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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
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खेद नहीं करता लेकिन याचना नहीं करता बल्कि समभाव से रहता है ऐसा मुनि अचेलव्रतधारी अर्थात् नग्नत्व परीषहजय कहलाता
___ अरति का अभिप्राय संगम के प्रति अधैर्य या अनादर का भाव है। जो सयत इन्द्रियों के इष्ट विषय सम्बन्ध के प्रति निरुत्सुक हैं, जो शिलागुफा आदि में स्वाध्याय, ध्यान और भावना में लीन है एवं सुने हुए एवं अनुभव किये हुए विषय भोगों के स्मरण से जिसका हृदय निश्छिद्र रहता है वह अरति परीषहजय कहलाता है।x
स्त्री शब्द कामवासना का पर्याय माना गया है। स्त्रियों से साधक विशेष रूप से सावधान रहता है, क्योंकि वह स्त्री को अपने ब्रह्मचर्य में बाधक मानता है। स्त्री के बनाव श्रृगार काम को बढ़ाने व उत्तेजित करने वाले होते है। वह वासना से सम्बन्धित आवेगों-संवेगों-वासनागत कुण्ठओं से अपने मन को चलायमान होने नहीं देता तथा अपनी इन्द्रियों की, मनोवृत्तियों को कुछए के समान संकुचित कर लेता है। बह स्त्रियों से अधिक परिचय भी नही रखता। समत्व की भावना में रहना ही स्त्री परीषहजय कहलाता
... [क] राजवार्तिक 8/8/१०/६०६/२६ [ख] चारित्रसार १११/५ [ग] सर्वार्थसिद्धि ६/९/४२२ X (क) चारित्रसार ११५/३ [ख] राजवार्तिक ६/६/११/६०६/३६ (ग) सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२२ * [क) एकान्तेष्वाराम भवनादिप्रदेशेषु नवयोवनमदविनममदिरा
पानप्रमत्तासु प्रमदासु बाधमानासु कूर्मवत्संवृतेन्द्रिय हृदयविकारस्य ललितस्मितमृदुकथितसविलासबी क्षणप्रहसनमदमन्थरगमनमन्मथशख्यापारविफलीकरणस्य स्त्रीबाधापरीषहसहनमवग
न्तव्यम् । (सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२२/११) [ख] चारित्रसार ११६/१ (ग) राजवार्तिक ६/६/१३/६१०/७