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________________ धर्म ध्यान का स्वरूप ( १४१ ) १- ज्ञान भावना : ज्ञान का अभ्यास करना ही ज्ञान भावना है । इसके आश्रय से साधक का मन अशुभ कार्यो को छोड़कर शुभ कार्यों में लगता है, और वह तत्व क्या है और अतत्व क्या है इस रहस्य को जान लेने पर स्थिर बुद्धि वाला होकर ध्यान को करने में लग जाता है । + ज्ञान में मन का लीन हो जाना ही ज्ञान भावना है। ज्ञान भावना के पांच प्रकार बतलाये गये हैं १ - वाचना, २- पृच्छना, ३-अनुप्रेक्षण, ४- परिवर्तन, ५ - सद्धमंदेशन । ध्यानशतककार ने इन पांचों प्रकारों को धर्म ध्यान के आलम्बन के रूप में स्वीकार किया है । - २- दर्शन भावना : मानसिक मूढ़ता के निरसन का अभ्यास करना ही दर्शन भावना है । इसमें आत्मा सम्यग्दर्शन से ऐसा भावित हो जाता है कि यदि वैसा न हो तो उसके विपरीत दोषों के कारण ध्यान असम्भव हो जाता है ऐसा इन गुणों के कारण स्थिर रूप से ध्यान करता है। दर्शन भावना के पाँच गुण और पांच दोष कहे गये हैं। .... पाँच गुण इस प्रकार हैं-१- प्रशम, २ - संवेग, ३ - निर्वेद, ४- अनुकम्पा, ५- आस्तिक्य | पांच दोष इस प्रकार हैं १ - शंका, I २- कांक्षा, ३ - विचिकित्सा, ४ - प्रशंसा, ५ - सस्तव जबकि आदिपुराण में दर्शन भावना के सात प्रकार १हे गये हैं I X + झाणेणिच्चभासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धिं च । गाणगुण मुणियासारो सोझाइ सुनिच्चलमई ओ ॥ [ ध्यानशतक ३१] आदिपुराण २१ / ९६ ध्यानशतक ४२ वही ३२ ... X संवेग, प्रशम, स्थैर्य, अमूढ़ता, अगवंता, आस्तिक्य एवं अनुकम्पा ये सात प्रकार हैं । [आदिपुराण २१ / ६६-६६ ]
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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