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धर्मध्यान का स्वरूप (१३५) स्थाना.ग में पृच्छना के स्थान पर प्रतिप्रच्छना शब्द का प्रयोग किया गया है और परिवर्तन को परिवर्तना कहा गया है । वैसे उसमें भी ये चारों भेद ही निर्दिष्ट किये गये हैं। ध्यान शतक में वाचना, प्रश्न, परावर्तन और अनुचिन्ता तथा सामायिक आदि व सद्धर्मावश्यक आदि धर्म ध्यान के आलम्बन कहे गये हैं।+
वाचना - पढ़ना।। प्रतिप्रच्छना - शंका निवारण के लिए प्रश्न करना। परिवर्तना - पुनरावर्तन करना।
अनप्रेक्षा - अर्थ का चिन्तन करना। इस प्रकार ये चार प्रकार के मालम्बन धर्म ध्यान के हैं। धर्म ध्यान तथा मैत्री आदिक भावनायें :
धर्म ध्यान के लिए आगमों में चार प्रकार की भावनायें बतलायी गई हैं । वे इस प्रकार से हैं-१-मैत्री भावना , २-प्रमोद भावनाA, ३-कारुण्य भावना*, और ४-माध्यस्थ भावना ।.... ___आगमों के पश्चात् तत्वार्थ सूत्र में इसका उल्लेख मिलता है।
स्थानाड्.ग ४/२४७ + आलंबणाई वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुचिंताओ।
सामाइयाइयाइं सद्धम्मावस्सयाइं च ॥ (ध्यानशतक ४२) x (क) मित्ती मे सव्वभूएसु । (आवश्यक सूत्र ४) (ख) न विरुज्झेज्ज केणइ । (सूत्रकृताड्.ग १/१५/१३) (ग) मेत्तिं भूएसु कप्पए । (उत्तराध्ययन ६/२) A सुस्सूसमाणो उवासेज्जा सुप्पन्न सुतबस्सियं । (सूत्रकृताड्.ग १/६/३३) * सव्वेसि जीवियं पियं नाइवाएज्ज कंचणं । (आचाराड.ग १/२/३) ... (क) अणुक्कसे अप्पलीणे मज्झेण मुणि जावए । (सूत्रकृताड्.ग
१/१/४/२) (ख) उवेह एणं बहिया य लोगं । से सव्व लोगम्मि जे केइ बिण्णू ॥
__ आचाराड्ग १/४/३) : मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थानि च सत्व गुणाधिक किलश्यमानाविनयेषु । (तत्वासूर्थ व ७/११)