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________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६३) के अग्र भाग पर दृष्टि को स्थिर करके, एक विषयक परोक्षज्ञान में चैतन्य को रोककर शद्ध चिद्रप अपनी आत्मा में स्मृति का अनुसंधान करें ऐसी ध्यान की सामग्री को बतलाया है।= परीषहों का त्यागः वैसे तो प्राणी मात्र का जीवन संघर्षों की कहानी है, सुख-दुख का चित्रपट है किन्तु मानव जीवन तो हमेशा संघर्षों से ही घिरा हुआ रहता है। उसमें भी साधक और जिस व्यक्ति ने त्याग कर दिया है ऐसे प्रमण अथवा श्रावक के जीवन में तो अनेक विघ्न बाधायें आती रहती है जिनको परीवह या उपसर्ग कहते हैं। मार्ग से च्यूत न होने के लिये और कर्मों की निर्जरा के लिए जो सहन करने योग्य हैं वे परीषह है। जो सही जाये वही परीषह है 1* और परोषहों का जीतना ही परीषहजय हैं ।.... अर्थात् अत्यन्त दुखादि एवं क्षधादि वेदनाओं के तीन हो जाने पर भी जो शान्तभाव से इन कष्टों को सहन करता है वह साधक परीषहजयी कहलाता है ।X == किचिवि दिट्ठिमुपावत्तइन्तु झाणे णिरुद्ध दिट्ठीओ।। अप्पाणहि सदि सधित्ता संसार मोवखळें ॥ (भगवती आराधना (१७०१) x (क) मार्गाच्यवन निर्जराथ परिसोढव्याः परीषहाः। (तत्वार्थसूत्र ६/८ (ख) क्षुधादि वेदनोत्पत्तौ कर्मनिर्जरार्थ सहनं परीषहः । (सर्वार्थ सिद्धि, ६/२/४०६/८) * परिषद्यत इति परीषहः । राजवार्तिक, ९/२/६/५६२/२) .... परीषहस्य जयः परीषह जयः । (सर्वार्थसिद्धि, ६/२/४०६/९) x (क) दुःखोपनिपाते संकलेशरहितता परीषहः जयः। (भगवती आराधना, विजयोदयाटी०, ११७१,११५९/१८) (ख) क्षुधादिवेनानां तीब्रोदयेऽपि सुख दुखजीवितमरणलाभालाभनिंदा प्रशंसादि समता रूप परमसामायिकेननवत रतशुभाशुभ कर्मसंवरण चिरंतनशुभाशुभ कर्म निरणसमर्थेनायं निजपरमात्मभावनासंजात निर्विकार नित्यानन्द लक्षण सुखामृत संवित्तेरचलनं स परीषहजय इति । (वृहद्रव्यसंग्रह, ३५/१४६)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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