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________________ (७०) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन मैं सभी शास्त्रों का ज्ञाता हूँ मेरे सामने सब कोई क्षीण है कोई भी मेरे सामने सुशोभित नहीं होता, इस प्रकार विज्ञानमद का निरास होना प्रज्ञापरीषह जय कहा जाता है । ___ मैं मूर्ख हूँ, मैं कुछ भी नहीं जानता, घोर तपस्या करने पर भी मुझे दिव्य ज्ञान क्यों नहीं प्राप्त हो रहा है। ऐसा सोचकर अपनी श्रद्धा को कम नहीं करता है या ऐसे विचार जो अपने मन में न लाये वह साधक अज्ञान परिषहजय कहलाता हैं। ... परम वैराग्य से मेरा हृदय शुद्ध हो गया है, मैं परम ज्ञानी हो गया हूँ मैंने समस्त रहस्यों को जान लिया है। मैं अरहन्त हूँ और धर्म का उपासक हूँ। व्रतो का पालन करना निरर्थक है इत्यादि बातों का जो मन में भी विचार नहीं करते ऐसे साधु अदर्शन परिषहजयी कहे जाते हैं। साधक को इन परीषहों पर विजय प्राप्त करना अनिवार्य है क्योंकि परीषह विजय के बिना साधक का चित्त एकाग्र नहीं हो सकता और न ही उनके कर्मों का क्षय होगा। अब एक प्रश्न यह उठता है कि परीषहों की संख्या तो बहुत है, क्या सभी परीषह मनुष्य को एक साथ हो सकते है, अगर नहीं तो फिर साधक को एक स थ कितने परीषह हो सकते है। तत्वार्थ सूत्र में कहा गया है कि एक साथ एक आत्मा को उन्नीस तक परीषह विकल्प से हो सकते है :* सर्वार्थमिद्धि A (क] अड्.गपूर्व प्रकीर्णक विशारदस्य शब्दन्यायाध्यात्मनिपुणस्य मम पुरस्तादितरे भास्कर प्रभाभिभूत खद्योतवन्नितरां नावभासन्त इति विज्ञानमद निरासः प्रज्ञापरिषहज यः प्रत्येतव्यः । (सर्वाथ सिद्धि ६/६/४२७) (ख) राजवातिक 8/९/२६/६१२ ... क) सर्वार्थसिद्धि 8/६/४२७ [ख) चारित्रसार १२२/१ x विफल व्रतपरिपालनमित्येवमसमादधानस्य दर्शन विशद्धि योगाद दर्शन परिषह सहनमवसातव्यम् । (सर्वार्थसिद्धि ६/६/४२७) । * एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नकोनविंशतेः । (तत्वार्थ सूत्र ६।१७)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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