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धर्मध्यान का स्वरूप (१४३)
विचिकित्सा :
युक्ति और आगम से संगत क्रिया में भी रोग की चिकित्सा की तरह फल की शंका करना। प्रशंसा :
सर्वज्ञ एवं व्रतधारी और तत्वज्ञ की स्तुति न करके किसी दूसरे पाखण्डी की प्रशंसा करना । संस्तव :
मिथ्यादृष्टियों से मिलना-जुलना एवं उनका परिचय ये सब त्याज्य हैं क्योंकि अज्ञानी जीवों के साथ रहने से उनमें रुचि उत्पन्न हो जाती है। ३-चरित्र भावना :
समता का अभ्यास अर्थात चारित्र के अभ्यास को चारित्र भावना कहते हैं।+ लोक और जीवों के द्वारा प्रशंसनीय बर्ताव जिस प्रकार के क्षयोपशन से होता है वह चारित्र कहलाता है । इस भावना के रहने से जीव को अर्थात साधक को तीन प्रकार के फल स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं । १-नवीन कर्मों के ग्रहण का अभाव, २-पूर्व संचित कर्मों का निर्जरा, ३-शुभ कर्मों का ग्रहण और ध्यान । जबकि आदिपुराण में चारित्र भावना के नौ प्रकार बतलाये गये हैं । पांच समितियाँ, तीन गुप्तियां और कष्ट सहिष्णुता। पांच समितियां-१-ईर्या समिति, २-भाषा समिति, ३-एषणा समिति, ४-आदान निक्षेपण समिति, ५-व्युत्सगं समिति और मनोगुप्ति, वचन गुप्ति एवं कायगुप्ति ये तीन प्रकार की गुप्तियाँ हैं।
+ नवकम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभायाणं ।। चारित्त भावणाए झाणमयत्तेण य समेहः ॥ (ध्यान शतक
आदिपुराण २१/६७