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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (१०४)
का है।.... जबकि योगशास्त्र में प्राणायाम के चार प्रकार बतलाये गये हैं १- प्रत्याहार, २- शान्त, ३- उत्तर एवं ४- अधर IX पूरक में साधक वायु को.अन्दर खीचता है। कुम्भक में वायु को अन्दर किसी एक स्थान पर जैसे नाभि हृदय आदि पर रोकता है और रेचक में बाहर निकाल देता है।
इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ध्यान की सिद्धि के लिए प्राणायाम अपेक्षित हैं इससे साधक का शरीर एवं मन शुद्ध होता है एवं उसमें अपने विचारों से दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता आती है उसके व्यक्तित्व में चुम्बकीय शक्ति का विकास होता है और तैजस शरीर का आभामण्डल शक्तिशाली बनता है, वह इतना सक्षम हो जाता है कि अपने ज्ञान नेत्र से दूसरों के सूक्ष्म शरीर को देख सकता है एवं उसके विचारों को जान सकता है, उसे भूत भविष्य की जानकारी भी रहती है । इतनी विशेषताओं के साथ-साथ जैन मतानुसार इससे मानसिक अवरोध उत्पन्न होता है इस कारण इसे विशेष महत्व से वंचित रखा जाता है, यद्यपि प्राणायाम के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विवेचन विश्लेषण आदि जैन योग ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । ध्यान व समत्व:
मानव के जीवन में समता और विषमता का गहरा प्रभाव पड़ता है। जब शरीर सम अवस्था में रहता हैं तो शरीर के प्रत्येक अंग अर्थात् सम्पूर्ण स्नायु-संस्थान ठीक से काम करते हैं और वह स्वस्थ एवं निरोग रहता है लेकिन जब शरीर विषम स्थिति में रहता है तो उसके शरीर की सारी क्रियायें अनवस्थित हो जाती हैं और वह सुस्त, रोगी और लाचार हो जाता हैं । इसलिए शरीर को हमेशा सम स्थिति में रखना चाहिए क्योंकि मन पर समता का बहत गहरा असर पड़ता है और मन का असर चेतना पर पड़ता है । .... त्रिधा लक्षणभेदेन सस्मृतः पूर्वसूरभिः ।
पूरकः कुम्भकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम् ॥ (ज्ञानार्णव २६/३) x प्रत्याहारस्तथा शान्त उत्तराश्चाधरस्तथा। एभिर्भेदश्चतुभिस्तु सप्तधा कीर्यंते परैः ।। (योगशास्त्र ५/५)