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________________ (१३४) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन २-लघुता : अनासक्ति और निर्लोभता को लघुता कहते हैं । ३-मार्दव : कुल, जाति, बल, रूप, विद्या, ऐश्वर्य, धनादि बातों पर अहंकार न करना ही मार्दव है। ४-उपदेश : "उप" अर्थात् किसी के पास जाकर "देश" अर्थात जिनमत का कथन करना ही उपदेश है । लेकिन स्थानाड.ग में धर्म ध्यान के अन्य चार लक्षण निर्दिष्ट हैं वहां-१-आज्ञा रुचि, २-निसगं रुचि, ३-सूत्र रुचि और ४- अवगाढ रुचि ये चार लक्षण कहे गये हैं .... और ज्ञानार्णव आदि में विषय लम्पटता का न होना, शरीर नीरोग होना, चित्त का प्रसन्न होना, आगम, उपदेश और जिनाज्ञा का अनुसरण करने वाला, विनयी, दानी, धर्म से प्रेम रखने वाला, सदाचारी, धम ध्यान के लक्षण कहे गये हैं।x धर्म ध्यान के आलम्बन : वाचना, पृच्छना, परिवर्तन एवं अनुप्रेक्षा ये ध्यान के चार आलम्बन कहे गये हैं ।* .... स्थानाड.ग ४/२४७ x (क) ज्ञानार्णव ४१/१५/१ (ख) मूलाचार प्रदीप २०४१ (ग) धवला १३/५,४, २६/५४-५५ (घ) आदिपुराण १५६-१६१/२१ * आलंबणं च वायणपुच्छण परिवट्टणाणुपेहाओ। धम्मस्स तेण अविरुद्धाओ सव्वाणुपेहाओ। (भवगती आराधना, विजयोदया टी० १७०५)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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