________________
जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [१४२]
प्रशम :
क्रोध, मान, माया, लोभ का उदय न होना ही प्रशम है । अर्थात् उदय में आये हुए कषायों के भावों का शमन करना ही प्रशम है ।
संवेग :
मोक्ष की तीव्र अभिलाषा का उत्पन्न होना ही संवेग है अर्थात् मोक्ष सुख का और उसके लिए देव, गुरु, धर्म का ऐसा रंग हो कि जिससे सांसारिक रंग उतर जाये यह ही संवेग है ।
निर्वेद :
सांसरिक विषय भोगों के प्रति विरक्ति होना उनको हेय समझ कर उनकी उपेक्षा का भाव जगना उनके प्रति अभाव, ग्लानि, अनास्था के उत्पन्न होने को निर्वेद कहते हैं ।
अनुकम्पा :
बिना किसी भेदभाव के दुखी जोवों पर दया करके दुख को दूर करने की इच्छा या प्रयास करना अनुकम्पा है ।
आस्तिक्य :
सर्वज्ञकथित तत्वों में थोड़ी सी भी शंका न करके पूरी तरह से आस्था रखना, आत्मा एवं लोक सत्ता में पूर्ण रूप से विश्वास करना ही आस्तिक्य है ।
दर्शन
भावना के पांच
दोष भी हैं, ये इस प्रकार
--
शंका :
जिन वचन पर विश्वास न करके शंका करना
काँक्षा :
बौद्ध आदि अन्य मतों की आकांक्षा या अभिलाषाः