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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (७३)
अष्टाड.ग योग की भाषा में इन्हें यम कहा जाता है।
__ महर्षि पतञ्जलि के अनुसार महाबत जाति-देश, काल (वेश, सम्प्रदाय निमित्त) आदि की सामाओं से मुक्त एक सार्वभौम साधना
अहिंसा महावत___ इनका आगमोक्त नाम 'सर्वप्राणातिपातबिरमण' है। तत्वार्थसूत्र में हिंसा का लक्षण इस प्रकार कहा गया है
'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा।'
अर्थात प्रमाद से अपने या दूसरों के प्राणों का घात करना हिंसा है। ज्ञानार्णव में अहिंसा का लक्षण इस प्रकार बतलाया है कि जिसमें मन वचन काय से त्रस और स्थावर जीवों का घात स्वप्न में भी न हो उसे अहिंसा महावत कहते है।+
यद्यपि भाषा की दृष्टि से अहिंसा निषेधात्मक शब्द है किन्तु इसका विधेयात्मक रूप भी हैं और वह है-प्राणि रक्षा, जीव दया, अभय दान, सेवा, क्षमा, मैंत्री, आत्मौपम्य भाव आदि । योगी (ध्याता) निषेधात्मक रूप से किसी भी प्राणी को हिंसा किसी भी प्रकार से न करता है, न कराता है और न ही अनुमोदना करता है, मन से, वचन से, काय से । साथ ही वह अहिंसा के विधेयात्मक रूप का भी पालन करता है जीव-दया, विश्व कल्याण भावना तथा अपने उपदेशों और उज्ज्वलचारित्र से प्रेरणा देकर लोगों को धर्म की ओर उन्मुख करके । अहिंसा महावत का साधक जीव मात्र के प्रति करुणाशील एवं निवैर हो जाता
अहिंसा का स्वरूप जानने के लिए प्राणों के बारे में समझना बहुत जरूरी है क्योंकि प्राणों को हानि पहुँचाना ही हिंसा है और प्राण * जाति-देश-काल समयानवच्छिन्नाः सार्वं भौमा महानतम् (योग
दर्शन २/३१) + वाकचित्ततनुभिर्यत्र न स्वप्नेऽपि प्रवर्तते ।
चरस्थिराडि.गनां घातस्तदायं व्रतमीरितम् ।। (ज्ञानार्णव, सर्ग ८, श्लोक ८) 2. अहिंसा प्रतिष्ठायां तत् सन्निधौ वैरत्यागः। (योगदर्शन, २/३५)