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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (६४) परीषहों के भेद:
जैनागमों में परीषहों के बाईस प्रकार बतलाये गये है * अर्थात् १-क्षधा, २- तुषा, ३-शीत, ४- उष्ण, ५- दंशमशक, ६- नग्नता, ७अरति, ८- स्त्री, ६- चर्या, १०- निषद्या, ११- शय्या, १२- आक्रोश, १३- बध, १४- याचना, १५- अलाभ १६- रोग, १७- तृणस्पर्श, १८मल, १६- सत्कार-पुरस्कार, २०- प्रज्ञा, १- अज्ञान और २२- अदर्शन ।
जो भिक्षु भिक्षा के न मिलने पर या अल्प मात्रा में भिक्षा मिलने पर क्षघा की वेदना को प्राप्त नहीं होता तथा जो अकाल में भी भिक्षा नहीं लेता तथा क्षुधा की वेदना होने पर भी जो भिक्षा नहीं माँगता, वह क्षुधा परीषह को समभाव से सहता है वहीं क्षुधा परीषहजयी है।+
__ जो मुनि कंठ में प्राण आ जाने पर प्यास की उत्कट बाधा से विचलित नहीं होता, अपितु पिपासारूपी अग्नि को सन्तोषरूपी नतन मिट्टी के घड़े में भरे हुए शीतल सुगन्धित समाधि रूपी तेल से शान्त करता है वह तृषा परीषहजयी होता है। (ग) सो विपरिसह-बिजओ छहादि-पीडाण अइर उदाणं।
सवणाणं च मुणीण उवसम-भावेण जं सहणं ।। (कार्तिकेया
नुप्रेक्षा ६८) (घ) उत्तराध्ययन, अध्ययन २ *(क) क्षुत्पिपासाशीतोष्ण दशंमशक नान्या रतिस्त्रीचर्यानिषद्या
शययाक्रोशवध याचनालाभरोगतणस्पर्शमलपत्कारपुरस्कार
प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि । (तत्वार्थसूत्र, ६/६) (ख] अनगार धर्मामत, ६/०६-११२ (ग) चारित्रसार १०८/३ (घ) द्रव्यसंग्रह टी० ३५/१४६/8 (ङ) मूलाराधना २५४-२५५ + (क) सर्वार्थसिद्धि ६/६/४०२/६
(ख) राजवातिक ९/९/२/६०८ (ग) चारित्रसार १०८/५ or (क) सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२०/१२ (ख) चारित्रसार ११०/३
ग) राजवार्तिक ४/९/३/६०८/२४