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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१५२)
आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि कर्मों के क्षीण होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है और कर्म आत्मज्ञान से क्षीण होता है, और आत्मज्ञान ध्यान से ही होता है । यही ध्यान का फल होता है। + जिस व्यक्ति को ध्यान अर्थात धर्मध्यान की सिद्धि हो जाती है उसको कषायों से उत्पन्न होने वाले दुःख जैसे ईर्ष्या, विषाद, शोक हर्ष आदि नहीं होते हैं । उसको कोई भी शारीरिक एव मानसिक रोग नहीं होते और न ही वह उनसे पीड़ित होता है। धर्मध्यानी को अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है । इस धर्मध्यान में कर्मों का क्षय करने वाले सम्यग्दष्टि नामक चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक अनुक्रम से असख्यात गुणा कर्म का समूह क्षय होता है - और साधक इन्द्र को जो सुख मिलता है उनसे कई गुना सुख प्राप्त करता है।*
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+ मोक्ष: कर्मक्षयादेव, स चात्मज्ञानतो भवेत् ।
ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तदध्यान हितमात्मनः ।। (योगशास्त्र ४/११३)
ध्यानशतक १०३ -- असख्येयमसंख्येयं सददृष्टयादिगुणेऽपि च ।
क्षीयते क्षपकस्यैव कमंजा.मन क्रमात् । शमकस्य क्रमात कर्म शान्तिमायाति पूर्ववत् । प्राप्नोति निर्गतातड्.कः स सौख्यं शमलक्षणम् ।। ज्ञानार्णव
(४१/१२-१३) * देवराज्यं समासाद्य यत्सुखं कल्पवासिनाम । निर्विशान्ति ततोऽनन्त सौख्यं कल्पातिबतिनः ॥ (ज्ञानार्णव ४१/१६)