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________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१३८) अर्थात् जो साधक कारुण्य भावना का अन चिन्तन करता है वह न तो स्वयं कभी भयभीत रहता है और न ही कभी किसी को भयभीत करता है । अपितु वह भय से आक्रान्त एवं दुखी प्राणियों के प्रति प्रेम रखता है और चाहता हैं कि सभी सुखी रहें, सब के दुखों का अन्त हो जायेसर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत् ।। कारुण्य भावना का बार-बार अभ्यास करने से साधक का हृदय दया से परिपूर्ण हो जाता है, उसके हृदय में करुणा एवं वात्सल्य का सागर उमड़ने लगता है । वह "स्व" एव "पर" दोनों प्रकार की दया से परिपूर्ण व्यवहार करता हुआ उनका पालन करता है। "स्व" अर्थात् अपनी आत्मा को पीड़ित नहीं करता है, “पर” अर्थात वह कभी भी दूसरों को कष्ट नहीं देता । यह भावना समता योग का हृदय कहलाती है, अर्थात जो स्थान शरीर में हृदय का होता है, वही स्थान समता योग में कारुण्य भावना का है । जिस साधक का चित्त निर्मल एवं हृदय कोमल होता है जो किसी दूसरे का दुख न देख सके, उसी को समता योग की साधना की सिद्धि प्राप्त होती है कठोर हृदय वाला इसकी साधना नहीं कर सकता। यह अध्वात्म योग का लक्ष्य है। माध्यस्थ भावना : समझाने-बुझाने पर भी सामने वाला व्यक्ति देष का त्याग न करे, उस स्थिति में उत्तेजित न होना, किन्तु योग्यता की विचित्रता का चिन्तन करता है वही माध्यस्थ भावना है।+ माध्यस्थ भावना का दूसरा नाम उपेक्षा वृत्ति है । राग द्वेष को न करना, सुख दुख की प्रतिकूल स्थितियों में भी समान रूप से रहना सदैव उपेक्षावृत्ति एवं माध्यस्थ भावना में रमण करना ये ही इस भावना के चिन्ह हैं । + उत्तराध्ययन १३/२३ ज्ञानार्णव २७/१४
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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