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धर्मध्याम का स्वरूप [१३६] जो साधक इस भावना का अभ्यास करता है वह प्रतिकल स्थिति आने पर भी समभाव से यही सोचता है कि दुख और सुख एक सिक्के के दो पहलू हैं इनमें से कभी सुख आता है और कभी दुख । सुख आने पर अत्यधिक हर्ष नहीं करता और दुःख के आगमन पर विषाद भी नहीं करता। माध्यस्थ भावना द्विमुखी है-यह राग और द्वष दोनों पर ही विजय प्राप्त करती है । दोनों ही परिस्थितियों में समभाव से रहने वाले साधक सदैव सुखी रहते हैं । जो मनुष्य सुख आने पर भावों में आसक्त हो जाता है और प्रतिकूल परिस्थितियों के आने पर द्वेष भाव से युक्त हो जाता है वह अज्ञानी पुरुष हमेशा दुखी रहता है।*
वह यही सोचता है कि ये सांसारिक सुख और दुःख की परिस्थितियां न तो शाश्वत हैं और न ही स्थिर, ये सब संसार तो परिवर्तनशील है, इसलिए राग द्वेष की भावना करना व्यर्थ है और उसके (साधक) इन्हों विचारों से वह समभाव की स्थिति में पहुंच जाता है । जहां उसे न तो शोक होता है और न हर्ष, वह इन सबसे परे पहुँच जाता है । जहां उसे न तो कषायों कीकलुषता रहती है न ही राग द्वेष की ज्वाला जलती है वह तो इन्द्रियों पर भी विजय प्राप्त कर लेता है। यह माध्यस्थ भावना समत्व योग की अन्तिम परिणति है। लक्ष्य बिन्दु है। ___इन मैत्री आदि चारों भावनाओं से साधक वीतरागता को प्राप्त करता है। उसके आत्मिक भावों की उन्नति होती है और एक दिन वह आत्मोन्नति के शिखर पर पहुँच जाता है यही मानव का चरम लक्ष्य है जो वह प्राप्त कर लेता है, और उसके विशुद्ध ध्यान का क्रम जो विच्छिन्न होता है वह पुनः सध जाता है + * एगन्तरत्ते रुइरंसि भावे, अतालिसे सो कुण पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ दाले, न लिप्पइ तेण मुणी विरागो।। (उत्तराध्ययन ३२]६१) + [क] आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः ।
त्रुटितामपि संधत्ते, विशुद्धध्यानसन्ततिम् ।। [योगशास्त्र ४/१२२] [ख] आभिर्यदानिशं विश्वं भावयत्यखिलं वशी।
तदौदासीन्यमापन्नश्चरत्यत्रैव मुक्तवत् । (ज्ञानार्णव २७/१६)