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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [१३६]
__ वहां कहा गया है कि प्राणीमात्र में मंत्री गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिशयमानों में करुणा की वृत्ति और अविनीत जनों पर माध्यस्थ भाव रखना चाहिये :
इन चारों भावनाओं का वर्णन पातञ्जल योगसूत्र में भी मिलता है।+ आचार्य हेमचन्द्र ने इन भावनाओं को ध्यान को पुष्ट करने वालो बतलाया है। उन्होंने कहा है कि मंत्री आदि भावनाओं से धर्मध्यान पुष्ट होता है। आचार्य अमितगति ने इन भावनाओं के सम्बन्ध में एक बहुत ही प्रसिद्ध एवं उत्तम श्लोक कहा है :सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, किलष्टेषु जीवेष कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्य भाव विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ।।
आचार्य हरिभद्र ने जो आठ दष्टियों का वर्णन किया है उनमें भी प्रथम दृष्टि का नाम “मित्रा" रखा है =
इन सबसे पता चलता है कि मैत्री आदि चारों भावनायें ध्यान (योग) से सम्बन्धित है । इनकी साधना साधक को समत्व ध्यान के समीप में पहुंचा देती है । इन चारों भावनाओं से धर्म ध्यान की वृद्धि होती है व उन्नति होती है और साधक के सभी रागद्वेष आदि से दूर हो जाते हैं। मैत्री भावना :
जिस साधक में मैत्री भावना होती है वह सभी जीवों को समान भा० से देखता है उन्हें अपनी आत्मा के समान जानता है। इस भावना के अभ्यास से उस साधक के हृदय में से ईर्ष्या शत्रता आदि सभी अशुभ भावनायें समाप्त ो जाती हैं और सब जीव मेरे मित्र हैं ... + मैत्री करुणांमुदितोपेक्षाणां सुख दुःख पुण्यापुण्य विषयाणां भावनात
श्चितप्रादनम् । (पातञ्जल योगसत्र, समाधिपाद, सूत्र ३३) D मैत्रो-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थानि नियोजयेत।।
धर्मध्यानमपस्क तधि तस्य रसायनम ।। योगशास्त्र ४/११] = मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा।।
नामानि योगदृष्टीनां लक्षण च दिबोधत ।। योगदृष्टि समुच्चय १३) ... उत्तराध्ययन ६/२
जीवन्तु जन्तवः सर्वे कलेशव्यसन वजितः । प्राप्नवन्तु सुखं त्यक्त्वा वैरं पापम् पराभवम् ॥ (ज्ञानार्णव २७/७)