________________
जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१४०) धर्मध्यान की मर्यादायें :___ ध्यान करने की कुछ मर्यादायें हैं उन्हें समझ लेने पर ही ध्यान प्राप्त होता है। अधिकतर सभी ध्यान शास्त्रों में कहीं कम तो कहीं ज्यादा रूप से उसकी चर्चा की गई है । ध्यान शतक में ध्यान से सम्बन्धित बारह विषयों पर विचार करने के लिए एवं उनका अभ्यास करने के लिए कहा गया है । वे बारह विचार इस प्रकार से हैं-१-भावना, २-देश, ३-काल, ४-आसन विशेष, ५-आलम्बन, ६-क्रम, ७-ध्यातव्य, ८-ध्याता, ६-अनुप्रेक्षा, १०-लेश्या, ११-लिड्.ग, १२-फल IX
आदिपुराण में भी इन्हीं विचारों को प्ररूपित किया है।+ इन बारह द्वारों से धर्म ध्यान का अच्छा परिचय प्राप्त करके उसकी भावना आदि का अच्छा अभ्यास करना चाहिये। १-भावना :
ध्यान से पूर्व जो भावना अर्थात् अभ्यास के साधन का अच्छी तरह से विचार कर लेता है वह साधक धर्मध्यान की योग्यता को प्राप्त कर लेता है । इसके लिए चार भावनायें कही गयी हैं ।* १-ज्ञान भावना, २-दर्शन भावना, ३-चारित्र भावना, ४-वैराग्य भावना । x झाणस्स भावणाओ देसं कालं तहासणविसेसे ।
आलेवणं कमं झाइयवयं जे य झायारो।। तत्तोऽणुप्पेहाओ लेस्सा लिंगं फलं य नाऊणं । धम्मं झाइज्ज मुणी तग्गयजोगो तओ सुक्क । (ध्यानशतक २८, २९) + आदिपुराण २१/५४ * (क) ध्यानशतक ३० (ख) आदिपुराण २१/६५ भावनाभिरसंमूढो मुनिनिस्थिरीभवेत् । ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वैराग्योपगताश्च ताः । २१/६५