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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (७१)
में भी एक साथ उन्नीस परीषहों का होना माना गया है क्योंकि एक आत्मा में शीत व उष्ण परीषहों में से एक, शयया, निषद्या और चर्या में से कोई एक परीषह होता है ये परीषह एक साथ नहीं हो सकते। इस तरह एक आत्मा में केवल उन्नीस परीषह ही होते है । A कषायों का त्यागी___ ध्यान की सिद्धि के लिए मानव (ध्याता) को कषायों का भी त्यागी होना चाहिये क्योंकि ध्यान के घातक कषायों को त्यागे बिना कषायी व्यक्ति को ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती । कषायों को चार प्रकार का बतलाया गया है १-क्रोध कषाय, २- मान कषाय, ३- माया कषाय, ४- लोभ कषाय ।
क्रोध कषाय के सम्बन्ध में ज्ञानार्णव में कहा गया है कि चारित्र और विशिष्ट ज्ञान से बढ़ाया हुआ तप, स्वाध्याय और सयम का आधार जो पुरुष उसका धर्मरूपी शरीर है,वह क्रोध रूपी अग्नि से भस्म हो जाता है।X मुनियों को क्रोध को त्यागने के लिए विशेष रूप से प्रेरित किया गया है क्योंकि क्रोध करने से न केवल हमारे शरीर का नाश होता अपितु हमारे सभी पुण्यकर्म भी भस्म हो जाते है, जो कि हमारे बड़े प्रयत्न से संचित किये गये होते हैं। इस कषाय की अग्नि को शान्त करने के लिए क्षमा ही अद्वितीय नदी है तथा क्षमा ही उत्कृष्ट संयमरूपी बाग की रक्षा करने के लिए दृढ़ बाढ़ है । इसलिए मुनियों को क्रोध को त्याग कर क्षमा को ग्रहण करना चाहिये।
क्रोध कषाय के समान ध्याता को मान कषाय का भी परित्याग करना परमावश्यक हो जाता है, क्योंकि मान कषाय से न केवल संचित किये गये सत्कर्म ही नष्ट होते हैं बल्कि व्यक्ति नीच गति को प्राप्त होता है। ज्ञानाणव में कहा भी है कि कुल, जाति, ऐश्वर्य, रूप, तप, बल और धन इन आठ भेदों से जिनकी बुद्धि विगड़ गई है अर्थात जो मान करते हैं, वे नीच गति को प्राप्त होते A सर्वार्थसिद्धि ६।१७ + तपः श्रुतयमाधारं वृत्तविज्ञानवद्धितम् ।
भस्मी भवति रोषेण पुंसां धर्मात्मकं वपुः ।। (ज्ञानाणंव, सर्ग १६, श्लोक ४)