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________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६६) उसके पास कोई भी बीमारी नहीं आती लेकिन कुछ प्रारब्ध के कर्म दोषों की वजह से उसको कोई रोग हो भी जाये तब भी साधक उन बीमारियों के अधीन नहीं होता और न ही तप से प्राप्त ऋद्धियों से उनका निवारण करता है वह तो शरीर को अनित्य मानता है ।* मार्ग में चलते समय या किसी भी समय मुनि के पैर तण के स्पर्श से बिंध जाये और उसके वेदन। के उत्पन्न होने पर भी जिसका चित्त व्याकुल नहीं होता बल्कि प्रसाद रहित होता है उसके तृण स्पििद बाधा परीषह मानने चाहिये । + अप्कायिक जीवों की पोड़ा के कारण जो साधक आजन्म अस्नान का व्रत धारण कर लेता है और तीन गर्मी में भी पसीना आने से मैल जम जाने पर भी और पवन के द्वारा लाये हुए व धूल के कणों से जिसका शरीर धूल धूसरित हो गया हैं और दाद खमली आने पर भी जो खुजाता नही है । सम्यक्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूपी जल से जो अपने कर्ममल की कीचड़ को धो लेता है उस साधक को मल पीड़ा परीषह जय कहा जाता है। सत्कार का अर्थ पूजा प्रशंसा है तथा क्रिया आदि में आमंत्रण देना पुरस्कार कहलाता है । इस सम्बन्ध में मेरा कोई अपमान करता है, मैं महान तपस्वी हूँ एवं स्वसमय व परसमय का निर्णयज्ञ हूँ तब भी कोई मुझको प्रणाम नहीं करता आदि निम्न कोटि के विचारों से जिसका चित्त रहित है वह साधक सत्कार पुरस्कार परीषह जय कहा जाता है। * (क] राजवार्तिक ९/९/२१/६११/२४ [ख) सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२५/६ + आदिव्दधनकृतपादवेदनाप्राप्तौ सत्यां तत्राप्रहित चेतसश्चर्याशय्यानिषद्यासु प्राणिपीडा परिहारे नित्यमप्रमत्तचेतस्स्तृणादिस्पर्श बाधा परिषह विजयो वेदितव्यः [सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२६/१] Ho (क] चारित्रसार १२५/६ (ख) सर्वार्थसिद्धि ६६।४२६।४ = (क) सर्वार्थ सिद्धि ६/६ (ख) चारित्रसार १२६/५
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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