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६२) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
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है कि जिसका ध्यान किया जाता है वह ध्येय है । बिना किसी म्बन अर्थात् ध्येय के ध्यान होना असम्भव है जब तक किसी बात का ध्येय ही नहीं होता तो क्या किया जायेगा ? इसी प्रकार ध्यान के लिए ध्येय का होना जरूरी है । जो शुभाशुभ परिणामों का कारण हो उसे ध्येय कहते हैं | X
ध्यान
ध्यान अर्थात एकाग्रचिन्तन । अर्थात ध्याता का ध्येय में स्थिर होना ही ध्यान है । निश्चय नय के कर्ता, कर्म करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण को षष्ठकारमयी आत्मा कहा गया है और इनको हो ध्यान कहा है । अतः आत्मा अपनी आत्मा को अपनी आत्मा में, अपनी आत्मा के द्वारा, अपनी आत्मा के लिए अपनी आत्मा के हेतु से और अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है । इष्ट अनिष्ट बुद्ध के मूल मोह का क्षय हो जाने पर चित्त स्थिर हो जाता है, उस चित्त की स्थिरता को ही ध्यान कहा गया है । +
ध्यान की सामग्री:
ध्यान की सामग्री को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ध्यान में परिषहों का त्याग, कषायों का नियन्त्रण, व्रतों का धारण और मन तथा इन्द्रियों का जीतना, यह सब ध्यान की उत्पत्ति-निष्पत्ति में सहाभूत - सामग्री है 1 भगवती आराधना विजयोदया टीका में नाक X ध्येयमप्रशस्तप्रशस्त परिणाम कारणं । ( चारित्रसार १६७ / २) * ध्यायते येन तद्ध्यानं यो ध्यायति स एव वा ।
यत्र वा ध्यायते यद्वा ध्यातिर्वा ध्यानमिष्यते । ( तत्वानुशासन, ६७) 4 स्वात्मन स्वात्मनि रूपेन ध्यायेत्स्वस्मैस्वतो यतः ।
षट्कारकामयस्तस्माद् ध्यानमात्मैव निश्चयात् ॥ ( तत्वानुशासन,
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७४]
+ इष्टानिष्टार्थमोहादिच्छेदाच्चेतः स्थिरं ततः । ध्यान रत्नत्रयं तस्मान्मोक्षस्ततः सुखम् ॥ १ / ११४/११७)
(अनगार धर्मामृत,
संग-त्यागः कषायानां निग्रहो व्रत धारणम् /
मनोऽक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यान जन्मनि । । [ तत्वानुशासन, ७५ )