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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (७६) जीवों का इष्ट हित करने वाला हो, वह असत्य हो तो भी सत्य है और जो वचन पापसहित हिंसारूप कार्य को पुष्ट करता है, वह सत्य होकर भी असत्य और निन्दनीय है। असत्य अकेला ही समस्त पापों के बराबर है। योगी सत्य तथ्य को प्रगट करता है और सदा हितमित-प्रिय वचन बोलता है।
सत्यव्रत में स्थिर रहने की पाँच भावनायें हैं....(१) अनुवीचि भाषण
निर्दोष, मधुर और हितकर वचन बोलना, कटु सत्य न बोलना तथा शीघ्रता और चपलता से बिना विचार किये न बोलना अनुवीचि भावना का लक्षण है। (२) क्रोध प्रत्याख्यान
क्रोध के आवेश में न बोलना क्योंकि क्रोध की तीव्रता में मुह से कठोर वचन निकल जाते हैं जिससे सुनने वाले का दिल दुःखी होता है। दुवंचन का दाह मिटाना कठिन होता है । (३) लोभ प्रत्याख्यान
लोभ के वशीभूत होकर भी झूठ बोला जाता है । पुत्र, स्वजन स्त्री. धन और मित्रों के लिए अपने लिए प्राण जाने पर भी असत्य वचन नहीं बोलना चाहिये। अतः लोभ के उदय में साधु को नहीं बोलना चाहिये। (४) भय प्रत्याख्यान__ मिथ्या भाषण का भय भी एक प्रमुख कारण है, अतः साधु के सामने जब भय का कारण उपस्थित हो तब उसे भाषण का त्याग करके मौन धारण कर लेना चाहिये। लेकिन दूसरी ओर भाषण की आवश्यकता होने पर वचन कहना ही पड़े तो ऐसा वचन कहना चाहिये जो सबका प्यारा हो, सत्य और समस्त जनों का हित करने .... आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्ययन १५ सत्र ७८०.८१, ८२ - (ख) क्रोध लोभ भीरुत्वहास्य प्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणे च पञ्च ।
तत्वार्थ सूत्र ७/५ x ज्ञानार्णव सर्ग ६, श्लोक ४०