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धर्मध्यान का स्वरूप (१३७)
ऐसी भावनायें बलवती हो जाती हैं । उसका अहिंसा भाव परिपुष्ट हो जाता है वह सभी जीवों के हित में अपना चित्त लगाये रखता है। वह सभी की कल्याण कामना करता हुआ सभी का मंगल करता है। वह हमेशा यही विचार करता रहता है कि सारे संसार के जीव मेरे अपने हैं इन सब ने मेरे ऊपर बहुत उपकार किये हैं । इस प्रकार की भावना से उसका मैत्री भाव बढ़ता है । उसके इस स्वभाव का प्रभाव अन्य लोगों पर भी पड़ता है और वे भी शत्रुता को छोड़कर साधक बन जाते हैं । इस भावना का विषय प्राणीमात्र है । वह समता योगी बन जाता है ।
प्रमोद भावना :
आध्यात्मिक उन्नति और अध्यात्म योग की साधना के लिए साधक को गुण ग्रहण करने चाहिये । साधक गुणों को तभी ग्रहण कर सकता है जब वह गुणवान व्यक्तियों के प्रति प्रेम भाव रखे और उनका सम्मान करे । प्रमोद मावना की साधना के द्वारा व्यक्ति ( साधक) अपनी गुण को ग्रहण करने की शक्ति को उन्नत करता है। गुणी लोगों के सम्पर्क में आने से एवं उनसे प्रेम करने व उनका सम्मान करने से उसके अन्दर भी सभी सद्गुण आ जाते हैं उसकी इसी विनम्रतापूर्ण भावना से उसके सद्गुणों का विकास होता है कितुम्हारा आर्जव आश्चयंकारी है और आश्चर्यकारी है तुम्हारा मार्दव । उत्तम है तुम्हारी क्षमा और मुक्ति । इस प्रमोद भावना को समता योग का नेत्र कहा गया है । जैसे नेत्र सुन्दर, असुन्दर सभी चीजों को देखता है किन्तु सुन्दर वस्तुओं के प्रति ही आकर्षित होता है उसी प्रकार से गुणी व्यक्ति सद्गुणों को ही ग्रहण करता है । यह गुण ग्रहण करना ही प्रमोद भावना कहलाता है ।
कारुण्य भावना :
बन्धन से मुक्त करने का प्रयत्न व चिन्तन करना ही कारुण्य भावना कहलाती है
+ (क) उत्तराध्ययन ६/५७
(ख) ज्ञानार्णव २७/११-१२ (क) उत्तराध्ययन १३ / १६ (ख) ज्ञानार्णव २७ / ८-१०