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________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१०३) प्रणायाम के चार प्रकार बतलाये हैं- १- बाहृयवृत्तिक, २-आभ्यंतर वत्तिक, ३-स्तम्भवत्तिक,४-बाहयान्तर विषयाक्षेपि । =जबकि शिव संहिता में प्राणायाम के तीन प्रकार बतलायें हैं -१-पूरक, २-कुम्भक ३- रेचक IA बौद्ध दर्शन में प्राणायाम को आनापानस्मति कर्मस्थान कहा गया है। आन का अर्थ है साँस लेना और अपान का अर्थ है साँस छोड़ना, इन्हें श्वास प्रश्वास भी कहा जाता है ।* जैन परम्परा में प्राणायाम के सम्बन्ध में दो मत हैं, एक तो प्राणायाम को ध्यान की सिद्धि के लिए एवं मन को एकाग्र करने के लिए प्रशंसनीय कहते हैं, तो दूसरे इसे आवश्यक नहीं मानते हैं, उनके मतानुसार प्राणायाम से मन व्याकुल होता है और मानसिक व्याकुलता से समाधि भग होती है और जहाँ समाधि भंग हो जाती है वहाँ ध्यान नहीं हो सकता। समाधि के लिए श्वास को मन्द करना जरूरी होता हैं जबकि मन एवं श्वास में गहरा सम्बन्ध होता है जहाँ मन है वहाँ श्वास है और जहाँ श्वास है वहीं मन है ये दोनों नीर और क्षीर का भाँति मिले हुए रहते हैं।.... पूरक, कुम्भक एवं रेचक करने में परिश्रम करना पड़ता है जिससे मन को क्लेश की प्राप्ति होती है ।→ वायू का नाम है प्राण तथा इस प्राण को विस्तार करने को आयाम कहते है इस प्रकार दोनों प्रकार के श्वासों को बाहर निकालने या भीतर ले जाने की क्रिया को प्राणायाम कहते हैं। ये तीन प्रकार का है। यह मत आचार्य शुभचन्द्र जी = योगदर्शन २/५०-५१ A शिवसंहिता ३/२२-२३ * बौद्धधर्म दर्शन पृ० ८१ x महापुराण २१/६५-६६ ... मनोयत्र मरुत्तत्र, मरुद् यत्र मनस्ततः । अतस्तुल्यक्रियावेतो, संवीतौ क्षीरनीरवत् ॥ (योगशास्त्र ५/२) → पूरणे कुम्भने चैव रेचने च परिश्रमः । चित्त संक्लेश-करणान्मुक्तेः प्रत्यूह कारणम् ॥ [योगशास्त्र
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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