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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१५०)
. मानव के अन्दर के मन में दो प्रकार के स्पन्दन निरन्तर होते रहते हैं और साथ ही साथ दो प्रकार की धारायें बहती रहती हैं, जिनमें एक धारा विचारों की होती है और दूसरी धारा भावों को होती है । ज्ञान से सम्बन्धित धारा विचारों की कहलाती है । भावों की धारा कषायों अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ की धारा कहलाती है यह प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ही प्रकार की होती है। यह धारा मोह जन्य कहलाती है।
आगमों में लेश्या को आणविक आभा, कान्ति, प्रभा और छाया रूप बतलाया गया है। + जैन दर्शन के अनुसार लेश्या के दो भेदभाव लेश्या एवं द्रव्य लेश्या किये गये हैं। वैसे लेश्या के छ: प्रकार किये गये हैं-१-कृष्ण लेश्या २-नीन लेश्या, ३-कापोत लेश्या, ४-तेजो लेश्या, ५-पद्म लेश्या, ६- शुक्ल लेश्या । - धमध्यान चकि शभ ध्यान के अन्तगत आता है इसलिए इसमें शुभ लेश्या ही होती है । इन शभ लेश्याओं में पीत अर्थात् तेजो लेश्या, पदम लेश्या एवं शक्ल लेश्या आती हैं । ये तीनों लेश्यायें जीव में क्रम से विशुद्धि को प्राप्त होकर आती हैं। * क्योंकि तेजस् लेश्या से पद्म लेश्या शुद्ध होती है और पदम लेश्या से शबल लेश्या विशद्ध होती है। हर एक लेश्या के परिणाम भी मद, मध्यम और तीव्र होते हैं । धर्मध्यान मे ये लेश्यायें मन्द से मध्यम रूप तक ही होती हैं। + लेशयति-श्लेषयतिवात्मनि जननय नानीति लेश्या-अतीव चक्षरापेक्षिका स्निग्धदीप्त रूपा छाया । [उत्तराध्ययन वहद्वत्ति,
पत्र ६५०) D(क) लेश्या द्विविधा द्रव्य लेश्या भावलेश्या चेति। (सर्वार्थसिद्धि
(ख) राजवार्तिक २/६/८/१०६/२२
(ग) धवला २/१/१/४१६/८ - (क) सा षड्विधा कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या. तेजो
लेश्या, पद्म लेश्या, शुक्ल लेश्या चेति । (सर्वार्थसिद्धि
२/६/१५६१२) (ख) द्रव्य संग्रह, टीका १३/३८ * ध्यानशतक ६६, आदिपुराण २१/१५५-५६