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(.७७ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
वाला हो । (५) हास्य प्रत्याख्यानः- हँसी मजाक में भी मुंह से झूठ निकल जाने को सम्भावना रहती है। अतः साधू को कभी भी भावावेश में आकर नहीं बोलना चाहिये। साधु को मित भाषी होना चाहिये और नोकषाय के उदय में भाषण का त्याग करके मौन धारण करना चाहिये।
महर्षि पतञ्जलि ने कहा है सत्य में दृढ़ स्थिति हो जाने पर साधक की वाणी सत्य क्रिया-अर्थात् शाप, वरदान, आशीर्वाद देने में पूर्ण सक्षम हो जाती है ।+ अचौर्य-महाग्रत
इसका आगमोक्त नाम 'सव्वाओ अदिन्नादाणाओ विरमण'- सर्व अदत्तादानविरमण' है ।
'बिना दिये हए किसी भी अनिवार्य आवश्यकता की वस्तु को न लेना' यह इस महाव्रत का निषेधात्मक रूप है। इसका विधेयात्मक रूप फलित होता है कि श्रमणयोगी को अपने लिए आहार-पानी आदि सभी अनिवार्य आवश्यकता की वस्तुयें उन वस्तुओं के स्वामी के स्वामी के द्वारा सहर्ष दिये जाने पर ही ग्रहण करनी चाहिए । क्योंकि चोरी करने वाले पुरुष के गुण को कोई भी नहीं गाता है तथा शास्त्र पढ़ना आदि विद्यायें विपरोत हो जाती है और अकोति का टोका ललाट पर लग जाता है।
अचौयं महाव्रत को स्थिरता प्रदान करने वालो पाँच भावनायें
+ सत्य प्रतिष्ठायां क्रिया फलाश्रयत्वम् । (योगदर्शन २/३६) र गुणा गौणत्वमायान्ति यान्ति विद्या विडम्बनाम् । चौर्येणाकीर्तयः पुंसां शिरस्यादधते पदम् ।। ज्ञानार्णव सर्ग १०, श्लोक ४ - (क) आचाराड्.ग २।३।१५।४०३ [ख) महापुराण २०११६३ (ग) भगवती आराधना १२०८-१२०६