाला। अर्थात् जिसके द्वारा ध्यान किया जाता है उसको ध्याता कहते है । ज्ञानार्णव में ध्याता के स्वरूप को बतलाते हुए कहा गया है कि ध्याता में आठ गुण जरूर होने चाहिए जो इस प्रकार हैं.... कि १- ध्याता मुमुक्षु हो, २. संपार से विमुक्त हो, ३- क्षोभरहित व शान्तचित हो, ४- वशी हो, ५- स्थिर हो, ६-जितेन्द्रिय हो, ७- संवर युक्त हो, ८-धीर हो। ऐसे आठ गुणों से युक्त ध्याता को ध्यान की सिद्धि होती है. अन्यथा नहीं। ध्येय
ध्येय अर्थात् लम्बन । दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता मोशेण योजनादेव योगीह्यत्र निरुच्यते । लक्षणं तेन तन्मुख्यहेतु व्यापारतास्य तु॥ (योगलक्षण, द्वात्रि
शिका, १) + (क) ध्यानं विधित्सता ज्ञेयं ध्याता ध्येयं तथा फलम् । (योगशास्त्र,
७/१) (ख) महापुराण, २१/८४ (ग) चारित्रसार, १६७/१ ... मुमुक्षुर्जन्मनिविण्ण: शान्तचित्तो वशी स्थिरः । जिताक्षः संवृतो धीरो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते ॥ (ज्ञानार्णवः, चतुर्थ सर्ग, ६)