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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [६८] को सब पाप कर्मों का विपाक मानता है वह कषाय विष के लेशमात्र अंश को भी अपने हृदय में स्थान नहीं देता।A
साधक को कोई अज्ञानी जीव चाहे वध भी कर दे फिर भी वह उसे अपनी कर्म निर्जरा का सहायक मानकर उपकारी ही समझता है वह उसके प्रेम भाव से ही बोलता है, उसके यही भाव वध परीषह जय कहे जाते हैं।
याचना परीषह पर विजय प्राप्त करना विनम्रता और अहंकार भाव के विसर्जन की साधना है। जो साधक बाह्य व अभ्यान्तर तप को करने में लगा हुआ है एवं जिसने तप से अपने शरीर को सुखा लिया है एवं मात्र अस्थि पंजर रहने पर भी और प्राणों के वियोग होने पर भी आहार व दवाई आदि को दीन शब्द कहकर व मुख की मलिनता को दिखाकर जो याचना नहीं करता वह याचना परोषहजयी है।... जो साधक दिन में एक बार ही भोजन ग्रहण करता है तथा भाषा समिति का पालन करता है एवं अनेक घरों में भी भिक्षा याचना करने पर न मिले तो भी दुखी नहीं होता और न हो कोई विकार मन में लाता है, तथा 'लाभ से भी अलाभ मेरे लिए परम तप है, ऐसा विचार जो साधक मन में लाता है, उसे अलाभ परीषह जय मानना चाहिये ।x
। वैसे तो मुनि की दिनचर्या एवं तपोसाधना ही ऐसी है जो A (क] मिथ्यादर्शनोद्रक्तामर्षपरुषावज्ञा निन्दासभ्यवचनानि क्रोधा
ग्निशिखा प्रबर्धनानि निशग्वतोऽपि तदर्थेष्वसमाहितचेतसः सहसा तत्प्रतिकारं कर्तुं मपि शक्नुवत: पापकर्मविपाकमचिन्तयतस्तान्याकर्ण्य तपश्चरणभावनापरस्य कषायविषलव मात्रस्याप्यनवकाशमात्महृदयं कुर्वताआक्रोशपरिषहसहनमवधार्यते ।
(सर्वार्थसिद्धि 8/8/४२४) ख) चारित्रसार १२०/४ । .... राजवार्तिक ६/६/१६/६११/१०
(ख) सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२५ (ग) चारित्रसार १२२/२ x [क] सर्वार्थ सिद्धि ६/६/४२५ (ख] चारित्रसार १२३/४