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धर्मध्यान का स्वरूप (१४५) वैसे ध्यान के लिए विशेष रूप से कोई प्रदेश की ऐकान्तिक मर्यादा नहीं है, धीर व्यक्ति निर्जन एवं जनयुक्त दोनों ही स्थानों में ध्यान कर सकता है उसके लिए देश या स्थान की महत्ता कुछ नहीं होती बस जहां मन, वाणी और शरीर को समाधान मिले वही स्थान ध्यान के लिए सर्वोत्तम माना गया है। ३-काल :
ध्यान की सिद्धि के लिए सामान्यतः किसी काल तथा अवस्था का कोई नियम नहीं है जिस काल में ध्यान की निर्विघ्न मिद्धि हो वही काल सर्वोत्तम है। यह ध्यानसर्वकालिक है जब भी भावना हो तभी किया जा सकता है।- जब भी मन का समाधान हो इसके लिए रात या दिन किसी भी विशेष समय का उपदेश नहीं है। ४-आसन :
ध्यान के लिए जो आसन शरीर के लिए सुलभ हो वही उपयुक्त माना गया है जिस आसन से शरीर को कष्ट न हो। खड़े, बैठे और सोते तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है। * वैसे कायोत्सर्ग, पदमासन और वीरासन आदि ध्यान के लिए योग्य माने गये हैं। A ध्यान किसी ऊचे आसनादि पर बैठकर नहीं करना चाहिये उसके लिए 'भूतल" और "शिलापट्ट" ये दोनों उपयुक्त माने गये हैं - + थिर-कय जागाण पूण मूणीण झाणे सूनिच्चलमणाणं ।। गामंमि जणाइण्णे सुण्णे रणे व ण विसे सो।। (ध्यानशतक ३६) कालो वि सोच्चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहई। न उ दिवसनिसावेलाइ नियमणं झाइणो भणियं ।। (ध्यानशतक ३८) -न चाहोरात्र सन्ध्यादि-लक्षण: कालपर्ययः ।। नियतोडस्यास्ति दिध्यासोः तद्ध्यानं सार्वकालिकम् ।। (महापुराण २१/८१) *वही २१/७५ A ध्यानशतक ३६ -> भूतले वा शिलापट्ट सुखाऽऽसीनः स्थितोऽथवा ।
सममृज्वायत गात्रं निःकम्पाऽवयवं दधत् ।। (तत्त्वानुशासन ६२) सममृज्वायतं विद्गात्रमस्तब्धवृत्तिकम् । (आर्ष २१/६०)