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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (७८
१- अनुवीचि-मितावग्रह-याचन:
साधु को भली प्रकार विचार करके ही वस्तु या स्थान के स्वामी से वस्तु की याचना करनी चाहिये । अर्थात् पहले उसको अच्छी प्रकार से सोच समझ लेना चाहिये कि मैं जिससे वस्तु की याचना कर रहा हूँ वह उस वस्तु को देने की हैसियत रखता हैं या नहीं तभी उसको वस्तु मांगनी चाहिये । तत्वार्थसूत्र के अनुसार इस भावना का नाम अनुवीचि भाषण है। २- अनुज्ञापित पान-भोजन
अर्थात योगी को कोई भी वस्तु गुरु को दिखाये बिना नहीं सेवन करनी चाहिये। जब तक गुरु उस वस्तु को सेवन करने की अनमति न दें तब किसी भी वस्तु को पान करना निषेध है। योगी को गुरुजनों की सेवा, रोगी, वृद्ध, तपस्वी आदि की सेवा करनी चाहिये इनकी सेवा विमुख नहीं होना चाहिए वरना उसे जी चुराने के कारण च र क. पाप लगता है। ३-अवग्रह का अवधारण
योगी का स्थान, आहार, उपकरण या अन्य सामग्री आदि को किसी से ग्रहण करते समय अपनी मर्यादा में रहना चाहिये। मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये क्योंकि जब तक वह मर्यादित आचरण नहीं करेगा तब वह योगी की उपाधि प्राप्त नहीं कर सकता। मर्यादा के साथ-साथ उसे अधिक वस्तु को भी ग्रहण नहीं करना चाहिए ४-- अतिमात्र और प्रणीत पान भोजन का वर्जन
योगी को अपनी मयादा से अधिक बार-बार ग्रहण करके अत्यधिक मात्रा में भोजन नहीं करना चाहिये अपितु जितना उसके लिए भोजन का अंश स्वीकृत है उतना ही भोजन ग्रहण करना चाहिये। ५- साधामिक अवग्रह याचन
योगी को सांभोगिक साधुओं से आवश्यकता होने पर पात्र, उपकरण, वसति आदि की याचना करनी जाहिये और मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये।।
तत्वार्थ सूत्र के अनुसार अचौर्यप्रत की पांच · भावनायें