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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (१०२)
उन्होने ध्याता की इच्छा पर ही छोड़ दिया हैं। ध्यान के लिए सुखासन हो इसे तो सभा विद्वानों ने एकमत से स्वीकार किया है लेकिन कठोर आसन को सभी ने नकारा है कोई भी एकमत नहीं है। ध्यान और प्राणायाम
प्राणायाम को पूर्वाचार्यों ने योगसाधना के लिए अति आवश्यक बतलाया है। प्राणायाम की साधना से साधक को अनेक प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक लाभ की प्राप्ति होती है, चामत्कारिक सिद्धियाँ एवं लब्धियों की प्राप्ति होती है। प्राणायाम से साधक का वचनबल मनोवल एवं कायबल बढ़ता है एवं उसकी अन्तष्टि का विकास होता है। इसके द्वारा साधक अपने मन को नियन्त्रित कर लेता है, मन का नियन्त्रण आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक है। श्वास प्रश्वास की स्वाभाविक गति के अभाव को ही प्राणायाम कहते हैं यह प्राणायाम पवन का साधना है । ऐतरेयोपनिषद में प्राण एवं अपान का वर्णन मिलता है ।* उपनिषदों में तो इस शब्द के विभिन्न संदर्भो पर प्रकाश डाला गया हैं । A गीता के अनुसार प्राण वायु को अपानवायु में और अपानवायु को प्राणवायु में ले जाना और इन दोनों की गति को रोकना ही प्राणायाम है।+ पतञ्जलि ने भी इन शब्दों का समर्थन किया है एवं आसन स्थिर होने पर श्वास-प्रश्वास की गति को रोकने की क्रिया को प्राणायाम कहा है। इन्होंने X ऐतरेयोपनिषद् ३ A (क) अमृतनादोपनिषद ६-१४ (ख) त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद ०४-१२६ (ग) योगकुण्डल्युपनिषद् १६-३६ (घ) योगचूडामणि ६५-१२१ । (ङ) योगशिखोपनिषद् ८६-१०० + अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। प्राणापानगती रूद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥ (श्रीमद्भगवद्गीता ४/२६) तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोगति विच्छेदः प्राणायामः । (योगदर्शन २/४६)
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