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________________ धर्मध्यान का स्वरूप [१५१] लिड.ग : साधु आदि के बाह्य वेष को लिड्.ग कहते हैं । जैन दर्शन में इसके तीन प्रकार माने गये हैं-१-साधु, २-आर्यिका, ३-उत्कृष्ट पावक । ये तीनों भी द्रव्य एवं भाव के भेद से दो ! कार के हो जाते हैं. जिनमें शरीर का वेष द्रव्य लिड़.ग और अन्दर की वीतरागता भावलिड़.ग कहे जाते हैं । लिड्.ग शब्द चिन्ह अर्थात् लक्षण का वाचक होता है । ध्यान व्यक्ति की आन्तरिक प्रवृत्ति होता है उसे देखा नहीं जा सकता है, किन्तु उस व्यक्ति की सत्य से सम्बन्धित आस्था को देखकर उस ध्यान को माना जा सकता है इसलिए यह सत्य की आस्था ही उसका लिड़.ग होता है। धर्म ध्यान के चार लिड्.ग बतलाये गये हैं १-आज्ञा रुचि - प्रवचन आदि में श्रद्धा का होना । २-निसगं रुचि - सत्य में श्रद्धा का होना। ३-सूत्र रुचि - सूत्र पढ़ने से उसमें श्रद्धा का उत्पन्न होना। ४-अवगाढ़ रुचि - विस्तारपूर्वक सत्य की उपलब्धि होना ।+ ध्यान शतक में भी आगम, उपदेश, आज्ञा एवं स्वभाव से जिन भगवान के द्वारा बतलाये गये पदार्थों में श्रद्धा का होना ये धर्मध्यान के लिड.ग कहे हैं । धर्म ध्यान का प्रथम फल आत्मज्ञान हो होता है । जो मत्य अनेक तर्कों के करने पर भी नहों जाना जा सकता वही सत्य ध्यान के द्वारा आसानी से जाना जा सकता है । धर्मध्यान के प्रधान फल विपुल शभास्रब, संवर, निर्जरा और देवसूख आदि कहे गये हैं। + धम्मस्स ण झाणस्स चत्तारि लक्खणा प० तं० आणारुईणिसग्ग रूई __सत्तरुई ओगाढरूईति (स्थानाड्ग पृ०१८८) आगम-उवएसाऽऽणा-णिसंग्गओ जं जिणप्पणीयाणं । भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तं लिड्.गं ।। (ध्यानशतक ६७) होंति सुहासव-संवर-विणिज्जराऽमरसुहाइ विउलाई। झाणवरस्स फलाइं सहाणबंधीणि धम्मस्स ।। (ध्यानशतक ६३)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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