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(७६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
निम्नलिखित हैं।+ १- शून्यागारावास
पर्वत की गुफा, वृक्ष के कोटर आदि में निवास करना शून्यागारावास है। निवास स्थान दो प्रकार के होते हैं-एक तो प्राकृतिकजैसे-पर्वतों की गुफा आदि और दूसरे प्रकार के वे जो बनवाये जाते
२- विमोचितावास
जिस आव स का दूसरों ने त्याग कर दिया हो तथा जो बिना दरवाजों का हो उसमें निवास करना विमोचितावास कहलाता है। ऐसे निवास स्थान जिन्हें किसी ने बनवा दिये हों, लेकिन बाद में छोड़कर चले गये हों ऐसे स्थानों को जो साधु उपयोग में लाते हैं उससे अचौर्य महानत की रक्षा होती है। ३- परोपरोधाकरण
जिस स्थान पर साधु ठहर गया हो और वहाँ ध्यान लगाता है लेकिन जब दूसरा साधु वहाँ आता है तो वह उसे रोकता है ऐसा करने से उसकी निजत्व की कल्पना होने से उस पर चोरी का दोष लगता है। ४- भक्ष्यशुद्धि
भिक्षा के जो उचित नियम बनाये गये हैं उनको यथोचित रूप से ध्यान में रखकर ही भिक्षा लेने के लिए कहा गया है जो इन नियमों का पालन नहीं करता उसको तृष्णा की वृद्धि होती है तथा चोरी का आरोप लगता है। ५- सधर्माविसंषाद
पीछी और कमण्डलु ये शुद्धि के तथा शास्त्र यह ज्ञानार्जन के उपकरण है। साधु इनका स्वामी होता है, फिर भी यह कहने से कि यह मेरा कमण्डलु है यह मेरा पीछी है तुम इसे ले नहीं सकते। + शून्यागारविमोचितावास परोपरोधाकरण भैक्षशुद्धि सधर्माविसंवादाः
पञ्च । (तत्वार्थसूत्र ७/६) (ख) चारित्तपाहुड ३३