________________
जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६५)
जो प्राणियों की पीड़ा के परिहार में चित्त लगाये रहता है, उस साधु के चारित्र के रक्षणरूप उष्णपरीषहजय कही जाती है।कड़कड़ाती सदी में जो साधक अपने शरीर को गर्म करने की इच्छा नहीं रखता है तथा जिसने आवरण का त्याग कर दिया है एवं जो बर्फ के गिरने पर, हवा का झोका आने पर उसके प्रतीकार की इच्छा नहीं रखता है और जो ज्ञान भावनारूपी गर्भागार में निवास करता है वह साधक शीतवेदना परीषहजय कहलाता है। ____ जो साधक मक्खी, पिस्स, छोटी मक्खी, खटमल, चीटी एवं बिच्छ आदि बाधाओं को बिना प्रतीकार के सहन करता है तथा मन, वचन काय से उन्हें नुकसान नहीं पहुँचाता है तथा निर्वाण की प्राप्ति मात्र संकल्प ही जिसका ओढ़ना है ऐसा साधक दंशमशक परीषहजय कहलाता है ।
यदि साधक के वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो जायें तो भी वह नये वस्त्रों की इच्छा नहीं करता। यदि उसे अल्प मूल्य वाले वस्त्र मिले तो भी - (क) निवाते निर्जले ग्रीष्मरविकिरणपरिशुष्कपतितपर्ण व्यपेतच्छा
यातरुण्यतव्यन्तरे यदच्छयोपनि पतितस्यानशनाद्यभ्यन्तर साधनोत्पादितदाहस्यदवाग्निदाह पूरुष वातातपजनितगलतालुशो
षस्य तत्प्रतीकारहेतून् बहूननुभूतानचिन्तयतः प्राणि पीडा परिहारवाहित चेतसश्चरित्र रक्षणमुष्णसहनमित्युपवर्ण्यते । (सर्वार्थसिद्धि
(ख) चारित्रमार ११२/४ A (क) राजवातिक ६/६/६/६०९/४ (ख) चारित्रसार १११/४
ग] सर्वार्थसिद्धि ६/९/४२१/३ . * (क] तेन दंशमशकमक्षिकापिशुकपुत्तिकामत्कुणकीट पिपीलिका
वृश्चिकादयो गृहयन्ते । तत्कृतां बाधामप्रतीकारां सहमानस्य तेषां बाधां त्रिधाप्यकुर्वाणस्य निर्वाण प्राप्तिमात्र संकल्पप्रवणस्य तद्वेदनासहनं दंशमशकपरिषह क्षमेत्युच्यते । (सर्वार्थसिद्धि ६/९/४२१/१०] ... सार ११३/३