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(१४४) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
४-वैराग्य भावना :___जगत् के स्वभाव का यथार्थ दर्शन करके विषयासक्ति से रहित होना एवं भय और आकांक्षा से मुक्त होना ही वैराग्य भावना है । अर्थात् जो प्राणी चराचर जगत के स्वभाव को अच्छी तरह से जान लेता है उसके अन्तःकरण में वैराग्य की भावना प्रस्फुटित हो जाती है । + वैराग्य भावना के तीन प्रकार कहे गये हैं-१-विषयों में अनासक्ति, २-काव्यतत्व का अनुचिन्तन एवं ३-जगत् के स्वभाव का विवेचन। २-ध्यान के लिए देश या स्थान :
__ध्यान के लिए एकान्त स्थान अधिकतर माना गया है, वह स्थान निर्जन होना चाहिये क्योंकि इससे उसके सामने इन्द्रियों के विषय नहीं आते हैं और साधक का मन भी विचलित नहीं होता है इसलिये मुनियों के लिए एकान्त स्थान ही सामान्य कहा गया है किन्तु कभीकभी यह देखने को मिलता है कि एकान्त वास में उसका चित्त एकाग्र नहीं हो पाता इसलिए जरूरी नहीं है कि ध्यान के लिए एकान्त स्थान ही हो। भगवान महावीर ने कहा है कि साधना गांव में भी हो सकती है और वन में भी, इसके लिए भाव का होना आवश्यक है। - वैसे जो स्थान स्त्रियों, पशुओं, नपुसक जीवों एवं क्षद्र मनष्यों से से वित हो, वह स्थान सर्वथा त्याज्य माना गया है। ... ऐसा स्थान जहाँ दुष्ट राजा, पाखंडी लोग, मद्यपानी, जुआरी आदि लोग रहते हों वह स्थान कभी भी ध्यान के लिए उपयुक्त नहीं माना गया है। + सुविदियजगस्सभावो निस्सगो निभओ निरासो य।
वैरग्गभावियमणो झाणमि सुनिच्चलो होइ ।। [ध्यानशतक ३४]
महापुराण पर्व २१/७०-८०. -गामे वा अदुवा रणे, णेव गामे व रणे धम्ममायाणह (आचाराङग
१/८/१/१४) (क) स्त्रीपशुक्लीवसंसक्तरहित विजनं मुनेः।
सवदेवोचित स्थानं ध्य नकाले विशेषत: ।। (आर्ष,२१-७७) (ख) ध्यानशतक ३५ (ग) तत्वानुशासन ६०-६१ A ज्ञानार्णव २७/२३-२६