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________________ परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६७) तपस्या करने से जिसका शरीर अशक्त हो गया है ऐसा साधक क्षीण कृश शरीर वाला होने पर भी अपने कल्प के अनुसार मार्ग के कष्टों को सहता हआ भी पूर्व में भोगे हुए वाहनादि का स्मरण न करके विचरण करता है लेकिन व्याकुल नहीं होता है ऐसा श्रमण चर्यापरीषहजयी कहलाता है ।+ साधक पहले अभ्यास न होने पर भी श्मशान, उद्यान, गिरि, गुफा आदि में निवास करता है। सिंह एवं व्याघ्र आदि हिंसक जीवों की भयंकर ध्वनि को सुनकर वह विचलित नहीं होता । वह नियत काल के लिए वीरासन, उत्कटिका आदि आसनों से अवस्थित नहीं होता। वह समस्त बाधाओं में समभाव से रहता है वही साधक निषद्या परीषहजयो कहलाता है। जो साधक स्वाध्याय ध्यान आदि के श्रम के कारण थककर कठोर कँटीले एवं शीतोष्ण भूमि पर एक मुहूर्त प्रमाण निद्रा का अनुभव करता है जो करवट लेने से ही प्राणियों को होने वाली बाधा को दूर करने के लिए स्वयं मुर्दे के समान करवट नहीं बदलता तथा जिसका चित्त सदैव ज्ञान भावना में लगा रहता है ऐसा श्रमण शय्या परीषहजयी होता है।- मुनि को कोई गाली भी दे या उसके अंग भंग कर दे फिर भी वह शान्त भाव से रहता है बल्कि मारने वाले से प्रेम एवं दया के साथ व्यवहार करता है वह उन पर आक्रोश नहीं करता वह क्रोध + (क) सर्वार्थसिद्धि ९/९/४२३ (ख) चारित्रसार ११८/१ श्मसानोद्यानशून्यायतनगिरिगुहागहवरादिष्वनभ्यस्तपूर्वेषु निवसत आदिन्यप्रकाश स्वेन्द्रियज्ञानपरीक्षितप्रदेशेकृतनियमक्रियस्य निषद्यानियमितकालामास्थितवतः सिंहव्याघ्रादिविविध भीषण ध्वनिश्रवणान्निवत्तभयस्य चतुर्विधोपसर्गसहनादप्रच्युत मोक्षमार्गस्य वीरासनोस्कुटिकाद्यासनादविचलित विग्रहस्य तत्कृत बाधासहननिषधा परीषह विजय इति निश्चीयते । [सर्वार्थसिद्धि 8/8/४२३/७) - (क) सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२३/११ (ग) राजवातिक ६/६/१६/६१०/१८
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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