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(१४६ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
५-आलम्बन :
जिस प्रकार मजबूत रस्सी का सहारा लेकर व्यक्ति दुर्गम से दुर्गम स्थान पर पहुच जाता है या कुएं में गिरने पर मजबूत रस्सी का सहारा लेकर ऊपर आ जाता है उसी प्रकार ध्याता भी ध्यान के आलम्बनों का सहारा लेकर श्रेष्ठ एवं उत्तम ध्यान की प्राप्ति कर लेता है। ये आलम्बन चार प्रकार के हैं-१-वाचना, २-प्रतिपृच्छना, ३-परिवर्तना, ४-अनुप्रेक्षा । ६-क्रम :
पहले स्थिर रहने का अभ्यास करना चाहिये और फिर मौन रहने का अभ्यास करना चाहिये। केवल ज्ञानी जब मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य के निकट आ जाते हैं तो वे पहले मनोयोग का निग्रह करते हैं उसके पश्चात् वचनयोग का निग्रह करके ही सूक्ष्म रूप से काययोग का निग्रह करते हैं । वैसे तो केवल ज्ञानियों को ध्यान की साधना नहीं करनी पड़ती किन्तु जब वे मोक्ष के अत्यन्त समीप में पहचते हैं तो उन्हें मोक्ष प्राप्ति के लिए योग का निरोध करना ही पड़ता है क्योंकि योग का निरोध किये बिना मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है। कर्म के बन्ध से जब तक वह मुक्त नहीं होवेगा तब तक उसका कमबोध चलता ही रहता है और कर्मों के बन्ध में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय के बाद योग मुख्य कारण होता है अतः योग का निरोध करना जरूरी हो जाता है । यह क्रिया भवकाल के अन्तर्गत आती है और दूसरे क्रम में जब केवल ज्ञानी मोक्ष के अति निकट पहचकर समस्त योगों का निरोध करने की क्रिया को करता है तो वह क्रिया शैलेशी क्रिया कहलाती है । इस प्रकार से ध्यान प्राप्ति के दो क्रम कहे गये हैं। X वैसे अपनी शक्ति के अनुसार ध्यान साधना के अनेक क्रम भी हो सकते हैं। * ध्यानशतक ४३, आदिपुराण २१/८८ x झाणप्पडिवत्तिकमो होइ मणोजोगनिग्गहाईओ। भवकाले केवलिगो सेसाण जहासमाहीए ।। (ध्यानशतक ४४)