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(७२) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
है। यद्यपि मानकषाय दुर्गति का कारण होता है फिर भी इसके प्रशस्त व आरशस्त दो प्रकार बतलाये हैं १- प्रशस्तमान २- अप्रस्तमान । - तीसरे प्रकार की कषाय अर्थात माया कषाय के सम्बन्ध में भी शास्त्रों में इसी प्रकार की बातें लिखी गई है कि जब तक व्यक्ति माया मोह के चक्कर में पड़ा रहता है तब तक उसको ध्यान को सिद्धि नहीं हो सकती और ध्यान की सिद्धि के बिना मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है क्योंकि माया मोक्ष रोकने की अर्गला है। जब तक माया शल्य रहती है तब तक मोक्ष मार्ग का आचरण नहीं होता। आचार्य शमचन्द्र जी ने भी कहा है कि-मैं मायावलम्बी पुरुषों के अनुष्ठान, आचरण को कट द्रव्य के समान असार समझता
_ 'लोभ पाप कामल है' यह लोकोक्ति सर्वथा सत्य है क्योंकि जितने भी दुष्कर्म हैं या अयोग्य कार्य है वे इस लोभ से स्वय ही उत्पन्न हो जाते हैं। ध्याता को इन चारों कषायों का त्यागना जरूरी है क्योंकि कषायों के मिटने से हो आत्मस्वरूप का अनभव होता है।x गत-धारणः__ध्याता के सर्वत्रयम और अति-आवश्यक व्रत-गाँव महाअत हैं। श्रमण सर्वविरत होता है, वह तीन करण (कृत, कारित, अनुमोदना) ओर तीन योग (मा, व कन, काय] से व्रत लेता है । इसीलिए उसके हिसादि व्रत महाग्रत कहलाते है। ये महाव्रत पाँच हैं १अहिसा महाबत, २- सत्य महाव्रत, १- अचौर्य महाव्रत, ४- ब्रह्मचर्य महाव्रत, ५- अपरिग्रह महाव्रत ।*ये श्रमण के मूलगुण हैं और
ज्ञानार्णव सर्ग १६, श्लोक ४८ -~- अपमान करं कर्म येन दूरान्निषिभ्यते ।
स उच्चैश्चेतसां मानः परः स्वपरघातकः ॥ (वही सर्ग १६, श्लोक ५६) कूटद्रव्यमिवासारं स्वप्नराज्यमिवाफलम् । अनुष्ठानं मनुष्याणां मन्ये मायावलम्बिनाम् ।। (ज्ञानार्णव, सर्ग १६
श्लोक ६०) X उत्तराध्ययन सूत्र २१११२